अग्नि के पश्चात् इन्द्र वैदिक काल का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं महत्वपूर्ण देवता है। हरित्वर्णी, हरित्केशी, हरित श्मश्रु वाला, सहस्राक्ष इन्द्र, कभी पञ्चमुख ऐरावत, कभी सप्तमुख उच्चैःश्रवा तथा कभी युगल हरित्वर्णी अश्वों से युक्त स्वर्ण रथ पर चलने वाला, सोमपान से प्रसन्न होने वाला, सामान्यतः वृष्टि का देवता माना जाने वाला देवराट् इन्द्र आर्य जाति का प्रारम्भिक युद्ध-देवता भी है और आर्यावर्त का स्वराट् भी। ऋग्वेद में इस देवता से सम्बन्धित लगभग ढाई सौ सूक्त हैं तथा अन्य सूक्तों में भी इसके स्तुति मन्त्र संकलित हैं। वैदिक काल में अदिति के पुत्रों में इस इन्द्र को जो महत्ता प्राप्त थी वह इसके सहोदर आदित्यों को नहीं!
लोक में आदित्य शब्द का अर्थ सूर्य है किन्तु यह रूढ़ि है। सूर्य भी आदित्य है किन्तु मात्र सूर्य ही आदित्य नहीं है। आदित्य द्वादश हैं, अदिति के द्वादश पुत्र! यद्यपि उनका ज्येष्ठ – कनिष्ठ क्रम निर्धारित करना कठिन है किन्तु धाता अथवा वरुण इनमें से ही कोई एक उनमें सबसे ज्येष्ठ है तथा विष्णु या विवस्वान् में से कोई एक सबसे कनिष्ठ। अदिति के वे द्वादश पुत्र, वे द्वादश आदित्य हैं — धाता, वरुण, अर्यमा, त्वष्टा, पूषा, इन्द्र, अंश, भग, पर्जन्य, मित्र, विवस्वान् तथा विष्णु। विष्णु पुराण दशम अध्याय में वर्ष के द्वादश मासों के अलग-अलग सप्ताधिकारियों आदित्य, अप्सरा, ऋषि, सर्प, यक्ष, राक्षस, तथा गन्धर्व का वर्णन है जिसके क्रम में चैत्र मास का आदित्य धाता, वैशाख का आदित्य अर्यमा, ज्येष्ठ का आदित्य मित्र, आषाढ़ का वरुण, श्रावण का इन्द्र, भाद्रपद का विवस्वान्, आश्विन का पूषा, कार्तिक का पर्जन्य, मार्गशीर्ष का अंश, पौष का भग, माघ मास का आदित्य त्वष्टा तथा फाल्गुन का आदित्य विष्णु है। किन्तु ऋग्वेद अदिति के आठ पुत्रों का ही संकेत करता है — अष्टौ पुत्रासो अदितेर्ये जातास्तन्वस्परि ॥ देवाँ उपप्रैत् सप्तभिः परा मार्ताण्डमास्यत् ।
अदिति के आठ पुत्र हुए जिसमें से सात को ले कर वह स्वर्गलोक चली गयी तथा आठवाँ मार्तण्ड (नामक) आकाश में ही रह गया। (ऋग्वेद १०/७२/८)। अतः प्रतीत होता है कि वह आठवाँ पुत्र मार्तण्ड ही सूर्य नाम्नी था, उसी का नाम मित्र, विवस्वान् और विष्णु भी था तथा धाता का ही नाम वरुण था। मेरा अनुमान है कि आदित्य आठ ही रहे होंगे — प्रथम धाता या वरुण, फिर क्रम से अर्यमा, त्वष्टा, पूषा, इन्द्र, अंश, भग, पर्जन्य, और आठवाँ मित्र या विवस्वान या त्रिविक्रम या विष्णु या मार्तण्ड। वैदिक काल से पौराणिक काल तक आते आते ये नाम पर्याय न रह कर पृथक संज्ञा के रूप में व्यवहृत होने लगे होंगे। अतः जब वर्ष के महीनों के अधिपति की परिकल्पना उगी होगी तो यही नाम उपयोग में ले लिये गये होंगे तथा द्वादश आदित्य की परिकल्पना अस्तित्व में आयी होगी। यद्यपि यह मेरी अपनी व्यक्तिगत मान्यता मात्र है तथा मेरे पास इसका ऋग्वेद के उक्त मन्त्र के अतिरिक्त कोई अन्य साक्ष्य भी नहीं है, और मेरी इस क्लिष्ट कल्पना से कई मान्यताओं को आघात भी पहुँचेगा अतः इस कल्पना को कल्पनामात्र रहने देने में ही कुशल है, फिर भी यह कल्पना रोचक तो है ही। वैसे जैमिनीय ब्राह्मण में तो आदित्यों की संख्या अड़तालीस बतायी गयी है। अतः आदित्य ही नहीं किसी भी बहुविकल्पीय शब्द के सन्दर्भ में यह आवश्यक है कि तत्सम्बन्धित सन्दर्भ भी अवश्य ध्यान में रहे और आदित्य शब्द तो बहुविकल्पीय ही नहीं, बहुरंगी भी है।
अंतिम आदित्य त्रिविक्रम विष्णु ही वामन है। विष्णु शब्द की व्युत्पत्ति विशतीति विष्णुः से है – जो भौतिकता में प्रविष्ट होता है वह विष्णु है, या व्यश्नोतिति विष्णुः– जो भौतिकता का आनंद लेता है वह विष्णु है, या यो विषितो भवति तद्विष्णुर्भवति जो विषवत है, काला है, वह विष्णु है। एक विष्णु विषुवत रेखा से भी सम्बन्धित है – विषुवान् स विष्णुः और जहाँ शतपथ कहता है कि विष्णु सभी देवताओं में श्रेष्ठ है – विष्णुर्देवानाम् श्रेष्ठः – (शतपथ १४/१/१/५) वहीं ऐतरेय ब्राह्मण कहता है कि विष्णु देवताओं में अंतिम है – विष्णुर्वै देवानां द्वारपः (ऐतरेय ब्रा० १/५/३०) अतः विष्णु सभी देवों में श्रेष्ठ हो कर भी व्यक्तिगत रूप से देवों में कनिष्ठ है और यहाँ देवों का तात्पर्य आदित्यों से ही है। आदित्य इन्द्र के अनन्तर, इन्द्रस्यानन्तरं जातत्वात्, इन्द्र के पश्चात् जन्म लेने के कारण, इन्द्रमुपगतः होने के कारण, विष्णु की एक संज्ञा उपेन्द्र भी है।
तंत्र में कृष्ण काली का पुरुषावतार है किन्तु भागवत दर्शन में वह अदिति का आठवाँ पुत्र ही है अतः आदित्य है और विष्णु का अवतार है। अदिति के सात पुत्र विकृत हो गये तथा देवकी के सात पुत्र मारे गये, यह प्रकरण भी इसे स्थापित करने में सहायक है कि अदिति के आठ ही पुत्र थे जिनमें आठवाँ विष्णु अदितिरूपा देवकी के गर्भ से अष्टम पुत्र कृष्ण हो कर उत्पन्न हुआ। अतः यदि भगवान् श्रीकृष्ण विष्णु रूप आदित्य ही हैं तो वे अदिति के अष्टम पुत्र मार्तण्ड ही हैं। गीता में श्रीकृष्ण स्वयं भी कहते ही हैं – आदित्यानाम् अहम् विष्णुः।
ऋग्वेद में विष्णु सम्बन्धित सूक्त भी हैं और प्रत्येक सूक्त में विष्णु का वर्णन सर्वादेवता के रूप में है क्योंकि विष्णु वामन का त्रिविक्रम वामन रूप विष्णु से सम्बन्धित अनेक रूढ़ियों में एक महत्वपूर्ण रूढ़ि है जिसकी उपेक्षा न मंत्रद्रष्टा ऋषियों से सम्भव थी और न ही कालान्तर के काव्यकारों से। और विष्णु का सम्बन्ध गायों से है, गौ से, और गौ या गो आदित्य-रश्मियाँ ही हैं यह अनेकशः स्पष्ट किया गया है अतः चर्वितचर्वण उचित नहीं, अतएव पाठकों को चाहिये कि वे मघा पर मेरे अन्य निबन्धों का सन्दर्भ ग्रहण करें, और गोपियाँ भी वाग्ब्रह्मणियाँ हैं जो गो ही हैं क्योंकि गो का अर्थ वाक् भी है, गाः पाति रक्षतीति इति गोपा! गौओं को, रश्मियों को, वाक् को संरक्षण देने वाली, पालने वाली गोपा है, गोपी है, गोपिका है।
आदित्यों में इन्द्र एवं उपेन्द्र, इन दोनों के साथ अनेकों पराक्रम की भी कथायें जुड़ी हैं, प्रणय की भी, जिनके कथानकों से सभी परिचित हैं और उनमें इन्द्र के पराक्रमों में सर्वख्यात है वृत्र-वध। वैदिक वाङ्मय की एक विशेषता है। इसके अनेक अर्थ हैं तथा उनमें कौन सत्य है, कौन असत्य, इसका निर्धारण सम्भव नहीं। द्रष्टा ऋषियों का उनके कथन से क्या अभिप्रेत था यह उनके साथ ही गया। आज अनेकों विद्वान् एक ही कथन के अनेकों अर्थ उद्घाटित करते हैं और यह स्वाभाविक है क्योंकि दृष्टिकोण परिवर्तित होते ही वेदों की ऋचाएँ अपना अर्थ परिवर्तित कर देती हैं, परात्पर ब्रह्म की भाँति, जिसे जिस रूप में देखो उसी रूप में दिखता है। वृत्र-वध आख्यान की भी अनेक व्याख्यायें हैं। किसी में वृत्र अन्धकार है जिसे इन्द्र आदित्य अपनी रश्मियों से विदीर्ण कर देता है, किसी में वह अनावृष्टि का मेघ है जिसे विदीर्ण कर के वृष्टि का देवता इन्द्र वृष्टि सम्भव करता है, लोकमान्य तिलक उसे उत्तरी ध्रुव का हिम मानते हैं जिसे वसन्त ऋतु का सूर्य पिघला देता है, इतिहास-रस के कथाकारों के अनुसार वह ऐतिहासिक त्वष्टा का पुत्र है जिसे इन्द्र ने युद्ध में पराजित किया, और ब्राह्मण ग्रन्थ उसे ‘अहि‘ मानते हैं, एक विशालकाय सर्प जिसने नदियों का जल ही रोक दिया था। ऋग्वेद स्वयं भी यह कहता है — यो हत्वाहिमरिणात्सप्त सिन्धून्यो गा उदाजदपधा वलस्य । जिसने (इन्द्र ने) वृत्र नामक अहि को मार कर सातो नदियों (या समुद्रों) का जल प्रस्रावित किया (ऋग्वेद २/१२/३)। अब वृत्र अन्धकार है, अवर्षण का मेघ है, उत्तरी ध्रुव का मेघ है, त्वष्टा का पुत्र है या कोई विशाल सर्प? पता नहीं, किन्तु इतना पता है कि वास्तव में वृत्र वैदिक साहित्य का वह रहस्य है जिसका आवरण अब तक हट ही नहीं सका, एक ऐसी पहेली जो अब तक अनसुलझी है। किन्तु यहाँ मेरा ध्येय उस पहेली पर विचार करना नहीं है। मैं तो एक दूसरी ही पहेली में उलझा हुआ हूँ।
जाने क्यों मुझे यह भास होता है कि सनातन सदातन का सम्पूर्ण ज्ञान, विज्ञान, तन्त्र, साहित्य, दर्शन, कला, सब, सब के सब किसी अगाध वारिधि की संकेन्द्रीय लहरें हैं जो एक दूसरे से भिन्न भी हैं तथा संलग्न भी, विच्छिन्न भी हैं तथा अविच्छिन्न भी, जो केन्द्र से अनन्त की ओर जाती भी हैं और पुनः केन्द्र तक लौट भी आती हैं और इन सबके केन्द्र में एक परम विक्षोभ है जो इन वीचियों का तथा उनकी अनवरतता का कारक है जिसे हम भारतीय सनातन संस्कृति की आत्मा कह सकते हैं। वीचियाँ दिखती हैं, उनका प्रसार एवं सङ्कोच दिखता है, केन्द्र दिखता है, बस वह केन्द्रीय स्पन्दन नहीं दिखता जो इस भेदात्मक समन्वय तथा समन्वित भेद का मूल है।
वृत्र क्या था इस सन्दर्भ में हम अन्यों की क्यों मानें? ऋग्वेद की ही क्यों नहीं? तो मान लिया कि वृत्र एक सर्प ही था, इतना विशाल कि वह नदियों का जल रोक सकता था, उन्हें विषाक्त कर सकता था। अब भागवत दर्शन की भी एक विशिष्ट रूढ़ि है जिसको भारतीय दर्शन, साहित्य, कला सबने बड़े मन से अपनाया है और वह है कृष्ण का कालिय-मर्दन! एक सहस्र – फण विशाल सर्प और उसके फण पर नर्तन करता एक किशोर जिसके अधरों पर कच्चे बाँस की एक वंशी है, और एक भुवन मोहक हास्य है। कवि इस रूढ़ि पर मुग्ध है, विस्मयविमुग्ध है! कृष्ण जितनी तन्मयता से नर्तन कर रहे हैं उससे अधिक तो कवि का मन नाच रहा है। कृष्ण के चरण कहाँ पड़ते हैं कृष्ण को भान नहीं, क्योंकि वे आत्मरत हैं, छन्द के चरण कहाँ पड़ने या होने चाहिये यह कवि को ध्यान नहीं क्योंकि वह भावरत है। कृष्ण का एक अपूर्व नृत्य है काली-दह में एक कृष्ण नाग के फणों पर, और एक अपूर्व नर्तन है कवि के भाव-दह में भी, कामनाओं को अतिक्रांत, विक्रांत एवं विभ्रांत करता —
तत् तत् थइ थइ नाचत शिशु हरि
निखिल कलादिगुरु!
तत् थत् थिरकत चण्ड नाग शिर,
चारु चारिका,
भ्रमत निरन्तर।
धद् धद् धसकत उन्नत फण शत
ओज तेज हत नमत भुजंगम
झज् झज् झरत विषाक्त दर्पमद
दद् दद् दमकत मूर्धरत्नशत
किरण समुज्ज्वल चरणाम्बुज द्रुत।
धद् धद् धरकत नाग वधू उर
किलकत पुलकत,
बिहँसत सुमधुर।
ठट् ठट् ठमकत एक एक शिर
नाचत छ्म् छ्म् फेरि फेरि फिरि
तत्थइ थइ तत्थइ थइ निखिल कलादिगुरु।
वेद एक सुदृढ़ स्थूण हैं, एक शास्वत आधार! भटको, तो इसके पास लौटो!
दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः।
अपां बिलमपिहितं यदासीद्वृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार॥
— ऋग्वेद १/३२/११
इस मन्त्र के अनुसार दास अहि की पत्नियाँ गोपा हैं और वे वैसे ही निरुद्ध हैं जैसे पणियों के पास गौवें, और इस अहि, इस वृत्र का वध करता है इन्द्र! तो क्या वृत्रघ्न इन्द्र भी अहिघ्न है और इन्द्र का वृत्र-वध तथा कृष्ण का कालिय-मर्दन एक ही घटना के दो रूपक हैं जिनमें एक के केन्द्र में इन्द्र है तथा दूसरे के केन्द्र में उपेन्द्र? दूर की कौड़ी है, किन्तु विचारणीय तो है ही!
और यदि वृत्र को अन्धकार ही मानें जो प्रकाश का अपहर्ता है, तथा अन्धकार के हनन से प्रकाश मुक्त होता है इस प्रतीक का तनन करें तो प्रकाश की मुक्ति तो गो मुक्ति है क्योंकि गो का अर्थ प्रकाश है! इतना ही नहीं, इन्द्र ने भी सरमा के माध्यम से पणियों द्वारा हरण की हुई गो को मुक्त कराया और कृष्ण ने भी अघासुर से गो एवं गोपों को मुक्त कराया, तो क्या यह गो-मुक्ति प्रकरण वैदिक इन्द्र का पौराणिक उपेन्द्र तक उपवृंहण है? क्या इन्द्र तथा कृष्ण दोनों गोपाल हैं? लगता तो है!
इन्द्र के पराक्रम का एक और उदाहरण है उसका शम्बर के निन्यानबे पुरों को भग्न करना तथा शम्बर वध। इस कृत्य के पश्चात् उसे पुरन्दर नाम का विरुद प्राप्त हुआ। पुर शब्द के अनेक अर्थ हैं यथा अग्नि, ताप, नगर, गाँव, निर्जल मेघ, गृह, भवन का उच्चतम प्रकोष्ठ, श्लेष्मा, चर्म, गुग्गुल, देह, राक्षस, आपण, नागरमोथा, वेश्याओं के रहने का स्थान आदि, आदि। तो इन्द्र यदि शम्बर के पुरों को तोड़ कर पुरन्दर हुआ तो विष्णु और कृष्ण भी तो राक्षसों के वध के कारण पुरन्दर ही है और रुद्र शिव भी पुरारि है त्रिपुर के पुरों को नष्ट करने के कारण। ऋग्वेद के दशम मण्डल का १०३वाँ सूक्त रुद्र की अभ्यर्थना का है और वह पूरा सूक्त ही इन्द्र सूक्त है तो क्या इन्द्र तथा उपेन्द्र के साथ रुद्र भी उसी शृंखला से कहीं जा जुड़ते हैं?
भागवत की एक और अत्यन्त आकर्षक रूढ़ि है कृष्ण की गोवर्धन लीला! साहित्य, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला सबमें इस रूढ़ि के प्रति एक अद्भुद आकर्षण है। इन्द्र तथा उपेन्द्र के मध्य इस कलह के आख्यान से भागवतकार ने क्या सिद्ध करना चाहा है यह तो अबूझ है, किन्तु स्यात् इतिहास के घटनाक्रमों में एक समय ऐसा भी आया जब इन्द्र अप्रासंगिक तथा अनुपादेय हो चला था तथा उपेन्द्र की उपादेयता तथा प्रासंगिकता बढ़ चली थी अतः इन्द्र नेपथ्य को चला गया तथा मुख्य भूमिका उपेन्द्र को प्राप्त हो गयी।
झरती वारिधारा, रह-रह कर होता अशनिपात, भयाकुल गोष्ठ, गौवें, गोप, गोकुल, और इन सब के बीच अडिग साहस एवं विश्वास के साथ अपने बायीं हथेली पर गोवर्धन साधे एक किशोर, इन्द्र के वज्र से व्रज की सुरक्षा करता उपेन्द्र, चित्रों में भी उतना ही मोहक, उतना ही आकर्षक है जितना शब्दचित्रों में। कवि कहता है —
गोष्ठे गिरिं सव्यकरेण धृत्वा,
रुष्टेन्द्रवज्राहति मुक्तवृष्टौ।
यो गोकुलं गोपकुलञ्च सुस्थं
चक्रे स नो रक्षतु चक्रपाणिः॥
उपेन्द्र की स्तुति का, उससे कल्याण-कामना का, यह छन्द, जानते है कौन सा है? इन्द्रवज्रा!!
मैंने कहा है, कि सदातन सनातन की वृत्तियाँ दिखती भले पृथक हों, उनका मूल कहीं न कहीं एक है, और सम्भवतः उस रहस्यमय वृक्ष से सम्बन्धित हैं जिसे उर्ध्वमूल अधोशाखा कह कर अभिव्यक्त किया गया। कबीर जब ऊपर कूप तरे पनिहारी, लरिका गोद खेले महतारी कहता है तो सम्भवतः यह जानता है कि यह उलटबाँसी कुछ नवीन नहीं, सदातन सनातन की एक अत्यन्त प्राचीन रूढ़ि है जिसके निहितार्थ बड़े गहरे हैं।
जो वेदों से चला, ब्राह्मणों में ठिठका, पुराणों में उलझा, उपनिषदों में रचा, वह काव्य में, साहित्य में, स्वयं को समोने से कैसे प्रतिवारित कर लेता? ये इन्द्र और उपेन्द्र, यदि वेदों में हैं, पुराणों में हैं, ब्राह्मण ग्रंथों में हैं, उपनिषदों में हैं, साहित्य में हैं, संगीत में हैं, चित्रकला में हैं, मूर्तिकला में हैं, तो छन्दशास्त्र में कैसे न होते? हैं ये छन्दशास्त्र में भी! इन्द्र है इन्द्रवज्रा के नाम से, और विष्णु, वामन, त्रिविक्रम, है उपेंद्रवज्रा के नाम से! छन्द-एकादशी की यह व्रत-कथा भी कम रोचक नहीं है!
काव्य के परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो इस शब्द का मूल संस्कृत के छंदस् शब्द में है जिसका समासगत रूप छंदः है। इस शब्द का एक अर्थ गति से है और एक अर्थ आच्छादन से भी। छादयन्ति ह वा एनं छन्दांसि पापात्कर्मणो यस्यां कस्यांचिद्दिशि कामयते। (ऐतरेय आरण्यक २/१/६)। अतः छंद वह है जिसकी गति सब कुछ आच्छादित किये है। छंद प्रकृति की वाणी है तथा सम्भवतः आदि मानव की प्राथमिक अभिव्यक्ति का आदिम माध्यम भी। छंद ही संगीत की योनि है तथा काव्य का प्राण भी।
छन्द के सम्बन्ध में छान्दोग्य उपनिषद् में एक अत्यन्त सुन्दर रूपक है। देवताओं ने अपने मृत्यु के भय से स्वयं को छन्दों में ढाल लिया। मृत्यु से बचाव हेतु आच्छादन रूप में प्रयुक्त होने के कारण ही छन्द का नाम छन्द हुआ – देवा वै मृत्योर्बिभ्यतस्त्रयीं विद्यां प्राविशस्ते छन्दोभिरच्छादयन्यदेभिरच्छादयस्तच्छन्दसां छन्दस्त्वम्। सायण के अनुसार अपमृत्यु वारयितुमाच्छादयतीति छन्दः – कलाकार तथा कलाकृति को अपमृत्यु से बचाने वाला छन्द ही है। सत्य है, छन्दबद्ध रचना स्मृतियों में दीर्घजीवी होती ही है।
पशवो वै देवानां छन्दांसि! (ऐतरेय ब्राह्मण ४/३/५/१)। निश्चित ही ऋषि का यह कथन सामान्य छन्दों हेतु नहीं, मात्र वैदिक छन्दों हेतु है। गायत्री का पति, स्वामी, अग्नि, पुरुष (सहस्रशीर्षा), क्रतु या यज्ञ है, उष्णिक् का सविता, अनुष्टुप् का सोम, बृहती का वृहस्पति, विराट् का मित्रावरुण, त्रिष्टुप का इन्द्र और जगती का स्वामी विश्वेदेवता है। किन्तु यदि वैदिक छन्दों के अतिरिक्त भी विचार करें तो परमात्मा सत् चित् आनन्द स्वरुप है। जहाँ भी ये तीनों हों वहाँ परमात्मा का ही कोई अंश है और काव्य, यदि काव्य ही है तो, वह इन तीन से परे नहीं होता अतः छन्द वैदिक हो या वैदिक से अन्य, आनन्द रूप देवत्व का वहन करता ही है अतः वह न सही देवता का, आनन्द का वाहन तो है ही।
भटकाव मेरी प्रवृत्ति है। इन्द्र से प्रारम्भ कर के उपेन्द्र तक और पुनः भटकते-भटकते इन्द्र तथा उपेन्द्र से इन्द्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा तक आ गये किन्तु अब और भटकना उचित नहीं। किन्तु लौटने से पूर्व अल्पशः इनके सन्दर्भ में तो कुछ कहा-सुना जा ही सकता है।
सर्वप्रथम इन्द्रवज्रा छन्द की बात करें। छन्दशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ वृत्तरत्नाकर के रचयिता के अनुसार स्याद इन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः अर्थात् दो तगण, जगण गुरु वर्ण और पुनः एक गुरु वर्ण जिस छन्द के प्रत्येक चरण में आयें वह इन्द्रवज्रा छन्द है। गणों की परिभाषा देना यहाँ आवश्यक प्रतीत नहीं होता फिर भी यमाताराजभानासलगा सूत्र से गणों की मापनी एवं तदनुसार छन्द मापनी जानी जा सकती है। यद्यपि यह प्रचलित सहज सूत्र है किन्तु शास्त्रकारों ने इसके अन्य सूत्र भी बताये हैं जो मुझे अपेक्षाकृत अधिक सरल प्रतीत होते हैं। संस्कृत भाषा का अपरिचय उन्हें कठिन बनाता हो तो वह अन्य समस्या है अन्यथा वे सूत्र तत्काल गणों का स्वरूप प्रस्तुत कर देते हैं यथा —
मस्त्रिगुरुः त्रिलघुश्चनकारः
भादिगुरुः पुनि यादिलघुर्यः।
जोगुरुमध्यगतो र ल मध्यः
सोऽन्तगुरुः कथितोन्तलघुत्तः॥
मस्त्रिगुरुः – मगण के तीनो वर्ण गुरु,
त्रिलघुश्चनकारः – नगण के तीनो वर्ण लघु
भादिगुरुः – भगण का आदि वर्ण गुरु, (अन्य दो वर्ण लघु होंगे यह कहने की आवश्यकता नहीं)
यादिलघुर्यः – यगण का आदि वर्ण लघु (अन्य दो वर्ण गुरु होंगे यह कहने की आवश्यकता नहीं)
जोगुरुमध्यगतो – जगण का मध्य वर्ण गुरु,
र ल मध्यः – रगण का मध्य वर्ण लघु,
सोऽन्तगुरुः – सगण का अंतिम वर्ण गुरु
कथितोन्तलघुत्तः – तगण का अन्तिम वर्ण लघु होता है।
यदि यह श्लोक कण्ठस्थ हो तो गणों का स्वरुप तत्काल भासित होता है। यथा तगण – तोन्तलघुत्तः अंतिम वर्ण लघु (ऽऽ।) तथा जगण – जोगुरुमध्यगतो (।ऽ।) इस प्रकार इन्द्रवज्रा छन्द की मापनी तौ जगौ गः ऽऽ। ऽऽ। ।ऽ। ऽऽ हुआ तथा प्रत्येक चरण में गुरु – लघु मिला कर ग्यारह वर्ण हुए।
एक और अत्यन्त सरल सूत्र है —
आदिमध्यावसानेषु भजसा यान्ति गौरवं,
यरता लाघवं यान्ति मनौ तु गुरु लाघवं॥
भगण, जगण तथा सगण क्रमशः आदि, मध्य तथा अन्त में गुरु वर्ण वाले होते हैं,
यगण, रगण तथा तगण क्रमशः आदि, मध्य तथा अन्त में लघु वर्ण वाले होते हैं, तथा
मगण एवं नगण क्रमशः प्रत्येक वर्ण गुरु एवं प्रत्येक वर्ण लघु वाले होते हैं।
जिन छन्दों के लक्षण में यति का निर्देश न हो वहाँ चरणान्त यति समझनी चाहिये अतः इन्द्रवज्रा ग्यारह वर्णों का समवृत्त, चरणान्त यति वाला वर्णिक छन्द है। किन्तु वर्णिक छन्द होते हुए भी गणों का सुस्पष्ट निर्देश होने से यह अठारह मात्राओं वाला छन्द है। छन्दशास्त्र के नियमों के अनुसार इन्द्रवज्रा छन्द का यही स्वरूप है और हम इसी प्रकार इसे स्मरण रखते तथा इस छन्द का परीक्षण करते या छन्द – निर्माण करते हैं।
प्रश्न यह उठता है कि इस छन्द का नाम इन्द्रवज्रा ही क्यों है? क्या इस छन्द का इन्द्र से या उसके वज्र से कोई सम्बन्ध है अथवा ऐसे ही इसका नाम इन्द्रवज्रा रख दिया गया? इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है।
किसी भी शास्त्र या विषय के अध्ययन का अगला चरण मनन तथा चिन्तन है और हमारी वर्तमान शिक्षा-पद्धति ने मनन तथा चिन्तन का निरसन कर दिया है। शिक्षा का अर्थ पुस्तकस्थ ज्ञान को स्मृति में भर कर परीक्षाभवन में उसे निकाल कर रख आना मात्र रह गया है। चिंतन-मनन का न अवकाश है, न आवश्यकता। किन्तु चिन्तन-मनन से अध्ययन के समय शेष रह गयी उलझनें सुलझती हैं और सम्भव है कि हम किसी निष्कर्ष पर न पहुँच सकें, निष्कर्ष पर पहुँचने की सम्भावना तो रहती ही है।
हो सकता है कि मेरे अनुमान तथ्य से नितान्त परे हों, किन्तु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इन्द्रवज्रा छन्द के नामकरण में इन्द्र तथा वज्र दोनों का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। यजुर्वेद अध्याय ९ के अधोलिखित सूक्त ३१ से ३४ तक यदि देखें तो,
अग्निर् एकाक्षरेण प्राणम् उद् अजयत् तम् उज् जेषम् ।
अश्विनौ द्व्यक्षरेण द्विपदो मनुष्यान् उद् अजयतां तान् उज् जेषम् ।
विष्णुस् त्र्यक्षरेण त्रील् लोकान् उद् अजयत् तान् उज् जेषम् ।
सोमश् चतुरक्षरेण चतुष्पदः पशून् उद् अजयत् तान् उज् जेषम् ॥
— यजु० अध्याय ९ सूक्त ३१
पूषा पञ्चाक्षरेण पञ्च दिश ऽ उद् अजयत् ता ऽ उज् जेषम् ।
सविता षडक्षरेण षड् ऋतून् उद् अजयत् तान् उज् जेषम् ।
मरुतः सप्ताक्षरेण सप्त ग्राम्यान् पशून् उद् अजयꣳस् तान् उज् जेषम् ।
बृहस्पतिर् अष्टाक्षरेण गायत्रीम् उद् अजयत् ताम् उज् जेषम् ॥
— यजु० अध्याय ९ सूक्त ३२
मित्रो नवाक्षरेण त्रिवृत स्तोमम् उद् अजयत् तम् उज् जेषम् ।
वरुणो दशाक्षरेण विराजम् उद् अजयत् ताम् उज् जेषम् ।
इन्द्र ऽ एकादशाक्षरेण त्रिष्टुभम् उद् अजयत् ताम् उज् जेषम् ।
विश्वे देवा द्वादशाक्षरेण जगतीम् उद् अजयस् ताम् उज् जेषम् ॥
— यजु० अध्याय ९ सूक्त ३३
वसवस् त्रयोदशाक्षरेण त्रयोदश स्तोमम् उद् अजयस् तम् उज् जेषम् ।
रुद्राश् चतुर्दशाक्षरेण चतुर्दश स्तोमम् उद् अजयस् तम् उज् जेषम् ।
आदित्याः पञ्चदशाक्षरेण पञ्चदश स्तोमम् उद् अजयस् तम् उज् जेषम् ।
अदितिः षोडशाक्षरेण षोडश स्तोमम् उद् अजयत् तम् उज् जेषम् ।
प्रजापतिः सप्तदशाक्षरेण सप्तदश स्तोमम् उद् अजयत् तम् उज् जेषम् ॥
— यजु० अध्याय ९ सूक्त ३४
निश्चित ही यजुर्वेद के इन मन्त्रों का अर्थ यहाँ उपलब्ध कराना आवश्यक नहीं। सुधी एवं जिज्ञासु पाठक इनका अर्थ जानते होंगे या नहीं जानते तो जानने का प्रयत्न करेंगे। मुझे तो मात्र इतना संकेत करना है कि एकादश अक्षरों वाला, ग्यारह वर्णों वाला छन्द, इन्द्र से सम्बन्धित है और उस छन्द का नाम है त्रिष्टुभ जिसके चार चरण हैं तथा प्रत्येक चरण में एकादशाक्षर होते हैं – इन्द्र ऽ एकादशाक्षरेण त्रिष्टुभम् । पुनः, त्रिष्टुभ वैदिक छन्द है और वैदिक छन्द-शास्त्र के सम्पूर्ण विवेचन के प्रयास में आलेख अत्यन्त ही दीर्घ हो जायेगा, अतः उसका अवकाश नहीं है, फिर भी, छन्दबद्ध रचनाओं में विश्व के सर्वप्रथम उपलब्ध काव्य ऋग्वेद में सात मुख्य छंदों का प्रयोग हुआ है जिनके नाम गायत्री, अनुष्टुप्, बृहती, पक्ति, त्रिष्टुभ्, जगती तथा उष्णिक् हैं। इनमें गायत्री तथा अनुष्टुप् के तीन चरण हैं, बृहती, पक्ति, त्रिष्टुभ् तथा जगती के चार चरण तथा उष्णिक् के पाँच। गायत्री छन्द के प्रत्येक चरण में आठ वर्ण हैं, उष्णिक् के दो चरण आठ-आठ वर्ण के तथा एक चरण बारह वर्ण का, और अनुष्टुप् के चारो चरण आठ-आठ वर्ण के हैं। उष्णिक् के किस चरण में कितने वर्ण है इस आधार पर उसके तीन भेद हो जाते हैं। आठ, आठ, बारह के क्रम वाला उष्णिक्, आठ, बारह, आठ के क्रम वाला ककुप तथा बारह, आठ, आठ के क्रम से वर्णों वाला छन्द पुर उष्णिक् कहलाता है। बृहती चार चरणों का छत्तीस वर्ण का छन्द है जिसमें तीन चरण आठ-आठ वर्ण के तथा कोई एक चरण बारह वर्ण का होता है। यद्यपि चरणों में वर्णों की संख्या के आधार पर इसके चार भेद हो सकते हैं किंतु बृहती आठ, आठ, बारह, आठ के क्रम से तथा सतो बृहती आठ, आठ बारह, आठ के क्रम से, ही अधिक प्राप्त होता है। पक्ति के पाँचों चरण आठ-आठ वर्ण के होते हैं। त्रिष्टुभ् के चारो चरणों में प्रत्येक में ग्यारह वर्ण होते हैं, और जगती के चारो चरणों में प्रत्येक में बारह वर्ण। इसके अतिरिक्त एक छन्द विराज् का प्रयोग भी ऋग्वेद सप्तम मण्डल में हुआ है जिसके मात्र दो चरण हैं तथा प्रत्येक चरण में दस वर्ण हैं।
इन सभी छंदों का आधार छन्दों में चरणों की संख्या तथा प्रत्येक चरण में अक्षरों की गिनती ही है तथा यह उनका यह स्थूल नियम भी अपवादों से परे नहीं है। कहीं-कहीं एक या दो अक्षर कम या अधिक भी हैं। अक्षरों के न्यूनाधिक्य के आधार पर न्यूनाक्षर वाले छन्दों को विच्छन्द तथा अधिकाक्षर वाले छन्दों को अतिछन्द नाम दिया गया है। अक्षरों की संख्या के न्यूनाधिक्य के आधार पर इन्हें निचृत (एक अक्षर हीन वाले), विराड् (दो अक्षर हीन वाले), भूरिक् (एक अक्षर अधिक वाले) तथा स्वराड् (दो अक्षर अधिक वाले) नाम मिला है। सुप्रसिद्ध गायत्री मन्त्र के ही एक चरण में तत्सवितुर्वरेण्यम् में आठ के स्थान पर सात ही वर्ण हैं (ध्यान रहे कि अर्धाक्षरों की गणना नहीं की जाती, वे मात्र अपने पूर्ववर्ती वर्ण को गुरुता प्रदान करते हैं, यदि पूर्ववर्ती वर्ण लघु हो।) यही कारण है कि पाठ करते समय कुछ लोग वरेण्यम् का उच्चारण वरेणियम् भी करते हैं जबकि व्याकरण की दृष्टि से वरेण्यम् ही शुद्ध है। और ऐसे अपवाद अनेक हैं। इन छंदों के अतिरिक्त भी शक्वरी, अतिशक्वरी, तीन भेदों के साथ प्रगाथ, ककुभ प्रगाथ, बार्हत् प्रगाथ कुल सत्रह छन्द ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं किन्तु वेदों के मूल छन्द मुख्यतः तीन ही हैं – गायत्री, त्रिष्टुभ् तथा जगती। शेष अन्य छन्द इन्ही के भेद या विस्तार हैं। अधिक विस्तार में न जा कर, यह सब उल्लेख करने का उद्देश्य मात्र इतना है कि छंदों की अवधारणा वेद ही नहीं वरन् उससे भी प्राचीन है किन्तु हमारे पास वेदों से पूर्व का कोई आधार उपलब्ध नहीं अतः हम पुरातनता के साक्ष्य हेतु अधिकतम वेदों का ही आश्रय ले सकते हैं। अस्तु!
तो एकादश वर्णों वाला कोई छन्द, जिसमें इन्द्र से सम्बन्धित त्रिष्टुभ छन्द की भाँति चार चरण भी हों, प्रत्येक चरण में त्रिष्टुभ की भाँति एकादश वर्ण भी हों उस छन्द का नाम इन्द्र के अतिरिक्त किसके नाम पर रखा जा सकता है? और शेष रहा वज्र, तो वैदिक वांङ्मय में वज्र की अनेकों परिभाषायें हैं — वज्रो वा अभ्रिः (शतपथ ३/४/५/२) वज्रो वै परशुः (शतपथ ३/६/४/१०), वज्रो वा आपः (शतपथ १/१/१/१७) वज्रो वै शरः (शतपथ ३/१/३/१३) वज्रो वै पशवः (शतपथ ६/४/४/६), वज्रो वा अश्वः (शतपथ ४/३/४/२७), और अनेकानेक अन्यों के साथ, क्योंकि सभी परिभाषायें देना न सम्भव है, न उचित, मेरी ओर से अंतिम है वज्रो वै त्रिष्टुप (शतपथ ७/४/२/२४)। वज्र त्रिष्टुप छन्द का भी नाम है, या कहें कि त्रिष्टुप वज्र ही है!
और तनिक इस छन्द की यति पर ध्यान दें तो इस छन्द की यति है चरणान्त! वज्र का एक अर्थ आकाशीय विद्युत् भी है जो एक बार जब मेघों से विच्छुरित होती है तो फिर लक्ष्य से पूर्व उसे विराम नहीं! निर्दिष्ट यति एवं गति के नियमों का उल्लंघन करते हुए छन्दों का पाठ करने वाला छन्द की आत्मा का हनन करता है, और वज्र के आघात का अधिकारी है चाहे वह संगीतात्मकता अथवा गेयता हेतु ही क्यों न हो! यति के उल्लंघन से छन्द का सौन्दर्य नष्ट होता है, बढ़ता नहीं, और इन्द्रवज्रा के सन्दर्भ में यति चरणान्त ही होनी चाहिये!
अतः एकादश वर्ण वाले, चार चरण वाले, चरणान्त यति वाले, इस समवृत्त छन्द का नाम आचार्यों ने इन्द्रवज्रा ही रखा और उचित ही रखा क्योंकि इन्द्रवज्रा के अतिरिक्त इस छन्द का नाम अन्य कुछ हो ही नहीं सकता था।
इसी छन्द से मिलता-जुलता एक अन्य छन्द है उपेन्द्रवज्रा। वृत्तरत्नाकरकार ने इस छन्द का लक्षण बताते हुए कहा – उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ – जगण, तगण, जगण के पश्चात् दो गुरु वर्णों द्वारा उपेन्द्रवज्रा के चरणों का निर्माण होता है, अतः इस छन्द की मापनी ।ऽ। ऽऽ। ।ऽ। ऽऽ
हुई। वर्णों की संख्या इसमें भी एकादश ही है, किन्तु गण-आधारित वर्ण-भार के कारण इस छन्द के चरण का मात्राभार सत्रह है।
शास्त्रकारों के सिद्धांतों के अनुरूप गणों के आधार पर बनी मापनी के आधार पर यदि इन्द्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा के वर्ण-भारों की तुलना करें तो यह प्रथमदृष्ट्या ही ज्ञात हो जाता है कि दोनों छन्दों के वर्ण-भारों में प्रथम वर्ण के अतिरिक्त कोई भिन्नता ही नहीं है। मात्र प्रत्येक चरण के एक वर्ण, वह भी मात्र प्रथम वर्ण में एक साधारण सा अन्तर है कि इन्द्रवज्रा का प्रथम वर्ण गुरु है तथा उपेन्द्रवज्रा का प्रथम वर्ण लघु है और इस कारण यह इन्द्रवज्रा से एक मात्रा-भार न्यून है, ऊना है। संक्षेप में कहें तो भले ही स्वीकृत है, मान्य है, किन्तु फिर भी उपेन्द्रवज्रा कोई भिन्न छन्द है ही नहीं, यह तो इन्द्रवज्रा का ही एक स्वरुप है, इन्द्रवज्रा की ही एक उपजाति है, और यही कारण है कि इसका नाम उपेन्द्रवज्रा है, इन्द्र के कनिष्ठ भ्राता उपेन्द्र के नाम पर! जगण-तगण के रगड़ की कोई अधिक आवश्यकता ही नहीं, उतने ही वर्ण हैं, वही छन्द है, वही गति है, वही यति है, मात्र प्रथम वर्ण लघु है, अतः इस छन्द का नाम इन्द्र के अनुज, कनिष्ठ आदित्य, उपेन्द्र विष्णु के नाम पर ही होना चाहिये, इसमें शास्त्रकारों में कोई हिचक नहीं थी।
ऽऽ। ऽऽ। ।ऽ। ऽऽ = इन्द्रवज्रा
।ऽ। ऽऽ। ।ऽ। ऽऽ = उपेन्द्रवज्रा
इन्द्र तथा उपेन्द्र ने परस्पर मिल कर जाने कितनी लीलायें रचीं हैं, न जाने कितने काण्ड लिखे हैं। न जाने कितने आख्यान हैं दोनों के, जिनमें इनके परस्पर सहयोग से देवजाति तथा सम्पूर्ण सृष्टि एवं मानवता का कल्याण हुआ। इतना अवश्य है, कि इन्द्र इन्द्र ही रहे, किन्तु उपेन्द्र ने अनगिन रूप धारे। यद्यपि इन्द्र भी मायावी है — रूपंरूपं प्रतिरूपं बभूव (ऋक्० ६/४७/१८), रूपंरूपं मघवा बोभवीति (ऋक्० ३/५३/८) मायाभिरिन्द्रमायिनं (ऋक्० १/११/७) किन्तु उपेन्द्र, विश्व के कण-कण में, संसृति की शिरा-शिरा, धमनी-धमनी में विष की भाँति व्याप्त वह विष्णु, मात्र इन्द्र का अनुज उपेन्द्र नहीं, वह लीलाधर भी है, नटवर-नागर भी है, माया-माणवक भी है, छलिया भी है, क्योंकि वह अवतारी है, विविधरूप धारी है, कल्याणकारी है। वह मत्स्य बन कर मानवता को महाप्रलय से बाहर खींच ले जाता है, कूर्म बन कर अपने पृष्ठ-भाग पर मन्दराचल साध लेता है, वराह बनता है और अपने दाँतों पर इस धरित्री को ही टांग लेता है, वह सिंह बनता है और अशुभ के साथ वचन हार चुके शुभ के पूर्वबंधों की संधियाँ खोज कर मानवता के संत्रास का वक्ष फाड़ देता है, वह बावन अगुल का वामन बन कर आता है किन्तु अपने तीन डगों से त्रिलोक नाप लेता है और त्रिविक्रम हो जाता है। वह जब मोहिनी बनता है तो अशुभ को मदपान करा कर और उन्मत्त ही नहीं करता बल्कि शुभ को अमृत उपलब्ध कराता है तथा अशुभ यदि भूल से अमृत-प्राशन कर भी ले, तो वह अपने चक्र से उसका शीश छिन्दित कर देता है। और उपेन्द्र ऐसा करे भी क्यों न? सङ्कट में पड़ी मानवता उस अवतारी को बारम्बार पुकारती जो है, क्योंकि वह वचन देता है कि यदा यदा हि… और इसे निभाने वह इस धरा पर बारम्बार लौट कर आता है, कभी राम बन के, कभी श्याम बन के, क्योंकि उसका वचन है – ……तदात्मानं सृजाम्यहम् और यह सम्भवामि युगे-युगे करता है वह कभी इन्द्र के साथ मिल कर, कभी एकाकी भी! इन्द्र स्वराट् है, किन्तु उपेन्द्र विराट् है।
इन्द्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा भी यही करते हैं। परस्पर मिल कर इन दोनों के सहयोग से इन्द्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा के अतिरिक्त चौदह अन्य छन्द निर्मित होते हैं, इन दोनों को ले कर कुल सोलह – जिनके नाम इन्द्रवज्रा, कीर्ति, वाणी, माला, शाला, हंसी, माया, जाया, बाला, आर्द्रा, भद्रा, प्रेमा, रामा, रिद्धि, सिद्धि तथा उपेन्द्रवज्रा हैं। इन्द्रवज्रा के चारो चरणों में प्रथम वर्ण लघु हो तो वही उपेन्द्रवज्रा है यह तो स्पष्ट किया ही जा चुका है, अब यदि किसी छन्द में एक या एक से अधिक चरण इन्द्रवज्रा के हों तथा अन्य शेष चरण उपेन्द्रवज्रा के हों तो ये मिश्रित चरणों वाले छन्द इन्द्रवज्रा के उपजाति छन्द कीर्ति, वाणी इत्यादि निर्मित करते हैं तथा इनका नाम चरणों में इन्द्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा के क्रम के आधार पर है, जैसे यदि प्रथम चरण ही उपेन्द्रवज्रा हो और शेष अन्य तीनों चरण इन्द्रवज्रा के हों तो वह कीर्ति छन्द होगा। संकेत रूप में कहें कि इन्द्रवज्रा छन्द हो जिसके प्रथम चरण का प्रथम वर्ण लघु हो, किन्तु अन्य तीन चरणों के प्रथम वर्ण गुरु ही हों तो वह कीर्ति छन्द है। इन्द्रवज्रा के उपजाति छन्दों के चारो चरणों में प्रथम वर्ण के लघु-गुरु क्रम के आधार पर संकेत सूची निम्नवत है –
क्र. सं. | चारों चरणों के प्रथम वर्ण का मात्राभार | छन्द का नाम |
०१ | ऽऽऽऽ | इन्द्रवज्रा |
०२ | ।ऽऽऽ | कीर्ति |
०३ | ऽ।ऽऽ | वाणी |
०४ | ॥ऽऽ | माला |
०५ | ऽऽ।ऽ | शाला |
०६ | ।ऽ।ऽ | हंसी |
०७ | ऽ॥ऽ | माया |
०८ | ॥।ऽ | जाया |
०९ | ऽऽऽ। | बाला |
१० | ।ऽऽ। | आर्द्रा |
११ | ऽ।ऽ। | भद्रा |
१२ | ॥ऽ। | प्रेमा |
१३ | ऽऽ॥ | रामा |
१४ | ।ऽ॥ | ऋद्धि |
१५ | ऽ॥। | सिद्धि |
१६ | ॥॥ | उपेन्द्रवज्रा |
इस संकेत सूची से छन्द का नाम जानने हेतु मात्र इतना ध्यान रखना है कि ये गण नहीं, वरन् इन्द्रवज्रा छन्द में क्रमशः चारो चरणों के प्रथम वर्ण का वर्ण-भार है, जैसे यदि किसी एकादश वर्णी वृत्त में इन्द्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा दोनों के लक्षण प्राप्त हों तथा उसके प्रथम चरण का प्रथम वर्ण गुरु (ऽ), दूसरे चरण का प्रथम वर्ण लघु (।), तीसरे चरण का प्रथम वर्ण गुरु (ऽ) तथा चौथे चरण का प्रथम वर्ण लघु (।) हो तो क्रम ऽ।ऽ। बना तथा इस छन्द का नाम भद्रा होगा जो इन्द्रवज्रा छन्द की एक उपजाति है सारिणी में क्रम संख्या ११ पर संकेतित है। इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा तथा इनके सम्मिश्रण से निर्मित उपजातीय वृत्त एवं उनके लक्षण स्मरण रखने हेतु इन्ही उपजाति छन्दों का प्रयोग करते हुए मेरा एक छुद्र प्रयास प्रस्तुत है —
स्याद इन्द्रवज्रा यदि तौ ज गौ वा,
उपेन्द्रवज्रा ज त जा स्ततो गौ,
यदेति चरणानि मिश्रान्ति याता,
सम्मिश्रणे षोडश अन्य भेदाः॥१॥
सर्वे गुरुच्चादि सा इन्द्रवज्रा,
उपेन्द्रवज्रा सर्वे लघुस्याद्,
सङ्कोचसहितं परिभाषयन्ताम्
अन्यानि भेदानि वृत्तं विशिष्टा॥२॥
कीर्तिश्च वाणी माला च शाला,
हंसी च माया च जाया च बाला,
आर्द्रा च भद्रा प्रेमा च रामा,
ऋद्धिश्च सिद्धि: कथयन्ति बुद्धा॥३॥
प्रथमं च कीर्ति: द्वयं च वाणी,
आद्यद्वयो लघु च कथयन्ति माला,
तृतीय शाला च त्रयेक हंसी ,
मध्येद्वयो माया भातनोतिः॥४॥
आद्यत्रयोलघु यदिच्च जाया,
एकालघुर्संज्ञकान्ते स बाला,
आदौ च अंतौ च यदिस्स आर्द्रा,
द्वितीय अन्तेल्लघुसच्च भद्रा॥५॥
विहाय त्रेता यदि सा च प्रेमा,
अंतद्वयोया भवेत्स रामा,
विहाय द्वयं लघु वदेत्ऋद्धि:
विहाय आदौ च सिद्धिर्भवेतद्॥६॥
चत्वारि पादानि क्रमेण आद्य:,
ह्रस्व: तु दीर्घ: यथा प्राप्नुवंतम्॥
भेदानि नामानि तदैवमेतत्,
प्रस्तार आधारित तानि संज्ञा॥७॥
हीनाच्च वर्णात्भ्रष्टम् गुरुत्वात्,
शास्त्रं न शिल्पम् न विद्या न ज्ञानं,
शिवा प्रसादेन कुर्यामि काव्यम्,
सा शक्ति एका गिरिजा भवानी॥८॥
वाणी त्वमेकं मम मूढ़ मूकम्,
विश्वेश्वरी पाहि क्षन्तव्य मह्यं
शरणागतम् त्वं त्रिलोचनीये!
त्रिलोचनं देवि शरणं प्रपद्ये॥९॥
देवार्चन के अनेक स्तोत्र इन्द्रवज्रा तथा इसके उपजाति छन्दों में रचित हैं जिनमें द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् का उदाहरण मापनी सहित प्रस्तुत है —
॥ अथ द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् ॥
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सौराष्ट्रदेशे विशदेऽतिरम्ये
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ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम् ।
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भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णम्
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तम् सोम नाथम् शरणम् प्रपद्ये ॥१॥
(इन्द्रवज्रा)
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श्रीशैलशृङ्गे विबुधातिसङ्गे
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तुलाद्रितुङ्गेऽपि मुदा वसन्तम् ।
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तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं
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नमामि संसारसमुद्रसेतुम् ॥ २॥
(सिद्धि)
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अवन्तिकायां विहितावतारम्
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मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम् ।
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अकालमृत्योः परिरक्षणार्थम्
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वन्दे महाकालमहासुरेशम् ॥ ३॥
(हंसी)
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कावेरिकानर्मदयोः पवित्रे
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समागमे सज्जनतारणाय ।
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सदैवमान्धातृपुरे वसन्तम्
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ओङ्कारमीशं शिवमेकमीडे ॥४॥
(माया)
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पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने
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सदा वसन्तं गिरिजासमेतम् ।
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सुरासुराराधितपादपद्मम्
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श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि ॥५॥
(माया)
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याम्ये सदङ्गे नगरेऽतिरम्ये
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विभूषिताङ्गं विविधैश्च भोगैः ।
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सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं
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श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये ॥६॥
(वाणी)
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महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं
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सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः।
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सुरासुरैर्यक्ष महोरगाढ्यैः
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केदारमीशं शिवमेकमीडे ॥७॥
(हंसी)
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सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं
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गोदावरीतीरपवित्रदेशे ।
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यद्धर्शनात्पातकमाशु नाशं
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प्रयाति तं त्र्यम्बकमीशमीडे ॥८॥
(बाला)
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सुताम्रपर्णीजलराशियोगे
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निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यैः।
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श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं
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रामेश्वराख्यं नियतं नमामि ॥९॥
(माला)
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यं डाकिनिशाकिनिकासमाजे
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निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च।
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सदैव भीमादिपदप्रसिद्धम्
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तं शङ्करं भक्तहितं नमामि ॥१०॥
(माया)
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सानन्दमानन्दवने वसन्तम्
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आनन्दकन्दं हतपापवृन्दम् ।
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वाराणसीनाथमनाथनाथं
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श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये ॥११॥
(इन्द्रवज्रा)
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इलापुरे रम्यविशालकेऽस्मिन्
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समुल्लसन्तं च जगद्वरेण्यम् ।
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वन्दे महोदारतरस्वभावं
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घृष्णेश्वराख्यं शरणम् प्रपद्ये ॥१२॥
(माला)
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ज्योतिर्मयद्वादशलिङ्गकानां
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शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण।
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स्तोत्रं पठित्वा मनुजोऽतिभक्त्या
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फलं तदालोक्य निजं भजेच्चऽ॥
(भद्रा)
॥ इति द्वादश ज्योतिर्लिङ्गस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
आज हमारा देश ही नहीं, सम्पूर्ण मानवता एक अहि से, एक नवीन प्रकार के वृत्रासुर से भयत्रस्त है। सारा विश्व ही कालीदह बना है। पवन तक विषाक्त है जिसमें श्वांस ले कर इन्द्रियाँ जो गो ही हैं, शिथिल हो रही हैं, निर्जीव हो रही हैं। यजुर्वेद का अहिः पन्थां विसर्पति सर्वत्र दिख रहा है। आज पुनः एक इन्द्र की आवश्यकता है, एक उपेन्द्र की आवश्यकता है, जो इस वृत्र का, इस अहि का नाश कर के मानवता की रक्षा करे। मानवता पुकार रही है। इस संत्रास से हमारी रक्षा करो! आओ इन्द्र! आओ उपेन्द्र! अपने वज्र से, अपने चक्र से इस अणु-विष का नाश करो! इस असुर को, इसके पुरों को ध्वस्त करो! वज्रे स नो रक्षतु वज्रपाणिः! चक्रे स नो रक्षतु चक्रपाणिः!
अद्भुत। यह ज्ञानभंडार एक जन्म में संचित नहीं हो सकती। नमन है आपको।
ये अद्भुत से भी उच्च कोटि का है.त्रिलोचन भैया को दंडवत है????