Valmiki Ramayan Sundarkand वाल्मीकीय रामायण सुन्दरकाण्ड भाग – 34 से आगे
देवी सीता के वचन सुन कर भीम विक्रम हनुमान ने सिर पर अञ्जली बाँध कर उत्तर दिया कि कमललोचन राम नहीं जानते कि आप यहाँ हैं – न त्वामिहस्थां जानीते रामः कमललोचनः । मेरे द्वारा आप की स्थिति बताने पर वह वानर एवं ऋक्षों की विशाल सेना ले त्वरित प्रयाण कर देंगे।
विष्टम्भयित्वा बाणौघैरक्षोभ्यं वरुणालयम्
करिष्यति पुरीं लङ्कां काकुत्स्थः शान्तराक्षसाम्
काकुत्स्थ राम अपनी बाणवर्षा से इस अविचलित रहने वाले समुद्र को स्तब्ध कर देंगे एवं लङ्का के राक्षसों को नष्ट कर देंगे।
[समुद्र के साथ विष्टम्भ प्रयोग ऋग्वेद (9.2.5) में भी है – समुद्रो अप्सु मामृजे विष्टम्भो धरुणो दिव: । धरुण को वरुण से मिला कर देखें तो साम्य पर आश्चर्य होता है। वरुण शब्द का प्रयोग यहाँ उस प्राकृतिक कठोर अनुशासन का सङ्केतक है जिसका उल्लङ्घन कर समुद्र पर सेतु निर्माण प्राय: असम्भव था। चक्रवात में एवं किनारे पर समुद्र क्षुब्ध होता है किन्तु सामान्य समय एवं बीच में गहराई के कारण अक्षोभ्य अविचलित रहता है। विष्टम्भ शब्द का सम्बन्ध स्तब्ध करने से है। ऋग्वेद में स्थिर करने वाले अर्थ में ही विष्टम्भ शब्द प्रयुक्त हुआ है। सागर स्तब्ध हो जाय, वरुण का आलय विष्टम्भ हो जाय अर्थात उस पर निर्माण कर, उसका लङ्घन कर कोई पार कर जाय। टीकाकारों ने विष्टम्भ शब्द को भावी सेतु निर्माण का सङ्केतक माना है।]
तत्र यद्यन्तरा मृत्युर्यदि देवाः सहासुराः
स्थास्यन्ति पथि रामस्य स तानपि वधिष्यति
उस समय मृत्यु के देवता यम भी यदि देव एवं असुर सहित राम के पथ में विघ्न डालेंगे तो श्रीराम उन सबका भी वध कर देंगे।
[मृत्यु के देवता तक का वध ! ऐसी उक्ति द्वारा हनुमान ने श्रीराम के दृढ़ निश्चय एवं उनके भावी आयोजन की भयङ्करता को रेखाङ्कित सा कर दिया।]
तवादर्शनजेनार्ये शोकेन स परिप्लुतः
न शर्म लभते रामः सिंहार्दित इव द्विपः
आर्ये ! आप का दर्शन न होते रहने के कारण वह शोक में डूबे रहते हैं। राम को सिंह द्वारा पीड़ित हाथी की भाँति ही सुख नहीं है ।
दर्दरेण च ते देवि शपे मूलफलेन च
मलयेन च विन्ध्येन मेरुणा मन्दरेण च
यथा सुनयनं वल्गु बिम्बौष्ठं चारुकुण्डलम्
मुखं द्रक्ष्यसि रामस्य पूर्णचन्द्रमिवोदितम्
क्षिप्रं द्रक्ष्यसि वैदेहि रामं प्रस्रवणे गिरौ
शतक्रतुमिवासीनं नाकपृष्ठस्य मूर्धनि
हे देवी ! मैं मलय, विन्ध्य, मेरु, मन्दर एवं दर्दर पर्वतों की शपथ ले कर कहता हूँ एवं (अपने आहार) फल मूल की भी शपथ ले कर कहता हूँ कि आप शीघ्र ही सुन्दर नयनों, बिम्बाफल के समान (रक्त) ओठ एवं सुन्दर कुण्डलों से युक्त सुन्दर राम का पूर्णमासी को उदित चन्द्र की समता वाला मुख देखेंगी।
हे वैदेही ! आप हाथियों में श्रेष्ठ ऐरावत की पीठ पर आसीन सौ यज्ञ करने वाले इन्द्र की भाँति प्रस्रवण पर्वत पर विराजमान राम को शीघ्र ही देखेंगी ।
[प्रतिष्ठित अचल पर्वतों की शपथ द्वारा हनुमान ने अपने शपथ की दृढ़ता स्थापित की एवं आहार की शपथ ले उसकी असंदिग्धता । आहार जीवन की प्रथम मौलिक आवश्यकता है, उसकी शपथ लेने पर सन्देह का कोई कारण ही नहीं रह जाता। प्रस्रवण पर्वत की ऐरावत से एवं श्रीराम की इन्द्र से उपमा श्रीराम के प्रति हनुमान की निष्ठा एवं समर्पण को भी दर्शाती है।]
न मांसं राघवो भुङ्क्ते न चापि मधुसेवते
वन्यं सुविहितं नित्यं भक्तमश्नाति पञ्चमम्
राघव मांसाहार नहीं करते एवं मधु का सेवन भी नहीं करते । वे नित्य वानप्रस्थियों हेतु नियत, वन से प्राप्त फल मूल का आहार करते हैं एवं (प्रत्येक) तीसरे दिन (ही) अन्नग्रहण करते हैं।
[सुविहित, भक्त एवं पञ्चमम् पारिभाषिक शब्द हैं। सुविहितं अर्थात वानप्रस्थयोग्यत्वेन विहितं। भक्तं अर्थात अन्नं एवं पञ्चमं अर्थात प्रातस्सायंसायंप्रातरिति कालचतुष्टतयम् त्यक्त्वा पञ्चमे प्रात:काल इत्यर्थ: । दिनद्वयमतीतत्यभुङ्कत इत्यर्थ:।
प्रात:, सायं, प्रात:, सायं कर चार काल अन्न न ग्रहण कर तीसरे दिन के प्रात:काल अर्थात चार बिता कर पञ्चम काल में अन्न ग्रहण। पञ्चम के अन्य अर्थों में सायंकाल, दिन के पाँचवें भाग में एवं सामान्य आहार का पाँचवा भाग भी मिलते हैं किन्तु आश्वस्त नहीं करते।]
नैव दंशान्न मशकान्न कीटान्न सरीसृपान्
राघवोऽपनयेद्गत्रात्त्वद्गतेनान्तरात्मना
राघव राम का चित्त सदा आप में लगा रहता है, अत: उन्हें अपनी देह पर चढ़ते हुये डँस, मच्छर, कीट एवं सरीसृपों को हटाने की भी सुध नहीं रहती !
[एक सेवक का स्वामी के प्रति सूक्ष्म प्रेक्षण का भाव हनुमान के इस कथन में अभिव्यक्त हुआ है। गात्र शब्द का सुन्दर प्रयोग है। गात्र का सम्बन्ध अङ्गों की गति से है, यहाँ देह पर चढ़ते हुये जीवों को भी न हटाने में गतिशीलता के अभाव के गति अर्थ वाले शब्द से विरोधाभासी संयोजन श्रीराम की दशा को सफलतापूर्वक उभार देता है।]
नित्यं ध्यानपरो रामो नित्यं शोकपरायणः
नान्यच्चिन्तयते किंचित्स तु कामवशं गतः
अनिद्रः सततं रामः सुप्तोऽपि च नरोत्तमः
सीतेति मधुरां वाणीं व्याहरन्प्रतिबुध्यते
राम नित्य आप के ध्यान में रहते हुये निरन्तर शोक में डूबे रहते हैं। आप के प्रेम में निमग्न वे कुछ अन्य सोचते ही नहीं ! उन्हें सतत अनिद्रा रहती है । यदि वे नरोत्तम कभी सो भी जाते हैं तो ‘सीते सीते’ ऐसा मधुर वाणी में उचारते हुये ही जागते हैं।
दृष्ट्वा फलं वा पुष्पं वा यच्चान्यत्स्त्रीमनोहरम्
बहुशो हा प्रियेत्येवं श्वसंस्त्वामभिभाषते
स देवि नित्यं परितप्यमान;स्त्वामेव सीतेत्यभिभाषमाणः
धृतव्रतो राजसुतो महात्मा; तवैव लाभाय कृतप्रयत्नः
फल, फूल या उन्हीं के समान स्त्रियों का मन हरने वाली वस्तुओं को देखने पर लम्बी साँस ले बारम्बार हा प्रिये ! हा प्रिये !! कहते हुये आप को पुकारने लगते हैं ।
सा रामसङ्कीर्तनवीतशोका; रामस्य शोकेन समानशोका
शरन्मुखेनाम्बुदशेषचन्द्रा; निशेव वैदेहसुता बभूव
राम के सङ्कीर्तन से उन (सीता) का शोक बीत गया (कि राम मुझसे इतना प्रेम करते हैं कि विरह में ऐसी स्थिति हो गयी है !) किन्तु राम का शोक, उनकी स्थिति जान सीता उनके समान ही शोकग्रस्त हो गयीं । उस समय विदेहनन्दिनी सीता शरद ऋतु के आगमन के समय मेघों की घटा (अन्धकार) एवं चन्द्रमा (प्रकाश), दोनों से युक्त रात्रि के समान हर्ष एवं शोक से एक साथ युक्त प्रतीत होने लगीं ।
उन्हों ने हनुमान से धर्म एवं अर्थ से युक्त यह बात कही :
अमृतं विषसंसृष्टं त्वया वानरभाषितम्
यच्च नान्यमना रामो यच्च शोकपरायणः
हे वानर ! जो तुमने यह कहा कि राम का मन अन्य की ओर लगता ही नहीं एवं वे शोकनिमग्न रहते हैं, वह मुझे विषमिश्रित अमृत के समान लगा है ।
[प्रिय को मेरी इतनी सुध है ! अमृत समान । मेरे वियोग में प्रिय की ऐसी स्थिति हो गयी है ! विष का मिश्रण ।]
अगले अङ्क में :
उन्हें बताना कि इस संवत्सर की अवधि तक ही मैं जीवित हूँ । हे प्लवङ्ग ! दस महीने बीत चुके हैं, मात्र दो शेष हैं ।
अयं संवत्सरः कालस्तावद्धि मम जीवितम्
वर्तते दशमो मासो द्वौ तु शेषौ प्लवङ्गम