मेरे पास आपकी कोई भी धरोहर है, और मैं उसे आपको वापस कर दूँ तो वह क्या कहलायेगा ? नहीं, नहीं,ईमानदारी या नेकनीयती या कर्तव्य के रूप में न बताना आपके पास उस अमानत के पहुँचने के भाव को आप किस शब्द द्वारा व्यक्त करेंगे, यह बताना।
अब आप कहेंगे अजीब खब्ती है! सीधे सीधे कहेंगे जिसकी अमानत थी उसे वापस लौटा दी।
यानि यही मतलब न कि ‘वापस दी’ या ‘देना’?
ठहरिये तो सही, इस ‘देना’ नामक क्रिया का भाव ‘दान’ से भी तो व्यक्त होता है। वैसे दान का अर्थ हाथी के मस्तक से निकलने वाला मद भी होता है, एक प्रकार का मधु या शहद भी होता है, तो धर्म, परोपकार, सहायता आदि के विचार से अथवा उदारता, दया आदि से प्रेरित होकर किसी को कुछ देने की क्रिया या भाव भी होता है और आजकल खैरात के रूप में तो ज्यादा प्रसिद्ध है ही।
अब जिस शब्द अर्थ देना होता है उसी का अर्थ शहद भी है, पर दान शब्द रूढ़ हुआ देने के भाव में और उसमें भी ‘खैरात’ के अर्थ में अधिक प्रचलित है।
बस हो गया ना ‘दान’ का ‘कुदान’, मतलब कि अर्थ का अनर्थ। कुछ महानुभावों ने दान का अर्थ सिर्फ खैरात से जोड़कर कन्या के साथ लगे दान शब्द पर धावा बोल मारा और धावा भी इस दावे के साथ मारा है कि वेदों में तो कन्यादान शब्द का प्रयोग नहीं हुआ फिर इस निकृष्ट (उनके हिसाब से ) शब्द का प्रयोग विवाह में क्यों किया जाता है?
लो करल्यो बात! यह भी कोई बात हुयी कि मैं जिस जयपुर नामक भूभाग में रहता हूँ उस जगह का नाम तो ढाई-तीन सौ साल पहले जयपुर नहीं ‘ढूंढ़ाड’ था, और उससे भी पहले वैदिक काल में इसका कोई हिस्सा ‘मरू-धन्व’ कहलाता था, तो कोई हिस्सा ‘जाँगल’ के नाम से जाना जाता था और काफी सारा भाग ‘मत्स्य जनपद’ का भाग था।
अब जयपुर को आज क्या कहेंगे कि नहीं भाई तेरा नाम तो पुरा-साहित्य में जयपुर कहीं मिलता ही नहीं तो अब भी तू जयपुर कहलाने का अधिकारी नहीं है? जयपुर क्या करेगा खुद का करमडा फोड़ेगा ऐसा कहने वाले ज्ञानियों के आगे, जैसे ‘कन्यादान’ शब्द फोड़ रहा है।
कन्यादान शब्द तो चीख चीख कर कह रहा है कि हे लोगों! तुम मुझे सृष्टि चक्र को गति देने वाले दो तत्वों स्त्री-पुरुष को आपस में एक सूत्र में अटल रूप से पिरोने वाले ‘विवाह’ के सन्दर्भ में ही देखो न कि ‘आज मैं बनी तेरी लुगाई परसों किसी और से होगी सगाई’ की भावना वाले ‘मैरिज’ नामक समझौते के सन्दर्भ में।
सन्दर्भ के धुँधलाते ही अर्थ के अनर्थ हो जाते हैं। कन्यादान का सन्दर्भ ‘विवाह’ नामक संस्कार है। इस सृष्टि में मानव जीवन की उत्पत्ति के लिए स्त्री-पुरुष का मिलन आवश्यक है, उस जीवन को सुचारु तरीके से आगे बढ़ाने के लिए दांपत्य जीवन परम आवश्यक है।
जिस तरह स्त्री-पुरुष में से कोई अकेला संतानोत्पत्ति नहीं कर सकता, उन दोनों के एक होने पर ही नए अस्तित्व का निर्माण होता है, उसी तरह गृहस्थी भी अकेले से नहीं बनती है जब तक दो अस्तित्व आपस में मिलकर एक नहीं होते। इस एक होने का नाम ही तो विवाह है। कहने का अर्थ यह कि एक के बिना दूसरा अधूरा है दोनों के मिलने पर ही एक बनेंगे।
अब एक कैसे बनेंगे? आधा शरीर तो एक जगह है और आधा शरीर दूसरी जगह, यानि एक तत्व किसी के घर में जन्म ले कर बैठा है और शेष तत्व दूसरे के घर में। पुरुष के आधे अंग को यानि उसकी अमानत को एक दंपति पाल रहे हैं रक्षण कर रहे है उसके प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहें है, और नारी की अमानत किसी दूसरी जगह स्थित हो पालन पोषण प्राप्त कर रही है।
इन दोनों अधूरे तत्वों को मिलाने की विधि का नाम विवाह है। जिसके अंतर्गत दोनों एक दूसरे की जिम्मेदारियों के वहन की प्रतिज्ञा के साथ पूर्ण तत्व बनते हैं।
अब जगत की रीति यह है कि नारी विवाह करके पुरुष के घर जाती है। इसलिए कन्या का उत्तरदायित्व निभाने वाले दंपत्ति उसके अधिकारी को विवाह द्वारा अपनी कन्या सौंपते हैं, यह रीत उलटी होती तो वर के माता पिता स्त्री को उसका अर्धांग यानी अपना पुत्र देते।
धरोहर लौटा दी तो इस स्पष्ट घोषणा के साथ कि:
‘…विष्णुरूपिणे वराय, भरण-पोषण-आच्छादन-पालनादीनां, स्वकीय उत्तरदायित्व-भारम्, अखिलं अद्य तव पतनीत्वेन, तुभ्यं अहं सम्प्रददे।‘
“हे विष्णु स्वरुप वर! भरण-पोषण पालन आदि के सारे उत्तरदायित्व मैंने तुम्हारी पत्नी के प्रति निभाए हैं, उन सारे उत्तरदायित्वों को तुम्हें देते हुए तुम्हारी पत्नी तुम्हें सम्यक रूप से प्रदान करता हूँ।“
देख लो जी! ऐसे जेब में से चवन्नी की तरह निकाल कर खैरात नहीं पटक रहे हैं। सम्यक रूप से जो जिसके अधिकारी हैं उन्हें आपस में दायित्वों के वहन के लिए विवाह द्वारा दे रहें है। पिता द्वारा अपनी कन्या को उसके योग्य वर को जो कि उसके प्रति दायित्वों के निर्वहन का अधिकारी है को देना ‘कन्यादान’ नहीं तो और क्या कहेंगे? रीत उल्टी होती तो ‘वर-दान’ कह देते। तब सम्भवत: पुरुष जागृति दूतों को इस ‘वर-दान’ से चिढ़ होती।
आनन्दाश्रूणि रोमाञ्चो बहुमानः प्रियं वचः।
तथानुमोदता पात्रे दानभूषणपञ्चकम् ॥
‘आनंदाश्रु, रोमांच, लेनेवाले के प्रति अति आदर, प्रिय वचन, सुपात्र को दान देने का अनुमोदन – ये पाँच दान के भूषण हैं ।‘
क्या ये सब भूषण हिन्दू विवाह के आठ प्रकारों में सबसे श्रेष्ठ ब्रह्म-विवाह में ‘कन्यादान’ के समय नहीं दिखाई देते?
अब आप ही बताइये कन्यादान हो या वर-दान, क्या बुराई है!
वरदान को संधिविच्छेद कर ही दिए हैं तो….
वर-दान पर भी एक लेख अपेक्षित!
😊
सृष्टि के विकास के कई रूप हैं, इनमें से मैथुनी सृष्टि के लिए दो विपरीत लिंगों का मिलना जरूरी है। दोनों अधूरे हैं और पूर्ण होने पर ही सृष्टि का विकास होगा, यह संभवत: मूल धारणा है।
बाकी
प्रकृति और पुरुष में प्रकृति मूल मेंं है और पुरुष की छाया मात्र प्रकृति के त्रिगुणों में विकार से सृष्टि का आर्विभाव होता है। यहां प्रकृति वही शक्ति है जिसकी सौंदर्यलहरी में आदिगुरु आराधना कर रहे हैं और पुरुष वही कैवल्य चेतन शिव हैं 🙂
(जैसा मैं समझता हूं)