भाग -1 से आगे…
जेठ आषाढ़ का सन्धिकाल है। नीम की छाँव में रह रह आती प्रिय पवन को दुपहर की तपन से मिला कर उसे पीता सा एक युवक स्तब्ध आकाश निहार रहा है। उसके कानों में अभी अभी पढ़ी गयी पुस्तक के अश्वों के टाप की गूँज है और सामने चमकती कठभठ्ठा भूमा की धूल उठ उठ खैबर दर्रे का आभास दे रही है…
…आधुनिक हिन्दुकुश, सीमांत प्रांतर में नहीं, इस देश के हर विद्यार्थी के झोले में है, हर पुस्तकालय में, हर मस्तिष्क में है – वह बुदबुदाया है। उमस बढ़ गयी है, दूर कहीं सन्नाटे को चीरती कड़क उठी है और आकाश धूसर श्याम होता चला गया है। त्वचा ने पहले पानी का एक बहुत झीना सा अनुभव किया है, कानों को पता नहीं किन्तु नथुनों में भीगती धूल की सोंधी गन्ध भरती चली गयी है। खैबर अब जाने कहाँ है, आह आषाढ़! कैसा ऐन्द्रिक अनुभव। पाँच इन्द्रियाँ, पाँच अनुभव। वे समस्त पुस्तकें जिनमें उन्हें खैबर से आया प्रलय दिखता है, ऐसे देश में रची गयीं जिसकी जलवायु में ही छ: ऋतुओं और पाँच अनुभवों का पूर्ण दार्शनिक परिपाक हो सकता था। आश्वस्त भाव से युवक मुस्कुराया है – छली, धूर्त।
झमाझम वर्षा। आह पर्जन्य, संवत्सर को वर्ष क्यों कहते हैं? घटा घहरानी तड़ित झंझा ने उत्तर दिया है – तुम्हें नहीं पता, नहीं जानते? तड़ तड़ तड़ ….
… मनस>आकाश>वायु>ज्योति>आप:(जल)>भूमि
प्रेरण(चोद्यमान)>शब्द>स्पर्श>रूप गुण>रस>गन्ध…
उपलब्ध मनुस्मृति के अध्याय 1 के श्लोक 75 से 78 का सारांश ऊपर दिया है जिसकी चिंतन धारा वेदों, ब्राह्मणों और उपनिषदों से अक्षुण्ण आ रही है। भूगोल, जलवायु, ऋतुचक्र, अर्चना और दर्शन का सतत मेल पूरी परम्परा को विशुद्ध भारतीय सिद्ध करता है। सातत्य साक्षी है।
उपलब्ध मनु स्मृति को इस यात्रा में संक्षिप्त रूप में ‘उ.म.स.’ लिखा जायेगा। अन्वेषण के आधार पर प्रक्षिप्त अंशों से मुक्त संहिता को हम मनुस्मृति कहेंगे। यह भेद महत्त्वपूर्ण है।
उ.म.स. में बारह अध्याय हैं जिनमें कुल्लूक पाठ के अनुसार कुल 2685 श्लोक हैं। ऐसा नहीं है कि उ.म.स. में मनुस्मृति अपने पूर्ण रूप में क्षेपकों के योग के साथ उपस्थित है। मनुस्मृति के कुछ अंश अब अनुपलब्ध हैं। उदाहरण के लिये वशिष्ठ स्मृति में यह श्लोक मनुस्मृति के नाम से उद्धृत है किन्तु उ.म.स. में उपलब्ध नहीं है:
वपनं मेखला दण्डो भैक्षचर्य्याव्रतानि च।
निवर्तन्ते द्विजातीनां पुन: संस्कारकर्म्मणि॥
निवर्तन्ते द्विजातीनां पुन: संस्कारकर्म्मणि॥
उल्लेखनीय है कि नारद स्मृति मनुस्मृति में 4000 श्लोक और उसके अंतिम संकलनकर्ता का नाम सुमति भार्गव बताती है। एक मत के अनुसार उ.म.स. का वर्तमान पाठ उसमें वर्णित मनु और भृगु का न हो कर किसी तीसरे अनाम रचयिता का है।
मनु के साथ भृगु और भार्गवों से परिचय पाना होगा और उ.म.स. के साथ वा.रा. (वर्तमान रामायण, वाल्मीकि), वर्तमान महाभारत (महा.), कौटलीय अर्थशास्त्र (कौ.अ.शा) और कुछ पुराणों से भी।
पहले भारतीय इतिहास के उस खण्ड से जो अपेक्षतया नया है। इस कालखण्ड में वास्तव में खैबर और सीमांत से आने वाले आक्रांताओं के अश्वों के टाप कानों को दहलाने वाले हैं और धूल इतनी है कि भारत के आकाश के सारे दैदीप्यमान नक्षत्र धुँधला जाते हैं – आज से 2200 से 1700 वर्ष पहले के बीच का प्राय: पाँच सौ वर्षों का समय। यह वह समय है जब रामायण, महाभारत, स्मृतियाँ, पुराण और अनेक शास्त्र पुनर्सम्पादित, अभिवर्द्धित और कुछ सृजित भी किये जाते हैं जिनमें वह ‘एकदा नैमिषारण्ये’ वाली सत्यनारायण कथा भी है जो आज उत्तर भारत में समूचे आराधना तंत्र का सरल, सुगम और सहज विकल्प है। इन परिवर्तनों के क्या कारण हैं?
कारण हैं आक्रांताओं की घुसपैठ, उनका प्रशासन तंत्र और उनके द्वारा स्वयं के भारतीयकरण के सशक्त सफल उद्योगों से उत्पन्न जाने कितनी जटिल समस्यायें और सामाजिक उथल पुथल। भारत का उत्तरपश्चिमी प्रांतर तो सदा से आक्रमणों को झेलता रहा किंतु यवन दिमित्रियस द्वारा हिन्दुकुश पर्वत पार करने से एक ऐसा युग प्रारम्भ हुआ जो कि आज से 1900 वर्ष पहले तक 30 यवन शासकों और उसके आगे लगभग 200 और वर्षों तक विभिन्न क्षत्रपों द्वारा शासन का रहा। मथुरा से भी आगे पूरब बढ़ते हुये काम्बोज, यवन और माथुर सेनाओं ने साकेत को रौंद डाला, कुसुमपुर की प्राचीरें ढहा दी गयीं और समूचा गांगेय क्षेत्र अनोखे सामाजिक परिवर्तनों का प्रयोगस्थल बना। यवन, शक, पह्लव आदि शासकों और क्षत्रपों में मिलिन्द और कनिष्क दो प्रमुख नाम हैं। अपने मूल स्थानों के दूसरे आक्रांताओं द्वारा त्रस्त होने के कारण एवं शैव और बौद्ध मतों के अनुपालन में ये आक्रांता भारतीय होते चले गये। इनकी सूचना और उल्लेख वा.रा., महा., वायुपुराण, महाभाष्य आदि ग्रंथों में मिलते हैं। स्पष्टत: महाभाष्य को छोड़ सभी मूल में जोड़े गये क्षेपक हैं।
मिलिन्द (मिनेण्डर, Μένανδρος) के सिक्के पर उसकी आकृति पूर्णत: यवन की है। मिलिन्द ने बौद्ध धम्म अपनाया तो शकों में अनेक ने शैव मत। लगभग पाँच सौ वर्ष तक बिखरे यवन-पह्लव-शक-क्षत्रप शासन ने अभूतपूर्व समस्यायें उत्पन्न कीं – आक्रांता शासक और देसी पंथ के मेल से उपजा असंतुलन, भारतीय होते जाने और राजन्य एवं व्यापारी वर्ग का होने के कारण उन्हें वर्णव्यवस्था में सम्मानित क्षत्रिय और वैश्य स्थान देने का दबाव; बौद्ध हो चुके जन का सनातनी व्यवस्था के आचार और अनुशासन मानने से निषेध; कृषि, व्यापार और अन्य आर्थिक व्यवहार में शक्तिशाली हो चुके ऐसे वर्ग से विधायी व्यवहार का दबाव; कुलीन और सामान्य दोनों वर्गों में नये प्रभावी वर्ग के साथ वैवाहिक सम्बन्धजनित कारण; लघु प्रभावक्षेत्र वाले छोटे क्षत्रप सत्ता केन्द्रों और भारतीय प्रतिरोध से जनित युद्धों के कारण अशांति की स्थिति; स्त्रियों की सुरक्षा और उनके स्वैरिणी होने से कुलनाश की चिंतायें आदि।
कुल मिला कर यह समय मंथन और अभूतपूर्व परिवर्तन का रहा जिसमें सनातनी धारा ने एक ओर तो अपने कवच कठोर कर निषेधों की संख्या बढ़ाई तो दूसरी ओर सरलीकरण द्वारा वैकल्पिक मार्ग भी प्रशस्त किये। गुप्तों का काल यदि इनके पश्चात का मानें तो उनके समय में शांति और स्थिरता बढ़ती है लेकिन तब तक समाज एक नये ढर्रे में ढल चुका होता है।
उ.म.स. इसी समय का संकलन है जिसे भृगु का नाम दिया गया है। रामायण में स्त्री की यौन पवित्रता की चिंता को ले कर अग्निपरीक्षा आयोजन हो, सीता निष्कासन हो, शम्बूक वध हो, महाभारत में वर्णसंकरता की चिंता हो, उ.म.स. के स्त्री और शूद्र सम्बन्धित निषेध और दण्ड हों – ये सब इसी समय में सूत, सौति, वैशम्पायन आदि के नाम से अन्य अनाम रचनाकारों द्वारा प्रक्षिप्त किये गये। जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, कुछ समय की माँग, धर्म बचाने की चिंता, कुछ भय, कुछ स्वार्थ, कुछ प्रसिद्धि और कुछ राजकृपा की आकांक्षा – ये सभी कारक सक्रिय थे। इसी कालखण्ड में स्वायम्भू मनु की मानव धर्मशास्त्र नामधारी वाणी वैवस्वत मनु प्रणीत स्मृति बनती चली गयी। सातत्य और औचित्य की कसौटियों पर कसने पर उ.म.स. के अंतर्साक्ष्य और प्रावधान ही क्षेपकों का अभिज्ञान सरल कर देते हैं।
अपनी यात्रा में हम पहले स्त्रियों और शूद्रों से सम्बन्धित उन विधानों पर ध्यान देंगे जिनका आश्रय ले वामी और प्रतिगामी उ.म.स. की प्रतियाँ जला कर क्रांति नाम का धुआँ धुआँ उड़ाये हुये हैं। पहले आभासी शत्रु का सशक्त रूप गढ़ना, उसके पश्चात उससे संघर्ष के भीतिउद्घोष सृजित कर क्रांतिकारिता का भ्रम उत्पन्न करना और इस प्रक्रिया में स्वयं के लिये रोटी-बोटी-मदिरा का जुगाड़ करना वाममार्गियों का स्वतंत्र भारत में सदा से चला आ रहा एक पाखण्डी अभियान रहा है। यह यात्रा उनके अकादमिक खोखलेपन और छल छद्म को चिह्नित करने में सहायक होगी, ऐसी आशा है।
अद्भुत है यह काम। आशा है इसे अन्त तक पूरा करेंगे।