बनारस में वैसे तो मल्लाहों की बस्ती वाला ‘निषाद राज घाट’ भी है लेकिन नये बने ‘रविदास घाट’ (असी घाट से आगे) से लेकर वरुणा और गङ्गा के संगम तट पर स्थित ‘आदिकेशव घाट’ तक फैले अस्सी घाटों तक निरंतर बहती हैं नावें और दिखते हैं निषाद जिन्हें हम मल्लाह, केवट, माझी आदि नामों से जानते हैं। मल्लाह हैं तो मल्लाहों के बच्चे भी होंगे। बच्चे हैं तो खेलेंगे भी। घाटों में, नावों में, गंगा जी में हो या उस पार फैले विस्तृत रेत के मैदानों में, खेलते-खेलते कब ये गोते लगाना और कब नाव चलाना सीख जाते हैं, इन्हें भी नहीं पता। बड़े होकर मल्लाह बनने और नाव लेकर यात्रियों को नाव में फेरी कराने से पहले, खेल ही खेल में ये पैसे कमाना भी सीख जाते हैं। नैया खोल छोटी-छोटी टोकरियों या कागज़ के थैलों में, फूल या दीपक सजाकर गंगा की धार में यात्रियों की तलाश में निकल पड़ते हैं।
इनके खेल भोर से देर साँझ तक ओराते नहीं। बाढ़ के दिनों को छोड़ दें तो जाड़ा हो, गर्मीं हो या बरसात, कोई मौसम इनके खेल में बाधक नहीं बन पाता। आजाद उड़ते जंगली गोला कबूतर की तरह धमा चौकड़ी के बाद शाम ढले ये अपने-अपने दड़बों में पुन: लौट आते हैं। सदियों से बनारस के रईसों की रईसी और पर्यटकों की मौज-मस्ती सब इन्हीं बनारसी मल्लाहों पर टिकी है। सदियों की रईसी यानि मल्लाही की लम्बी परम्परा इन्ही बच्चों पर टिकी है जो बड़े होकर पूर्ण मल्लाह बनते हैं।
इन बच्चों पर किसी का लिखा कहीं कुछ मिला नहीं। विदेशी पर्यटकों का ध्यान इन पर आकर्षित होता है। मैंने एक विदेशी महिला को निषाद राज घाट पर इनके साथ महीनों समय बिताते, तस्वीरें खींचते, बतियाते, प्यार करते, टाफी-बिस्कुट बाँटते देखा था। वे अपने आधुनिक पोलराइड कैमरे से इनके चित्र निकालतीं और तुरंत कापी इन बच्चों को पकड़ा देतीं। उनके चारों ओर मजमा सा लगा रहता। स्यात उन्होंने घर जा कर कुछ लिखा हो। चित्रकारों को भी घाट किनारे बैठ इनकी पेंटिङ्ग बनाते देखता हूँ। साहित्यकारों, कलाकारों या किसी भी संवेदनशील पर्यटक में घाट किनारे खेलते, स्कूल न जाने वाले ये मल्लाहों के बच्चे कुतूहल जगा सकते हैं।
प्रश्न यह उठता है कि ये बच्चे स्कूल जाने लगे और पढ़ लिख कर दूसरे व्यवसाय अपनाने लगें तो क्या होगा? केवटों की इस लम्बी परम्परा का क्या होगा? न पढ़ें, दूसरे पेशे में न जा कर क्यों बने रहें जीवन भर मल्लाह के मल्लाह? नदी है तो बहेगी ही, घाट हैं तो नाव भी होंगे, नाव है तो मल्लाह भी होंगे, पर कब तक? कब तक मल्लाह के बच्चे अशिक्षित और शेष संसार से कटे-कटे रहेंगे?
लेखक : देवेन्द्र कुमार पाण्डेय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से वाणिज्य परास्नातक। साहित्यिक गतिविधियों और फोटोग्राफी में रुचि। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य , कविता, लेख आदि प्रकाशित। आकाशवाणी और दूरदर्शन वाराणसी से काव्य पाठ। काव्य संग्रह: काव्य-स्वर, संभावना डाट काम, बालार्क, पूर्वांचल की माटी में संयुक्त काव्य प्रकाशन। |
कोई एन जी ओ हो जो आपका आलेख पढ़े…
या
आप एन जी ओ बन जाओ तो हम फंडिंग जुटाएं..
पढ़ लिख जायें ये बच्चे फिर बेशक मोटर बोट चलायें या नाव..एक सोचा समझा निर्णय होगा तब न कि थोपा हुआ..व्यवसाय के नये आयाम तो खुलेंगे ही इन नादान मल्लाहों के लिए…फिर इनके भी तो बच्चे होंगे…
अस्सी घाट अस्सी से ज्यादा का बोझ तो न ले पायेगा…सोचना पहले से होगा…
वो गंगा माई के सुपुत्र, घोषणापीर, से तो अब आशा शेष न रही जो माँ की पुकार सुन कर बनारस आया था…और विदेश गमनीय हो चला है…
विचार कर बताओ..अगर कुछ यहाँ से मदद की जुगत बनायें तो कोई एन जी ओ खड़ी की जाये इन बच्चों के भविष्य को संवारने निखारने के लिए..इन्तजार रहेगा…ईमेल में…
Nice shots