ऋषि, मनीषियों और विचारकों की भाषा संस्कृत हमारे संस्कृति ज्ञान की पहली सीढ़ी है।
अस्माकं जीवने न केवलं अस्माकं व्यवहारः, दैनन्दिन कार्यकलापाः, परस्पर वार्ताः अपितु सर्वाः क्रियाः अस्माकं चरित्रं दर्शयन्ति। सामान्याः भारतीयजनाः तेषां जीवने, वेद अथवा वेदाधारित अन्यान्य ग्रन्थान् तथाच तेषां चरित्रानुसरणं कुर्वन्ति। इयं वेदाधारित जीवन पद्धतिः अस्माकं भारतीय संस्कृतिः। भारतीय जनमानस चरित्रं च अवगन्तुं भारतीय ग्रन्थाणां ज्ञानं आवश्यकमस्ति। पुरा मनीषिणः बहुषु विषयेषु शोधं कृत्वा सत्यज्ञान, विज्ञान, दर्शन, खगोल इत्यादीनां सार रूपं संग्रहीतवन्तः। परन्तु यदि वयं संस्कृतं न जानीमः तर्हि सामान्यमपि ग्रन्थान् अवगन्तुं न शक्ष्यामः। अन्यथा वयं पाश्चात्य वैदेशिक विद्वज्जनान् कृत आङ्ग्लभाषायां/ हिन्द्यां अन्ये च भाषायां कृत व्याख्यानुवादान च निर्भराः भविष्याम:। वयं भारतीयाः, अतः वयं सामान्य भारतीय जनमानसं जानीमः अपरत्र वैदेशिकाः न जानन्ति। वयं बिन्दुतः बिन्दु संयोजने परस्पर संबन्धान कृत्वा मनीषिणेन कृत ज्ञान-विज्ञानं अवगन्तुं निरायासेन समर्थाः। अतः ऋषीणां-मनीषीणां-विचारकाणां संस्कृत भाषा अस्माकं संस्कृति ज्ञानाय प्रथमः सोपानः।
संस्कृत भाषा अति सरला तथा वैज्ञानिकञ्च, गणित इव संस्कृत भाषायां अपि सूत्राः, प्रमेयाः शब्द-वाक्य सिद्धिं भवति न तु आङ्ग्लभाषा सदृश अनैकान्तिक नियमाः। संस्कृतभाषा सहाय्येन वयं अस्माकं धार्मिक ज्ञानमपि ज्ञातुं शक्नुमः। संस्कृतस्य ज्ञानं विना कश्चिदपि अल्पधी महानुभावेन कृत कुव्याख्या हि अस्माकं ज्ञानं भविष्यति। भारतीय संस्कृति दर्शनं च सदा प्रत्येकस्य स्वकीयं प्रयासं निर्दिशति न तु कश्चित् अन्यस्य कृत प्रयासाः, सदा स्मरेम, गुरुः मार्गदर्शकः न तु तव स्थानं प्रयासकर्ता। अतः स्वकीयं प्रयासेन संस्कृतं पठतु, अस्माकं भारतीयानां स्वाभिमानः संस्कृतम्।
बहवः जनाः विना संस्कृतज्ञाने विना अस्माकं ग्रन्थान पठयित्वापि तेषां छद्म ज्ञानं वितरन्ति। यदि वयं स्वभाषा न जानीमः तर्हि एषः छद्म ज्ञानोपि अस्माकं कृते सत्य ज्ञानं इव भविष्यति। यदि वयं स्वभाषा संस्कृत भाषा जानीमः तर्हि अस्माकं जीवने भारतीयता वर्तिष्यते। वयं सर्वे संस्कृतस्य संबन्धिनाः सन्ति, वयं हि संस्कृतस्य संरक्षणं, प्रसारं, हितं स्वहितम् च साधितुम संस्कृतं पठेम। यदि भारते संस्कृत, भारतीयसंस्कृति च नावशिष्यते तर्हि कुत्र अवशिष्यते इति विचारणीयम्।
पठतु संस्कृतम् ! वदतु संस्कृतम् !!
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हम सम्बद्ध हैं!!
हमारे जीवन में हमारा व्यवहार, दैनिक कार्यकलाप, हमारी परस्पर बातें और भी बहुत सी क्रियायें हमारे चरित्र को दर्शाती हैं। सामान्य भारतीय जन अपने जीवन में वेद या वेद पर आधारित ग्रंथों का या उन के चरित्रों का अनुसरण करते हैं। यह वेद पर आधारित जीवन पद्धति ही हमारी भारतीय संस्कृति है। भारतीय जनमानस या उसका चरित्र जानने-समझने के लिए भारतीय ग्रंथों के ज्ञान की आवश्यकता है। पुराने मनीषियों ने बहुत से विषयों पर शोध करके सत्यज्ञान, विज्ञान, दर्शन, खगोल इत्यादि का सार रूप संग्रहीत किया। हम यदि संस्कृत नहीं जानते हैं तो हम सामान्य ग्रन्थ भी समझने में असमर्थ होंगे। अन्यथा हम पाश्चात्य विदेशी विद्वानों के अंग्रेजी, हिंदी या किसी अन्य भाषा में किये हुए अनुवाद और व्याख्या पर निर्भर रहेंगे। हम भारतीय हैं, अतः हम सामान्य भारतीय जन-मानस को जानते हैं जबकि विदेशी नहीं जानते हैं। हम बिंदु से बिंदु जोड़ कर परस्पर सम्बन्ध बना कर मनीषियों के किये ज्ञान-विज्ञान को समझने में बिना प्रयास के ही समर्थ हैं। अतः ऋषि, मनीषियों और विचारकों की भाषा संस्कृत हमारे संस्कृति ज्ञान की पहली सीढ़ी है।
संस्कृत भाषा बहुत सरल और वैज्ञानिक है, न कि अंग्रेजी की तरह विविध बदलते नियमों वाली। गणित की तरह इस में भी सूत्र, प्रमेय और शब्दों और वाक्यों को सिद्ध किया जाता है। संस्कृत भाषा की सहायता से हम अपना धार्मिक ज्ञान भी जानने में समर्थ हैं। संस्कृत के ज्ञान के बिना, किसी भी मंद-बुद्धि महानुभाव के द्वारा की गयी गलत व्याख्या ही हमारा ज्ञान होगी। भारतीय संस्कृति और दर्शन, प्रत्येक को अपने किये गये प्रयास का ही निर्देश करता है, सदा याद रखें, गुरु हमारा मार्गदर्शक है न कि हमारे स्थान पर प्रयास करने वाला। अतः अपने किये प्रयास से संस्कृत पढ़िये, संस्कृत हमारे भारत का स्वाभिमान है।
बहुत से लोग बिना संस्कृत ज्ञान के और बिना हमारे ग्रन्थ पढ़े ही अपना छद्म ज्ञान बाँटते रहते हैं। यदि हम अपनी भाषा जानते हैं तभी हमारे जीवन में भारतीयता रहेगी। हमारा सभी का संस्कृत से सम्बन्ध है, हम ही संस्कृत का संरक्षण, प्रसार, हित और अपना हित करने के लिए संस्कृत पढ़ें। यह विचारणीय है कि यदि भारत में संस्कृत और भारतीय संस्कृति नहीं बचेंगी तो कहाँ बचेंगी? संस्कृत पढ़ें! संस्कृत बोलें!!
लेखक: अलंकार शर्मा शिक्षा: गणित स्नातक, स्नातकोत्तर कंप्यूटर विज्ञान, आचार्य – फलित ज्योतिष संयोजन: पं. बैजनाथ शर्मा प्राच्य विद्या शोध संस्थान का कार्यभार सम्पादक: प्राच्य मञ्जूषा |
भारतस्य प्रतिष्ठा द्वे, संस्कृतं संस्कृतिस्तथा।
अपि च संस्कृतिः संस्कृताश्रिता। अतः संस्कृताध्ययनम् अत्यावश्यकम्। इत्यहमन्ये।
करना तो पड़ेगा ही । नहीं तो अंधकूप में ही पड़े रहेंगे ।
Satya vachan, this is a motivational and to the point article. I am insipred to learn sanskrit, and now understand the actual need of learning.. Anyatha, arth ka anarth ho jayega.