आपने देखा होगा, वेदपाठी पाठ करते समय अपने हाथों को ऊपर नीचे करते रहते हैं। स्पष्ट सी बात है, संभवत: आपको पता हो कि वे चढ़ाव एवं उतार के अनुसार हाथों को हिलाते हैं। संगीत के सात स्वरों के बारे में भी आप ने सुना होगा, षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद, जिनके संक्षिप्त रूप सा, रे ग, म, प, ध और नि हैं। स्वर ही अपभ्रंश होकर ‘सुर’ हो गये। यहाँ सुर, असुर, सुर एवं सुरा से भिन्न है। पण्डित कैसे स्वरों को साधते हैं?
स्वरों को मात्राओं से सजाया जता है, जिनके विभिन्न भेद हैं। स्वर कौन से हैं? आपने ओलम में पढ़ा होगा, स्वर और व्यञ्जन। इनमें ‘अ’ से लेकर ‘औ’ तक एवं उच्चारण में तिगुने समय लेने वाले प्लुत मिला कर स्वर होते हैं जिन्हें तीन भागों में बाँटा जा सकता है:
- ह्रस्व: जिन स्वरों के बोलने में थोड़ा समय लगता है वे ह्रस्व कहलाते हैं, अ, इ, उ, ऋ। अग्नि पुराण के अनुसार एक पलक पात समय में जिसका उच्चारण हो जाता है, वह ह्रस्व स्वर होता है। संगीत में स्वर एक निश्चित ऊँचाई की ध्वनि का नाम है।
- दीर्घ: जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वर से दुगना समय लगता है, वे दीर्घ कहलाते हैं, आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ। भारतीय संगीत में एक स्वर की ऊँचाई से ठीक दुगुनी उँचाई के स्वर के बीच 22 संगीतोपयोगी नाद हैं जिन्हें श्रुति कहा गया है।
- प्लुत: जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से अधिक समय लगता है, उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। यह ह्रस्व से तिगुना होता है एवं इसे दर्शाने के लिये में नागरी लिपि के अङ्क ३ का प्रयोग होता है, यथा ओ३म्, हे कृष्णा३।
मात्रा (Quantification) शब्द को ऐसे समझ सकते हैं कि उपर्युक्त वर्गीकरण समय को ही आधार मान उच्चारण में उसकी मात्रा बता रहा है। एक पुराण प्रसंग है जिसमें नारद जी ने सुतनु से पूछा था कि मातृकायें कितने प्रकार की होती हैं? उत्तर में सुतनु ने वर्णों को ही मातृका बताया था। मात्रा शब्द का मातृका शब्द से साम्य द्रष्टव्य है।
स्वरों की तथा पाठ करते समय हाथ हिलाने कि क्या आवश्यकता है? ऐसा इस कारण है कि वेद छंदों में लिखे गये हैं। छन्द को meter से समझिये, माप कर विशिष्ट क्रम में रखी गयी मात्राओं का ढाँचा।[1] छंदों में मात्रायें तो होती ही हैं, संगीत में भी होती हैं।
संगीत कि मात्राओं को समझते हैं। संगीत में जो ताल होता है वह निश्चित मात्राओं मे बँधा और प्रयुक्त बोलों के निश्चित बल भार द्वारा पारिभाषित होता है (Quantification)। मात्रा (beat) किसी भी ताल के न्यूनतम अवयव को कहते हैं, कुछ प्रकार एक-ताल, तीन-ताल, झप-ताल आदि। क्योंकि किसी भी ताल की मात्रायें बराबर होती हैं, इन मात्राओं को एक सा रखना ही ताल, लय[2] में पूर्णता प्राप्त करना है। लय यदि ठीक होगी तो ताल ठीक आयेगा ही और ताल के शुद्घ होने पर सम, सम पर आयेगी, सम यानि ताल की पहली ताली। इस प्रकार इनका एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध है।
ताली क्या है? ताल का अर्थ है ताली देना। दूसरे अर्थ में ताल निश्चित समय चक्र का नाम है, यथा – ताल तीनताल या त्रिताल में ताल 3 हैं। इसका अर्थ यह है कि इसके 16 मात्रा के समय चक्र में 3 स्थानों पर ताली देते हैं। पहली, पाँचवी तथा तेरहवीं मात्रा पर ताली दी जाती है। जबकि 9वीं मात्रा पर खाली अथवा काल होता है। खाली के बाद जो ताली आती है वह पहली, दूसरी, तीसरी; इस प्रकार क्रम रहता है। आपने देखा होगा जो गायक या तबलावादक होते हैं, वे अंगुली पर कुछ गिन कर अपनी जाँघ पर ताली देते हैं। वे मात्रायें गिनते हैं, तदुपरांत ताली देते हैं जिससे ताल की लय बनती है। गायन के समय हाथ हिलाते वेदपाठी वस्तुतः लय बना रहे होते हैं, आरोह अवरोह को हाथों की गति से संयोजित कर रहे होते हैं।
छंदों में मात्रा (Quantification) कहाँ होती है? वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं। मात्रायें दो प्रकार की होती हैं, लघु और गुरु। ह्रस्व उच्चारण वाले वर्णों कि मात्रायें लघु होती हैं एवं दीर्घ उच्चारण वाले वर्णों कि गुरु। लघु मात्रा का मान 1 होता है और जिसे ‘।‘ चिह्न से दर्शाते हैं। गुरु मात्रा का मान 2 होता है जिसे ‘ऽ‘ चिह्न से दर्शाते हैं। (ऊपर, ओलम के समय में मात्रा शब्द का प्रयोग पुन: देखिये।)
मात्राओं और वर्णों कि संख्या और क्रम की सुविधा के लिए तीन वर्णों के समूह को एक ‘गण’ मान लेते हैं। गणों कि संख्या 8 है। गण का विचार केवल वर्णवृत्त में होता है (वर्ण वृत्त को अभी आगे देखेंगे, सम्प्रति नोट कर लीजिये)। आठ गण मात्रा समुच्चय एवं क्रम अनुसार निम्न हैं:
- यगण (य) -।ऽऽ – ‘विधाता’
- मगण (म) – ऽऽऽ – ‘साम्राज्ञी’
- तगण (त) – ऽऽ। – ‘चार्वाक’
- रगण (र) – ऽ।ऽ – ‘पालना’
- जगण (ज) -।ऽ। – ‘शरीर’
- भगण (भ) – ऽ।। – ‘पाटल’
- नगण (न) -।।। – ‘कमल’
- सगण (स) -।।ऽ – ‘विमला’
वर्णों की गणना पर आधारित छंद वार्णिक छंद कहलाते हैं। जिन छंदों में मात्राओं की संख्या कतिपय अन्य अनुशासनों के साथ निश्चित होती है, उन्हें मात्रिक छंद कहते हैं। दोहा, सोरठा, चौपाई आदि मात्रिक छंद हैं।
वैदिक छंदों का प्रयोग दिक्काल आयामों को कूट पद्धति से अभिव्यक्त करने में भी किया गया। इसके प्रमाण हैं कि कर्मकाण्ड के लिये निर्धारित दिनों की संख्या को छंद विशेष से अभिव्यक्त किया गया जिसकी वर्ण संख्या दिन संख्या से मिलती थी – काल का आयाम निरूपण। [3]
छंद में पाद या चरण होते हैं जो यति या विराम से पहचाने जाते हैं यथा गायत्री छंद में तीन पाद होते हैं तो अनुष्टुभ में चार।[4] जिस छंद में चारो चरण समान होते हैं उसे समछंद कहते हैं। समछंद को वृत्त भी कहते हैं। ‘वर्णवृत्त’ के प्रत्येक चरण में आने वाले लघु गुरु मात्राओं का क्रम निश्चित होता है। इसे वृत्त ही क्यों कहा गया? ध्यान दें।
हवन की वेदी जब बनायी जाती है तो वर्गाकार बनायी जाती है किन्तु उसे वर्गवृत्त कहते हैं। किसी वृत्त के व्यास के समान्तर ऊपर नीचे दो बराबर किन्तु व्यास से छोटी रेखायें खींच कर उनके अंत बिन्दुओं को व्यास के बिंदुओं से होते हुये वृत्त की रचना की जा सकती है।
वेदी बनाने में प्रयुक्त ईंटों को इस प्रकार लिया जाता है कि वर्ग बने जो वस्तुतः एक वृत्त का अंश होता है।
ऐसे ही वर्णवृत्त में शब्दों को एक क्रम में सजाया जाता है, यथा श्लोक छंद में 8 वर्णों के 4 पाद होते हैं:
श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम्।
द्विचतुष्पादयोर्ह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः॥
इस वर्ग से भी एक वृत्त बनेगा क्यों कि यह समछंद है। अस्तु।
लौटते हैं, हाथ हिलाने पर। मात्राओं से ताल और स्वरों को लयबद्ध किया जाता है यथा:
धनधन कृष्न मुरारी तुम
कृष्न गोवर्धन धारी
ग रे ग रे। सा ध़ सा रे। प – ग – रे ग सा रे
ध न ध न। कृ॒ ऽ ष्न मु। रा ऽ री ऽ। ऽ ऽ तु म।
ग – ग रे। ग प ध सां। धसां धप धसां रेंगं। रेंसां धप गरे सा
कृ ऽ ष्न गो। व र ध न। धाऽ ऽऽ ऽऽ ऽऽ। रीऽ ऽऽ ऽऽ ऽऽ। [5]
अब आप ऐसे ही अनुष्टुप छंद को गाने का प्रयास करें:
गंधद्वारां दुराधर्शां नित्य पुष्टां करीषिणीं।
ईश्वरीं सर्व भूतानां तामि होप व्हये श्रियं॥
गं/ध/द्वा/रां/ दु/रा/ध-र/शां/ नित्/य/ पुष्/टां/ क/री/षि/णीं।.
ई/श्व/रीं/ सर्/व/ भू/ता/नां/ ता/मि/ हो/प/ व्ह/ये/श्रि/यं।। [6]
मात्राओं के अनुक्रम गणित से आप इसकी लय बना सकते हैं एवं स्वर दे सकते हैं। इन स्वरों को आप हाथों से चिह्नित कर सकते हैं तथा अपने स्वर के आरोह और अवरोह को निर्धारित कर सकते हैं, केवल हाथ हिलाने से नहीं होगा, हाथ के अनुसरण में स्वर भी परिवर्तित होनें चाहिये। हाथ को मात्रा अथवा स्वर के अनुसार गति दे सकते हैं।
गणों पर दुबारा ध्यान दीजिये:
- यगण (य) -।ऽऽ – हम इसे 0 1 1 लिख सकते हैं।
- मगण (म) – ऽऽऽ – 1 1 1
- तगण (त) – ऽऽ। – 1 1 0
- रगण (र) – ऽ।ऽ – 1 0 1
- जगण (ज) -।ऽ। – 0 1 0
- भगण (भ) – ऽ।। – 1 0 0
- नगण (न) -।।। – 0 0 0
- सगण (स) -।।ऽ – 0 0 1
यह क्या बन गया? जी हाँ, सही पहचाने, द्विआधारी पद्धति (Binary System)। पिङ्गल ऋषि बहुत पहले यह कर गये थे। आधुनिक अङ्कीय (digital) पद्धति में, logic gate आदि में इसका प्रयोग होता है। द्विआधारी पद्धति (Binary System) पर पुन: कभी।
संदर्भ एवं योग:
[1] सम्पादकीय योग
[2] सम्पादकीय योग:
गायन में लय समय अनुसार शब्दों की मात्रा के उच्चारण से सम्बंधित है, द्रुत, मध्य, विलम्बित। पादन्यासो लयमनुगतः M.2.9; मध्यलम्बितपरिच्छिन्नस्त्रिधायं लयः Nāg.1.14। गीत, नृत्य एवं वाद्य का संयोग भी लय कहलाता है। गायतं मधुरं गेयं तन्त्रीलयसमन्वितम् Rām.7.93.15 (आप्टे शब्दकोश)
[3] सम्पादकीय योग
[4] सम्पादकीय योग
[5] http://vocalnepal.blogspot.in/p/blog-page_31.html
आभार।
छंद की मात्राओं के विषय में ढूंढ रही थी।
साथ ही यह भी प्रश्न था कि यदि वेद पाठ में केवल ताल के लिए ही हस्त संचालन है तो कर्नाटक से भिन्न क्यों है।
बहुत ही ज्ञानवर्धक जानकारी दी है आपने।
अच्छा लेख। परंतु संगीत का ज्ञान न होने के कारण सिर के ऊपर से निकल गया। यदि कुछ ऐसे लेख हों जिनसे भारतीय संगीत के विषय में शुरू से जानकारी दी जाए तो अच्छा ज्ञानवर्धन होगा।
Please find the link for the first session on Sangeet Shastra – https://youtu.be/YOdQ7BnrsvI. You can find more successive videos on the our youtube channel.
बहुत सुंदर _/\_
बहुत बहुत धन्यवाद