Devanagari देवनागरी । सरल संस्कृत पर कुछ दिनों पूर्व हमने लेखशृङ्खला आरम्भ की थी जिस पर विराम लग गया। हमने सीधे बोलने से आरम्भ किया था। सम्भवत: वर्णमाला से आरम्भ न करने के कारण यह विघ्न आया क्यों कि पहले देव आराधना तो होनी चाहिये थी। देव आराधना का क्या अर्थ है?
जो कुछ भी हम बोलते हैं, उसका उच्चारण कण्ठ, उससे ऊपर मुखगुहा, नासिका एवं ओठों के समन्वय से होता है। हम जो कुछ भी बोलते हैं उसकी ध्वनियों को विभक्त करते करते ऐसी इकाइयों पर पहुँचा जा सकता है जिनके पश्चात विभाजन सम्भव नहीं होता अर्थात वे वाणी की मूल इकाइयाँ होती हैं। उदाहरण के लिये हम शब्द लेते हैं – राम। इस ध्वनि को हम पहले रा एवं म, इन दो खण्डों में तोड़ सकते हैं। आगे प्रयास करेंगे तो हमें र, आ एवं म के टुकड़े मिलेंगे। जब हम उच्चारण पर सूक्ष्मता से ध्यान देंगे तो पायेंगे कि म ध्वनि के भी दो भाग हैं जिसमें एक तो ओठों से निकल रही है तथा उसके कहते ही नासिका से होते हुये कण्ठ पर पहुँच एक अन्य ध्वनि निकलती है जो पहले को सहारा देती सी लगती है। पहले वाली ध्वनि है म् तथा दूसरी है अ। म के नीचे जो हलन्त चिह्न लगाया है, वह यह दर्शाने के लिये है कि हमें ओठों के जुड़ने एवं पुन: विलग होते ही ध्वनि वहीं काट देनी है, रोक देनी है क्यों कि उससे आगे ‘कहते’ रहने पर सहारा देती ध्वनि अ आने लगती है। अत: राम ध्वनि का पूरा विभाजन हुआ – र् + आ + म् + अ। अब इनको और आगे लघु इकाइयों में नहीं तोड़ सकते अर्थात इनका आगे क्षरण नहीं हो सकता, इनका रूप परिवर्तित नहीं हो सकता। इन इकाइयों को ही इस कारण ‘अक्षर’ कहा जाता है – जिसका क्षरण न हो।
ब्रह्म या ईश्वर या सर्वोच्च सत्ता, चाहे जो नाम दें, उसका भी क्षरण नहीं होता। अत: कहते हैं ‘अक्षर ब्रह्म’। अक्षरों से शब्द बनते हैं तो शब्द ब्रह्म भी हो गया। विशिष्ट लक्षणों वाले अक्षरों को क्रमानुसार समूहबद्ध किया गया तो ‘वर्णमाला’ बनी जिसे ‘ब्रह्मराशि’ भी कहा जाता है।
श्रुति स्मृति परम्परा में वेदों एवं अन्य ज्ञान रचनाओं को कह कर एवं सुन कर सुरक्षित रखा जाता था। एक मुँह से दूसरे कान, पुन: उसके मुँह से तीसरे कान की शृङ्खला में शब्दों की शुद्धता बनी रहे इस हेतु उच्चारण के नियम बनाये गये। जिस वेदाङ्ग में वे नियम आदि सङ्कलित हुये वह ‘शिक्षा’ कहलाया।
आगे मूल या इकाई ध्वनियों को विशिष्ट चिह्नों से दर्शाया जाने लगा अर्थात उन्हें उकेर कर, उनका रेखण लेखन कर उन्हें किसी भौतिक वस्तु यथा पत्थर, ताड़पत्र, भोजपत्र आदि पर सुरक्षित किया जा सकता था जिससे स्मृति पर निर्भरता अल्प हो। यह आविष्कार मानव सभ्यता के विकास में एक क्रान्तिकारी सोपान सिद्ध हुआ। अक्षर ब्रह्म को जो चिह्न व्यक्त करते थे, उनमें भी दिव्यता एवं दिव्यता का आरोपण हो गया तथा उन्हें देवविग्रह की भाँति भी देखा जाने लगा। अर्थात किसी भी भाषा को सीखने से पूर्व उसकी वर्णमाला जानना अर्थात कार्य आरम्भ से पूर्व देव आराधना करना। अक्षर चिह्नों का सुव्यवस्थित सङ्कलित रूप लिपि कहलाता है।
ऊपर हमने कण्ठ सहित अन्य अङ्गों की बात की है। भौगोलिक क्षेत्र की भिन्नता एवं अन्य प्राकृतिक कारणों से मूल ध्वनियाँ भी विविध रूपों में विकसित प्रयुक्त हुईं तथा उन्हें अभिव्यक्त करने वाली लिपियाँ भी। यदि कोई दो भाषायें मूलत: एक ही सोते या माता से निस्सृत न हों तो उनमें ध्वनि भेद की सम्भावनायें अधिक होती हैं तथा लिपि भेद की भी। ऐसा होता ही है कि एक भाषा में ऐसी अनेक ध्वनियाँ होती हैं जिन्हें इतर भाषाभाषी उचार नहीं सकते।
बौद्ध ग्रन्थ ललितविस्तर बृहत्तर भारत में ६४ लिपियों के नाम गिनाता है जिनमें से प्राय: सभी या तो लुप्त हो चुकी हैं या परिवर्तित हो अन्य नाम रूप धारण कर चुकी हैं।
वैदिक छान्दस, संस्कृत, हिन्दी एवं इस क्षेत्र की विविध भाषाओं, मराठी एवं नेपाली को आज जिस लिपि में लिखा जाता है उसे Devanagari देवनागरी लिपि कहते हैं। यह मूलत: ब्राह्मी लिपि से ही विकसित हुई है जिससे भारतभूमि की प्राय: समस्त भाषाओं की आज की लिपियाँ विकसित हुईं। कुटिल, गुप्त, शारदा, नेवारी आदि कुछ ऐसी ही लिपियाँ हैं। दक्षिण भारत की लिपियाँ भी ब्राह्मी से ही विकसित हुईं।
‘राम’ शब्द के माध्यम से मूल ध्वनियों के दो बड़े प्रकार स्पष्ट हुये थे, एक जो स्वतन्त्र है तथा दूसरा वह जो इस स्वतन्त्र के सहारे बिना बोला नहीं जा सकता। स्वतन्त्र एवं सहारा देने वाला प्रकार समूह ‘स्वर’ कहलाता है तथा सहारा ले कर बोला जाने वाला समूह ‘व्यञ्जन’। स्वर को कोई भी निरन्तर, बिना रूप परिवर्तन किये बोल सकता है, जब कि व्यञ्जन के साथ ऐसा नहीं है। अङ्ग क्रिया सम्पन्न होते ही स्वर आ जाता है। स्वर – स्वृ+अप् शब्द का मूल अर्थ ध्वनि है जब कि व्यञ्जनम् – वि+अञ्ज्+ल्युट् का वेश या परिधान से सम्बन्धित है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि स्वर का परिधान व्यञ्जन है।
स्वर :
आइये, अब स्वरों को देखते हैं। देवनागरी या संक्षिप्त रूप में नागरी कही जाने वाली लिपि में मूल स्वर पाँच हैं – अ, इ, उ, ऋ, लृ। इनके परस्पर योग से नौ यौगिक स्वर भी बनते हैं। इन कुल चौदह स्वरों के अतिरिक्त दो अयोगवाह अनुस्वार अं एवं विसर्ग अ: भी हैं जो न तो स्वर हैं, न व्यञ्जन। किशोरीदास वाजपेयी के अनुसार शब्दों में इनकी स्वतंत्र गति नहीं, अत: ये स्वर नही हैं। व्यञ्जनों की भाँति ये स्वरों के पूर्व नहीं, पश्चात आते हैं, अत: व्यञ्जन भी नहीं हैं। इन्हें लक्षण के आधार पर किसी भी प्रकार में नहीं रखा जा सकता, किसी समूह से योग नहीं हो सकता, तब भी ये अर्थ का वहन करते हैं अत: इन्हें अयोगवाह कहते हैं। सुविधा हेतु इन्हें स्वर ही माना गया है यद्यपि इन्हें तथा आगे आने वाले अर्द्धस्वरों को ले कर अनेक चर्चायें, मतभेद आदि हैं जो कि इस लघु लेख में समेटे नहीं जा सकते। इस प्रकार कुल १६ स्वर हुये जिन्हें नीचे तालिका में दर्शाया गया है।
नीले रंग वाले अक्षर रूप पुराने रूप हैं, सामान्यतया अब केवल वैदिक ग्रन्थों हेतु विशेष रूप से बनाये गये फॉण्टों में ही दिखते हैं। ॡ एवं ॠ का प्रयोग केवल वैदिकी में होता है। ध्यान रखें कि हम ‘ॠ’ की बात कर रहे हैं, ‘ऋ’ की नहीं, जिसका कि संस्कृत एवं हिन्दी आदि में प्रयोग होता है।
व्यञ्जन :
मूल व्यञ्जन १० ही हैं। कण्ठ से आरम्भ कर तालू, मूर्धा, दाँतों एवं अन्त में ओठों तक आते आते इनके उत्पत्ति स्थान के आधार पर पाँच समूह हो जाते हैं – कण्ठ्य, तालव्य, मूर्धन्य, दन्त्य एवं ओष्ठ्य। किसी वर्ण के उच्चारण में यदि इन स्थानों का ध्यान नहीं रखा जाता तो अशुद्ध उच्चारण होता है जिसे ‘शिक्षा’ वेदाङ्ग के अनुशीलन एवं अभ्यास से सुधारा जा सकता है।
इन पाँच समूहों से दो, दो मूल वर्ण होते हैं अर्थात कुल दस – क ग, च ज, ट ड, त द, प ब । प्रत्येक के ऊष्म सघोष वर्ण ‘ह’ के संयोग से दस अन्य वर्ण बनते हैं – ख घ, छ झ, ठ ढ, थ ध, फ भ। इन पाँच समूहों के अन्तिम अक्षर अनुनासिक ङ, ञ, ण, न, म मिला कर यह संख्या २५ हो जाती है।
हमने देव आराधना की बात की थी न, ओङ्कार पर ध्यान दें – ओम, अ+उ+म, अ आरम्भ है, उ पाँच मूल स्वरों का अन्त है तथा म व्यञ्जन का अन्त। अ से आरम्भ कर अंतिम पवर्ग अर्थात ओष्ठ्य वर्ग के अंतिम म को मिला कर ओम बनता है। पाँच मूल स्वर, दो अयोगवाह, पच्चीस व्यञ्जन एवं स्वयं ओंकार को मिला कर ३३ की संख्या पूरी होती है। देव तैंतिस कहे गये हैं – आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, दो अश्विनीकुमार या प्रकारान्तर से एक इन्द्र एक प्रजापति।
किन्तु बात यहीं नहीं रुकी। आरम्भ के स्वर अ के साथ अन्य चार मूल स्वरों के संयोग से चार अर्द्धस्वर बने जिन्हें अन्तस्थ कहा जाता है। अर्द्धस्वर इस कारण कहते हैं कि स्वरों के मिलने से बने तो हैं किन्तु व्यञ्जनों की भाँति ही उच्चारण हेतु इन्हें स्वर का सहारा चाहिये होता है अत: इन्हें व्यञ्जन समूह में ही रख दिया गया है।
इ+अ = य, उ+अ = व, ऋ+अ = र तथा लृ+अ = ल।
इसी प्रकार एक ध्वनि है ‘ळ’ जो वैदिक, राजस्थानी, मराठी आदि भाषाओं में प्रयुक्त है। इनके साथ ऊष्म व्यञ्जनों श, ष एवं स तथा ह एवं एक संयुक्ताक्षर क्ष को रखने पर कुल व्यञ्जन संख्या ३५ हो जाती है। क्ष बनता है क्+ष से। ध्वनि स्थान क्रम से संख्या विभाजन देखें तो एक फलन सा प्राप्त होता है – ६, ७, ९, ७, ६ – ९ के सापेक्ष सममिति।
हिन्दी में दो अन्य संयुक्ताक्षर भी प्रयोग बहुलता के कारण पढ़ाये जाते हैं – त्+र = त्र तथा ज्+ञ = ज्ञ किंतु संस्कृत परम्परा उन्हें स्वतन्त्र स्थान नहीं देती। प्रश्न यह उठता है कि ‘क्ष’ को यह विशेष स्थान क्यों?
ऊपर हमने ॐ के सम्बंध में अ, उ, म की बात की। आप ने नामजप की माला का नाम सुना होगा – अक्षमाला अर्थात अ से क्ष तक आराध्य नाम, देव नाम का सुमिरन। अ से क्ष तक कुल संख्या होती है ५१। कोई कोई ओंकार के तीन अक्षर मिला कर कुल संख्या ५४ कर देते हैं जिसका सम्बन्ध जप के समय दो फेरों अर्थात २ x ५४ = १०८ संख्या से जोड़ते हैं। ५१ या उनमें एक शिव को मिला कर ५२ शक्तिपीठ कहे जाते हैं। शाक्त मार्ग में शारदा लिपि के अक्षर ईश्वर-देवी या शिव-पार्वती की विविध मुद्राओं के रूप में भी माने जाते हैं।
सम्पूर्ण वर्णमाला का सारणी प्रदर्श इस प्रकार होगा। (होना तो यह चाहिये कि व्यञ्जनों को बिना स्वर अ के अर्थात हलन्त के साथ यथा क्, ख्, ग् की भाँति लिखा जाय किन्तु अब पहले स्वर के साथ वर्णमाला में इनका लिखा जाना रूढ़ हो चुका है अत: वैसे ही लिखा गया है।)
इसमें ऊपर शीर्षकों में जो स्पर्श, अघोष, सघोष, अनुनासिक, ऊष्म, अन्तस्थ आदि हैं, उनका सम्बन्ध किसी अक्षर का उच्चारण करते समय मुख विवर के विविध अवयवों की गति एवं उनमें वायु की गति से भी है जिसे अगले लेखों में सहेजेंगे।
कौटल्य अपने अर्थशास्त्र में वर्णों की संख्या ६३ बताते हैं – अकारादयो वर्णास्त्रिषष्टिः (०२.१०.१३)। प्रणव ध्वनि ॐ मिला कर यह संख्या ६४ हो जाती है। कल को इसका सम्बंध चौंसठ कलाओं से निकल आये तो आश्चर्य न करें।
स्पष्टत: नागरी वर्णमाला में अनेक ध्वनियों के चिह्न नहीं हैं। कोई भी व्यवहार में लाई जाने वाली लिपि पूर्ण नहीं हो सकती, उसके निकटतम पहुँच सकती है, इस दृष्टि से देवनागरी लिपि उच्चस्थ है। क्या आप जानते हैं कि तत्त्वों को सारणीबद्ध कर उनकी आवर्त्त सारिणी (Periodic Table) बनाने की प्रेरणा एवं विधि भी मेन्देलेयेव को नागरी वर्णमाला के संयोजन से ही मिली? ऊपर दी गयी सारिणी को नीचे दी गयी आवर्त्त सारिणी से मिलाइये तो!
प्रणाम प्रभु!!
बहुत गूढ़ रहस्य का ज्ञान दिये ।
कृपया और पाठ जोड़िए ?? धन्यवाद
जितनी भी बातें यहाँ पर मिली सब कुछ मेरे लिए नई एवं ज्ञानवर्धक हैं।
बहुत उच्च कोटि का ज्ञान मिल रहा है।
Dhanywad
धन्यवाद! राम राम! सदा की भांति यह भी महत्वपूर्ण है ।
धन्यवाद! राम राम!