Maheshvara Sutra Shiva Sutra Panini पाणिनीय माहेश्वर सूत्र : पिछले अङ्क से आगे
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संधियों पर अब तक के पाठ से यह तो समझ में आ ही गया होगा कि वर्ण वर्गों को एक समूह में रख कर किञ्चित निश्चित परिवर्तनों के साथ नियमबद्ध एवं सूत्रबद्ध किया जा सकता है। विकसित भाषा की यही विशेषता होती है। जितने लाघव के साथ हमने स्वर व विसर्ग संधियों को समेट लिया, बृहदाकार होने के कारण व्यञ्जन संधियों को बिना कोई युक्ति लगाये समेटना पाठ को बड़ा एवं अरुचिकर बना देगा।
सूत्र युक्तियों में ही आते हैं जिन्हें कण्ठस्थ करना पड़ता है। रटने को ले कर भ्रांति प्रचलित है कि बुरा है, मस्तिष्क के विकास के लिये ठीक नहीं। यह एक प्रकार का अतिवाद है। सम्यक बुद्धि, सम्बुद्धि, समझ के साथ रटना मस्तिष्क के विकास में सहायक होता है। यदि प्रज्ञावान जन द्वारा बनाये गये सूत्र हों तो आरम्भ में बिना समझ के भी रटना मस्तिष्क को प्रशिक्षित करता है क्यों कि परम्परा की समझ उसके साथ होती है। आगे रटा हुआ आधार बनता है, बीज होता है। हम सूत्रों के मर्म जानें या न जानें, उनके अपने तर्क तो होते ही हैं। यह किसी भी ऐसी विद्या हेतु सच है जिसमें गणितीय या तार्किक निष्पत्तियाँ प्रधान हैं, संगीत, काव्य, स्थापत्य आदि। शताब्दियों की मानव प्रज्ञा उनके सूत्रों में सञ्चित रहती है। अत: रटने को पूर्णत: ‘खल’ न मान सहायक समझें। बालपन में आप ने गिनती रटी ही थी, वर्णमाला को कण्ठस्थ ही किया था।
वर्णमाला में ही सूत्रों की कुञ्जी है जिसकी सहायक स्मृति एवं कण्ठस्थ उपादान होते हैं। उदाहरण हेतु सुमिरनी माला का एक नाम ‘अक्षमाला’ देखें। ‘अक्ष’ शब्द में ‘अ’ से ले कर वर्णमाला के अंत संयुक्ताक्षर ‘क्ष’ तक के समस्त वर्ण समाये हैं। कुछ लोगों के अनुसार वस्तुत: अक्ष का प्रसार ज्ञ तक है किंतु ‘अज्ञ’ कहने पर अज्ञानी वाला अर्थ आता तथा अत्र कहने का कोई तर्क नहीं अत: ‘अक्ष’ के क्ष से तीनों संयुक्ताक्षर समझे जाने चाहिये। यदि किसी को वर्णमाला कण्ठस्थ हो, उसने बालपन में रटी हो तो ‘अक्ष’ के सूत्र को समझ जायेगा जिससे आगे उसे वर्ण के रूप में ३३ देवतादि, अन्य स्वर एवं जप के समय उनके दैवीय विधान आदि वैसे ही स्पष्ट होते जायेंगे जैसे सोपानों पर चढ़ते हुये ऐसे दृश्य जो ऊँचाई से ही दिखते हैं।
‘अक्ष’ शब्द के समान ही संस्कृत वैयाकरण पाणिनि (हिंदी में पाणिनी)के सूत्र हैं। किंतु उससे पूर्व पहले संस्कृत भाषा पर कुछ। वाचा से भाषा तक की अभिवृद्धि एवं परिवर्तन यात्रा चक्रीय होती है जिसे न समझने के कारण या निहित उद्देश्यों से छिपाने के कारण आज ढेर सारे राजनीति पाठ प्रचलित हैं। वाणी ‘संस्कृत लोक में विकसित होती है। शनै: शनै: लोक ही उसे नियमों में बाँधता है किंतु ‘पाँच कोस पर बानी’ परिवर्तन के अनुसार ही उसमें स्थानीय भेदों की प्रचुरता होती है। यहीं पर मानकीकरण की आवश्यकता होती है जिससे कि बड़े क्षेत्र में स्थानीय भेदों के होते हुये भी भाषा का एक ऐसा रूप हो जिससे सभी ‘एक समान’ अर्थ समझें। ऐसा बढ़ते मानव संसर्ग, कार्य व्यापार आदि के कारण अनिवार्य हो जाता है। यह काम वैयाकरण सम्पन्न करता है। ऐसी ‘संस्कारित’ भाषा ‘संस्कृत’ कहलाती है जिससे भिन्न प्राकृतिक लोकानुशासन में चलने वाली भाषा ‘प्राकृत’ कहलाती है। दोनों रूप एक साथ रह सकते हैं, सदियों तक बने रह सकते हैं तथा आदान प्रदान भी करते हैं। पाणिनी के पूर्व भी वैयाकरण थे तथा उनके पश्चात भी हुये किंतु पाणिनी द्वारा कृत मानकीकरण इतना सुव्यवस्थित एवं सुचारु था कि उनके पश्चात संस्कारित भाषा के उसी रूप को स्थायी मान लिया गया यद्यपि उससे विचलन के प्रमाण मिलते हैं किंतु वे बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। उनका ऐसा प्रभाव रहा कि उन्हें दैवीय रूप वाला ‘भगवान’ मान लिया गया जिन्होंने सीधे दक्षिणामूर्ति महेश महादेव से सूत्र प्राप्त किये थे। उनके द्वारा संस्कारित भाषारूप हेतु ‘संस्कृत’ नाम रूढ़ हो गया तथा उनके अनुशासन को मानते हुये, सामान्य चक्रीय लोक परिवर्तनों के समांतर ही उसे सुरक्षित रखा गया। वह सुसंस्कृत एवं विद्वानों की विद्या भाषा हो गई।
भाषा परिवर्तन की समांतर चक्रीय प्रक्रिया वाणी-लोक-प्राकृत-संस्कृत-वाणी-लोक-वाणी चलती रही जिसके परिणाम स्वरूप शताब्दियों में भौगोलिक एवं जन भेद से अनेक भाषायें बनती बिगड़ती रहीं। ‘संस्कृत’ ने लिया अल्प दिया बहुत क्यों कि मानकीकरण के क्रम में लोग उस निकष तक आते ही थे जिसे संस्कृत कहा जाता था। यह कहना कि संस्कृत से ही समस्त भाषायें उपजीं या यह कहना कि संस्कृत किसी ‘एकल प्राकृत भाषा’ से ही गढ़ी गयी है, दो विपरीत ध्रुवों पर स्थित अतिवादी उहोक्तियाँ ही हैं, सचाई उनके बीच है। वैदिक छंदों हेतु उपयुक्त संस्कारित भाषा छांदस है जिसे वैदिक संस्कृत कहते हैं। उससे व पाणिनीय संस्कृत के बीच भी भाषा में कुछ रूप हैं जिन्हें ऋषियों से जुड़ा ‘आर्ष प्रयोग’ कहा जाता है। सचाई यही है कि उत्तर भारत में ‘कृषि यज्ञ’ से बनी, निखरी, पल्लवित एवं पुष्पित आज की ‘ग्रामीण’ एवं ‘नागर’ भाषाओं की जननी संस्कृत ही है। इन भाषाओं का सम्पर्क वन उपज एवं सम्पदा पर अधिक निर्भर वनवासी जन की भाषाओं मुण्डा आदि से रहा है अत: इन्हों ने वहाँ से भी शब्द एवं प्रयोग लिये हैं। देसभाषाओं में प्राचीन छांदस के भी अवशेष विद्यमान हैं।
भाषिक चक्र कैसे चलता है, इसे आधुनिक हिंदी से भी समझा जा सकता है। अवहट्ट, पुरानी हिंदी, ब्रज, अवधी आदि से भारतेंदु की हिंदी पर आयें, उससे आगे महावीर प्रसाद द्विवेदी का अनुशासन एवं छायावाद का अलंकरण देखें तथा अंत में राजभाषा के रूप में मानकीकरण भी। शताब्दियों की तुलना में अल्प काल में ही घटित बृहद परिवर्तन को देखें तथा परस्पर सम्पर्क से अन्य भाषाओं एवं जन के प्रभाव में परिवर्तित होती हिंदी को भी। यह भी देखें कि समस्त रूप एक साथ प्रचलित हैं। इससे आप को प्राकृत, छांदस, संस्कृत, पाली, मागधी, शौरसेनी आदि के विकास, अस्तित्त्व, रूप परिवर्तन आदि सब स्पष्ट हो जायेंगे। ‘प्राकृत’ कोई एक भाषा नहीं, प्रक्रिया का एक सोपान है जिसके अगणित रूप हो सकते हैं। निहित उद्देश्यों से ‘एक प्राकृत’ की बात करना वैसे ही है जैसे पश्चिम वाले एक ‘प्राक्भारोपीय PIE’ गढ़ चुके हैं। आश्चर्य नहीं कि राजनीति प्रेरित कृत्रिम गढ़ुये एक दूसरे के बड़े निकट हैं। अस्तु।
वर्णमाला, अक्षमाला एवं भाषा पर थोड़े से स्पष्टीकरण के पश्चात अब आते हैं माहेश्वर सूत्रों पर जिन्हें पाणिनी ने महादेव के डमरू से प्राप्त किया था। ये सूत्र बीज सूत्र हैं जिनसे आगे अन्य सूत्र निकलते हैं। मात्र ४०००+ सूत्रों के व्याकरण से एक वैज्ञानिक, गणितीय, समस्त निकषों पर खरी एवं सुनरी भाषा का रूप निश्चित कर देना अद्भुत मेधा का परिचायक है। इन सूत्रों के कारण ही संस्कृत को संगणक उपयुक्त भाषा के रूप में जाना जाता है यद्यपि इस पक्ष को ले कर अनेक अनपढ़ गर्वोक्तियाँ भी सुनने को मिलती हैं जिनके नेपथ्य में न तो ठोस अध्ययन होता है, न ज्ञान।
सूत्रों की गढ़न उदाहरण से समझते हैं। यह वाक्य देखें – कक्षा एक से आठ तक के विद्यार्थी क से घ चिह्न तक की पंक्तियों में बैठेंगे। जिसे गिनती कण्ठस्थ है, वह समझ जायेगा कि एक से आठ में एक, दो, तीन, चार, पाँच, छ:, सात एवं आठ अंतर्निहित हैं। उन सबको लिखें तो वाक्य बहुत बड़ा हो जायेगा। इसी प्रकार ‘क से घ चिह्न तक’ में क, ख, ग एवं घ निहित हैं। जिसे वर्णमाला आती हो, उसके लिये सबको गिनाना आवश्यक नहीं। पाणिनी ने माहेश्वर सूत्रों से आगे सूत्र आविष्कार में ऐसी प्रक्रिया का ही उपयोग किया। माहेश्वर सूत्रों से आगे के लाघव सूत्र रूप ‘प्रत्याहार’ कहलाये। लघु से लाघव शब्द है, बड़ी से बड़ी बात को इस प्रकार लघु से लघु वाक्य या वर्णरचना में कह देना कि अर्थ अपने निहित वांछित रूप में श्रोता तक पहुँचे, वाणी का लाघव कहा जायेगा।
तो माहेश्वर सूत्र हैं क्या?
शिव या माहेश्वर सूत्रों का वर्णमाला के क्रम से पृथक अपना स्वतन्त्र क्रम एवं समूहविधान है। ये बीजरूप हैं, इन्हें रटना पड़ेगा, ये ‘अक्षरसमाम्नाय’ हैं। यह भी सम्भव है कि ये १४ सूत्र अज्ञात काल से पाणिनी से भी पूर्व रहे हों किंतु इसका प्रमाण नहीं मिलता तथा ये हम तक पाणिनी से ही आये हैं।
येनाक्षरसमाम्नायमधिगम्य महेश्वरात् ।
कृतस्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नम: ॥
पाणिनी का ग्रंथ अष्टाध्यायी कहलाता है जिसमें आठ अध्याय एवं बत्तीस पाद हैं। माहेश्वर सूत्र ये हैं :
१. अ इ उ ण्
२. ऋ ऌ क्
३. ए ओ ङ्
४. ऐ औ च्
५. ह य व र ट्
६. ल ण्
७. ञ म ङ ण न म्
८. झ भ ञ्
९. घ ढ ध ष्
१०. ज ब ग ड द श्
११. ख फ छ ठ थ च ट त व्
१२. क प य्
१३. श ष स र्
१४. ह ल्
प्रथमदृष्ट्या ये निरर्थक प्रतीत हो सकते हैं किंतु किञ्चित ध्यान देने पर परिचय यात्रा करवाने लगते हैं :
- अनुपस्थित – लाघव हेतु यौगिक स्वर आ, ई, ऊ जो कि क्रमश: एक ही स्वर अ, इ एवं उ के स्वयं से योग से बने हैं। इनका प्रतिनिधित्व संगत मूल स्वर ही करते हैं।
- अनुपस्थित अयोगवाह – अं एवं अ:, जिनका प्रतिनिधित्व क्रमश: अनुनासिक एवं ह से माना जा सकता है।
- अनुपस्थित ळ – लौकिक संस्कृत में यह ध्वनि नहीं है तथा हिंदी उत्तर की भाषाओं में इसकी अनुपस्थिति एवं ड़ तथा ढ़ से प्रतिस्थापन पर स्वतंत्र शोध किया जा सकता है। ड़ एवं ढ़ संस्कृत में नहीं होते।
- प्रत्येक सूत्र के अंत में एक अर्द्ध अक्षर (बिना निहित ‘अ’ के, हलंत सहित) है। ये अर्द्ध वर्ण सूत्र में नहीं गिने जाते वरन सूत्र अन्त के सीमाचिह्न की भाँति प्रयुक्त होते हैं। पाणिनी ने इन्हें ‘इत्’ कहा तथा परवर्ती वैयाकरणों ने ‘अनुबन्ध’। सहज ही भोजपुरी में प्रचलित ‘इत्थी’ शब्द पर ध्यान चला जाता है जिसका प्रयोग किसी विस्मृत से शब्द या बात को स्मृति में लाते समय किया जाता है।
- ह का दो बार प्रयोग हुआ है जो कि उत्तरी ध्वनियों में इसकी विशिष्ट स्थिति से जुड़ता है। पाँचवे सूत्र के ह से आरम्भ हो कर अंतिम सूत्र के ह तक समस्त ३३ वर्ण आ जाते हैं जो कि ३३ देवताओं के प्रतीक भी माने गये हैं – २० स्पर्श व्यञ्जन, ५ अनुनासिक, ४ अन्तस्थ एवं ४ ऊष्म।
- नीचे की सारिणी से स्थिति आगे स्पष्ट होती है।
४३ के योग पर ध्यान दें। यदि ह के दो बार आने को उपेक्षित करें तो यह योग ४२ होता है। संस्कृत व्याकरण में इन चौदह सूत्रों के अग्रसारी सैकड़ो सञ्चयों में से ४२ का ही प्रयोग हुआ है जो इस प्रकार हैं :
- अण् – अ इ उ
- अक् – अ इ उ ऋ लृ
- अच् – अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ
- अट् – अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र
- अण् – अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र ल
- अम् – अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र ल ञ म ङ ण न
- अश् – अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द
- अल् – अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स ह
- इक् – इ उ ऋ लृ
- इच् – इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ
- इण् – इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र ल
- उक् – उ ऋ लृ
- एड्. – ए ओ
- एच् – ए ओ ऐ औ
- ऐच् – ऐ औ
- हश् – ह य व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द
- हल् – ह य व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स ह
- यण् – य व र ल
- यम् – य व र ल ञ म ङ ण न
- यञ् – य व र ल ञ म ङ ण न झ भ
- यय् – य व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प
- यर् – य व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स
- वश् – व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द
- वल् – व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स ह
- रल् – र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स ह
- मय् – म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प
- ङम् – ङ ण न
- झष् – झ भ घ ढ ध
- झश् – झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द
- झय् – झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प
- झर् – झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स
- झल् – झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स ह
- भष् – भ घ ढ ध
- जश् – ज ब ग ड द
- बश् – ब ग ड द
- खय् – ख फ छ ठ थ च ट त क प
- खर् – ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स
- छव् – छ ठ थ च ट त
- चय् – च ट त क प
- चर् – च ट त क प श ष स
- शर् – श ष स
- शल् – श ष स ह
ये किसी सूत्र के एक वर्ण से आरम्भ हो आगे के किसी सूत्र के ‘इत्’ या ‘अनुबन्ध’ तक के बीच के समस्त वर्णों को संक्षिप्त रूप में दर्शाते हैं। स्पष्टत: इनमें ‘इत्’ वर्ण नहीं लिये जाते। इन्हें प्रत्याहार कहते हैं तथा इनके प्रयोग से ही सूत्र सूत्र हो पाये हैं – संक्षिप्त लाघवयुक्त, सुनिश्चित अर्थयुक्त एवं अर्थ सम्प्रेषण में पूर्ण सक्षम।
उदाहरण हेतु तीसरे प्रत्याहार ‘अच्’ को देखें। इसमें समस्त स्वर आ जाते हैं। इसी प्रकार ‘हल्’ में समस्त व्यञ्जन समाये हैं। अत: पाणिनी जब अच् कहें तो उसमें समस्त स्वर समाहित समझे जाने चाहिये, यदि ‘हल्’ कहें तो समस्त व्यञ्जन। स्वर संधि अच् संधि है तो व्यञ्जन संधि हल् संधि।
विचित्र से लगने वाले पाणिनी के सूत्र रेखीय हैं अर्थात यदि १४ के विभाजन को न मानते हुये इन्हें एक रेखा में लिखें तो उपयुक्त स्थानों पर विराम दे ऐसे नये समूह बनाये जा सकते हैं जो अधिक स्पष्टता दर्शायेंगे। नीचे की सारिणी देखें :
वर्णमाला के क्रम से विपर्यय की उपेक्षा कर दें तो कितना स्पष्ट वर्गीकरण उद्घाटित हो जाता है! सारिणी में रेखाओं को देखें। ‘इत्’ की उपेक्षा करने पर एक निश्चित ज्यामितीय रूप उभरता है।
वर्णों का क्रम विपर्यय भाषा विशेष में प्रयुक्त किसी वर्ण की बारम्बारता से भी जुड़ता है तथा ये बारम्बारतायें विविध भाषाओं हेतु भिन्न होंगी। पाणिनी की महानता इस पक्ष के अभिज्ञान के कारण है। इस पर बहुत अच्छे विदेशी शोध उपलब्ध हैं। जर्मन जन ने इसके आधार पर जर्मन भाषा हेतु अति लाघव युक्त सूत्र गढ़े हैं तथा पाणिनीय सूत्रों में अन्तर्निहित ‘रहस्यों’ पर पश्चिमी विद्वानों द्वारा गुणवत्ता युक्त बृहद शोध चल रहे हैं। नीचे का एक चित्र देखें, अनुमान लग जायेगा।
अगले अङ्क में प्रत्याहार एवं सूत्रों पर।
गृहकार्य :
माहेश्वर सूत्र एवं प्रत्याहार कण्ठस्थ करें तथा अन्य प्रत्याहार बनायें जो कि पाणिनी द्वारा प्रयुक्त नहीं हैं किंतु सम्भव हैं। कुल कितने बनते हैं?