अद्भुत संकल्पनाओं की आश्चर्यचकित कर देने वाली, पुलक से भर देने वाली, अनुभूतियों से हृदय को झकझोर देनेवाली महानिशा को हम दीपावली कहते हैं, हर वर्ष उस अनमोल ऊर्जा के उत्स आख्यान से आपादमस्तक उत्साह में स्नात, नवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा की अंतरगुहा की आह्लाद यात्रा पर निकल पड़ते हैं।बाह्य स्वरूप में तो केवल दियों, मिठाइयों एवं सफाइयों की त्यौहार सी दिखती है दीपावली; पर यह आन्तरिक रूप में हृदय उल्लास के हिन्दोल में बैठ देवदुर्लभ अनुभूतियों को सँजो लेने का पर्व है। सदैव विशाल, सदैव दिव्य और सदैव उदात्त और ऊर्ध्वगामी चिन्तन से दीप्त हमारी विचारसरणि में समग्रता का, असीमता का और सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुभूतियों को शब्दायित करने का अभ्यास रहा है, प्रवृत्ति रही है। अत: दीप पर्व पर लक्ष्मी पूजन की संकल्पना भी हमारी उस चेतना का प्रतिफल है जो बडी सहजता से प्रेय को श्रेयमण्डितत कर देती है!
लक्ष्मी केवल सिन्धुतनया नहीं, लक्ष्मी मात्र विष्णुप्रिया नहीं और न लक्ष्मी केवल खनखनाती हुई स्वर्णमुद्रायें हैं! लक्ष्मी का जो स्वरूप हमारी सनातन परंपरा में अर्चनीय, पूजनीय तथा वरेण्य है, उसमें हर प्रकार के तिमिर से लड़ने की अदम्य जिजीविषा, अपराजेय उद्यमिता और अनिन्द्य सौन्दर्य है! ‘श्री’ संश्लिष्ट संकल्पना का नाम है!
सामान्य प्रचलन में तो ‘लक्ष्मी’ शब्द सम्पत्ति के लिए प्रयुक्त होता है, पर वस्तुतः वह चेतना का एक गुण है, जिसके आधार पर निरुपयोगी वस्तुओं को भी उपयोगी बनाया जा सकता है। मात्रा में स्वल्प होते हुए भी उनका भरपूर लाभ सत्प्रयोजनों के लिए उठा लेना एक विशिष्ट कला है। वह जिसके पास होती है उसे लक्ष्मीवान्, श्रीमान् कहते हैं, शेष को धनवान् भर कहा जाता है। जिस पर श्री का अनुग्रह होता है, वह दरिद्र, दुर्बल, कृपण, असंतुष्ट एवं पिछड़ेपन से ग्रसित नहीं रहता; ऊर्जा से, उत्साह से, उद्यमिता से भर जाता है।
इसी अनुग्रह से भर देने के लिए आदि शङ्कराचार्य ने विलक्षण ‘कनकधारास्तोत्र ‘ का अनुपम उपहार हमें दिया। कनकधारा स्तोत्र की रचना का या कहें स्तुति स्तवन की निमित्त एक याचक बंधु बनी जिसे माध्यम बना कर अद्भुत कृपाकनकधारा स्रवित करनेवाली इस मंत्रमुग्ध कर देने वाली कृति से सनातन परंपरा कृतार्थ हुई।
आदि शंकराचार्य विश्वविश्रुत अद्वैतवादी रहे किन्तु जब इस अद्वैतवादी के हृदय में करुणा का ऐसा स्रोत प्रवाहित होते देखती हूँ तो विश्वास हो जाता है कि ब्रह्म से एकाकार होना मानवीय करुणा से भी कैसा द्रवित कर देता है! परदु:खकातरता ही इस कनकधारा स्तोत्र के मूल में है। कहा जाता है कि एक अकिञ्चन अपनी कन्या के विवाह के लिए स्वर्णमुद्राओं की याचना करते हुये आदि शंकराचार्य जी के समक्ष कातरभाव से रोने लगी। उसके रुदन से शंकराचार्य जी का हृदय द्रवित हो उठा। वे बोले मेरे पास तो स्वर्णमुद्रायें नहीं हैं पर मैं माँ लक्ष्मी का स्तवन अवश्य कर सकता हूँ।
कनकधारा स्तोत्र अपनी दयार्द्र दृष्टि के लिए तो प्रसिद्ध है ही, साथ ही अपने भाषिक संस्कार से चमत्कृत कर देता है। प्रारंभ जिस अमूर्त भाव प्रयोग से होता है, देवताओं और अवतारों के लिये भी वैसा महाप्रयोग पहले न दिखा!
अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्तीं भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।
अङ्गीकृताऽखिल-विभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदाऽस्तु मम मङ्गळदेवतायाः॥
अर्थात् हरि के पुलक से आपूरित अंगों का आश्रय लेती हुई …एवं इसमें भृङ्गाङ्गनेव की उपमा देखते ही बनती है !
मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारे: प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गताऽगतानि।
माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवाया:॥
जिस तरह भ्रमरी कमल पर मँडराती है उसी तरह मुरारि के मुख की ओर जाती और लज्जा से लौट आती ( गताऽगतानि) उस सागर कन्या की दृष्टि मुझे धन प्रदान करे !
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्धमिन्दीवरोदर सहोदरमिन्दिराया:।
आप पदलालित्य और पदभंगिमा का स्तोत्र में प्रयोग देखिये – ईषन्निषीदतु मयि और क्षणमीक्षणार्ध अर्थात् अर्धनिमीलिताक्षी की दृष्टि क्षण या क्षणार्ध के लिये सचमुच काव्य का देवता द्रवीयमान भाव से विह्वल हुआ आदि शंकराचार्य की अवतारी प्रज्ञा का दास बना रच रहा है !
इसी प्रकार पदबंध द्रष्टव्य है – भुजङ्गशयाङ्गनायाः। भुजंग की शय्या वाले हरि की स्त्री, लक्ष्मी! जिनकी कटाक्षमाला भगवान के हृदय में भी प्रेम का संचार करने वाली है, ऐसी श्री !!
दयार्द्र और अलौकिक पावनानां पावन शब्दराशि से द्रवीभूत, कनक क्या, सर्वथा आशीष ही बरसा होगा।
‘ मकरालय-कन्यकायाः ‘, एक अन्य श्लोक में कहते हैं मकरालयकन्या … सागरसम्भवा … ! कौन पुत्री अपने पितृगृह की महिमामंडन से प्रसन्न न होगी !
दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा मस्मिन्नकिञ्चन विहङ्गशिशौ विषण्णे।
दुष्कर्म-घर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण-प्रणयिनी नयनाम्बुवाहः॥
दुष्कर्म-घर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण-प्रणयिनी नयनाम्बुवाहः॥
भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी के नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) रूपी घाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करें। चातक के लिए विहंगशिशु प्रयोग कितना आश्चर्यकारी है! इसमें भी नारायणप्रणयिनी कहकर लक्ष्मी जी के हृदय पर अपना स्तुतिप्रकाश फैलाने की सहज चेष्टा है।
गीर्देवतेति गरुडध्वजभामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर-वल्लभेति।
सृष्टि-स्थिति-प्रलय-केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै॥
सृष्टि-स्थिति-प्रलय-केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै॥
जो सृष्टि रचना के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में स्थित होती है, त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान नारायण की उन नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।
इसमें भी ‘नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै’ में क्या पदसृष्टि की है, अहोभाव की पराकाष्ठा! सामासिक तो है ही सर्वतोभावेन नव्य भी है।
श्रुत्यै नमोऽस्तु नमस्त्रिभुवनैक-फलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीय गुणाश्र यायै।
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै॥
हे देवी, शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिंधु रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल वन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है।
इस में ‘शतपत्रनिकेतनायै’ और ‘पुरुषोत्तमवल्लभा’ विशेषण बहुत चित्ताकर्षक हैं।
आगे के स्तवन में अनोखे पद हैं ‘नालीकनिभाननायै’ एवं ‘सोमामृतसोदरायै’। कमलासना ही नहीं कमलनिभ आनना भी हैं! सोम और अमृत दोनों की सहोदरी हैं अत: उनके गुण तो स्वत:स्फूर्त हैं ही। भाषा का हृदय से ऐसा ऐक्य बने तो कनकवृष्टि भी हो, कृपावृष्टि भी!
आगे पुन: आह्लादकारी स्तवन द्रष्टव्य है:
नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै।
नमोऽस्तु देवादिदयापरायै नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै॥
कमल के समान नेत्रों वाली हे मातेश्वरी! आप सम्पत्ति व सम्पूर्ण इंद्रियों को आनंद प्रदान देने वाली हैं, साम्राज्य देने में समर्थ और समस्त पापों को सर्वथा हर लेती हैं। मुझे ही आपकी चरण वंदना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे। शार्ङ्गायुधवल्लभायै, सारंग जिनका आयुध है, उनकी वल्लभा, अहा और अहो दोनों ही भाव !
आगे कहते हैं – दिग्घस्तिभि:कनककुम्भमुखावसृष्टस्वरवाहिनीविमलचारूजलप्लुताड्ंगीम्, सचित्र वर्णन है यह!
हाथी आकाशगंगा के पवित्र एवं सुंदर जल से जिनके श्री अंगों का अभिषेक कर रहे हैं ऐसी लोकाधिनाथ की गृहिणी अमृताब्धिपुत्री को प्रात: प्रणाम करता हूँ, अहोरूपमहोध्वनि!
और देखें कि कैसे याचक की ओर इसकी भी याचना की है:
कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूर-तरङ्गितैरपाङ्गैः।
अवलोकय मामकिञ्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः॥
सारांश यह कि निवृत्तिमार्गी की करूणाकलित वीणा से ये स्तोत्र प्रकट हुआ है जिसमें प्रकारान्तर से लक्ष्मीभाव की संकल्पना को उजागर किया है। भाषा सायासविशेषणगर्भा है जिससे अकारणकरुणावरुणालय विष्णु और उनकी प्रिया दोनों प्रसीद हों प्रसाद दें।
दिव्य भावों को हृदयरस में निमज्जित कर देने से जो करूणारसायन बना, कहते हैं उस अकिंचन के यहाँ कनकधारा वृष्टि हुई।
अंकवार श्री सूक्त और श्री यंत्र की समस्त क्रियाविधि चिन्तनविधि है, दूसरी ओर कनकधारा स्तोत्र से क्षिप्रता से प्रसन्न हो जाने वाली हृदयशक्ति और परदु:खकातरता का सरल लोक है। दोनों ही हमारी परंपरा के साक्षी हैं !
पदलालित्य और अर्थगांभीर्य के मणिकांचन संयोग के साथ श्री की संकल्पना का कनकधारा स्तोत्र जैसा विशाल रूपाकार, दुर्लभ अनुभूतियों के सागर में ले जाकर छोड़ देता है – ‘अनबूड़े बूड़े, तिरे … जे बूड़े सब अंग’ के साथ।
अहा बहुत सुन्दर प्रस्तुति ! शंकराचार्य कृत स्तोत्रों में वास्तव में बहुत विलक्षण बात है |