माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:
हमारे पूर्वजों की यह उक्ति भूमि के प्रति उनकी श्रद्धा के साथ भूमि पर निर्भरता को भी व्यक्त करती है; क्यों कि भूमि के बिना हमारा जीवन सम्भव नहीं। भूमि पर ही अन्न संभव है और अन्नाद्भवन्ति भूतानि। अन्न की प्राप्ति कृषि से संभव है। ‘कृषि‘ शब्द हेतु प्रयुक्त √कृष् धातु ही आज की विचारणीय धातु है। इससे अनेक शब्द भी उपजते हैं।
कृष् धातु दो गणों में विराजित है।
(१) तुदादि गण की उभयपदी-धातु के रूप में यह हल चलाना अर्थ को प्रदान करती है अर्थात बैलों द्वारा हल को खींचने की क्रिया।
(२) भ्वादिगण की परस्मैपदी धातुरूप में कृष्+अ = कर्ष बनकर चलने वाली इस धातु के अर्थ खींचना, घसीटना, चीरना, फाड़ना आदि हैं, यथा – प्रसह्य सिंह: किल तां चकर्ष। (रघुवंश. २/२७)
उपसर्गों के संयोग से कुछ शब्द इस प्रकार बनेंगे –
- अपकर्ष = पीछे खींचना, यथा- वीर आगे बढ़ रहा है, उसे पीछे से पकड़ कर खींच लें वह अपकर्ष हुआ।
- आकर्ष = अपनी ओर खींचना। इससे आकर्षक व आकर्षण बनते हैंं।
- आकर्षण का विलोम है – विकर्षण = distraction (traction का अर्थ खींचना होता है)।
- उत्कर्ष = ऊपर खींचना। उन्नति व उखाड़ना अर्थ भी देता है। यथा – अङ्गदकोटिलग्नं प्रालम्बमुत्कृष्य (रघुवंश. ६/१४)
- निष्कर्ष = बलपूर्वक अथवा खींचतान कर निकालना।
प्रत्ययों के संयोग अथवा प्रयोग से कुछ शब्द ऐसे बनते हैं –
- कृष-क्वन् = कृषक। किसान व बैल दोनों ही अर्थ देने वाले इस शब्द का किसान अर्थ प्रसिद्ध है।
- कृष्+इक से बना शब्द कृषि जीवन का आधार है।
- कृष्+नक् से शब्द बना कृष्ण अर्थात् काला अथवा गहरा नीला। कृष्ण वर्ण अन्य वर्णों को अवशोषित कर लेता है। खींच कर अपने में समाहित कर लेता है।
‘कृष्ण’ से हमें कलियुग, अर्जुन, कृष्ण द्वैपायन व्यास तथा वासुदेव श्रीकृष्ण का अभिज्ञान होता है।
कृष्ण में शब्दांश जुड़कर बने कुछ प्रमुख शब्द ये हैं, जैसे – कृष्णपक्ष, कृष्ण-यजुर्वेद, कृष्णाजिन् = कृष्णमृग का चर्म। कृष्णायस् = कच्चा लोहा। कृष्णग्रीव अर्थात् शिव। कृष्णसार अर्थात् चितकबरा कृष्ण मृग – कृष्णसारे ददच्चक्षु: त्वयि चाधिज्यकार्मुके। आदि।
कृष्णा दक्षिणभारत की एक प्रसिद्ध नदी है तथा द्रौपदी का विशेषण व नाम भी है।
अब कृष् में सम् उपसर्ग व ल्युट प्रत्यय के संयोग से शब्द बना सङ्कर्षण – सम्यक् कृष्यते इति सङ्कर्षण। हरिवंश पुराण के अनुसार – सङ्कर्षणात्तु गर्भस्य स हि सङ्कर्षणो युवा। जिसे भली प्रकार खींचा गया हो वह सङ्कर्षण अर्थात् श्रीकृष्णाग्रज बलभद्र। पुराणों के अनुसार देवकी के गर्भ से सातवें भ्रूण को खींच कर निकाला गया और वसुदेव की अन्य भार्या रोहिणी के गर्भ में स्थापित किया गया, जो गोकुल में नंद के संरक्षण में थीं। अमरकोश बलभद्र के नामों को सूचित करता है –
बलभद्र: प्रलम्बघ्नो बलदेवोऽच्युताग्रज:। रेवतीरमणो राम: कामपालो हलायुध:॥
नीलाम्बरो रौहिणेयस्तालाङ्को मुसली हली। सङ्कर्षणो सीरपाणि: कालिन्दीभेदनो बल: ॥
लेखक का स्वचिन्तन
सङ्कर्षण शब्द से चिन्तन उपजता है कि निश्चित ही वसुदेव-देवकी को अपराधियों की भाँति कारागार में नहीं डाला गया होगा। किसी राजकीय भवन में इन्हें रखा गया होगा, जो प्रहरियों द्वारा संरक्षित था। जहाँ प्रसविका अथवा स्थानीय चिकित्सिका स्वतन्त्रता पूर्वक आती जाती रही होंगी; अन्यथा एकान्त के अभाव में गर्भाधान असम्भव तथा कंस के अभिज्ञान के बिना देवकी के गर्भ से भ्रूण को सम्यक् रूपेण निकाल कर उसे सुरक्षित गोकुल ले जाकर रोहिणी के गर्भ में स्थापन दुष्कर होता। अस्तु।