Minimalism अपरिग्रह, चित्र आभार – Bessi, pixabay.com
भौतिकतावाद, जीवनोपयोगी उत्पादों की बहुलता तथा उपभोक्तावाद के इस युग में, विशेष रूप से पश्चिमी देशों में वस्तु संग्रह, सञ्चय (hoarding) तथा अव्यवस्था (clutter) से एक जटिल मानसिक स्थिति की उत्पत्ति हुई है। आश्चर्य नहीं कि ‘जग पीड़ित रे अति सुख से’ सी लगने वाली यह समस्या मनोरोग का रूप लेती गयी है।
पश्चिमी देशों में पिछले अनेक वर्षों से आत्मसुधार की सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तकों में अतिसूक्ष्मवाद, न्यूनतावाद (decluttering), संक्षिप्तता (minimalism) तथा सुव्यवस्थता (Organizing) की पुस्तकें शीर्ष पर हैं। इस विषय पर मनोवैज्ञानिक अध्ययनों के साथ साथ अनेक लोकप्रिय गुरु भी हैं जिन्होंने निरर्थक भौतिक वस्तुओं के संग्रह से दूर रहने की विधियाँ विकसित की हैं। स्वाभाविक रूप से इस आंदोलन के सबसे बड़े कारण हैं – सुविधाओं में वृद्धि एवं वस्तुओं के संग्रह की प्रवृत्ति।
इस विषय में प्रमुख अध्ययनों में से एक है लॉस ऐंजेलेस स्थित कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा वर्ष २०११-२००५ में अमेरिकी मध्यम वर्गीय परिवारों की सम्पत्ति का अध्ययन। उसमें यह पाया गया कि घरों में रखे प्रशीतक (refrigerator) तक चित्रों, चुम्बक इत्यादि से भरे होते हैं। वाहनशालयें (garage) इस प्रकार भरी रहती हैं कि वाहन रखने तक का स्थान नहीं बचता! इसी प्रकार लोगों के घर डिब्बों, फ़र्नीचर इत्यादि नई तथा पुरानी वस्तुओं से भरे रहते हैं।
वर्ष २०१९ में प्रकाशित एक आलेख के अनुसार अव्यवस्थित घर तनाव का कारण होते हैं। इस विषय पर अध्ययन करने वाले शिकागो स्थित डेपॉल विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक जोसेफ़ फ़रारी समस्या को परिभाषित करते हुए कहते हैं – “Clutter is an overabundance of possessions that collectively create chaotic and disorderly living spaces” वर्ष २०१८ में करेंट साइकोलोज़ी में प्रकाशित शोधपत्र Introduction to “Procrastination, Clutter, & Hoarding” तथा Delaying Disposing: Examining the Relationship between Procrastination and Clutter across Generations में प्रो फ़रारी ने संग्रह, अव्यवस्था तथा दीर्घसूत्रता के आपसी सम्बन्धों का अध्ययन किया। शोध में मनोवैज्ञानिकों ने वयस्कों के विभिन्न समूहों पर किए गए अध्ययन में यह स्थापित किया कि अव्यवस्थित संग्रह से घिरे व्यक्ति दीर्घसूत्री होते हैं तथा वे अपने जीवन से अप्रसन्न (life dissatisfaction) भी रहते हैं।
वर्ष २०१० में किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि अति संग्रह तथा अव्यवस्थित गृहों में रहने वाले व्यक्तियों में तनाव की वृद्धि करने वाले हार्मोन कोर्टिसोल की अधिकता होती है। अनेको अध्ययनों में न्यूनतम वस्तुओं के साथ सुव्यवस्थित जीवन को उत्पादकता में वृद्धि, केंद्रित ध्यान तथा प्रसन्नता से जुड़ा पाया गया। प्रो फ़ेरारी इस समस्या को वस्तुओं के मोह तथा आसक्ति (over-attachment) से भी जोड़ते हैं तथा व्यक्तियों को अपनी व्यक्तिगत वस्तुओं के मोह में न पड़ने की सलाह देते हैं। इसके अतिरिक्त वह यह भी कहते हैं कि व्यक्ति को प्रयास कर अनावश्यक वस्तुयें एकत्र ही नहीं करनीं चाहिये। “We have taken our wants and been told they are needs” -जिसका कारण है उपभोक्तावाद में व्यक्तियों को उन वस्तुओं के लिए लुभाना जिसकी उन्हें कोई आवश्यकता नहीं। इच्छा आवश्यकता नहीं होती!
वैज्ञानिक अध्ययनों के परे इस विषय का सबसे लोकप्रिय नाम है जापानी सुव्यवस्था सलाहकार एवं लेखिका मरी कोंडो। वर्ष २०१४ से अनेक लोकप्रिय पुस्तकों, टीवी कार्यक्रमों तथा सलाहकार के रूप में उन्होंने न्यूनतावाद तथा सुव्यवस्थता को एक व्यवसाय का रूप दे दिया। उनकी विधि (KonMari method) सरल है – समस्त संग्रहित वस्तुओं को एकत्र कर प्रत्येक के लिये यह प्रश्न करना कि क्या उस वस्तु से प्रसन्नता मिलती है? तथा नकारात्मक उत्तर वाली वस्तुओं का त्याग कर शेष वस्तुओं को निश्चित स्थान पर व्यवस्थित कर के रखना। सुनने में साधारण सी प्रतीत होती बात अति लोकप्रिय है क्योंकि अति संग्रह तथा अनावश्यक क्रय बहुधा व्यक्तियों में एक प्रकार से मनोरोग तथा अवसाद का रूप ले लेता है। अनावश्यक संग्रहकारी प्रवृत्ति का अन्य विकारों यथा obsessive-compulsive personality disorder (OCPD), obsessive-compulsive disorder (OCD), attention-deficit/hyperactivity disorder (ADHD) से भी सम्बन्ध है। अध्ययनों में यह भी पाया गया कि अवसाद ग्रस्त व्यक्ति अधिक संग्रहकारी तथा अव्यवस्थित होता जाता है।
स्वाभाविक है कि पश्चिमी देशों में इस लहर की पृष्ठभूमि में मुख्य रूप से बौद्ध दर्शन की प्रेरणा है परंतु यहाँ एक रोचक अवलोकन यह है कि वस्तुओं को त्यक्त करते रहना भी एक प्रकार से छल (trap) ही है क्योंकि व्यक्ति यदि अनावश्यक वस्तुएँ क्रय करता रहे तो इस अंतहीन प्रक्रिया से क्या लाभ? यह प्रक्रिया पूरी तरह से प्रभावी प्रतीत नहीं होती। यदि कोई व्यक्ति सचेत होकर वस्तु क्रय करे तथा मन, वाणी व शरीर से अनावश्यक वस्तुओं व अनावश्यक विचारों का संग्रह न करे तो यह स्थिति उत्पन्न ही नहीं होगी!
विश्व में एक आंदोलन बन गए इस हल से उत्कृष्ट हल है, सनातन दर्शन का एक अनुशासन, इस प्रवृत्ति का समूल नाश जिसे सनातन दर्शन में अपरिग्रह कहा गया है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से स्पष्ट है कि इस समस्या के मानसिक रोग तथा अवसाद में परिवर्तित होने के पीछे केवल वस्तु संग्रह ही कारण नहीं है परंतु भावात्मक (emotional) कारण भी हैं तथा आध्यात्मिक समझ एवं संस्कार भी। सनातन संस्कारों में रहे व्यक्ति के लिए यह समस्या है ही नहीं।
सनातन दर्शन बारम्बार कहते हैं – मोह तथा आसक्ति की समझ तथा अनावश्यक वस्तुओं तथा विचारों से दूरी बनाए रखना। किसी भी क्रय से पहले उसकी उपयोगिता का विचार तथा अतीत की अनावश्यक वस्तुओं, विचारों तथा व्यक्तियों का भी मोह त्याग। बौद्ध, जैन सहित सनातन धर्म की हर परम्परा में इस विषय का उत्कृष्ट रूप है। भौतिक ही नहीं अनावश्यक नकारात्मक मानसिक विचारों की भी शुद्धि तथा व्यग्रतामुक्त शान्त मन के लिए श्रेष्ठ उपाय। भौतिक वस्तुओं तथा कृत्रिम अनित्य सुख साधनों की प्रकृति के नैराश्य युक्त (frustrating) मायाजाल होने तथा न्यूनतम वस्तुओं के साथ सरल जीवन जीने का दर्शन भला क्या नया है – सनातन दर्शन की विशालता की एक सूक्ष्म अवस्था ही तो है।
सनातन दर्शन की समझ भौतिक वस्तुओं की परतंत्रता जैसी परिस्थिति ही उत्पन्न नहीं होने देती। वह अतिशय उपभोक्ता संस्कृति के जाल से ही मुक्त रखती है – वस्तुओं की वस्तुनिष्ठ वास्तविकता के सञ्ज्ञान के साथ। किसी भी वस्तु को सञ्चित न करना, अपनी प्राथमिकताओं के बारे में स्वभाव से ही चयनात्मक तथा आवश्यकताओं के प्रति एक स्पष्ट सरल, आडम्बररहित व संतुष्ट दृष्टिकोण रखना ही तो अपरिग्रह है।
अनावश्यक तथा निरर्थक भौतिक वस्तुओं के संग्रह में जो लगा रहे उसे दुःख तो होना ही है! योगवासिष्ठ के वैराग्य प्रकरण में भौतिक तथा मानसिक संसार की वास्तविकता का अति सुंदर वर्णन मिलता है तथा भर्तृहरि के वैराग्य शतकम् (जिसकी चर्चा हम अनेक लेखांशों में कर चुके हैं) में तो भोगों तथा वस्तुओं के अनित्य होने का उत्कृष्ट दर्शन है ही। इन दर्शनों की आंशिक समझ भी हो तो भला इन वैश्विक आंदोलनों की आवश्यकता ही क्यों हो!
योग सूत्र में भी तो पतञ्जलि कहते हैं – अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः । अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः ।
इस संदर्भ में श्रीमद्भागवतमाहापुराण की सटीक उक्ति है :
सत्यां क्षितौ किं कशिपोः प्रयासैर्बाहौ स्वसिद्धे ह्युपबर्हणैः किम्।
सत्यञ्जलौ किं पुरुधान्नपात्र्या दिग्वल्कलादौ सती किं दुकूलैः॥
अर्थात यदि भूमि पर सोने से काम चल सकता है, तो पलङ्ग के लिये यत्न करने का क्या प्रयोजन? जब भुजाएँ भगवान की कृपा से अपने को स्वयं ही मिली हुई हैं, तब उपधानों (तकियों) की क्या आवश्यक्ता? यदि अँजुरी से काम चल सकता है तो बहुत से पात्र क्यों बटोरे? वृक्ष की छाल पहनकर या वस्त्रहीन रहकर भी यदि जीवन धारण किया जा सकता है तो वस्त्रों की क्या आवश्यकता है?
या मधुमक्खियों की भाँति सञ्चय के व्यर्थ होने का सुभाषित –
दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः ।
पश्येह मधुकरिणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये ॥
या दान या भोग नहीं कर सञ्चय करने पर उसका तृतीय गति अर्थात नाश को प्राप्त हो जाना –
दानं भोगं नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतिया गतिर्भवति ॥