विष्णु दशावतार तथा बुद्ध – 1 234 से आगे [ Matsya Puran मत्स्य पुराण ]
स्कन्द पुराण में १८ की संख्या में पुराणों के होने का उल्लेख है :
अष्टादशपुराणेषु गीयतेवै परश्शिवः। तस्माच्छिवस्य माहात्म्यं वक्तुं कोऽपि न पार्यते ॥१.१३॥केदारखण्ड के इस श्लोक का एक अन्य पाठभेद यत्र तत्र उल्लिखित मिलता है जिसमें पुराणों का शैव, वैष्णव एवं ब्राह्म वर्गों में विभाजन बताया गया है किन्तु यह प्रकाशित ग्रंथों में नहीं मिला :
अष्टादशपुराणेषु दशभिर्गीयते शिव: । चतुर्भिभगवान् ब्रह्मा द्वाभ्यां देवी तथा हरि: ॥
उसी पुराण के सम्भव खण्ड में दस शैव पुराणों के नाम बताये गये हैं। कुछ श्लोक अनंतर दस सात्विक पुराण बताये गये हैं, एवं चार वैष्णव पुराण तामसिक। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दस शैव पुराण सात्विक माने जाने चाहिये। स्कन्द पुराण अत्यंत विशाल है जिसकी यह स्थापना उस प्रचलित मान्यता के विपरीत पड़ती है जिसके अनुसार वैष्णव सात्विक, ब्राह्म राजसिक एवं शैव तामसिक श्रेणी में माने जाते हैं।
साम्प्रदायिक आग्रहों से प्रभावित होने के कारण ऐसे विभाजनों को बहुत गम्भीरता से नहीं लिया जाना चाहिये। केवल सूचना सहेजने हेतु मत्स्य पुराण की श्रेणी यहाँ अन्य विविध पुराणों के अनुसार इस प्रकार है :
स्कन्द पुराण के अनुसार – शैव सात्विक
गरुड़ पुराण के अनुसार – शैव सात्विक
पद्म पुराण के अनुसार – तामसपद्म पुराण में ही इसे श्री हरि की देह का मेदा कहा गया है – मात्स्यं मेदः प्रकीर्तितम् ।
नैमिषारण्य निवासी मुनियों ने एक दीर्घ सत्र की समाप्ति पर सूत जी से दीर्घसंहिता (मत्स्य पुराण) के विषय में जिज्ञासा की कि जिन पुराणों को आप सुना चुके हैं, उन्हें पुन: सुनने की इच्छा है – श्रोतुमिच्छामहे पुन:। तीन प्रश्न हैं, ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव से सम्बंधित।
कथं ससर्ज भगवंल्लोकनाथश्चराचरम् । कस्माच्च भगवान् विष्णुर्मत्स्यरूपत्वमाश्रितः ॥ १.७ ॥
भैरवत्वं भवस्यापि पुरारित्वं च केन हि । कस्य हेतोः कपालित्वं जगाम वृषभध्वजः ॥ १.८ ॥
इन्हीं में विष्णु के मत्स्य रूप पर प्रश्न है जिसके उत्तर में युगांत लय के समय ‘सींग’ वाले मत्स्य रूप विष्णु द्वारा वेद रूपी नाव में सृष्टि को बचाने का प्रकरण आता है। जो मनु समस्त उपाय करते हैं, उन्हें रविनंदन एवं नृपश्रेष्ठ कहा गया है। मछली के त्वरित विशालकाय होने पर मनु भयभीत हो कर शङ्का करते हैं कि कहीं आप असुरेश्वर तो नहीं? विकल्प के रूप में वह वासुदेव का नाम लेते हैं जिसे वह आगे बढ़ाते हैं। मनु एवं मत्स्य के संवाद में मत्स्य हेतु केशव, जनार्दन, मधुसूदन, हृषीकेश, जगन्नाथ, वासुदेव, भगवन् सम्बोधनों का प्रयोग हुआ है। संवाद में मत्स्यरूपी विष्णु मनु को प्रलय पश्चात का प्रजापति, पृथ्वीपति एवं देवपूज्य मन्वन्तराधिपति बताते हैं।
इन सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि मत्स्य पुराण का वर्तमान उपलब्ध रूप त्रिदेव एवं कृष्णभक्ति के पूर्णत: स्थापित हो जाने का पश्चवर्ती है एवं इसे नैमिषारण्य में पुनर्नियोजित किया गया।
प्रलय की भूमिका में सौ वर्षों तक अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, सूर्य की सात दारुण रश्मियों का अङ्गार बरसाना, और्वानल (बड़वानल) का विकृत होना, सङ्कर्षण के मुख से निकली विषाग्नि का पाताललोक से ऊपर आना एवं भव (शङ्कर) के तीसरे नेत्र से भी अनल का उत्थित होना बताये गये हैं। समस्त सृष्टि भस्म हो जाती है। आकाश के ऊष्मा से तप्त होने के कारण जगत सहित देवों एवं नक्षत्रों का भी क्षय हो जाता है – तत: सदेवनक्षत्रं जगद् यास्यति संक्षयम्। यह स्पष्टत: ज्वालामुखियों के विस्फोट से निकले धुयें आदि से वायुमण्डल के भर जाने का अलङ्कारिक वर्णन है। कहीं यह किसी पुरातन ज्वालामुखी के विस्फोट पश्चात भारत पहुँचे जन द्वारा स्मृतिलेख तो नहीं? (उदाहरण हेतु ७४००० वर्ष पूर्व सुमात्रा का टोबा विस्फोट।)
मत्स्य ने कहा कि हे सुव्रत (मनु)! तब सात प्रकार के मेघ, ‘संवर्त, भीमनाद, द्रोण, चण्ड, बलाहक, विद्युत्पताक एवं शोण’अग्नि के प्रस्वेद से हुये जल की वृष्टि से मेदिनी को आप्लावित कर देंगे। क्षुब्ध समुद्र एक हो कर तीनों लोकों को एकार्णव में परिवर्तित कर देंगे। तब समस्त सत्त्व एवं बीजों को वेद रूपी नाव में रख उसे मेरे द्वारा प्रदत्त रज्जु से मेरी सींग में बाँध देना। जब कि देवसमूह भी भस्म हो चुका रहेगा, मेरे प्रभाव से तुम बचे रहोगे। सोम, सूर्य, ब्रह्मा, चारो लोक, पुण्या नदी नर्मदा, महर्षि मार्कण्डेय, शङ्कर, वेद, विद्याओं से सब ओर से घिरे पुराण; तुम्हारे द्वारा बचाया गया जो सब होगा, उसके साथ बचे रहेंगे। इस प्रकार चाक्षुष अंतर में जब समस्त पृथ्वी एकार्णव में लीन हो जायेगी एवं तुम्हारे द्वारा सृष्टि (सर्ग) का पुन: आरम्भ होगा, तब हे महीपति! मैं वेदों का (पुन:) प्रवर्तन करूँगा।
एतदेकार्णवं सर्वं करिष्यन्ति जगत्त्रयम् । वेदनावमिमां गृह्य सत्त्वबीजानि सर्वशः ॥ २.१० ॥
आरोप्य रज्जुयोगेन मत्प्रदत्तेन सुव्रत । संयम्य नावं मच्छृङ्गे मत्स्यभावाभिरक्षितः ॥ २.११ ॥
एकः स्थास्यसि देवेषु दग्धेष्वपि परंतप । सोमसूर्यावहं ब्रह्मा चतुर्लोकसमन्वितः ॥ २.१२ ॥
नर्मदा च नदी पुण्या मार्कण्डेयो महानृषिः । भवो वेदाः पुराणानि विद्याभिः सर्वतोवृतम् ॥ २.१३ ॥
त्वया सार्धमिदं विश्वं स्थास्यत्यन्तरसंक्षये । एवमेकार्णवे जाते चाक्षुषान्तरसंक्षये ॥ २.१४ ॥
वेदान्प्रवर्तयिष्यामि त्वत्सर्गादौ महीपते ।
ऐसा कह कर (मत्स्य रूपी) भगवान अन्तर्धान हो गये – एवमुक्त्वा स भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ २.१५ ॥
यह पूरा वर्णन भारत के अत्यंत प्राचीन रूप का सङ्केतक है। पुन: प्रवर्तित पुराण में यह मूल अंश सुरक्षित रह गया है। विंध्य क्षेत्र की नर्मदा एवं मार्कण्डेय ऋषि के महत्व से इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। यह वर्णन तब का हो सकता है जब गङ्गा यमुना क्षेत्र था ही नहीं, वहाँ सागर था। इतिहास के रूप में पुराणों का वेदों के समांतर अस्तित्व रेखाङ्कित करने योग्य है।
आगे की सामग्री वही रूप लिये हुये है जो अन्य पुराणों में भी प्रकारांतर से उपलब्ध है। मनु मत्स्य से विविध प्रश्न पूछते हैं, जिज्ञासायें करते हैं, भगवान उत्तर देते हैं जिसका सङ्कलन यह, मत्स्य पुराण है। मत्स्य रूप में भगवान के प्रादुर्भाव का स्पष्ट उल्लेख इस प्रकार है:
काले यथोक्ते संजाते वासुदेवमुखोद्गते । शृङ्गी प्रादुर्बभूवाथ मत्स्यरूपी जनार्दनः ॥२.१७॥
कामदेव से ब्रह्मा जी कहते हैं कि वैवस्वत अंतर में जब श्रीराम बलराम के रूप में अवतार लेंगे तो तुम उन्हीं के समान उनके भ्राता (कृष्ण) के पुत्र के रूप में जन्म लोगे।
वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते यादवान्वयसम्भवः । रामो नाम यदा मर्त्यो मत्सत्त्वबलमाश्रितः ॥४.१७॥
अवतीर्यासुरध्वंसी द्वारकामधिवत्स्यति । तद्भ्रातुस्तत्समस्य त्वं तदा पुत्रत्वमेष्यसि ॥४.१८॥
यह अंश प्राचीन है जिसमें कृष्ण में अवतार भाव न हो कर बलराम में है। कालांतर में पुराणों में अन्यत्र, बलराम एवं कृष्ण, दोनों को अवतार मानने के जो वर्णन मिलते हैं, उनका यह बीज है। एक ही समय में दो अवतारों को ले कर दुविधा की स्थिति भी रही, जिसका समाधान कृष्ण द्वैपायन को अवतार मान कर पूरा करने के वर्णन भी मिलते हैं जो कि आयु में दोनों यादवों से बहुत अधिक हैं, उन पर अमरत्व का भी आरोपण कर दिया गया। इन सबसे स्पष्ट होता है कि अवतारवाद एक विकासमान प्रक्रिया थी।
इंद्र द्वारा दिति के गर्भ के ४९ टुकड़े किये जाने के संदर्भ में दिति द्वारा किये गये मदनद्वादशी व्रत का उल्लेख है जिसमें केशव का देहन्यास कामदेव के विविध नामों से किया जाता है। वज्र द्वारा मारे जाने पर भी गर्भ की मृत्यु न होने का कारण मदनद्वादशी व्रत बताया गया है जिसमें कृष्ण का पूजन किया जाता है। यह प्रकरण स्पष्टत: कृष्ण की उपासना स्थापित हो जाने के पश्चात परिवर्द्धित किया गया प्रतीत होता है।
विदित्वा ध्यानयोगेन मदनद्वादशीफलं ॥ नूनमेतत् परिणतमधुना कृष्णपूजनात् ।
वज्रेणापि हता: सन्तो न विनाशमवाप्नुयु:॥
यहाँ पर राजा पृथु एवं मान्धाता में अवतार निवेश नहीं किया गया है किंतु सगर के साठ हजार पुत्रों को दग्ध करने वाले कपिल मुनि का विष्णु नाम से उल्लेख है – खनन्त: पृथिवीं दग्धा विष्णुना येऽश्वमार्गणे। राजा दशरथ के चारो पुत्रों को नारायण के अंश से उत्पन्न बताया गया है:
तस्माद्दशरथो जातस्तस्यपुत्रचतुष्टयं॥ नारायणात्मका: सर्वे रामस्तेष्वग्रजोऽभवतत् ।
रावणान्तकरस्तद्वद्रघूणांवंशवर्धन:॥ (१२.४९-५०)
यहीं वाल्मीकि को भार्गवसत्तम: बताया गया है – भृगुकुलश्रेष्ठ। आगे सती हेतु पिता दक्ष द्वारा जगत माता सम्बोधन है जिसमें कि देवी के भी अवतीर्ण होने का भाव परिलक्षित है। देवी द्वारा जो अपने एक सौ आठ नाम गिनाये गये हैं, उनमें द्वारकापुरी में रुक्मिणी एवं वृन्दावन में राधा भी है – रुक्मिणी द्वारवत्यां तु राधा वृन्दावने (१३.२८)। स्पष्टत: यह अंश कृष्ण आराधना के दूसरे चरण श्रीराधा की स्थापना के पश्चात का है।
चौदहवें अध्याय में मरीचि पुत्र देवताओं के पितरों की अच्छोदा नामक तपस्विनी मानसी कन्या का अमावसु पितर के प्रति कामभाव जागृत होने से पतन एवं कन्या के रूप में राजा वसु के यहाँ जन्म लेने का प्रकरण बादरायण के जन्म की कथा बताता है। बदरी के वृक्षों से व्याप्त द्वीप पर पराशर द्वारा इस कन्या को बादरायण नामक पुत्र की प्राप्ति होती है जो वेदों के अनेक विभाग करता है। अच्युत संज्ञा के प्रयोग द्वारा बादरायण के नारायण अवतार होने को सङ्केतित किया गया है। कन्या आगे चल कर समुद्र अंश से उत्पन्न शन्तनु की पत्नी होती है, जिससे चित्राङ्गद एवं विचित्रवीर्य दो पुत्र होते हैं। विचित्रवीर्य के दो क्षेत्रज पुत्र धृतराष्ट्र एवं पाण्डु होने पर मनुष्यलोक में सत्यवती नाम से प्रसिद्ध वह पितृलोक में अष्टका नाम से जन्म लेती है एवं कालान्तर में पुण्यसलिला अच्छोदा नाम की नदी होती है।
अच्छोद सरोवर एवं अच्छोदा नदी (अच्छावत), दोनों कश्मीर में हैं।
इस प्रकरण से कृष्ण द्वैपायन व्यास एवं बादरायण का ऐक्य स्थापित होता है। नदियों का भगिनी एवं पुत्री रूप में धरा पर अवतीर्ण होना बताया जाना एक प्राचीन रीति है जो विश्वामित्र की नदीरूपा बहन की कथा में भी मिलती है। प्रतीत होता है कि सत्यवती राजपाठ से निवृत्त हो कर अंतिम समय में कश्मीर में निवास की होंगी। अन्य स्रोतों में राजा वसु का नाम उपरिचर भी बताया गया है। सत्यवती एवं कुन्ती के समय तक भी विवाह संस्था स्थापित होने से पूर्व के व्यवहार शेष थे, ऐसा कहा जा सकता है।
पंद्रहवें अध्याय में अङ्गिरा के पुत्र हविष्मान को राजाओं एवं क्षत्रियों का पितर बताया गया है जिनकी यशोदा नाम की मानसपुत्री पञ्चजन की पुत्रवधू , अंशुमान की पत्नी, दिलीप की माता एवं भगीरथ की पितामही हैं। रघुवंश में दिलीप नाम के दो राजा हुये प्रतीत होते हैं।
दत्तात्रेय इस पुराण में अत्रि के पुत्र मात्र बताये गये हैं, विष्णु अंश या अवतार नहीं। तैंतालिसवें अध्याय में सहस्रार्जुन प्रकरण में भार्गव राम का उल्लेख है, न तो परशुराम नाम है, न उनके विष्णु अवतार होने का कोई सङ्केत।
चौवालिसवें अध्याय में विष्णुर्वृष्णिकुलोद्वह: प्रयोग से वृष्णि वंश में विष्णु अवतार कृष्ण सङ्केतित हैं। आगे स्यमन्तक मणि प्रकरण में जाम्बवान द्वारा कृष्ण की स्तुति में भी विष्णु प्रभु सङ्केतित है।
तुष्टावैनं तदा ऋक्षः कर्मभिर्वैष्णवैः प्रभुम् । ततस्तुष्टस्तु भगवान् वरेणैनमरोचयत् ॥४५.१४॥
छियालिसवें अध्याय में सौतेले भाई राम के अनन्तर कृष्ण जन्म का भी उल्लेख है, राम हेतु कोई अवतारी संज्ञा नहीं है किन्तु कृष्ण को लोकनाथ प्रजापति कहा गया है। इसके अंतिम श्लोक में कृष्ण जन्म के साथ अवतार सूचक संज्ञा अभ्युदय प्रयुक्त हुई है :
कृष्णस्य जन्माभ्युदयं यः कीर्तयति नित्यशः । शृणोति मानवो नित्यं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥४६.२९॥
आगे कृष्ण के मानुषी जन्म का भी उल्लेख है, साथ ही दिव्य चतुर्भुज जात रूप का भी। उससे आगे ‘विष्णुं जनयामास’ प्रयोग भी है।
*सूत उवाच
अथ देवो महादेवः पूर्वं कृष्णः प्रजापतिः । विहारार्थं स देवेशो मानुषेष्विह जयते ॥४७.१॥
देवक्यां वसुदेवस्य तपसा पुष्करेक्षणः । चतुर्बाहुस्तदा जातो दिव्यरूपो ज्वलञ्श्रिया ॥४७.२॥
…
यो विष्णुं जनयामास यं च तातेत्यभाषत । या गर्भं जनयामास या चैनं त्वभ्यवर्धयत् ॥४७.८॥
धर्म एवं यज्ञ ने नष्ट होने पर धर्म संस्थापना हेतु वृष्णिकुल में विष्णु अवतार का स्पष्ट वर्णन हुआ है :
अथ कामान्महाबाहुर्देवक्याः समपूरयत् । ये तया काङ्क्षिता नित्यमजातस्य महात्मनः ॥४७.१०॥
सोऽवतीर्णो महीं देवः प्रविष्टो मानुषीं तनुम् ।व मोहयन्सर्वभूतानि योगात्मा योगमायया ॥४७.११॥
नष्टे धर्मे तथा जज्ञे विष्णुर्वृष्णिकुले प्रभुः । कर्तुं धर्मस्य संस्थानमसुराणां प्रणाशनम् ॥४७.१२॥
…
कृष्ण का विष्णु अवतारी रूप आगे प्रतिष्ठित होता चला गया है :
आदिदेवस्तथा विष्णुरेभिस्तु सह दैवतः । किमर्थं संघशो भूताः स्मृताः सम्भूतयः कति ॥४७.३१॥
भविष्याः कति चैवान्ये प्रादुर्भावा महात्मनः । ब्रह्मक्षत्रेषु शान्तेषु किमर्थमिह जायते ॥४७.३२॥
यदर्थमिह सम्भूतो विष्णुर्वृष्ण्यन्धकोत्तमः । पुनः पुनर्मनुष्येषु तन्नः प्रब्रूहि पृच्छताम् ॥४७.३३॥
आगे पूछे जाने पर अवतारों का वर्णन करते हुये सूत रोमहर्षण पहले हिरण्यकशिपु हेतु (नृसिंह) एवं बलि हेतु (वामन) अवतार बताते हैं :
हिरण्यकशिपौ दैत्ये त्रैलोक्यं प्राक्प्रशासति ॥४७.३५॥
बलिनाधिष्ठिते चैव पुरा लोकत्रये क्रमात् ।
बारह देवासुर सङ्ग्रामों में सूत विविध अवतार बताते हैं जिसमें दशावतार में सम्मिलित तीन नृसिंह, वामन, एवं वराह उल्लिखित हैं, समुद्र मन्थन का प्रकरण है किंतु उसमें कूर्म सङ्केतित नहीं हैं अपितु इन्द्र द्वारा प्रह्लाद की पराजय बताई गयी है :
*सूत उवाच
तेषां दायनिमित्तं ते संग्रामास्तु सुदारुणाः । वराहाद्या दश द्वौ च शण्डामर्कान्तरे स्मृताः ॥ ४७.४१ ॥
नामतस्तु समासेन शृणुतैषां विवक्षतः । प्रथमो नारसिंहस्तु द्वितीयश्चापि वामनः ॥ ४७.४२ ॥
तृतीयस्तु वराहश्च चतुर्थोऽमृतमन्थनः । संग्रामः पञ्चमश्चैव संजातस्तारकामयः ॥४७.४३॥
षष्ठो ह्याडीबकाख्यस्तु सप्तमस्त्रैपुरस्तथा । अन्धकाख्योऽष्टमस्तेषां नवमो वृत्रघातकः ॥४७.४४॥
धात्रश्च दशमश्चैव ततो हालाहलः स्मृतः । प्रथितो द्वादशस्तेषां घोरः कोलाहलस्तथा ॥४७.४५॥
हिरण्यकशिपुर्दैत्यो नारसिंहेन पातितः । वामनेन बलिर्बद्धस्त्रैलोक्याक्रमणे पुरा ॥४७.४६॥
हिरण्याक्षो हतो द्वंद्वे प्रतिघाते तु दैवतैः । दंष्ट्रया तु वराहेण समुद्रस्तु द्विधा कृतः ॥४७.४७॥
भृगुपत्नी के वध के दोष के कारण शापयुक्त विष्णु का बारम्बार लोकहित धरा पर मनुष्य रूप में अवतरित होना उल्लिखित है :
तं दृष्ट्वा स्त्रीवधं घोरं चुक्रोध भृगुरीश्वरः । ततोऽभिशप्तो भृगुणा विष्णुर्भार्यावधे तदा ॥४७.१०४॥
यस्मात्ते जानतो धर्मप्रवध्या स्त्री निषूदिता । तस्मात्त्वं सप्तकृत्वेह मानुषेषूपपत्स्जसे ॥४७.१०५॥
ततस्तेनाभिशापेन नष्टे धर्मे पुनःपुनः । लोकस्य च हितार्थाय जायते मानुयेष्विह ॥४७.१०६॥
अनुव्याहृत्य विष्णुं स तदादाय शिरस्त्वरन् । समानीय ततः कायमसौ गृह्येदमब्रवीत् ॥४७.१०७॥
…
ततः प्रभृति शापेन भृगोर्नैमित्तिकेन तु ॥४७.२३३॥
जज्ञे पुनः पुनर्विष्णुर्धर्मे प्रशिथिले प्रभुः ।
कुर्वन्धर्मव्यवस्थानमसुराणां प्रणाशनम् ॥४७.२३४॥
आगे नारायण से आरम्भ कर अवतार गिनाये गये हैं। नारायण, नृसिंह एवं वामन को दिव्यावतार बताया गया है :
धर्मान्नारायणस्यांशः सम्भूतश्चाक्षुषेऽन्तरे । यज्ञं वै वर्तयामासुर्देवा वैवस्वतेऽन्तरे ॥४७.२३६॥
प्रादुर्भावे ततस्तस्य ब्रह्मा ह्यासीत्पुरोहितः । युगाख्यायां चतुर्थ्यां तु आपन्नेषु सुरेषु वै ॥४७.२३७॥
सम्भूतस्तु समुद्रान्ते हिरण्यकशिपोर्वधे । द्वितीये नरसिंहाख्ये रुद्रो ह्यासीत्पुरोहितः ॥४७.२३८॥
बलिसंस्थेषु लोकेषु त्रेतायां सप्तमं प्रति ।
तृतीये वामनस्यार्थे धर्मेण तु पुरोधसा ॥४७.२३९॥
एतास्तिस्रः स्मृतास्तस्य दिव्याः सम्भूतयो द्विजाः ।
भृगु के शाप के कारण सात मनुष्य अवतार हुये बताये गये हैं जिनका आरम्भ दत्तात्रेय से है जो कि इस दशावतार सूची की प्राचीनता दर्शाता है। अन्य छ: हैं – मान्धाता, जामदग्न्य राम, दाशरथि राम, वेदव्यास, बुद्ध एवं भविष्य के कल्कि :
मानुषाः सप्त यान्यास्तु शापजास्ता निबोधत ॥४७.२४०॥
त्रेतायुगे तु प्रथमे दत्तात्रेयो बभूव ह । नष्टे धर्मे चतुर्थांशे मार्कण्डेयपुरःसरः ॥४७.२४१॥
पञ्चमः पञ्चदश्यां च त्रेतायां संबभूव ह । मान्धाता चक्रवर्ती तु तदोत्तङ्कपुरःसरे ॥४७.२४२॥
एकोनविंश्यां त्रेतायां सर्वक्षत्रान्तकृद्विभुः । जामदग्न्यस्तथा षष्ठो विश्वामित्रपुरःसरः ॥४७.२४३॥
चतुर्विंशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा । सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः ॥४७.२४४॥
अष्टमे द्वापरे विष्णुरष्टाविंशे पराशरात्। वेदव्यासस्तथा जज्ञे जातूकर्ण्यपुरःसरः ॥४७.२४५॥
कर्तुं धर्मव्यवस्थानमसुराणां प्रणाशनम् । बुद्धो नवमको जज्ञे तपसा पुष्करेक्षणः ।
देवसुन्दररूपेण द्वैपायनपुरःसरः ॥४७.२४६॥
तस्मिन्नेव युगे क्षीणे संध्याशिष्टे भविष्यति । कल्की तु विष्णुयशसः पाराशर्यपुरःसरः ॥४७.२४७॥
दशमो भाव्यसम्भूतो याज्ञवल्क्यपुरःसरः । सर्वांश्च भूतांस्तिमितान् पाषण्डांश्चैव सर्वशः ॥४७.२४८॥
सूची में वेदव्यास के पश्चात कृष्ण या बलराम नहीं, बुद्ध आते हैं जो देवसुन्दररूप हैं। स्पष्ट है कि यह खण्ड पुरातन एवं नवीनतर प्रतिपाद्यों का सङ्गम है जिसमें पहली बार जामदग्न्य राम सर्वक्षत्रान्तक रूप के साथ उपस्थित होते हैं। कृष्ण का मानव अवतार सूची में नहीं होना, उनके स्थान पर नारायण का प्रथम दिव्य अवतार होना, दत्तात्रेय एवं वेदव्यास का सूची में होना, कुछ महत्त्वपूर्ण प्रमाण हैं जो इस अंश के संक्रमण कालीन होने की पुष्टि करते हैं।
यह भी उल्लेखनीय है कि इस सूची में मत्स्य, कूर्म एवं वराह; तीनों पशु रूप अवतार नहीं हैं। नारायण के पश्चात अर्द्धपशु नृसिंह दिव्यावतार में आते हैं। मत्स्य पुराण की इस सूची से स्वयं मत्स्य अवतार लुप्त है। यह सूची उस संक्रमण काल की प्रतीत होती है जब विविध अवतारों में से दशावतार सूची निश्चित करने के प्रयत्न चल रहे थे। बुद्ध के होने का अर्थ यह है कि प्रक्रिया बुद्ध के प्रतिष्ठित हो जाने के पश्चात की है।
युगों के विविध क्रमाङ्क दे अवतारों को पुरोहित के साथ बताना बुद्ध अवतार की स्थिति को जटिल बनाता है। पारम्परिक विद्वान इस बुद्ध को शाक्य बुद्ध से भिन्न मानते हैं। पहले के लेख में हम देख चुके हैं कि किस प्रकार परशुराम एवं राधा की स्थापना के प्रक्रम में कृष्ण को श्रीराम से भी पहले दर्शा दिया गया कि ये वाले कृष्ण श्रीराम से पिछले अंतर चक्र के द्वापर के हैं। यहाँ भी द्वैपायन को बुद्ध का पुरोहित बताना स्थिति को उलझाता है जो कि स्पष्टत: वास्तविक बुद्ध के नकारात्मक सकार से जुड़ता है। बौद्ध पंथ का प्रभाव इतना व्यापक रहा कि उसको स्थान देने को विवश होना पड़ा किंतु संशोधित रूप में। अवतारी बुद्ध से शाक्य सिद्धार्थ बुद्ध के भेद बताने वाली समस्त युक्तियों को यह प्रश्न झुठला देता है कि यदि शाक्य बुद्ध से पूर्व एवं कृष्ण के पश्चात कोई अन्य अवतारी बुद्ध हुये तो उनकी स्मृति क्यों नहीं रही? न पूजन, न आराधन, न मंदिरों में शिल्प जब कि कहे के अनुसार वे सबसे निकट के अवतार हैं? वास्तविकता यही है कि ये बुद्ध शाक्य बुद्ध ही हैं जिन्हें ले कर स्पष्टत: दुविधा की स्थिति पुराणों में दिखती है। बुद्ध को ले कर इतने विभ्रम हैं कि गीताप्रेस के अनुवाद में देवसुन्दर शब्द को ले कर सौन्दरानन्द के नायक सुन्दर को बुद्ध का सहचर तक बता दिया गया है !
परीक्षित प्रपौत्र अधिसोमकृष्ण के शासन काल में पुष्कर में तीन वर्ष एवं कुरुक्षेत्र में दो वर्ष चले सत्रों में कथा सुनाये जाने का ‘वर्तमान’ काल में उल्लेख कर यह पुराण अपने प्रथम सम्पादन का काल सङ्केत करता है।
जनमेजयः शतानीकं पुत्रं राज्येऽभिषिक्तवान् ॥५०.६५॥
अथाश्वमेधेन ततः शतानीकस्य वीर्यवान् । जज्ञेऽधिसोमकृष्णाख्यः साम्प्रतं यो महायशाः ॥५०.६६॥
तस्मिञ्छासति राष्ट्रं तु युष्माभिरिदमाहृतम् ।
दुरापं दीर्घसत्त्रं वै त्रीणि वर्षाणि पुष्करे । वर्षद्वयं कुरुक्षेत्रे दृषद्वत्यां द्विजोत्तमाः ॥५०.६७॥
आगे भविष्यत काल में राजा क्षेमक तक आने पर पौरव कुल का कलियुग में समाप्त हो जाना बताया गया है। अर्जुन से ये छब्बीसवें राजा हैं। भविष्यत काल में कहा जाने पर भी पौरव ब्रह्मक्षत्र वंश के अंत का वर्णन पुरातन विप्रों द्वारा कहा बता कर यह पुराण स्पष्ट कर देता है कि वर्तमान रूप क्षेमक से भी अत्यधिक काल पश्चात का है :
अत्रानुवंशश्लोकोऽयं गीतो विप्रैः पुरातनैः ।
ब्रह्मक्षत्रस्य यो योनिर्वंशो देवर्षिसत्कृतः । क्षेमकं प्राप्य राजानं संस्थास्यति कलौ युगे ॥५०.८८॥
इत्येष पौरवो वंशो यथावदिह कीर्तितः । धीमतः पाण्डुपुत्रस्य चार्जुनस्य महात्मनः ॥५०.८९॥
काल निर्धारण की दृष्टि से अधिसीमकृष्ण के पुत्र विवक्षु के समय गङ्गा जी द्वारा हस्तिनापुर को बहा देने एवं राजधानी के हस्तिनापुर से कौशाम्बी परिवर्तित होने का उल्लेख महत्वपूर्ण है, साथ ही यह भी कि वर्णन में अन्यों के साथ पारशव, शक, पुलिन्द एवं आभीर राजाओं के उल्लेख हैं। सीथियन (शक) आक्रमणों एवं गुप्तकाल में दक्षिण में आभीरों के राज्य होने से जोड़ कर देखें तो इस पुराण के वर्तमान पाठ का यह अंश डेढ़ हजार वर्ष पुराना ठहरता है। समय समय पर परिवर्तन एवं परिवर्धन के अनेक उदाहरण एवं अंश मिलेंगे।
तिरपनवें अध्याय में पुराणों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है जिसमें पुराण को वेदों से भी पहले ब्रह्मा द्वारा स्मृत एवं वेदों को उससे अनन्तर ब्रह्मा के मुख से निस्सृत बताया गया है :
मत्स्य उवाच
पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम् । अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः ॥५३.३॥
पुराण के एक होने एवं उसे चार लाख श्लोकों में संक्षिप्त कर व्यास द्वारा १८ भागों में विभक्त कर देने का उल्लेख है तथा हयग्रीव अवतार द्वारा समस्त लोकों के जल का क्षय होने पर वेदादि का सङ्कलन भी बताया गया है :
निर्दग्धेषु च लोकेषु वाजिरूपेण वै मया । अङ्गानि चतुरो वेदान् पुराणं न्यायविस्तरम् ॥५३.५॥
मीमांसां धर्मशास्त्रं च परिगृह्य मया कृतम् । मत्स्यरूपेण च पुनः कल्पादावुदकार्णवे ॥५३.६॥
…
कालेनाग्रहणं दृष्ट्वा पुराणस्य ततो नृप ॥५३.८॥
व्यासरूपमहं कृत्वा संहरामि युगे युगे । चतुर्लक्षप्रमाणेन द्वापरे द्वापरे सदा ॥५३.९॥
तथाष्टादशधा कृत्वा भूर्लोकेऽस्मिन्प्रकाश्यते ।
… पुराणानि दशाष्टौ च साम्प्रतं तदिहोच्यते ॥५३.११॥
विविध विषुव आदि तिथियों एवं योगों पर पुराणों के दान का माहात्म्य इस पुराण में वर्णित है जो कि इस अंश के रचना कालखण्ड में लिखित रूप में पुराण पुस्तकों के महत्व को प्रदर्शित करता है। उपपुराणों में केवल नरसिंह, नन्दी, आदित्य एवं साम्ब, ये चार ही बताये गये हैं, वह भी महापुराणों के संदर्भों के साथ। स्पष्टत: यह अंश उस समय का है जब उपपुराण रचना का बाल काल था एवं केवल चार ही हो पाये थे।
आगे सत्यवतीसुत द्वारा महाभारत की रचना बताने के साथ साथ वाल्मीकि प्रणीत रामायण की भी चर्चा है। पुराण, महाभारत एवं रामायण के कुल सवा पाँच लाख श्लोकों को विद्वानों द्वारा पुरातन कल्प की कथायें माना जाना उल्लिखित है :
संकीर्णेषु सरस्वत्याः पितॄणां च निगद्यते ॥५३.६९॥
अष्टादश पुराणानि कृत्वा सत्यवतीसुतः । भारताख्यानमखिलं चक्रे तदुपबृंहितम् ।
लक्षेणैकेन यत्प्रोक्तं वेदार्थपरिबृंहितम् ॥५३.७०॥
वाल्मीकिना तु यत्प्रोक्तं रामोपाख्यानमुत्तमम् । ब्रह्मणाभिहितं यच्च शतकोटिप्रविस्तरम् ॥५३.७१॥
आहृत्य नारदायैवं तेन वाल्मीकये पुनः । वाल्मीकिना च लोकेषु धर्मकामार्थसाधनम् ।
एवं सपादाः पञ्चैते लक्षा मर्त्ये प्रकीर्तिताः ॥५३.७२॥
पुरातनस्य कल्पस्य पुराणानि विदुर्बुधाः ।
ध्यान से श्लोक चरणों का आधिक्य देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत एवं रामायण को कालांतर में पुराणों से मिला कर पुराणों की महत्ता को बढ़ाने का प्रयास किया गया है। मत्स्य पुराण की सूची में शिव पुराण नहीं है।
चौवनवें अध्याय में नक्षत्र पुरुष व्रत विधि बताते ईश्वर नाम से सम्बोधित त्रिनयन अनङ्गारि महादेव कैलास पर्वत पर नारद से दशावतारों के नाम भुजङ्ग नक्षत्र अर्थात आश्लेषा से गिनाते हैं :
भुजंगनक्षत्रदिने नखानि सम्पूजयेन्मत्स्यशरीरभाजः ।
कूर्मस्य पादौ शरणं व्रजामि ज्येष्ठासु कण्ठे हरिरर्चनीयः ॥५४.१५॥
श्रोत्रे वराहाय नमोऽभिपूज्या जनार्दनस्य श्रवणेन सम्यक्।
पुष्ये मुखं दानवसूदनाय नमो नृसिंहाय च पूजनीयम् ॥५४.१६॥
नमो नमः कारणवामनाय स्वातीषु दन्ताग्रमथार्चनीयम् ।
आस्यं हरेर्भार्गवनन्दनाय संपूजनीयं द्विज वारुणे तु ॥५४.१७॥
नमोऽस्तु रामाय मघासु नासा संपूजनीया रघुनन्दनस्य ।
मृगोत्तमाङ्गे नयनेऽभिपूज्ये नमोऽस्तु ते राम विघूर्णिताक्ष ॥५४.१८॥
बुद्धाय शान्ताय नमो ललाटं चित्रासु संपूज्यतमं मुरारेः ।
शिरोऽभिपूज्यं भरणीषु विष्णोर्नमोऽस्तु विश्वेश्वर कल्किरूपिणे ॥५४.१९॥
दशावतार के इस नख से शिख (सिर) के वर्णन में कृष्ण नहीं हैं अर्थात यह तब का है, जब सात्वत पञ्चवीरों की उपासना पद्धति में मृगनयन बलराम अग्रणी थे एवं कृष्ण अनुज होने के कारण गौण।
उल्लेखनीय है कि साठवें अध्याय में इसी प्रकार विविध नामों से पद से सिर तक देवेश महादेव एवं सती का पूजन व्रत बताया गया है किंतु उसमें नक्षत्र नहीं हैं। प्रत्येक मास की कृष्णाष्टमी को शिव का पूजन बारह विविध नामों से करने को छप्पनवें अध्याय में बताया गया है।
ललितादेवी की उपासना में भी पाँव से ले कर सिर तक के अङ्गों हेतु मंत्र एवं बारह महीनों हेतु विविध पुष्प बासठवें अध्याय में वर्णित हैं।
दशावतार की अवधारणा के विकास में इन विविध अर्चन व्रतों का योगदान रहा होगा।
पैंसठवें अध्याय में अक्षय तृतीया व्रत का वर्णन है। इस दिन किये समस्त सत्कर्मों का अक्षय फल होता है। वैशाख मास की शुक्ल तृतीया यदि कृत्तिका नक्षत्र से युक्त हो तो उसमें किये दान, जप, हवन आदि समस्त अक्षय बताये गये हैं जिसके कारण इसका नाम अक्षय तृतीया है। एक अन्य कारण यह भी है कि मात्र इसी दिन विष्णु की पूजा अक्षत से की जाती है, अत: यह अक्षय तृतीया कही जाती है। इस व्रत के साथ न तो परशुराम का कोई उल्लेख है, न भार्गव राम का, न ही राम जामदग्न्य का।
वैशाखशुक्लपक्षे तु तृतीया यैरुपोषिता । अक्षयं फलमाप्नोति सर्वस्य सुकृतस्य च ॥६५.२॥
सा तथा कृत्तिकोपेता विशेषेण सुपूजिता । तत्र दत्तं हुतं जप्तं सर्वमक्षयमुच्यते ॥६५.३॥
अक्षया संततिस्तस्यास्तस्यां सुकृतमक्षयम् । अक्षतैः पूज्यते विष्णुस्तेन साप्यक्षया स्मृता ।
अक्षतैस्तु नराः स्नाता विष्णोर्दत्त्वा तथाक्षतान्॥६५.४॥
विप्रेषु दत्त्वा तानेव तथा सक्तून् सुसंकृतान् । यथान्नभुङ्महाभागः फलमक्षय्यमश्नुते ॥६५.५॥
उन्हत्तरवें अध्याय में भीमद्वादशी व्रत विधान में धरा का भार दूर करने के लिये विष्णु का स्वयं का तीन रूप कर द्वैपायन, रोहिणी पुत्र (राम) एवं केशव (कृष्ण) रूप में अवतीर्ण होने का उल्लेख है। पौराणिक काल क्रम से यह वाराहकल्प, सातवें वैवस्वत मन्वंतर का अट्ठाइसवाँ द्वापर है :
*ईश्वर उवाच
अस्माद्रथंतरात्कल्पात्त्रयोविंशात्पुनर्यदा । वाराहो भविता कल्पस्तस्य मन्वन्तरे शुभे ॥६९.५॥
वैवस्वताख्ये संजाते सप्तमे सप्तलोककृत् । द्वापराख्यं युगं तद्वदष्टाविंशतिमं जगुः ॥६९.६॥
तस्यान्ते स महादेवो वासुदेवो जनार्दनः । भारावतरणार्थाय त्रिधा विष्णुर्भविष्यति ॥६९.७॥
द्वैपायन ऋषिस्तद्वद्रौहिणेयोऽथ केशवः।
यह अंश कृष्ण के अवतारी रूप के पूर्ण हो जाने के निकट पूर्व का है जब कि कल्प, मन्वन्तर आदि काल विधान स्थिर हो चुका था। इस काल के समस्त पुराण अंशों में अट्ठाइसवें द्वापर में ही कृष्ण अवतार की चर्चा मिलती है जो कि किसी सत्र विशेष में हुये सावधान सम्पादन का परिणाम प्रतीत होता है। उल्लेखनीय है कि यह अंश भविष्यत काल में कहा गया है जिसका कि वर्तमान तेइसवाँ रथन्तरकल्प है।
आगे विविध व्रत कथाओं में श्रीकृष्ण का अवतारी लोकरञ्जक रूप अपनी पूर्णता प्राप्त कर लेता है। कुछ में वैदिक मंत्रों के साथ पौराणिक अनुष्ठानों के वर्णन हैं जो मत्स्य पुराण के उन अंशों को उस समय का सिद्ध करते हैं जब वैदिक याज से पौराणिक व्रतादि की दिशा में गति हो रही थी।
एक सौ दोवें अध्याय में वामन एवं वराह अवतार उल्लिखित हैं :
अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुंधरे । मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम् ॥१०२.१०॥
उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना ।
मृत्तिके ब्रह्मदत्तासि काश्यपेनाभिमन्त्रिता । आरुह्य मम गात्राणि सर्वं पापं प्रचोदय ॥१०२.११॥
एक सौ छियालिसवें अध्याय में कलियुग के अंत में प्रमति नाम के राजा का वर्णन है जो भृगुकुलीन हैं, पूर्वजन्म में विष्णु थे एवं मनु के अंश से उत्पन्न हुये हैं। ये समस्त दुराचारी राजाओं का विनाश कर देते हैं एवं गङ्गा यमुना क्षेत्र में उनकी सेना स्थिर होती है। कतिपय विद्वानों ने उन्हें विक्रमादित्य का ही पौराणिक रूप बताया है, पीछे के लेख में हम प्रमति एवं चन्देल परमर्दि के ऐक्य की सम्भावना दर्शा चुके हैं। यह अंश राजा के विष्णु अंश होने एवं अवतारों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। अनुशासन एवं धर्म के रक्षक पाशधारी प्राचीन वरुण राजा का रूप अन्तत: राजा समान विष्णु होते हुये विराट ‘जब जब धर्म की हानि तब तब विष्णु अवतार’ अवधारणा में दृढ़ होता है।
तारकासुर, शिव विवाह एवं स्कन्द जन्म प्रकरण में इस पुराण के शैव रूप का परिपाक सा होता है। देवासुर सङ्ग्राम में विष्णु बहुत प्रभावी नहीं दिखते, एक बार तो युद्ध क्षेत्र से पलायन भी कर जाते हैं।
एक सौ तिरसठवें अध्याय में हिरण्यकशिपु विजयी नरसिंह रूपी विष्णु की स्तुति में उन्हें ब्रह्मा, रुद्र, महेंद्र एवं पुराण पुरुष बताया गया है, कहीं भी अन्य अवतार उल्लिखित नहीं हैं। वह अपने नरसिंह रूप को जगत में स्थापित कर पुराना रूप पुन: धारण कर अपने निवास स्थान क्षीर सागर के उत्तर तट पर चले जाते हैं। यह अंश अपेक्षतया पुराना है, नरसिंह विग्रह के उपासना आरम्भ की इसमें आहट है।
एक सौ अठहत्तरवें अध्याय में कालनेमि नरसिंह के साथ विष्णु के वामन रूप का संकेत देता है। वह हिरण्यकशिपु को अपना पिता बताता है। अगले अध्याय में अंधक के रक्तपान हेतु महादेव मातृकाओं की सृष्टि करते हैं। अंधक के रक्तपान से वे तृप्त हो निवृत्त हो जाती हैं जिसके कारण अनेक अंधक पुन: उत्पन्न हो जाते हैं जिनसे त्रस्त हो कर महादेव विष्णु की शरण में जाते हैं। विष्णु द्वारा उत्पन्न देवी शुष्करेवती के सहयोग से महादेव अन्य समस्त अंधकों का संहार कर जब प्रधान अंधक का वध करने चलते हैं तो वह उनकी स्तुति करने लगता है। प्रसन्न हुये महादेव उसे अपना नित्य सामिप्य एवं गणेशत्त्व प्रदान करते हैं। स्पष्टत: यह गणेश लोकपूजित शिवपुत्र गणेश से भिन्न है। शङ्कर द्वारा सृजित मातृकायें समस्त प्रजाओं के भक्षण की अनुमति माँगती हैं एवं न मिलने पर उनकी अवहेलना कर अपने कर्म में उद्यत होती हैं तब शङ्कर नृसिंहमूर्ति विष्णु का ध्यान करते हैं। प्रकट हुये नृसिंह की शङ्कर कृत स्तुति में अन्य अवतारों का कोई उल्लेख नहीं है। नृसिंह विष्णु द्वारा सृजित देवियों द्वारा शिव कृत मातृकायें नियंत्रित की जाती हैं। दोनों देवता क्रमश: मातृकाओं एवं देवियों के साथ अंतर्हित हो जाते हैं। सप्तमातृकाओं, नरसिंह एवं अर्द्धनारीश्वर शिव की उपासनाओं का सम्मिलन समन्वय इस प्रकरण की विशेषता है जो कृतशौच नामक तीर्थ में घटित होता है।
एक सौ पचासिवें अध्याय में अविमुक्त प्रकरण में उमापति महादेव कृष्णद्वैपायन व्यास को नारायण बताते हैं – कृष्णद्वैपायनं व्यासं विद्धि नारायणं प्रिये। दो सौ एकवें अध्याय में पुन: विष्णु का द्वैपायन रूप में जन्म उल्लिखित है – शक्ते: पराशर: पुत्रस्तस्य वंशं निबोध मे । यस्य द्वैपायन: पुत्र: स्वयं विष्णुरजायत ॥
दो सौ चौवालिसवें अध्याय में विष्णु का वामन स्वरूप वर्णित है। आगे के अध्याय में प्रह्लाद द्वारा नृसिंह रूप को विष्णु का कला अवतार बताया गया है। प्रह्लाद विष्णु को समस्त पर्वतों को धारण करने वाली पृथ्वी को एक दाँत के अग्रभाग पर धारण करने वाला बता कर वराह अवतार का भी सङ्केत देते हैं। प्रत्युत्तर में बलि द्वारा हरि, वासुदेव ‘कृष्ण’ के प्रति दर्प भरी अनभिज्ञता एवं अपने योद्धाओं से तुलनात्मक उहोक्ति दर्शाने पर उनके पितामह प्रह्लाद शाप दे देते हैं। वामन जन्म के समय ब्रह्मा द्वारा की गयी विष्णु स्तुति में केवल नृसिंह एवं वराह अवतारों के उल्लेख हैं।
स्पष्टत: यह प्राचीन प्रकरण कृष्ण के अवतारी रूप के प्रतिष्ठित हो जाने के पश्चात परिवर्द्धित किया गया है। अगले दो अध्यायों में शौनक अर्जुन को वाराह अवतार की कथा सुनाते हैं। गोविंद, वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध नामों की प्रतिष्ठा के कारण यह अंश सात्वत उपासना पद्धति से प्रभावित एवं परवर्ती प्रतीत होता है।
दो सौ उन्चासवें अध्याय की समुद्र मन्थन कथा में विष्णु को पाताल में कूर्मरूप में पहले से ही अवस्थित बताया गया है – प्रार्थ्यतां कूर्मरूपश्च पाताले विष्णुरव्यय:। कूर्म एवं शेषनाग, दोनों, अपने को पृथ्वी को धारण करने के लिये नियुक्त, विष्णु का चतुर्थांश बताते हैं एवं पाताल से निर्गत होते हैं।
ततस्तु निर्गतौ देवौ कूर्मशेषौ महाबलौ । विष्णोर्भागौ चतुर्थांशाद्धरण्या धारणे स्थितौ ॥
तीसवें श्लोक में कूर्म को मंदराचल के नीचे स्थित बताया गया है किंतु ३१ वें में उसे निराधार बता दिया गया है जिसके कारण देव दानव मंदराचल को घुमा नहीं पाते एवं जनार्दन नारायण के पास विनती करने पहुँचते हैं। वे वहाँ मंदराचल को धारण करने का अनुरोध करने के साथ साथ मंथन में एक हाथ लगाने को भी कहते हैं :
अस्माकममरत्वाय ध्रियतां ध्रियतामयम् । मन्दरः सर्वशैलानामयुतायुतविस्तृतः ॥
अनन्तबलबाहुभ्यामवष्ठभ्यैकपाणिना । मथ्यताममृतं देव स्वधास्वाहार्थकामिनाम् ॥
योगनिद्रा तज कर विष्णु उनसे आने का प्रयोजन पूछते हैं, मानों सुने ही न हों, जब कि श्रुत्वा शब्द स्पष्टत: प्रयुक्त हुआ है !
ततः श्रुत्वा स भगवान्स्तोत्रपूर्वं वचस्तदा । विहाय योगनिद्रां तामुवाच मधुसूदनः ॥
इस बार देव एवं दैत्य उनसे पुन: उद्देश्य बताते हुये कहते हैं कि बिना आप के नहीं हो पायेगा, आप हमारे अगुवा बनें।
त्वया विना न तच्छक्यमस्माभिः कैटभार्दन । प्राप्तुं तदमृतं नाथ ततोऽग्रे भव नो विभो॥
विष्णु वहाँ पहुँच कर देवताओं के पक्ष में खड़े हो शेषनाम रूपी मथानी पर हाथ लगा देते हैं।
स्पष्टतया इस वर्णन में क्षेपक श्लोक जोड़े गये हैं एवं एक पुरानी कथा का पुनर्संस्कार किया गया है। यह अंश भी दशावतार अवधारणा के पहले के संक्रमण काल का है। विष्णु अंश कूर्म रूप में पहले से ही पृथ्वी धारण किये हुये हैं, इस एक काम के लिये अवतार नहीं लेते।
दो सौ उनसठवें अध्याय में प्रतिमा लक्षण वर्णित हैं जिसमें राम, वाराह, नरसिंह, वामन, कूर्म एवं मत्स्य के प्रतिमा निर्माण दर्शाये गये हैं :
दशतालः स्मृतो रामो बलिर्वैरोचनिस्तथा ॥ वाराहो नारसिंहश्च सप्ततालस्तु वामनः
मत्स्यकूर्मौ च निर्दिष्टौ यथाशोभं स्वयंभुवा ॥
२७१ वाँ अध्याय बुद्धावतार की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें इक्ष्वाकु नृप वंशावली में सञ्जय के पुत्र शाक्य, शाक्य के पुत्र शुद्धोदन, शुद्धोदन के सिद्धार्थ एवं सिद्धार्थ के पुष्कल पुत्र नाम दिये हुये हैं।
पुष्कल से आगे प्रसेनजित, क्षुद्रक, कुलक, सुरथ एवं सुमित्र होते हैं। सुमित्र इस कुल का अंतिम राजा बताया गया है।
सञ्जयस्य सुतः शाक्यः शाक्याच्छुद्धौदनो नृपः।
शुद्धौदनस्य भविता सिद्धार्थः पुष्कलः सुतः॥१२॥
प्रसेनजित्ततो भाव्यः क्षुद्रको भविता।
ततः क्षुद्रकात्कुलको भाव्यः कुलकात्सुरथः स्मृतः॥१३॥
बौद्ध परम्परा भी शाक्यों एवं प्रसेनजित दोनों को इक्ष्वाकु बताती है। इक्ष्वाकु के वंशज ही कपिल मुनि के आशीर्वाद से कपिलवस्तु की स्थापना करते हैं। पुराण परम्परा के लोग जो आपत्ति करते हैं, वह यह है कि बुद्ध के पुत्र का नाम पुष्कल न हो कर राहुल था एवं प्रसेनजित उसका पुत्र कैसे हो सकता है जब कि वह बौद्ध संन्यासी हो गया था, विवाह किया ही नहीं था, अत: यह बुद्ध कोई अन्य है।
त्रिकालदर्शिता भारतीय जन द्वारा सिद्धिप्राप्त पुरुष की एक निकष रही है। पुराणों ने भी विविध सत्रों में परिवर्द्धन, परिवर्तन एवं संकलन में तीनों कालों को साधने के प्रयास किये हैं। भूत उन्हें सूत परम्परा से लोक गाथाओं के रूप में मिला, वर्तमान तो सबके साथ रहता ही है। भविष्य की पूर्ति ऐसे की गयी। विविध चरणों में यह स्मृति थी कि कभी पहले भी ऐसा काम हुआ था। वर्तमान को उस पूर्ववर्ती काल में घटित बता कर उससे आगे के समस्त कालखण्ड को भविष्यत काल में लिख दिया गया। इस उद्योग से अनेक अन्य उद्देश्य भी पूरे हो जाते थे। जो जन पुराणकथाकारों को भविष्यके घटित का पूर्वद्रष्टा मानते हैं, उनके लिये न तो पुराण हैं, न ही यह लेखमाला।
दोनों परम्पराओं में अंतर मात्र यह दर्शाते हैं, अपितु प्रमाण हैं कि बुद्ध के होने के सदियों पश्चात यह अंश जोड़ा गया जो कि आगे की जाने कितनी सदियों के राजवंशों के उल्लेख से सिद्ध भी होता है। बौद्ध परम्परा प्रसेनजित को पसेनदि नाम से जानती है जिसने एक शाक्य कन्या से विवाह किया था। वह कोसल का राजा था एवं शाक्यों से शक्तिसम्पन्न था किन्तु उसके इक्ष्वाकु होने पर भी शाक्य इक्ष्वाकु शाखा उससे श्रेष्ठ कुल की मानी जाती थी। उपशाखाओं में ऊँच नीच कोई नई बात नहीं है। प्रसेनजित ने शाक्यों से विवाह हेतु कन्या माँगी तो उन्हों ने सचाई छिपा कर एक दासीपुत्री से विवाह करा दिया। उससे प्रसेनजित को पुत्र हुआ विरूधक। युवा होने पर जब उसे इस बात का ज्ञान हुआ तो अमर्ष एवं क्रोध में भर कर उसने पिता की हत्या तो की ही, कपिलवस्तु पर आक्रमण कर उसका सम्पूर्ण विनाश कर दिया। इस प्रकार कपिलवस्तु साम्राज्य भी, बुद्ध के पुत्र के जीवनकाल में ही कोसल में मिला लिया गया एवं इक्ष्वाकु परम्परा प्रसेनजित से आगे बढ़ी। पुष्कल एवं क्षुद्रक नामों के क्रमश: राहुल एवं विरूधक से साम्य भी हैं।
ले दे के बात यही सिद्ध होती है कि इक्ष्वाकु शाक्य का पुराण वर्णित सिद्धार्थ एवं बौद्ध परम्परा का सिद्धार्थ, दोनों एक ही हैं। जो भेद प्रतीत होते हैं, वे दोनों धाराओं के पारस्परिक सम्पर्क के अभाव एवं सायास सोद्देश्य भेद रखने के कारण हुये हो सकते हैं। कथा का मर्म तो एक ही रहता है जो कि सदियों पश्चात आये चीनी यात्रियों ह्वेनसांग एवं फाह्यान के समय में भी प्रचलित था।
अब तक पढ़े गये पुराणों में सिद्धार्थ बुद्ध एवं अवतारी बुद्ध के ऐक्य का यह सबसे स्पष्ट प्रमाण है जिसमें यह भी उल्लेखनीय है कि वंशपरम्परा गिनाते समय बुद्ध के अवतारी होने का कोई सङ्केत नहीं दिया गया है। बुद्ध को ले कर दुविधा पुन: स्पष्ट होती है।
दो सौ तिहत्तरवें अध्याय के ६५ वें एवं ६६ वें श्लोक (कुछ प्रतियों में ६६ एवं ६७) रोचक हैं जिनमें चंद्रवंश एवं इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं के त्रेता में हो कर कलियुग में नष्ट हो जाने की बात कही गयी है तथा आगे इन दो वंशों की व्युत्पत्ति बताई गई है। संदर्भ से बिना तारतम्य के सातत्य की पूर्णत: अवहेलना करते हुये ६५ वें श्लोक के उत्तर दो पाद एवं ६६ वें श्लोक के प्रथम दो पाद क्षेपक निविष्ट कर दिये गये हैं, इनमें बताया क्या गया है? जामदग्न्य राम द्वारा क्षत्रियों का संहार। ये दो अद्धे हटा देने पर सातत्य एवं तारतम्य पूर्ववत हो जाता है :
अनुयान्ति युगाख्यं तु यावन्मन्वन्तरक्षयम् ।
जामदग्न्येन रामेण क्षत्रे निरवशेषिते ॥
रिक्तेयं वसुधा सर्वा क्षत्त्रियैर्वसुधाधिपैः ।
द्विवंशकरणं सर्वं कीर्तयिष्ये निबोध मे ॥
२८५ वाँ अध्याय विश्वचक्रदान विधि का है। इस अध्याय में प्रथम बार वर्तमान में मान्यताप्राप्त दशावतार के नाम मिलते हैं, जिनमें भार्गव राम भी हैं, कृष्ण भी हैं एवं बुद्ध भी, मानों पुराणकार इस स्थापना की अब तक प्रस्तावना ही लिखता रहा!
द्वितीयावरणे तद्वत्पूर्वतो जलशायिनम् ॥
अत्रिर्भृगुर्वसिष्ठश्च ब्रह्मा कश्यप एव च । मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः ॥
रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्कीति च क्रमात्
गौण अंश, दानविधि एवं महिमा, का होने से स्पष्ट है कि यह अंश पुराण विकास के सबसे अन्तिम चरण का है जब द्वैपायन व्यास को दशावतार में रखने की दुविधा समाप्त हो चुकी थी एवं पुराणकार रिक्त स्थान को बुद्ध से भर चुके थे।
इस पुराण से निम्न बिन्दु निर्गत होते हैं :
- मत्स्य पुराण विविध कालखण्डों में संकलित हुआ है एवं उन समस्त चरणों का स्पष्ट अभिज्ञान प्रस्तुत करता है।
- इसमें पुरातन सामग्री अपेक्षतया अधिक है एवं सुरक्षित भी जो कि दशावतार संकल्पना के दृढ़ होने से बहुत पहले की है।
- संरचना में यह वैष्णव एवं शैव के साथ साथ शाक्त मत की सामग्री भी लिये हुये है। वैष्णव पक्ष निखरा न होने के कारण इसे शैव श्रेणी में रखना हो तो हो, अन्यथा यह सम्प्रदाय निरपेक्ष है।
- इसकी सामग्री से पुराणों के त्रिगुण वर्ग विभाजन के एक कृत्रिम विभाजन होने की पुष्टि होती है।
- इसमें श्रीकृष्ण के अवतार रूप में प्रतिष्ठित होने के समस्त महत्वपूर्ण चरण भी दिखते हैं। श्रीराधा का केवल एक बार गौण संकेत है।
- मत्स्य पुराण में परशुराम संज्ञा कहीं नहीं है। उनके अवतार की कोई कथा नहीं है तथा न ही किसी प्रतिशोध से सम्बंधित कथा ही।
- अन्य मानुषी अवतारों की भाँति भार्गव राम या राम जामदग्न्य उल्लिखित हैं। जामदग्न्य राम के नाम क्षत्रियहन्ता होने का एक उल्लेख संक्रमण काल का है जब कि पुरातन के साथ नव्य स्थापनाओं को जोड़ दशावतार निर्धारित किये जा रहे थे। दूसरा उल्लेख अन्त:साक्ष्य से ही प्रक्षिप्त सिद्ध होता है।
- इस पुराण से यह भी स्पष्ट होता है कि पौराणिक बुद्ध एवं शाक्य सिद्धार्थ बुद्ध एक ही हैं एवं अवतार के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित करने में इस पुराण धारा का योगदान महती रहा होगा।
- मत्स्यपुराण उन महापुराणों में से है जिन पर भार्गवों की धनी व्यास परिवर्द्धक मेधा का प्रभाव अल्प रहा। झिझक एवं संयम के साथ परिवर्तन किये गये हैं।
- नर्मदा नदी एवं मार्कण्डेय ऋषि की महत्ता से प्राचीनता के साथ साथ इसका भी सङ्केत मिलता है कि इस पुराण का सम्पादन सङ्कलन इस क्षेत्र में हुआ होगा।
चित्र आभार :
By Ks.mini [CC BY-SA 3.0 (https://creativecommons.org/licenses/by-sa/3.0)],
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