Truth of Karbala कर्बला का सच
10 मुहर्रम का दिन शिया मुस्लिमों के लिए शोक का दिन है।
एक लघु पृष्ठभूमि :
वर्त्तमान इराक में कर्बला स्थित है जहाँ 10 मुहर्रम 61 हिजरी (10 अक्टूबर 680 ईसवी) के दिन मुसलमानोंं के पैग़म्बर मुहम्मद के नाती हुसैन इब्न अली तथा उनके कुछ समर्थक/परिवारिक सदस्य एवं उमय्यद खलीफा यज़ीद की सेना के मध्य भीषण युद्ध हुआ था। इस युद्ध में हुसैन और उनके बहुत से पारिवारिक सदस्य मारे गए। हुसैन भी मुसलमान थे और यज़ीद भी मुसलमान थे। इस युद्ध में सभी लड़ने वाले मुसलमान थे। यही इस युद्ध का सबसे बड़ा अंतर्विरोध था और इस युद्ध की सबसे बड़ी त्रासदी भी। इतिहास का अवलोकन करने पर इस युद्ध के कारणों पर प्रकाश डाला जा सकता है। चौथे खलीफा अली की हत्या के पश्चात उनके ज्येष्ठ पुत्र हसन को खलीफा बनाया गया परन्तु सीरिया के प्रशासक मुआविया को यह स्वीकार नहीं था। मुआविया स्वयं खलीफा बनने की इच्छा रखते थे अत: वे अपनी सेना के साथ खलीफा हसन से युद्ध करने चल पड़े। परन्तु युद्ध टल गया क्योंकि हसन और मुआविया के मध्य में संधि हो गईं। उस संधि के अनुसार मुआविया को खलीफा बनाया गया तथा उनकी मृत्यु के पश्चात हसन को खलीफा बनाया जाना निश्चित हुआ।
इन दो प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि हसन एवं मुआविया के मध्य कोई संधि अवश्य हुई थी। इस्लामिक काल का एक ध्यान देने योग्य पक्ष यह भी है कि धन के आदान प्रदान से सत्ता का हस्तान्तरण भी होता था अर्थात धन देकर सत्ता खरीदी बेची जाती थी।[1]
स्वयं पैग़म्बर के अनेक सहाबियों ने अपने काल के कुछ शासकों से धन सम्पदा स्वीकार की। कुछ उदाहरण ये हैं – अबू हुरैरा, अबू सईद खुदरी, अबू अय्यूब अंसारी, जरीर बिन अब्दुल्लाह, अनस बिन मालिक। इनमें से कुछ ने खलीफा मरवान और खलीफा यज़ीद बिन अब्दुल मलिक से धन सम्पदा स्वीकार की तो कुछ ने अत्यंत निर्दयी प्रशासक अल हज्जाज इब्न युसूफ से। सुन्नी इमाम शाफ़ई ने खलीफा हारुन अल रशीद से एक हज़ार दीनार स्वीकार किया। सुन्नी इमाम मालिक ने भी विभिन्न खलीफाओं से धन सम्पदा ग्रहण की। हज़रत अली के अनुसार जो कुछ भी शासक आप को देता है, वह हलाल वस्तुओं की श्रेणी में आता है। स्वयं इमाम हसन ने खलीफा मुआविया से चार लाख दिरहम स्वीकार किया। परन्तु यदि आप कुछ अस्वीकार कर देते हैं तो यह आपने अपने तक़वा (ईमान) का पालन किया है। स्वीकारने का यह अर्थ नहीं है कि शासक ने हराम वस्तुओं में से आपको कुछ दिया है। [2]
संधि के अनुसार मुआविया को कूफ़ा के ख़ज़ाने से पचास लाख दिरहम हसन को देने थे और साथ ही मुआविया को दरबजर्द नगर का लगान (खराज कर) हसन को देना था। हुसैन भी मुआविया से धन-राशि स्वीकार करते थे[3]।
इन तीन प्रमाणों से यह ज्ञात होता है कि स्वयं हसन एवं हुसैन भी मुआविया से धनराशि स्वीकार करते थे। जब हसन ने मुआविया के साथ संधि की तो हसन के कुछ समर्थकों में भारी रोष उत्पन हो गया। [4] [5]
एक व्यक्ति ने अपना रोष इस प्रकार प्रकट किया,”आप ने मोमिनोंं के मुँह पर कालिख पोत दी।”
हसन ने उत्तर दिया,” मुझसे निराश न हो। स्वयं नबी ने एक सपना देखा था कि बनु उम्मैयाह उनकी गद्दी पर चढ़ रहे थे। अपनी गद्दी पर बनु उम्मैयाह को देख कर नबी बहुत दुखी हुए। नबी को दुखी देख कर अल्लाह ने अल कौसर (जन्नत की नहर) नाज़िल की एवंं तत्पश्चात सूरह 97 अल क़द्र की आयात 1-3 नाज़िल कींं। मुहम्मद के पश्चात अल कौसर पर बनु उम्मैयद का अधिकार होगा।”
परन्तु यदि हम सूरह 97 आयत 1-3 की तफ़्सीर इब्न कसीर का अध्ययन करें तो ऐसे किसी सपने का उल्लेख नहीं है। यदि हम सूरह 108 अल कौसर की तफ़्सीर इब्न इ कसीर का अध्ययन करें तो एक सपने का उल्लेख है परन्तु उस सपने का सम्बन्ध बनु उम्मैयाह से कदापि नहीं है। अत: हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि हसन ने अपने समर्थकों में स्वयं की छवि बचाने के लिए और अपनी लालसा-प्रेरित संधि के निर्णय को उचित ठहराने के लिए झूठ बोला था।
संधि के पश्चात से ही शायद मुआविया को आभास हो गया था कि चूँकि हसन उनसे बहुत युवा थे इसलिए उनकी मृत्यु के पश्चात संधि के अनुसार हसन खलीफा बन जायेंगे और उनका अपना पुत्र यज़ीद खलीफा नहीं बन पायेगा। स्यात मुआविया को यह भी लगा हो कि मुहम्मद का वंशज होने के नाते हसन प्रजा से भावनात्मक सम्बन्ध स्थापित कर लेंगे जो उनकी सत्ता के लिए संकटकारी हो सकता है।
[6] [7] सूत्रों के अनुसार खलीफा मुआविया ने हसन की एक पत्नी को लालच देकर हसन को विष देने के लिए सहमत कर लिया । मुआविया ने हसन की पत्नी अशाथ बिन क़ैस अल किंदी को एक लाख दिरहम देने के साथ साथ अपने पुत्र यज़ीद के साथ निकाह करवाने का भी वचन दिया परन्तु जब अशाथ ने अपना कार्य पूरा कर दिया तो मुआविया ने उसे धन अवश्य दिया, पर अपने पुत्र के साथ उसका निकाह करवाने से मना कर दिया।
चिकित्सक शेख मुआफीकुद्दीन अहमद बिन कासिम अल ख़ज़राजी[8] ने अपनी पुस्तक में खलीफा मुआविया के एक चिकित्सक थमामा बिन अथाल का उल्लेख किया है। उसके माध्यम से मुआविया ने अब्दुल रहमान बिन खालिद बिन अल वलीद, मालिक इब्न अश्तर को विष दे कर मरवा दिया था।
स्वयं हसन भी चरित्रवान नहीं थे। [9] [10] [11] एक मुरसल हदीस के अनुसार खलीफा अली ने कूफ़ा के लोगों से कहा कि वे उनके पुत्र हसन से अपनी पुत्रियों का निकाह न करवायें । खलीफा अली को यह भय था कि हसन की निकाह करने एवं तलाक देने की प्रवत्ति से विभिन्न कबीलों के मध्य शत्रुता उत्पन्न हो सकती थी।
हसन के तीन उपनाम थे :
1. मिनकाह (बहुत से निकाह करने वाला),
2. मितलाक़ (बहुत बार तलाक़ देने वाला),
3. मिस्दाक़ (तलाक़ के पश्चात बीवियों को खुले दिल से मेहर देने वाला)।
इन तीन उपनामों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हसन चरित्रहीन एवं धन सम्पदा को नष्ट करने वाली प्रवृत्ति का था।
हसन के विपरीत हुसैन में नेतृत्व क्षमता अधिक थी जबकि हसन का ध्यान अपने निजी जीवन की ओर अधिक था। हुसैन राजनीति में बहुत सक्रिय थे और उनमेंं खलीफा बनने की महत्वाकांक्षा थी। छोटे भाई होने के कारण उन्हों ने हसन के निर्णयों का कभी विरोध नहीं किया परन्तु हसन की मृत्यु के पश्चात जब मुआविया ने यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी बनाया तो हुसैन ने प्रकट विरोध किया।
वह स्वयं खलीफा बनना चाहते थे। इस हेतु ही उन्होंने यज़ीद के प्रति निष्ठावान होने की प्रतिज्ञा नहीं ली। उनके अतिरिक्त चार अन्य महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों ने यज़ीद के प्रति निष्ठावान होने की शपथ स्वीकार नहीं की। अब्दुर्रहमान इब्न अबू बकर, अब्दुल्लाह इब्न ज़ुबैर, अब्दुल्लाह इब्न अब्बास एवं अब्दुलाह इब्न उमर।
इन सभी घटनाओं से यह निष्कर्ष निकलता है कि हसन-हुसैन और मुआविया के बीच मात्र सत्ता प्राप्त करने की लड़ाई थी। दोनों ही पक्ष इस्लाम हेतु नहीं अपितु अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने का युद्ध लड़ रहे थे। हसन को केवल अपनी सुख-सुविधाओं की चिंता थी। हुसैन को खलीफा बनने का उन्माद था। खलीफा मुआविया असुरक्षा की भावना से ग्रस्त था। सत्ता को ले कर उसमें असुरक्षा का भाव था, अनन्तर वह अपने पुत्र यज़ीद के प्रति असुरक्षा से ग्रस्त हो गया। इससे यह ज्ञात होता है कि इस्लाम की सीख होने पर भी इन तीनो में से कोई भी भौतिक सुखों के पाश से अपने को मुक्त नहीं कर पाया।
दोनों पक्षों में से न कोई शुद्ध नायक था, न ही कोई पूर्णतया खलनायक। दोनों ही पक्षों ने एक प्रकार से मुहम्मद की साम, दाम, दण्ड, भेद नीतियों का अनुसरण किया जो कि इस्लाम का वास्तविक स्वरुप है। इस्लाम एक साम्राज्यवाद के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
सन्दर्भ :
[1] अल ग़ज़ाली की Ahiya Uloom Ad Din जिल्द 2 पृष्ठ 98
[2] तारीख ए तबारी जिल्द 18
[3] सुन्नी इमाम इब्न अल दाहाबी की सियार आलम अल नुबाला जिल्द 3 पृष्ठ 291-292
[4] Imam Tirmazi की लिखी हुई बाब तफ़्सीर उल क़ुरआन जिल्द 2 पृष्ठ 169
[5] इब्न कसीर की अल बिदाया व अल निहाया जिल्द 8 पृष्ठ 21 ज़िक्र खिलाफा हसन
[6] Tazkirat ul Khawwas पृष्ठ 192 (Sibt e Ibn ul Jawzi)
प्रमाण 2: सियार उल औलिया (सैय्यद मुहम्मद बिन मुबारक किरमानी)
[7] Rabi ul Abrar wa Nusus Al Akhbar जिल्द 4 पृष्ठ 208 – अल्लामा-अल-ज़मख़्शरी
[8] Ayun Al Anba Fi Tabaqat Al Atba पृष्ठ 153
[9] इमाम इब्न कसीर का अल बिदाया व अल निहाया जिल्द 8 पृष्ठ 42
[10] सुन्नी इमाम Al Dahabi की सियार आलम उन नुबुला जिल्द 3 पृष्ठ 253
[11] सुन्नी इमाम Al Dahabi की तारीख अल इस्लाम जिल्द 4, पृष्ठ 37
चित्र स्रोत :
By احمد منذر [CC BY-SA 3।0 (https://creativecommons।org/licenses/by-sa/3।0)], from Wikimedia Commons
खोज परक आलेख, निजी स्वार्थ और हवस की कहानी का नग्न रूप। बहुत सी चीजें हकीकत में बहुत दुखद भी होती है।