( अङ्कानांसंख्यानांच प्रयोगः – 1 , गताङ्के ) वयं संस्कृत ग्रन्थेषु ‘कटपयादि पद्धति’ द्वारा, अक्षरप्रयोगात् अङ्कज्ञानं, तेन सङ्ख्या निर्माणं पठन्ति स्म।
अधुना वयं एका अन्य प्रणाली ‘भूतसङ्ख्या पद्धति’ द्वारा अङ्कानांसंख्यानांच निरूपणं द्रक्ष्यामः। संस्कृते किञ्चिद् प्रतीकेण अङ्कानां निर्दिष्टं भवति। एतानि प्रतीकानि श्रुतिपुराणोक्त कथा परम्परायां कथितानि प्रतीकाः संसारे दृष्यमानाः भूत पदार्थाः वा भवन्ति। यथा एक (1) अङ्कस्य द्योतकः चन्द्रमा पृथ्वी च करणेन चन्द्रमाभूमिश्च एकः एव। नेत्रौ, करौ द्वौ अतः नेत्र शब्दः द्विवाचकः। देवाः त्रीणि अतः देव शब्दात् त्रि (3) अङ्क बोधकः। गुणाः अपि त्रीणि अतः गुण शब्दोऽपि त्रिवाचकः। रामाः अपि त्रीणि प्रसिद्धाः यत् दशरथात्मजः श्रीरामः बलरामः परशुरामश्च अतः राम शब्दः त्रिवाचकः।
निम्नलिखित सारण्यां कतिचन् शब्दाः तथा तेन प्रतीक अङ्काः/ सङ्ख्याः लिखिताः
अंक/संख्या | शब्द |
0 | ख, भू, आकाश, अभ्र (आकाश) |
1 | भू, चन्द्र, कु (पृथ्वी), शशि |
2 | करौ (हस्तौ), अश्विनीकुमार, नेत्र, यम, युग्म, दृशः |
3 | अग्नि, वह्नि, गुण, अनल, राम |
4 | वेद, कृताः, सागर, अब्धि |
5 | शरः, बाण, सुतः, सायकः |
6 | रस, अङ्ग, तर्क, दर्शन |
7 | अश्व, अद्रिः, शैलः |
8 | गजः, वसु, उरगः, नाग |
9 | अंक, गौ |
10 | दिक् (दिशा), आशा |
11 | शिव, रूद्र, ईशः, उग्रः |
12 | आदित्यः, भानु, सूर्य |
13 | विश्वः |
14 | मनु, भूत, इन्द्रः, शक्रः |
15 | तिथि, पक्ष |
16 | नृपः, अष्टि |
20 | नखाः |
21 | प्रकृतिः |
24 | जिनः |
25 | तत्वं |
27 | नक्षत्र, ऋक्षं |
30 | अमा |
32 | रदाः, दशना, दन्ताः |
एकैकस्य प्रतीकस्य कथावर्णनं अत्र कर्तुं न शक्नोम्यहं परन्तु श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त दृष्टिगोचराः पदार्थाः च अतीव सुगमाः। एतत्कारणेन भवतां बालकान् बालाः च संस्कृतिज्ञानं अवश्यमेव ददेध्वम्। इतरथा ते पुरा संस्कृतग्रन्थेषु लिखिताः तकनीकी वार्ताः, गणित सूत्राः अवगन्तुं न शक्ष्यन्ति।
उदाहरणतः वयं सर्वे जानन्ति, नक्षत्राणि आकाशे लगभग स्थिर तारकाणां गुच्छः भवन्ति, एतानि सप्तविंशति/ अष्टाविंशति भवन्ति। प्रत्येक नक्षत्रे कति तारकाः सन्ति एषः वदति एतस्मिन् श्लोके श्रीमान राम दैवज्ञः मुहूर्तचिन्तामणि ग्रन्थे, नक्षत्रप्रकरणे:
त्रित्र्यङ्गपञ्चाग्निकुवेदवह्नयः शरेषुनेत्राश्विशरेन्दुभूकृताः।
वेदाग्निरुद्राश्वियमाग्निवह्नयोSब्धयः शतंद्विरदाः भतारकाः॥
अन्वय: त्रि (3) + त्रय(3) + अङ्ग(6) + पञ्च(5) +अग्नि(3) + कु(1) + वेद(4) + वह्नय(3); शर(5) + ईषु(5) + नेत्र(2) + अश्वि(2) + शर(5) + इन्दु(1) + भू(1) + कृताः(4)। वेद(4) + अग्नि(3) + रुद्र(11) + अश्वि(2) + यम(2) + अग्नि(3) + वह्नि(3); अब्धयः(4) + शतं(100) + द्वि(2) + द्वि(2) + रदाः(32) + भ (नक्षत्र) + तारकाः।
अश्विनी, भरिणी, कृत्तिका, रोहिणी क्रमेण अष्टाविंशति नक्षत्राणां एतानि तारकाः भवन्ति इति।
न केवलं सङ्ख्या अपितु गणित सूत्राणि अपि बहुधा श्लोकेन निरूपितं यथा मुहूर्तचिन्तामणि ग्रन्थे गृहपिण्डायनाय वास्तुप्रकरणे एकः श्लोकः
एकोनितेष्टर्क्षहता द्वितिथ्यो रुपोनितेष्टाय हतेन्दुनागैः।
युक्ता घनैश्चापि युता विभक्ता भूपाश्विभिः शेषमितो हि पिण्डः॥
अन्वयार्थ :
एकोनितेइष्टर्क्ष = एकोनित + इष्ट + ऋक्ष = इष्ट नक्षत्र संख्यात् एक न्यूनं,
हता द्वितिथ्यो = 152 गुणिता (द्वि=2, तिथि=15 – ‘अङ्कानां वामतो गतिः’ अतः 152,
रुपोनितेष्टाय = रूपोनित + इष्ट + आय + हते = इष्ट आय संख्यात् एक न्यूनं,
हते इन्दुनागैः = 81 गुणिता (इन्दु =1, नागैः = 8 – ‘अङ्कानां वामतो गतिः’ अतः 81,
युक्ता घनैश्चापि युता = 17 योगितः
विभक्ता भूपाश्विभिः = 216 भागिता (भूप=16, अश्व=2 – ‘अङ्कानां वामतो गतिः’ अतः 216,
शेषमितो हि पिण्डः = इयं शेषं हि पिण्डस्य (क्षेत्रफलः) अस्ति।
अतः एतस्य श्लोकस्य गणित सूत्रः निम्नलिखितः
पिण्ड मान = [{(इष्ट नक्षत्र संख्या – 1) X 152} +{(इष्ट आय -1) X 81} + 17] / 216
न केवलं ज्योतिष ग्रन्थेषु अपितु आयुर्वेद, साहित्य, दर्शन ग्रन्थेश्वपि एषः पद्धतिः अत्र-तत्र मिलति। साधारण जनाः अधुना न जानन्ति यत् साधारण श्लोक माध्यमेन अस्माकं ऋषि-मुनि-विद्वांसः कठिन गणितनियमानि सूत्राणि च लिखितवन्तः। ते न केवलं छन्दकाराः अपितु विभिन्न विषयाणां पारङ्गताः भवन्ति स्म।
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संस्कृत में अंकों और संख्याओं का प्रयोग (गतांक से आगे )
पिछले अंक में हमने संस्कृत ग्रंथों में ‘कटपयादि पद्धति’ द्वारा अक्षरों के प्रयोग से अंको को जानना और उनके द्वारा संख्याओं का निर्माण पढ़ा था।
आज हम एक दूसरी पद्धति ‘भूतसंख्या पद्धति’ द्वारा अंकों और संख्याओं के निरूपण को देखेंगे। संस्कृत में कुछ प्रतीकों के द्वारा अंको का निर्देश होता है यह प्रतीक श्रुति-स्मृति-पुराण में लिखी हुई कथाओं और परंपराओं में बताए गए प्रतीकों और संसार में दिखने वाले भूत पदार्थों के होते हैं।
जैसे एक अंक का द्योतक चंद्रमा और पृथ्वी है, क्योंकि चंद्रमा और पृथ्वी एक एक है। आँख और हाथ दो-दो हैं अतः नेत्र शब्द से 2 इंगित होता है। देव तीन हैं अतः देव शब्द से 3 अंक का निर्देश होता है। गुण भी तीन है अतः गुण शब्द भी तीन का वाचक है। राम भी तीन प्रसिद्ध है जैसे दशरथ पुत्र श्री राम, बलराम और परशुराम अतः राम शब्द भी तीन का वाचक है।
निम्नलिखित सारणी में कुछ शब्द तथा उनके प्रतीक अंक या संख्या लिखी हुई हैं:
अंक/संख्या | शब्द |
0 | ख, भू, आकाश, अभ्र (आकाश) |
1 | भू, चन्द्र, कु (पृथ्वी), शशि |
2 | करौ (हस्तौ), अश्विनीकुमार, नेत्र, यम, युग्म, दृशः |
3 | अग्नि, वह्नि, गुण, अनल, राम |
4 | वेद, कृताः, सागर, अब्धि |
5 | शरः, बाण, सुतः, सायकः |
6 | रस, अङ्ग, तर्क, दर्शन |
7 | अश्व, अद्रिः, शैलः |
8 | गजः, वसु, उरगः, नाग |
9 | अंक, गौ |
10 | दिक् (दिशा), आशा |
11 | शिव, रूद्र, ईशः, उग्रः |
12 | आदित्यः, भानु, सूर्य |
13 | विश्वः |
14 | मनु, भूत, इन्द्रः, शक्रः |
15 | तिथि, पक्ष |
16 | नृपः, अष्टि |
20 | नखाः |
21 | प्रकृतिः |
24 | जिनः |
25 | तत्वं |
27 | नक्षत्र, ऋक्षं |
30 | अमा |
32 | रदाः, दशना, दन्ताः |
प्रत्येक प्रतीक की कथा का वर्णन करना यहां मैं नहीं कर सकता, परंतु श्रुति-स्मृति-पुराण में बताई गई और दिखने वाले पदार्थों को समझना बहुत ही सरल है। इस कारण से हमारे बालक-बालिकाओं को संस्कृति का ज्ञान हमें आवश्य ही देना चाहिए। अन्यथा वे पुराने संस्कृत ग्रंथों में लिखी हुई तकनीकी बातें और गणित के सूत्रों को समझने में सक्षम नहीं होंगे।
उदाहरणतः हम सभी जानते हैं कि आकाश में नक्षत्र लगभग स्थिर तारों के समूह होते हैं। ये 27 या 28 होते हैं। हर एक नक्षत्र में कितने तारे हैं यह श्रीमान राम दैवज्ञ मुहूर्त चिंतामणि ग्रंथ में नक्षत्र प्रकरण में निम्नलिखित श्लोक से बताते हैं:
त्रित्र्यङ्गपञ्चाग्निकुवेदवह्नयः शरेषुनेत्राश्विशरेन्दुभूकृताः।
वेदाग्निरुद्राश्वियमाग्निवह्नयोSब्धयः शतंद्विरदाः भतारकाः॥
अन्वय: त्रि (3) + त्रय(3) + अङ्ग(6) + पञ्च(5) +अग्नि(3) + कु(1) + वेद(4) + वह्नय(3); शर(5) + ईषु(5) + नेत्र(2) + अश्वि(2) + शर(5) + इन्दु(1) + भू(1) + कृताः(4)। वेद(4) + अग्नि(3) + रुद्र(11) + अश्वि(2) + यम(2) + अग्नि(3) + वह्नि(3); अब्धयः(4) + शतं(100) + द्वि(2) + द्वि(2) + रदाः(32) + भ (नक्षत्र) + तारकाः।|
अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी के क्रम से 28 नक्षत्रों में इतने तारे होते हैं।
न केवल संख्या बल्कि गणित के सूत्र भी बहुत से श्लोकों में निरूपित किए गए हैं ; जैसे घर की भूमि के नाप के लिए मुहूर्तचिंतामणि के वास्तु प्रकरण में एक श्लोक है:
एकोनितेष्टर्क्षहता द्वितिथ्यो रुपोनितेष्टाय हतेन्दुनागैः।
युक्ता घनैश्चापि युता विभक्ता भूपाश्विभिः शेषमितो हि पिण्डः॥
अन्वय और अर्थ:
एकोनितेइष्टर्क्ष = एकोनित + इष्ट + ऋक्ष = इष्ट नक्षत्र की संख्या से एक कम,
हता द्वितिथ्यो = 152 से गुणित (द्वि=2, तिथि=15 – ‘अङ्कानां वामतो गतिः’ अतः 152,
रुपोनितेष्टाय = रूपोनित + इष्ट + आय + हते = इष्ट आय संख्या से एक कम,
हते इन्दुनागैः = 81 से गुणित (इन्दु =1, नागैः = 8 – ‘अङ्कानां वामतो गतिः’ अतः 81,
युक्ता घनैश्चापि युता = 17 जोड़ कर,
विभक्ता भूपाश्विभिः = 216 से भाजित (भूप=16, अश्व=2 – ‘अङ्कानां वामतो गतिः’ अतः 216,
शेषमितो हि पिण्डः = शेष बचा हुआ ही पिण्ड (का क्षेत्रफल) है।
अतः इस श्लोक का गणितीय सूत्र निम्न प्रकार है:
पिण्ड मान = [{(इष्ट नक्षत्र संख्या – 1) X 152} +{(इष्ट आय -1) X 81} + 17] / 216
न केवल ज्योतिष ग्रंथों में बल्कि आयुर्वेद, साहित्य और दर्शन के ग्रंथों में भी यह पद्धति यहां-वहां मिलती है। आजकल सामान्य लोग नहीं जानते कि इन साधारण श्लोकों के माध्यम से हमारे ऋषि-मुनि और विद्वानों ने कठिन गणित के नियमों को और सूत्रों को लिख दिया था| वह न केवल छंदकार थे बल्कि विभिन्न विषयों में भी पारंगत थे।