Amarkosha अमरकोश, कुछ प्रचलित शब्द : लघु दीप – ३४
पहुना, पाहुन (भोजपुरी, मैथिली आदि), संस्कृत में प्राघुणक।
प्राघूर्णिक: प्राघुणकश्च। – अभ्यागत हेतु।
अमरकोश से निकलते, कुछ प्रचलित शब्द आज के लघु दीप में।
पहुना, पाहुन (भोजपुरी, मैथिली आदि), संस्कृत में प्राघुणक।
प्राघूर्णिक: प्राघुणकश्च। – अभ्यागत हेतु।
अमरकोश से निकलते, कुछ प्रचलित शब्द आज के लघु दीप में।
Bauhinia vahlii Maluva चाम्बुली ~मेरी प्रेमिका मालुवा लता सी लिपटी। प्रमत्त होकर आचरण करने वाले मनुष्य की तृष्णा मालुवा लता की भाँति बढ़ती है। भारतीय वाङ्मय में अपने परिवेश, जन, अरण्य, पशु-पक्षियों व वनस्पतियों के प्रति अनुराग और जुड़ाव बहुत ही सहज रूप में दिखता है। अब उपेक्षा और अज्ञान इतने बढ़ चुके हैं कि आज के भारतीय जन को देख कर तो लगता ही नहीं कि यह वही धरा है, उसी के लोग हैं!
लक्ष्मी-वाहन को लक्ष्मी के अतिरिक्त भी किसी अन्य लाभ की आकांक्षा हो सकती है यह जान कर शुक्राचार्य को आश्चर्य हुआ। उन्होंने उलूक से कहा,“हे पक्षिराज! उलूक-मंतव्य सामान्य जनों हेतु सदा स्पष्ट नहीं होते! आप अपना वांछित स्वयं कहें!”
जिसके समक्ष उदकसेविका पहुँचती, उसे प्रमत्त, पियक्कड़, विदूषक या पागल की तरह व्यवहार करना होता। लोग कुत्तों पर सवार हो जाते, एक दूसरे को गालियाँ बकते, चोकरते हुये गीत गाते, नाचते, निर्लज्जता सामान्य हो जाती। पुरुष उदकसेविका के साथ जो चाहे, करते।
अगर आप हाल फिलहाल पाकिस्तान जाने वाले हों तो मुझसे उस गाँव का पता लेते जाइयेगा। वहाँ जहाँ मस्जिद दिखेगी न, वहीं केशव का घर था। दीनी कसाब को तो न घर मयस्सर हुआ और न कब्रिस्तान ही।
पद्मश्री सम्मानित आचार्य सुभाष काक की कवितायें पढ़ना उनके बहुआयामी व्यक्तित्त्व के एक अनूठे पक्ष को उद्घाटित करता है। इन क्षणिकाओं में युग समाये हैं, शब्द संयम में जाने कितने भाष्य। लयमयी रचनाओं में जापानी हाइकू सा प्रभाव है जो प्रेक्षण एवं अनुभूतियों की सहस्र विमाओं में पसरा है।
… ओ, साँझ को बोने दो,
… गलते पर्वतों को जाने दो,
… साँझ के तूर्यों को बजने दो,
… धुँधलाते दिन को चमकने दो,
पंच ज्ञानेन्द्रियां (आँख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा), पंच कर्मेन्द्रियां (वाणी, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ), चार अन्त:करण (मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार) – इन चतुर्दश (चौदह) का समुचित नियंत्रण, संयम, संचालन ही ‘शिवरात्रि-व्रत’ है।
प्रकृति माता है और माता का मातृत्त्व जब अमृत बन कर बरसता है तो उसका एक रूप महुआ के रूप में भी सामने आता है।
देश एक दिन में नहीं कटते बँटते, सरल भी नहीं होता किन्तु यह दारुण सत्य है कि किसी देश में मूलवासियों के धर्म, संस्कृति एवं आस्था का मर्दन करने के साथ साथ आक्रामक विनाशी विचारों की बाढ़ हो तथा बहुविध सुनियोजित षड्यंत्रों, योजनाओं के साथ उदारता एवं विधि विधानों का पूर्ण लाभ लेते हुये समूह लगे रहें तो विखण्डन साध्य हो जाता है। भारत इस सत्य का बड़ा प्रमाण है।
बतुकम्मा, बोड्डेम्मा। तेलंगाना-तेलगू क्षेत्रों में दो ऐसे पर्व हैं जो पूर्णत: स्त्रियों द्वारा मनाये जाते हैं, पुरुषों का योगदान सामग्री आदि के प्रबंध तक सीमित रहता है।
आकाश में बृहस्पति एवं उसके समान पाँचेक अन्य भी हैं, किन्तु अपने विशेष पराक्रम में रुचि रखने वाला शिरमात्र शेष राहु उनसे वैर न करके परम तेजस्वी सूर्य एवं चन्द्र को ही ग्रसता है।
शीर्षक पर न जायें! काव्यगत् दृष्टि में शृंगार पक्ष अद्भुत, किन्तु अब लुप्तप्राय। जैसा कि शीर्षक स्पष्ट कर रहा है, बारह मास से ही अभिप्राय है। लोक भोजपुरी में होली के अवसर पर गाया जाने वाला विरह शृंगार गीत। साहित्यिक हिन्दी वालों के लिए विप्रलंभ शृंगार। आइये, तनि गहरे गोता मारिये न! … लगभग तेरह…
सप्ता दियो सुहाग ! प्रतिभा सक्सेना का मघा में पहला लेख है। हिन्दी भाषा में परम्परा से चले आते कुछ ऐसे शब्द हैं जिनका समय के प्रवाह एवं परिस्थितियों के चक्र में पड़ कर बहुत अर्थोपकर्ष हो चुका है। सामाजिक परिवर्तनों तथा सांस्कृतिक अवमूल्यन के कारण शब्द भी अपनी व्यञ्जना शक्ति और प्रभावशीलता खो कर…