विगत दिनों माननीय प्रधानमंत्री ने देश के नागरिकों के समक्ष आत्मनिर्भर होने का विचार व्यक्त किया। आत्मनिर्भर शब्द को समझने का हम प्रयास करते हैं।
आत्मनिर्भर एक विशेषण और यौगिक शब्द है। जब दो शब्द मिलकर एक नया शब्द बनाते हैं, उसे यौगिक शब्द कहा जाता है। जैसे डाक+ घर= डाकघर, घोड़ा+सवार= घोड़सवार> घुड़सवार आदि।
यहाँ दो शब्द हैं- आत्म+निर्भर। अब हम एक-एक शब्द को समझने का प्रयास करते हैं।
आत्म
यास्क ने इसकी व्युत्पत्ति करते हुए कहा है- आत्मा ‘अत्’ धातु से व्युत्पन्न होता है, जिसका अर्थ है सतत चलना। यह शब्द अत्+ मनिण् से बना है। यहाँँ अत् धातु का अर्थ है सतत गमन अथवा गतिशीलता। कृदन्त प्रत्यय ‘मनिण्’ भाववाचक संज्ञा बनाता है। प्रयोग करते समय मनिण् का मन् शेष रहता है, इस प्रकार शब्द बना आत्मन्। आत्मन् नकारान्त (न् से अंत होने वाला) पुल्लिङ्ग शब्द है। कर्त्ता कारक एक वचन में यह शब्द ‘आत्मा’ बनता है। इस प्रकार आत्मा का सरल अर्थ हुआ ‘जो सतत गतिशील है‘।
आचार्य शङ्कर आत्मा शब्द की व्याख्या करते हुए लिङ्ग पुराण से यह श्लोक उदधृत करते हैं –
यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चाति विषयानिह।
यच्चास्य सन्ततो भावस्तस्मादात्मेति कीर्त्यते ॥
(जो व्याप्त करता है, ग्रहण करता है, सम्पूर्ण विषयों का भोग करता है और जिसकी सदैव सत्ता बनी रहती है, उसको आत्मा कहा जाता है।)
वामन शिवराम आप्टे अपने शब्दकोश में अर्थ बताते हैं –
१. आत्मा, जीव- किमात्मना यो न जितेन्द्रियो भवेत्। हितोपदेश १।
२. स्व, आत्म – इस अर्थ में प्रायः यह शब्द तीनों पुरुषों (प्रथम, मध्यम एवं उत्तम) में तथा पुल्लिंग एक वचन में प्रयुक्त होता है, चाहे उस समाज शब्द का लिंग, वचन जो भी हो। जैसे- आश्रमदर्शनेन आत्मानन्द पुनीमह- शकुंतला नाटक-१।
३. परमात्मा, ब्रह्म- तस्माद्वा एतस्मादात्मन: आकाश: सम्भूत:। उत्तर रामायण १।१.
४. सार, प्रकृति, ५. चरित्र, विशेषता,६. नैसर्गिक प्रकृति,७. व्यक्ति या समस्त शरीर ८. मन, बुद्धि- महात्मन् या मंदात्मन्। (महात्मा= जिसका मन या बुद्धि बड़ी है)। ९. समझ, १०. विचारण- शक्ति, विचार और तर्कशक्ति,११.सप्राणता,जीवट, साहस १२. रूप,१३. प्रतिमा १४.पुत्र, १५.सूर्य, १७.अग्नि, १८.वायु।
निर्भर
आत्मनिर्भर का दूसरा शब्द है निर्भर। निर्भर शब्द बना है –निर्+भृञ्+अच् से। यहां निर् उपसर्ग है। निर् उपसर्ग रहित या निषेध अर्थ में प्रयोग किया जाता है। जैसे – निर्जन(जन रहित), निरपराध (अपराध रहित) निराकार(आकार रहित), निर्मल (मल रहित), निर्णय (नय अर्थात् ले जाना/गति, निर्णय अर्थात् गति रहित – जहाँ विचार रुक गया वही निर्णय है) आदि।
उपसर्ग वे शब्दांश होते हैं, जो शब्द के पूर्व जुड़ कर उसके अर्थ में परिवर्तन करते हैं।
संस्कृत में २२ उपसर्ग होते हैं- प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव, निस्, निर्, दुस्, दुर्, वि, आङ् (आ), नि, अधि, अपि, अति, सु, उत्, अभि, प्रति, परि, उप।
भृञ् धातु का अर्थ है-भरण या पालन (भ्वादिगण)
भृञ् धातु के साथ अच् अर्थात् स्वर जोड़ने पर रूप बनेगा- ‘भर’। निर्+भर= निर्भर का अर्थ हुआ ‘… के बिना पालन रहित’। जब कहा जाता है कि ‘रमेश मोहन पर निर्भर है’ तो इसका अर्थ होता है – रमेश का पालन या भरण मोहन के बिना नहीं है।
अंत में हम समझ सकते हैं कि आत्मनिर्भर का अर्थ हुआ- ‘स्वयं के बिना पालन नहीं’ अपना पालन हम स्वयं करें।
इति।
कृपया यश कीर्ति और प्रसिद्धि शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ बताने की कृपा करें
Iski bhavvachak sangya kya hai?
तसिल् प्रत्यय (ता) लगा कर भाव वाचक संज्ञा बनाया जाता है, एकता, महानता, समानता, ममता आदि। इसी प्रकार इसका आत्मनिर्भरता शब्द बनेगा।
जिज्ञासा के लिए धन्यवाद।