अंतर्राष्ट्रीय नाम: Eastern Imperial Eagle / Asian Imperial Eagle / Imperial Eagle
हिन्दी नाम: शाही या राज गरुड़, सलंगल, बड़ा जुमिज, कङ्क सुपर्ण (संस्कृत), रणमत्त महाचील (नेपाली)
वैज्ञानिक नाम: Aquila heliacal
Asian Imperial Eagle / शाही गरुड़, चित्र सर्वाधिकार: आजाद सिंह, © Ajad Singh,
सरयू नदी का रेतीला कछार, गुप्तारघाट, अयोध्या, उत्तर प्रदेश
(पहली बार फोटो खींंचकर पहचान की गई ), 10 फरवरी, 2018
Kingdom: Animalia
Phylum: Chordata
Class: Aves
Order: Accipitriformes
Family: Acipitridae
Genus: Aquila
Species: Heliacal
Category: Birds of Prey (आखेटक चिड़िया )
Population: Decreasing
Conservation Status: VU (VULNERABLE, अति सङ्कट में)
प्रवास स्थिति: Winter Migrant (शीत ऋतु प्रवासी)
दृश्यता: बहुत ही कम दिखाई देने वाला
आकार: लगभग 28-35 इंच, पंखों का फैलाव 7.1 फीट तक
भार: 2.45 कि.ग्रा. से 4.55 कि.ग्रा. तक
भोजन: मरे हुए पशुओं का मांस, दूसरी आखेटक चिड़ियों से छीनकर भी। इसे यदा-कदा शशक, चूहे, छिपकलियाँ एवं भूमि निवासी पक्षियों का भी आखेट करते देखा गया है।
निवास: खुले मैदानों में रहने वाला आलसी गरुड़। यह प्राय: पेड़ों की सबसे ऊंची टहनी पर बैठा रहता है। बहुत बार भूमि पर घण्टों बैठे भी मिल जाता है।
वितरण: दक्षिण पूर्व यूरोप से पश्चिम और मध्य एशिया तक तथा शीत ऋतु में भारत के उत्तरी भागों में, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल में प्रवास करता है।
लैङ्गिक द्विरूपता: नर और मादा एक जैसे ही होते हैं परन्तु आकार में मादा नर से सवा गुना बड़ी होती है।
Asian Imperial Eagle / शाही गरुड़, चित्र सर्वाधिकार: आजाद सिंह, © Ajad Singh, सरयू नदी का रेतीला कछार, गुप्तारघाट, अयोध्या, उत्तर प्रदेश (पहली बार फोटो खीचकर पहचान की गई ), 10 फरवरी, 2018
पहचान एवं रंग-रूप: राज गरुड़ चमकदार कल्छौंह भूरा रंग लिए होता है। सिर और गला गहरे पीले चमड़े के रंग के, पूँँछ भूरी, अंतिम किनारा श्वेत। पूरी पूँछ पर चौड़ा कल्छौंह पट्टा, पूँछ के नीचे का भाग भूरा। पीठ पर श्वेत चिह्न। अवयस्क पक्षियों का रंग भूरा, गला और सिर पीली धारियों के साथ, पूँछ पर भी तथा नीचे की ओर स्पष्ट रूप से धारीदार।
प्रजनन काल तथा घोंसला: जोड़ा बनाने का समय फ़रवरी से अप्रैल तक (भारत में मात्र पञ्जाब से 2 रिकॉर्ड मिले हैं)। बड़े और अकेले पेड़ की ऊँचाई पर छोटी-छोटी टहनियों को एकत्र कर एक बड़ा घोंसला बनाया जाता है जिसे घास और पंखों के उपयोग द्वारा कोमल बनाया जाता है। मादा समय आने पर 2 अण्डे देती है। अण्डे मलिन श्वेत, धब्बेदार तथा भूरे रंग के होते हैं। अण्डों से 43 दिनों में शिशु निकल आते हैं जो 60 से 77 दिनों में घोंसला छोड़ देते हैं। अधिकतर केवल एक शिशु ही वयस्कता प्राप्त कर पाता है।
सम्पादकीय टिप्पणी:
आर्ष साहित्य में सुपर्ण संज्ञा का बहुत प्रयोग हुआ है। सूर्य, इंद्र, अग्नि, विश्वेदेवा, ईषव, सोम पवमान इत्यादि देवताओं से सम्बन्धित ऋग्वैदिक ऋचाओं मेंं यह व्यवहृत है। कुछ तो निश्चय ही उपमा या अभेद रूप में पक्षी अर्थ में प्रयुक्त हैं। सुंदर, रहस्यात्मक एवं दार्शनिक काव्य अंशों में इसका प्रयोग द्रष्टव्य है यथा –
- इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ॥
- द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति ॥
- यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागमनिमेषं विदथाभिस्वरन्ति । इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः स मा धीरः पाकमत्रा विवेश ॥
- यस्मिन्वृक्षे मध्वदः सुपर्णा निविशन्ते सुवते चाधि विश्वे । तस्येदाहुः पिप्पलं स्वाद्वग्रे तन्नोन्नशद्यः पितरं न वेद ॥
- मा त्वा श्येन उद्वधीन्मा सुपर्णो मा त्वा विददिषुमान्वीरो अस्ता । पित्र्यामनु प्रदिशं कनिक्रदत्सुमङ्गलो भद्रवादी वदेह ॥
- उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम् । सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र ॥
- मनोजवा अयमान आयसीमतरत्पुरम् । दिवं सुपर्णो गत्वाय सोमं वज्रिण आभरत् ॥
- उक्षेव यूथा परियन्नरावीदधि त्विषीरधित सूर्यस्य । दिव्यः सुपर्णोऽव चक्षत क्षां सोमः परि क्रतुना पश्यते जाः ॥
- नाके सुपर्णमुपपप्तिवांसं गिरो वेनानामकृपन्त पूर्वीः । शिशुं रिहन्ति मतयः पनिप्नतं हिरण्ययं शकुनं क्षामणि स्थाम् ॥
- प्र त आशवः पवमान धीजवो मदा अर्षन्ति रघुजा इव त्मना । दिव्याः सुपर्णा मधुमन्त इन्दवो मदिन्तमासः परि कोशमासते ॥
- सुपर्ण इत्था नखमा सिषायावरुद्धः परिपदं न सिंहः । निरुद्धश्चिन्महिषस्तर्ष्यावान्गोधा तस्मा अयथं कर्षदेतत् ॥
- शाक्मना शाको अरुणः सुपर्ण आ यो महः शूरः सनादनीळः । यच्चिकेत सत्यमित्तन्न मोघं वसु स्पार्हमुत जेतोत दाता ॥
ऋग्वैदिक सुपर्ण का सम्बन्ध सोम से है। यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता में ‘कङ्कचित्’ नाम से पक्षी के आकार की वेदी का उल्लेख मिलता है। श्येन वेदी का प्रयोग आज भी प्रसिद्ध अग्निचयन सत्रों में केरल में किया जाता है।
पौराणिक कथाओं में विनता के पुत्र वैनतेय गरुड़ का महत्वपूर्ण स्थान है। विष्णु देवता के वाहन के रूप में इन्हें बहुत ही आदरणीय स्थान प्राप्त है। विष्णु नारायण के मन्दिरों में इनकी भव्य उपस्थिति दिखती है।
राज, शाही, कङ्क, रणमत्त (विष्णु द्वारा किये अनेक युद्धों में सक्रिय) इत्यादि नामों से प्रतीत होता है कि हो न हो, वैदिक एवं पौराणिक सुपर्ण का सम्बन्ध इस गरुड़ से हो। उल्लेखनीय है कि इसके वैज्ञानिक नाम में helical का अर्थ सूर्य से सम्बन्धित है तथा ऋग्वेद में भी सूर्य को सुपर्ण कहा गया है।