भारतीय तथा अन्य नाम
सामान्य हिन्दी भोजपुरी : पन्ना कबूतर, हरा कबूतर
संस्कृत : हरित कपोत
असामी : শিল কপৌ
बांग्ला : রাজ ঘুঘু, সবুজ ঘুঘু, বাঁশঘুঘু
नेपाली : हारील ढुकुर
तमिळ : மரகதப் புறா
मराठी : पाचू कवडा, पाचू होला
गुजराती : નીલમ હોલી
कन्नड़ : ಹರಳು ಚೋಳೆ
मलयालम : മരതകപ്രാവ്
अंग्रेजी नाम : Chalcophaps indica, Emerald Dove, Common Emerald Dove, Asian Emerald Dove, Green Dove, Grey-capped Emerald Dove, Green-winged Pigeon
वैज्ञानिक नाम (Zoological Name) : Chalcophaps indica
Kingdom: Animalia
Phylum: Chordata
Class: Aves
Order: Columbiformes
Family: Columbidae
Genus: Chalcophaps
Species: C. indica
गण-जाति : थल-प्रजनन पक्षी
Clade: Upland Ground Birds
जनसङ्ख्या : ह्रासमान
Population: Decreasing
संरक्षण स्थिति (IUCN) : सङ्कट-मुक्त
Conservation Status (IUCN): LC (Least Concern)
वन्य जीव संरक्षण अनुसूची : ४
Wildlife Schedule: IV
नीड़-काल : जनवरी से मई
Nesting Period: January to May
आकार : लगभग ११ इंच
Size: 11 in
प्रव्रजन स्थिति : अनुवासी
Migratory Status: Resident
दृश्यता : असामान्य (अल्प दृष्टिगोचर होने वाला)
Visibility: Very less
लैङ्गिक द्विरूपता : उपस्थित (नर और मादा भिन्न)
Sexual Dimorphism: Present (Unlike)
भोजन : जमीन पर पड़े हुए बीज, फल, बेर, झरबेरी आदि।
Diet: Fallen seeds, fruits, berries etc.
तथ्य : पन्ना कबूतर भारतीय राज्य तमिलनाडु का राज्य पक्षी है।
Fact: Emerald Dove is a state bird of Tamilnadu.
अभिज्ञान एवं रङ्ग-रूप : पन्ना कबूतर अपने नाम के अनुरूप ही पन्ना जैसा कान्तिमान हरित वर्ण का होता है। यह एक लज्जालु पक्षी है जिसे अकेले में या युगल में धरा पर अन्न आदि चुगते हुए या तीव्र गति से भागते हुए देखा जा सकता है। इनका ऊपरी आवरण गहन हरित (पन्ना) वर्ण का, विहङ्ग पत्त्र एवं पक्षपुच्छ कृष्णवर्णी तथा कण्ठ-वक्ष भाग ललछौंह भूरे होते हैं। मस्तक का ऊपरी भाग धूसर होता है। नेत्रों का वर्ण गहन भूरा, चञ्चुका लालिमा युक्त तथा पञ्जे पाटल वर्ण के होते हैं। नर व मादा का आकार समान होता है परन्तु नर के स्कन्ध के निकट श्वेत पक्षबिन्दु और चञ्चुका से नेत्र के पार्श्व तक एक श्वेत पट्टिका होती है। मादा का सम्पूर्ण वक्ष स्थल व ग्रीवा ललछौंह भूरे वर्ण के होते हैं।
निवास : ये मानव आवास से दूर सघन वनों, वर्षा वनों, वाटिकाओं आदि में निवास करते हैं।
वितरण : यह सम्पूर्ण भारत में अण्डमान-निकोबार द्वीप तक पाया जाता है। हिमालय में १४०० मीटर की ऊँचाई तक ही मिलता है। भारत के अतिरिक्त यह बांग्लादेश, श्रीलङ्का और म्यानमार में भी पाया जाता है। श्रीलङ्का में इसकी एक दूसरी प्रजाति Chalcophaps robinsoni पाई जाती है।
प्रजनन काल तथा नीड़ निर्माण : इसका प्रजनन काल जनवरी से मई तक ही होता है। ये अपने नीड़ लगभग ५ मीटर की ऊँचाई तक के वृक्षों की शाखाओं पर, तृण-पत्रादि से बनाते हैं। अन्य कबूतरों और पेड़कियों से इनका नीड़ किञ्चित अधिक सहत् होता है। समय आने पर मादा २ अण्डे देती है और नर और मादा मिलकर शिशु का पालन पोषण करते हैं।
सम्पादकीय टिप्पणी
हरे रंग के कारण इसे शुकच्छवि भी कहा गया। वैदिक संहिताओं, पुराणों एवं अन्य संस्कृत ग्रंथों में इसके चर्चे हैं। अपनी पुस्तक Birds in Sanskrit Literature में दवे ने विश्लेषण के साथ सिद्ध किया है कि ऋग्वेद, वैष्णव भागवत आदि का अमङ्गली एवं यम का सूचक कपोत हारीत ही है – कपोतं च स्वयं यम:(मार्कण्डेय पुराण), मृत्युदूत: कपोत: इयम्(वैष्णव भागवत)।
ऋग्वेद में इसका उल्लेख इस प्रकार है –
यदुलू॑को॒ वद॑ति मो॒घमे॒तद्यत्क॒पोत॑: प॒दम॒ग्नौ कृ॒णोति॑ ।
यस्य॑ दू॒तः प्रहि॑त ए॒ष ए॒तत्तस्मै॑ य॒माय॒ नमो॑ अस्तु मृ॒त्यवे॑ ॥
उल्लेखनीय है कि इसके द्रष्टा ऋषि कपोतो नैर्ऋत: कहे गये हैं, निरृति (या निर्ऋति) यम की दिशा है।
आश्वलायन गृह्यसूत्र की एक टीका में ‘शुकवर्ण’ को ‘शुक्लवर्ण’ समझ कर इस अपशकुनी पक्षी का अभिज्ञान गड़बड़ हो गया – कपोतो रक्तपाद: शुक्लवर्ण: अरण्यवासी। उक्त ग्रन्थ की टीका में इसका अभिज्ञान शौनक ने ठीक किया –
रक्तपाद: कपोताख्य: अरण्यौका: शुकच्छवि।
स चेच्छालां विशेत् शालासमीपं च व्रजेद्यदि ॥
अन्येषु गृहमध्ये वा वल्मीकस्योद्गमादिषु।
हारीत नीची, त्वरित एवं रवहीन (शान्त) उड़ान के लिये जाने जाते हैं। सहसा ही दिख कर लुप्त हो जाना इनकी विशेषता है। पुरातन काल के घरों की भित्तिहीन यज्ञशालाओं में ये सहसा आते व चले जाते। इन्हें मृत्यु की भाँति ही आगम कर निर्गम कर जाने वाला मान कर अपशकुनी बताया गया। इनका विचित्र रङ्गरूप भी इस आरोपण में सहायक हुआ। ये वल्मीक अर्थात दीमक मत्कोटकों की बाँबी पर आकर्षित होते हैं।
इसके घनारुण (कपिश, maroon) रक्तवर्ण कण्ठ के कारण इसे ‘रक्तकण्ठ‘ या ‘रक्तग्रीव‘ भी कहा गया। संस्कृत में रक्त हेतु शोण शब्द से आगे बढ़ते हुये maroon को पाण्डुशोण भी कहते हैं।
भविष्यपुराण भी इसे अपशकुनी पक्षियों की श्रेणी में रखता है –
द्रोणकाको बकश्चैव उलूकद्वयमेव च ।
रक्तकण्ठ: कपोतश्च व्याघ्र एणश्च वा विशेत् ॥
घनारुण कपिश वर्ण के कारण रहस्यगाथाओं में इसे अग्नि का रूप माना गया। शिव का वीर्य धारण करने वाला पक्षी-रूपी अग्नि यही कपोत है जिससे स्कन्द कार्तिकेय की उत्पत्ति हुई –
अग्निर्भूत्वा कपोति हि प्रेरित: सर्वनिर्ज्जरै: ।
अभक्षच्छाम्भवं वीर्यं चञ्च्वा तु निखिल तदा ॥
(शिवपुराण)
उशीनर एवं शिवि राजाओं की परीक्षा के लिये इन्द्र के कहने पर अग्नि ने जिस कपोत का रूप धारण किया था, वह यही अपशकुनी हारीत था। नीची उड़ान भरने वाले इस कपोत ने उनके अङ्क में बैठ कर उन्हें बड़े सङ्कट (निर्ॠति) में डाल दिया।
महाभारत की वृषदर्भ-उशीनर राजा की कथा में नीलोत्पल रङ्ग वाले सिर के कारण इस सुंदर पक्षी का इस प्रकार उल्लेख हुआ है- नवनीलोत्पलापीड चारुवर्ण सुदर्शन।
धन्वन्तरि इस भीषण अमङ्गली पक्षी के बारे में इस प्रकार लिखते हैं –
अमङ्गल्य: स भवति द्विजो यस्तु यभो(मो?) यत: ।
दहन: अग्निसहायश्च भीषणो गृहनाशन : ॥
यह पक्षी यम के नियन्त्रण में होता है, अमङ्गली है, अग्नि है या गृह का जला कर नाश कर देने वाले भीषण अग्नि का सहायक है।
बृहत्संहिता में वराहमिहिर इनके ‘गु गु’ स्वर के बारे में लिखते हैं – हारीतस्य तु शब्दो गुग्गु:।