भारतीय नाम : कालौक, बड़ी बत, बड़ी काज, कलहंस (संस्कृत)
वैज्ञानिक नाम : Anser anser
Kingdom: Animalia
Phylum: Chordata
Class: Aves
Order: Anseriformes
Family: Anatidae
Genus: Anser
Species: Anser
Category: Duck like bird
संरक्षण स्थिति : सङ्कटमुक्त
Conservation Status: LC (Least Concern)
वन्य जीव संरक्षण अनुसूची : ४
Wildlife Schedule: IV
नीड़ काल : जून से जुलाई
Nesting Period: June to July
आकार : लगभग ३२ इंच
Size: 32in
प्रव्रजन स्थिति : प्रवासी
Migratory Status: Migratory
दृश्यता : सामान्य (प्राय: दिखाई पड़ने वाला)
Visibility: Common
लैङ्गिक द्विरूपता : समरूप ( पर नर का आकार मादा से थोडा बड़ा होता है)
Sexes: Alike (But Male is rather big)
भोजन : ये शाकाहारी पक्षी हैं जो तृण, घासफूस, मृदु कोंपल एवं अन्न आदि खाते हैं।
Diet: Herbivorous, Sea-grass, Grass, Leaves, Grain, Cereal stubbles etc.
अभिज्ञान एवं रङ्ग-रूप : ये हंस जैसे सबसे बड़े आकार के बतख हैं जो प्राय: ४०-५० के समूह में आते हैं पर कभी कभी १-२ के जोड़े में भी दिख जाते हैं। इस पक्षी के बारे में कहा गया है कि यह पाल्य बतखों का पूर्वज है। इसका शरीर श्याव धूसर (भूरा कत्थई) और श्वेत धारियों से भरा होता है। पीठ के पंङ्ख कृष्ण श्याव, पार्श्व भाग श्वेत, पूँछ भूरी पर किनारे श्वेत, चोंच तनु नारंगी और आँखें गहन श्याव रंग की होती हैं। इसे पूर्ण वयस्क होने में ३ वर्ष लगते हैं, जिसके पश्चात नर का भार मादा से अधिक हो जाता है।
निवास : ये भारत के ऋतु-प्रवासी पक्षी हैं जो अन्य बतखों की ही भाँति शीत ऋतु आरम्भ (अक्टूबर के निकट) में यहाँ आते हैं। जाड़ा बढने के साथ-साथ इनके समूह मध्य प्रदेश तक चले जाते हैं। ये पक्षी शीत ऋतु समाप्त होने के साथ उत्तर भारत की ओर लौटने लगते हैं एवं पुन: मार्च बीतने के साथ सुदूर उत्तर देशों को लौट जाते हैं। इनको नदियों के किनारे और बड़ी झीलें प्रिय हैं, जिनमें ये जलीय घास खाते रहते हैं एवं सायंकाल में उड़ आ खेतों में अन्न कण तथा कोंपलें भी खाते हैं।
वितरण : ये यूरोप और उत्तरी एशिया में निवास करते हैं। यूरोपीय पक्षियों का प्रवास भूमध्य क्षेत्र और उत्तरी अफ्रीका में तथा एशियाई पक्षियों का प्रवास अजरबैजान, ईरान, पाकिस्तान, पूर्वी चीन तथा बांग्लादेश तक होता है।
प्रजनन काल तथा नीड़ निर्माण : ऋतु-प्रवासी पक्षी होने के कारण ये भारत में अण्डे नहीं देते। यहाँ का प्रवास पूर्ण कर अपने मूल स्थान लौट कर ही पानी के किनारे या किसी लघुद्वीप पर बड़ी घास के बीच में भूमि पर ही सुन्दर तृणनीड़ बनाते हैं। मादा एक बार में १०-१२ अंडे देती है। अण्डों का रंग पीलापन लिए हुए श्वेत होता है एवं वे कान्तिहीन होते हैं। अण्डों का आकार प्राय: ३.७३*२.३३ इंच होता है।
सम्पादकीय टिप्पणी :
धूसर (grey) एवं श्याव (भूरा), ये दो रंग भारत में इस पक्षी के हंस से भिन्न अभिज्ञान हेतु प्रयुक्त होते रहे। हंस संस्कृत एवं भारतीय साहित्य तथा आख्यानों, पुराणों, कथाओं आदि में इस देश के मानस में इतना गुम्फित रहा कि जिन प्रदेशों या क्षेत्रों में नहीं दिखता, उनमें भी उससे मिलते जुलते पक्षियों को या तो हंस कह दिया गया या हंस शब्द के पूर्व उपसर्ग लगा कर अभिजान किया गया, यथा – राजहंस, कलहंस, कालहंस आदि। आगे संस्कृत साहित्य में इनमें विभाजन की रेखा तनु होती गयी। हंस ऋग्वेद में सोम प्रसंग में बड़े ही आलङ्कारिक रूप में वर्णित है कि रस निकालते समय जो ध्वनि एवं बुलबुले उठते हैं वे वैसे ही होते हैं जैसे पानी में हंस को छेड़ने पर वह करता है — श्वसित्यप्सु हंसो न सीदन्क्रत्वा चेतिष्ठो विशामुषर्भुत्॥
रामायण के अरण्यकाण्ड में एक ही आदि माता धृतराष्ट्री से हंस, कलहंस एवं चक्रवाक पक्षियों की उत्पत्ति उल्लिखित है :
धृतराष्ट्री तु हंसांश्च कलहंसांश्च सर्वशः।
चक्रवाकांश्च भद्रं ते विजज्ञे सापि भामिनी॥
हंस के श्वेत रंग से भिन्न श्याव धूसर रंग के कारण कलहंस को यह नाम मिला तथा चक्रवाक उस पक्षी को कहा जाता था जो अब ब्राह्मणी या भारतीय बतख भी कहलाती है।
शिशु हंस श्याव धूसर रंग का होता है जो वयस्क होने पर श्वेत हो जाता है। आख्यानों में इस परिवर्तन को वरुण के वरदान का कथात्मक रूप दे दिया गया है। कमलनाल को मराल कहते हैं। शिशुहंसों की रंग साम्यता के कारण उन्हें मराल या मरालक कहा गया। वयस्क कलहंस का रंग वैसा होने के कारण कालान्तर में दोनों में संज्ञाभेद नहीं रहा।
अमरकोश में Bar-headed goose, जिसके सिर के पश्च भाग में काले रंग की दो धारियाँ होती हैं, को कादम्ब कहा गया है। इस संज्ञा के प्रयोग में भी कालांतर में उतनी सावधानी नहीं मिलती। आज कल कलहंस को राजहंस कह दिया जाता है जो कि ठीक नहीं है।
वैष्णव भागवत में कलहंस का सुंदर वर्णन है :
पश्य प्रयान्तीरभवान्ययोषितोऽप्यलङ्कृताः कान्तसखा वरूथशः।
यासां व्रजद्भिः शितिकण्ठ मण्डितं नभो विमानैः कलहंसपाण्डुभिः॥
इस शाकाहारी पक्षी का भारत के कतिपय भागों में आखेट कर विशिष्ट खाद्य के रूप में प्रयोग होता रहा है।
(आभार : Birds in Sanskrit Literature, K N Dave)