रानी लक्ष्मीबाई की जन्मतिथि के बारे में दो मान्यतायें हैं – १९-११-१८३५ एवं १९-११-१८२८। इन दोनों में सही जन्मतिथि कौन सी है?
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।
(यजुर्वेद अध्याय ३४)
जाग्रत पुरुष का जो मन दूर जाता है, वह उसकी सुषुप्तावस्था में पुनः प्राप्त होता है। दूर जाते हुए मन तथा ज्योतिर्मय इन्द्रियों में एक ज्योति हो। ऐसा मेरा (भटकता हुआ) मन कल्याणमय विचारों से युक्त हो।
शिव-संकल्प का यह मन्त्र अनायास स्मरण नहीं हुआ। सीधे तो नहीं किन्तु प्रकारांतर से यह मन्त्र किसी ने कानों में फूंका था। १९ नवम्बर को जब देश वीरांगना लक्ष्मी बाई का जन्मदिन मना रहा था, उस महान विभूति के प्रति मन में असीम आदर लिये मैं इस विडम्बना के सम्बंध में सोच रहा था कि सुभद्रा कुमारी चौहान को अमर कर चुकी पंक्ति “खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी” के रूप में बच्चे-बच्चे की जिह्वा पर विराजमान इस वीरांगना के जन्मतिथि में ही मतभेद है और ऐसी विडंबना मात्र भारत में और भारतीय इतिहास के अनुकरणीय चरित्रों के साथ ही संभव हो सकती है। यह इसी तथ्य का सूचक है कि इतिहास को इतिहास की तरह संजोना तो हम नहीं ही सीख सके हैं, अपने इतिहास के निकट-काल के महान चरित्रों के प्रति भी हम अनुदार हैं तथा कृतघ्न हैं।
“मणिकर्णिका ताम्बे”, सुपुत्री “श्री मोरोपंत ताम्बे”, पुकार नाम “मनु” और “छबीली”, विश्रुत नाम “झांसी की रानी”, पति प्रदत्त नाम “रानी लक्ष्मी बाई नेवलेकर” धर्मपत्नी “श्री गंगाधर राव नेवलेकर”, महाराजा झांसी। मानक के रूप में जन्मतिथि है १९-११-१८३५ किन्तु एक और जन्मतिथि १९-११-१८२८ भी कही और मानी जाती है। फिर इन दोनों में सही जन्मतिथि कौन सी है? दुर्भाग्य यह है कि इसका निर्धारण करने हेतु कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।
किन्तु भारत के पास ऐसे साधन अवश्य हैं जिनसे गहन अन्धकार में भी प्रकाश की आशा की जा सकती है और ऐसे ही साधनों में से एक है “भारतीय ज्योतिष”।
प्रथम व्यवधान! ज्योतिष शास्त्र मृत व्यक्ति के जन्मांग परीक्षण का निषेध करता है। मान्यता है कि इससे ज्योतिषी की आयु क्षीण होती है। मन भटक गया। बुद्धि का साथ मिलते ही भटक गया। भटका रहा, भटकता ही रहा। फिर अचानक बुद्धि कहीं कुछ चरने चली गई। बहुधा चली जाती है, बहुतों की चली जाती है। मेरी भी चली गई। शुभ हुआ। बुद्धि का साथ छूटते ही मन ने कहा – “तू कहाँ का ज्योतिषी है भाई? यह शास्त्र-वचन ज्योतिषी के लिये है। तुझ पर यह धारा लागू ही नहीं होती। चल अपनी पाटी-खड़िया उठा और जुट जा। सीखने से आयु कम नहीं होती! और सीखने के अतिरिक्त आयु का उपयोग भी क्या है?”
द्वितीय व्यवधान! प्रारम्भ कहाँ से करें? तो इसका एक ही उत्तर हो सकता है – “प्रारम्भ से प्रारम्भ करें!” और प्रारम्भ करने हेतु एक मात्र बिन्दु था – मणिकर्णिका का उपलब्ध जन्मांग दिनांक १९-११-१८३५ समय प्रातः ५:३०, जन्म स्थान वाराणसी।
–इस प्रचलित तिथि के अनुसार जन्म लग्न तुला, लग्न में बुध, शनि और चन्द्र, द्वितीय भाव में वृश्चिक राशिगत सूर्य, शुक्र, मंगल, और केतु, अष्टम भाव में वृष राशि का राहु, नवम भाव में मिथुन राशि का वक्री गुरु। और इस जन्मांग के साथ परीक्षण करने हेतु जीवन की प्रमुख घटनायें जिनकी तिथि असंदिग्ध हो वे मात्र तीन :
१- विवाह (तिथि १९-०४-१८४२, तदनुसार चैत्र सुदी दशमी दिन गुरुवार)
२- वैधव्य तथा राज्यारोहण (तिथि २१-११-१८५३) तथा
३- मृत्यु (तिथि १८-०६-१८५८)।
इसमें भी विवाह की तिथि तो संयोग से प्राप्त हो गई, गंगाधर राव के विवाह का निमंत्रण दिख गया, अन्यथा तो बस दो घटनायें! मात्र दो घटनाओं के आधार पर जन्मांग के सत्यता का परीक्षण करने का प्रयास दुस्साहस है!
अन्य उन दो घटनाओं को सूची-बद्ध करें जिनकी तिथियाँ अनुपलब्ध या संदिग्ध हैं? वे ये रहीं :
१. चार वर्ष की अवस्था में माता की मृत्यु।
२. सन १८५१ में पुत्र-प्राप्ति तथा जन्म के चार माह के भीतर पुत्र-शोक।
बहुत कठिन है डगर पनघट की!
इस जन्म-चक्र को प्रथम-दृष्टया ही अशुद्ध घोषित कर दिया था, किन्तु वह बात कुछ और थी। यहाँ तो प्रारम्भ हेतु कोई अन्य बिंदु ही उपलब्ध नहीं है। इस जन्मांग के योगों पर विचार करें तो तुला लग्न हेतु सर्वाधिक शुभ तथा योगकारक ग्रह चतुर्थेश एवं पंचमेश शनि लग्न में उच्च का हो कर स्थित है तथा दशमेश चन्द्र तथा भाग्येश बुध के साथ युति कर रहा है। दो केंद्रों तथा दो त्रिकोणों के स्वामी लग्न में – किंबहुना योग! इससे उत्तम कुछ हो ही नहीं सकता।
फिर धनेश तथा सप्तमेश मंगल द्वितीय में स्वगृही, धनेश मंगल का आयेश सूर्य के साथ होना और लग्नेश शुक्र का भी इस युति में सम्मिलित हो जाना, स्वगृही मंगल के साथ केतु की युति जो मंगल की शक्ति को चतुर्गुणित करना – प्रखर राजयोग कारक ग्रह-स्थिति। और विशेष परिस्थिति को छोड़ दें तो सामान्यतः मंगल को तुला लग्न वालों के लिए पापी नहीं माना गया है। पुनः तुला लग्न में गुरु भी योगकारक होता है भले ही वह तृतीय तथा षष्टम का स्वामी है। मैं नहीं कह रहा, “भावार्थरत्नाकर” तथा “उत्तरकालामृत” कहते हैं–
तुला लग्ने तु जातस्य, धन-सप्तम नायकः।
न करोति कुजः पापः, निधनं तु, न संशयः।।
तुला लग्ने तु जातस्य शनिर्योगप्रदो भवेत्।
तृतीय-षष्ठनाथो अपि, गुरुर्योगप्रदो भवेत्।।
(भावार्थरत्नाकर)
और देवाधीशपुरोहितस्य सहजअंत्याधीशता सन्ततं।
रंध्राधीश्वरताष्टमस्थित: अपि स्याद योगकृत देहिनाम्।।
(उत्तरकालामृत)
अतिशयोक्ति वर्णन करना हो तो कहा जा सकता है कि इन योगों के साथ उत्पन्न जातक दीर्घायु तथा निष्कंटक राज्य भोगने वाला होगा। किन्तु रानी लक्ष्मी बाई का आयुष्य तथा राजयोग किस स्तर का रहा यह किसी से छिपा नहीं है।
सर्वप्रथम तो शरीर की ही बात करें। लग्नस्थ शनि के कारण जातिका का शरीर लंबा होना चाहिये, जो प्रचलित तथ्यों के आधार पर मिथ्या सिद्ध होता है। लक्ष्मी बाई का शरीर मझोले आकार का, रंग गोरा तथा अपूर्व लावण्ययुक्त था। शनि के लग्नस्थ होने से रंग भी अवश्य सांवला होना चाहिये, जो कि नहीं था।
जन्म के पश्चात दूसरी प्रमुख घटना है चार वर्ष की अवस्था में माता का देहावसान। तिथि निश्चित नहीं है अतः अनुमान से देखना होगा कि जातिका की चार वर्ष की अवस्था में उसकी माता को अरिष्ट है या नहीं! मातृभाव का स्वामी चतुर्थेश मंगल अत्यंत बली है और माता का कारक चन्द्रमा लग्न में योगप्रद हो कर स्थित है अतः जन्म-चक्र में ऐसी कोई संभावना नहीं दिख रही। गोचरवश एक अशुभ स्थिति बन सकती थी किन्तु शनि लग्न में है और चार वर्ष की आयु में उस स्थिति में उसके गोचर करने की कोई संभावना नहीं है। एकादश भाव पर शनि की दृष्टि पड़ सकती है, किन्तु युति नहीं हो सकती क्यों कि लग्न से एकादश भाव बहुत दूर है। शेष रहे दशावर्ष, तो उस समय राहु में सूर्य की अन्तर्दशा थी। सूर्य पिता का कारक है, पीड़ित भी है, मृत्यु होनी चाहिये ही थी तो पिता की! माता की क्यों हुई?
अगली प्रमुख घटना विवाह (तिथि १९-०४-१८४२)। गोचर की बात यहाँ नहीं, क्योंकि गोचर समर्थन कर रहा है। किन्तु गोचर तब तक फलप्रद नहीं होता जब तक दशा उस फल की पुष्टि न करे। और उस समय दशा चल रही थी राहु में चन्द्र की (१२-०४-१८४१ से १२-१०-१८४२ तक)। अब न तो चंद्रमा और न ही राहु, दोनों विवाह करा सकने में सक्षम नहीं हैं। राहु विवाह करा सकता था यदि वयस उपलब्ध हो। किन्तु वह बात भी नहीं थी। ठीक है कि सात वर्ष की अवस्था में बालिका के विवाह का तब प्रचलन था और राजाओं की तो बात ही मत करें, क्योंकि उनके विवाह मात्र गार्हस्थ–सुख हेतु नहीं राजनीति-प्रेरित भी हुआ करते थे, किन्तु वयस का तात्पर्य है रजस्वला होने के उपरान्त। सात वर्ष की बालिका के लिये यह स्थिति भी संभव नहीं, फिर इस तिथि को विवाह कैसे संभव हुआ?
अगली घटना सन १८५१ में पुत्र प्राप्ति तथा चार माह के भीतर पुत्र-शोक। पुत्र भाव का स्वामी शनि है जिसकी भावेश तथा स्थिति दोनों प्रकार से शुभता में कोई संदेह ही नहीं है। उस पर कोई पाप-प्रभाव भी नहीं है। पंचम भाव पर मंगल की दृष्टि है अवश्य, किन्तु उसका निराकरण पंचम भाव पर गुरु की अमृत-दृष्टि कर रही है। दशा १३-०९-१८५१ से १२-०५-१८५४ तक गुरु में शुक्र की। गुरु पुत्र-कारक है, तुला लग्न हेतु योगकारक है, शुक्र लग्नेश है और लग्नेश को अष्टमेश का दोष नहीं लगता तो गुरु महादशा में शुक्र की अन्तर्दशा पुत्रशोक क्यों देगी? और इसी दशाकाल में दिनांक २१-११-५३ को वैधव्य? गुरु पति का कारक भी है। कैसे संभव है?
अब अन्य घटनाओं के परीक्षण की आवश्यकता नहीं रही। इस जन्मांग से जातिका के जीवन की कोई घटना, कोई भी घटना सत्यापित नहीं होती। स्पष्टतः यह जन्मांग अशुद्ध है। अर्थात् जातिका की जन्मतिथि १९-११-१८३५ अशुद्ध है। समय की बात नहीं है, क्योंकि मणिकर्णिका का जन्म-लग्न तुला था यह सभी ज्योतिषियों द्वारा स्वीकृत है।
अब? तो अब नाड़ी ज्योतिष का सहारा लेते हुये जन्म समय में चौबीस घंटे का विचलन। क्यों? क्योंकि हो सकता है यह तिथि भारतीय पञ्चांग की तिथि से आंग्ल कैलेण्डर में परिवर्तित की गई हो और इतिहासकार महोदय को भारतीय तिथि की यह विशेषता न ज्ञात रही हो कि भारतीय ज्योतिष स्थूल रूप से तिथि परिवर्तन अगले सूर्योदय के पश्चात मानता है, न कि रात के बारह बजे! हो सकता है “कृष्ण पक्षे चतुर्दश्याम तिथौ” का स्थूल गणित किया गया हो! तो अंगरेजी तिथि को २०-११-१८३५ मान लें? किन्तु इसका अनुकरण करने पर भी ग्रह-स्थिति में आंशिक परिवर्तन है, राशि-स्थिति अपरिवर्तित है और दशायें भी क्रमशः गुरु तथा शनि की हैं जो घटनाओं का अनुमोदन नहीं करतीं, तो नहीं करतीं।
ज्योतिष की दृष्टि से रानी लक्ष्मी बाई की जन्म तिथि १९-११-१८३५ अशुद्ध सिद्ध होती है।
अब यदि मानक जन्मतिथि के अतिरिक्त १९-११-१८२८ को उसी समय ५:३० प्रातः की कुण्डली देखें तो ग्रह स्थिति इस प्रकार है – लग्न में तुला में वक्री बुध, द्वितीय भाव में वृश्चिक के सूर्य तथा गुरु, पंचम भाव में कुम्भ का मंगल, षष्ठम मीन का केतु, सप्तम में मेष का चन्द्र, दशम में कर्क राशि का वक्री शनि तथा द्वादश में कन्या राशि में नीच का शुक्र, राहु के साथ। अब इस जन्मांग के आधार पर घटनाओं का परीक्षण करें तो लग्नस्थ बुध जिसकी एक संज्ञा सौम्य भी है, रानी लक्ष्मी बाई के मझोले शरीर तथा गौर वर्ण की पुष्टि करता है। तो अब आगे विचार किया जा सकता है। साथ ही व्यय भाव में नीच का लग्नेश अल्पायु की सूचना भी देता है और वह राहु द्वारा पीड़ित भी है।
चार वर्ष की आयु में माता का देहावसान शनि के गोचर से पुष्ट होता है। शनि कर्क के १२ अंशों का है और शनि एक राशि में ढाई वर्ष रहता है अतः लगभग पंद्रह-सोलह माह में उसे गोचर वश सिंह राशि में प्रविष्ट हो जाना है जो जातिका का एकादश भाव है। गोचर वश चतुर्थेश का चतुर्थ से अष्टम में जाना चतुर्थ भाव हेतु जो माता का भाव है, अरिष्टकारक होता है। “यत् यत् भावाष्टमेशान्शे स्फुट योगगतै शनिः, तत् तत् मारकदोषेण तत् तत् निर्वाणमादिशेत्।” नाड़ी-ग्रंथों का यह आदेश कि शनि जिस भाव से अष्टम में गोचर करे उस भाव से सम्बंधित की मृत्यु कहनी चाहिये, यहाँ सटीक बैठती है। गुरु एक राशि में औसत रूप से तेरह माह रहता है अतः शनि के सिंह में जाने की स्थिति में गुरु भी धनु में प्रविष्ट हो गया और नवम दृष्टि से शनि को देखने लगा। जब तक शनि पर गुरु की दृष्टि रही तब तक अनिष्ट नहीं हुआ किन्तु गुरु के अगले राशि मकर में प्रविष्ट होते ही अशुभ घटित हो गया। गोचर से स्पष्ट हो रही इस घटना का दशा से समन्वय करें तो दशा प्राप्त होती है केतु में गुरु की। यह दशा घटना की पुष्टि नहीं करती अर्थात कुछ विचलन है।
पुनः विवाह की तिथि पर विचार करें तो गोचर में तो सप्तम भाव में लग्नेश शुक्र तथा सप्तमेश मंगल उच्च के सूर्य के साथ बैठ कर विवाह की वेदिका रच रहे हैं, किन्तु दशा से पुनः इस घटना की पुष्टि नहीं होती। किन्तु यह भी दिख रहा है कि विवाह की तिथि से सवा आठ माह पूर्व ०६-०८-१८४१ तक शुक्र में मंगल की दशा रही थी और यह दशा प्रबल रूप से यह व्यक्त करती है कि ०६-०८-१८४१ के पूर्व ही जातिका का विवाह हो जाना चाहिये था।
अर्थात विचलन तो है और ऋणात्मक विचलन है। यहाँ पूर्व में उद्धृत चौबीस घंटे का विचलन मान लें और ऐसा ही है भी, कि जन्म की तिथि शुक्ल पक्ष चतुर्दशी अगले दिन २०-११-१८२८ को प्रातः ६:२२ बजे तक रही क्योंकि २०-११-१८२८ को वाराणसी में सूर्योदय ६:२२ पर हुआ था, तो २०-११-१८२८ प्रातः ४:५५ पर जन्म, कार्तिक मास, शुक्ल पक्ष चतुर्दशी तिथि है, तथा पुनः जन्म चक्र में ग्रहों की स्थिति में मात्र आंशिक परिवर्तन हुआ है किन्तु दशा वर्ष समंजित हो जाता है क्योंकि तब दशा प्राप्त होती है शुक्र में बुध की (०४-१०-१८४० से ०४-०८-१८४३ तक) और लग्नेश में भाग्येश की अन्तर्दशा विवाहकारक होती देखी गयी है। इसी प्रकार माता के देहावसान के समय दशा प्राप्त होती है शुक्र में राहु की (०५-१२-१८३१ से ०४-१२-१८३४ तक) और जन्मांग में राहु अपनी पंचम दृष्टि से मातृभाव को पीड़ित कर रहा है अतः अपनी अन्तर्दशा में माता की मृत्यु की पुष्टि कर रहा है।
१८५१ में पुत्र प्राप्ति तथा पुत्र-शोक भी दशाओं द्वारा समर्थित है। जन्मांग में पंचम भाव में स्थित मंगल पुत्र की हानि सूचित कर ही रहा है और ०५-०८-१८५१ से ही चंद्रमा में मंगल की अन्तर्दशा थी तथा मंगल ने अपना प्रभाव दिखा दिया।
अब यदि पति की मृत्यु की तिथि पर विचार करें तो २१-११-१८५३ को गोचर इस बात की पुष्टि नहीं करता कि पति की मृत्यु होगी, किन्तु विंशोत्तरी दशा इस बात की पुष्टि अवश्य करती है रानी का राजयोग प्रकट हुआ। ०५-०९-१८५३ से ही दशमेश चन्द्र में योगकारी गुरु की अन्तर्दशा प्रारम्भ हो चुकी थी और ज्योतिष का यह साधारण सूत्र है कि जब पुत्र का राजयोग प्रकट होता है तो पिता का, या पत्नी का राजयोग प्रकट होता है तब पति का प्रबल मारकेश होता है। अवश्य ही उस समय गंगाधर राव के जन्मांग के अनुसार मारकेश की दशा रही होगी और यह इसी बात से सिद्ध है कि वे १८५३ के प्रारम्भ से ही रुग्ण चल रहे थे तथा ओषधियाँ व्यर्थ हो रही थीं। विशेष सूक्ष्मता में जाना आवश्यक नहीं प्रतीत होता।
अब यदि अंतिम घटना, स्वयं जातिका की मृत्यु की तिथि पर विचार करें तो १८-०६-१८५८ को ०५-०१-१८५८ से ही चंद्रमा में केतु की अन्तर्दशा चल रही थी। चंद्रमा स्वयं में एक लग्न है जो अन्तर्दशा में केतु द्वारा पीड़ित था तथा गोचर में व्यय भाव में बैठ कर लग्नस्थ मंगल तथा एकादश भाव स्थित केतु जो मंगल का ही प्रतिरूप है, से घिर गया था। गोचर में मंगल लग्न में बैठ कर लग्न को स्थिति द्वारा तथा लग्नेश की इतर राशि जो अष्टम अर्थात आयु के भाव में है उसको अष्टम दृष्टि द्वारा पीड़ित कर रहा था। लग्न शिर का द्योतक है तथा मंगल शस्त्र से चोट का। रानी की मृत्यु शिर में चोट लगने से ही हुई थी।
इस प्रकार ज्योतिष के आधार पर रानी लक्ष्मी बाई की जन्मतिथि १९/२० नवम्बर १८२८ अधिक उचित प्रतीत होती है।
अंत में यह विनम्र निवेदन करना है कि इस आलेख का तात्पर्य यह नहीं है कि मेरे निष्कर्ष अकाट्य सत्य हैं। इस आलेख का तात्पर्य मात्र इतना है कि जब रानी लक्ष्मी बाई जैसी वीरांगना की जन्मतिथि पर ही मतभेद हो तो ऐसी स्थिति में ज्योतिष के मूर्धन्य विद्वानों को इतिहासकारों की सहायता अवश्य करनी चाहिये क्योंकि यह उनका ही विषय है। ज्योतिष के क्षेत्र में मुझ अल्पज्ञ का यह प्रयास मात्र इस आशा से है कि ज्योतिष जैसे महान शास्त्र का उपयोग इस प्रकार भी किया जा सकता है जिससे इतिहास की कुछ घटनाओं का परीक्षण हो सके। वैसे तो सुभद्रा कुमारी चौहान लिख ही गयी हैं कि झांसी की रानी स्वयं अपनी अमिट निशानी है …
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।।