गिरिजेश जी को लेकर मुझे चलचित्र “The last Samurai” का वह सम्वाद स्मरण हो आता है।
“This sword says, I belong to the warrior in who old ways meet the new.”
गिरिजेश जी भी इसी प्रकार प्राचीन सनातन ज्ञान को उद्घाटित करते। उसे नयी दृष्टि से व्याख्यायित करते। आधुनिकतम तकनीक का उपयोग कर उसे नवोन्मेष के साथ सञ्जोने की कल्पना करने वाले ऐसे ही मनई थे। तकनीकी का उपयोग हम इस सनातन ज्ञान, विज्ञान को संरक्षित करने में कैसे कर सकते हैं इसमें उनकी गहन रुचि थी। उनका सदैव कहना रहा कि विदेशों में संस्कृत पर और भारतीय ज्ञान पर जितना काम हुआ है और हो रहा है उसका एक शतांश भी उस प्रकार से भारत में नहीं हो पा रहा है। उनका सदैव प्रयास रहा कि इस दिशा में भारत में भी शीघ्रता से कार्य हो। इसके लिए वह सदैव स्वयं से जुड़ने वालों को प्रेरित करते रहे।
एक बार उन्होंने जनसङ्ख्या के आँकड़ों के विश्लेषण के कार्य के विषय में सोशल मीडिया पर कहीं सूचना पोस्ट करी। तो मैंने उनसे सम्पर्क किया। यह हमारे कार्यों और नवोन्मेष की चर्चा की दिशा में प्रथम पग था। अनन्तर बातें करते हुए ज्ञात हुआ कि हम दोनों ही आईआईटी रुड़की (रुड़की विश्वविद्यालय) से पढ़े हैं। इस कारण वह मेरे ज्येष्ठ रहे।
वेदपाठ अध्ययन के समय हम सहपाठी हुए और लंबे समय तक लगभग प्रतिदिन ऑनलाइन मिलते रहे। यह उनका मेरे जीवन में सबसे बड़ा योगदान रहा। वेदपाठ से जो आत्मानुभूति हुई उसने जीवन की दिशा ही परिवर्तित कर दी। उसने ही सनातन तन्तु से जोड़ा और एक अलग स्तर पर चेतना दी।
मैं उनसे भागवत पुराण पढ़ते समय श्लोक के विषय में अपने संशय पूछता और वह कोई सॉफ्टवेयर या अन्य तकनीकी विषय पर चर्चा बढ़ाते। मैं उनसे गुरुकुल के विषय में पूछता और वह पुत्र के कम्प्यूटर इंजीनियरिंग पढ़ने को लेकर मेरे सुझाव माँगते। इस प्रकार हमारे वार्तालाप चलते रहे।
उन्होंने मुझ जैसे लेखन में अक्षम व्यक्ति को भी लेख लिखने को प्रेरित किया। दीपावली की शुभकामना देते हुए जब उन्हें लैस्टर की दीपावली उत्सव में नगरपालिका की भूमिका के विषय में बताया तब उन्होंने प्रेम से कहा, “इस पर मघा के लिये एक लेख लिखिये ना” तब मुझ जैसे नौसिखिये ने भी लेख भेजा।
उनके जाने से मेरी और मेरे जैसे उनके सम्पर्क में रहे अनेक मित्रों की भारी व्यक्तिगत हानि तो हुई ही है परन्तु सनातन ज्ञान परम्परा को भी इस आधुनिक ऋषि के जाने से सच में ही बड़ा आघात लगा है।