अग्निपुराण को पद्मपुराण तामस श्रेणी में रखता है। वर्तमान में उपलब्ध पाठ की गठन, व्यवस्था एवं सामग्री चयन देखते हुये यह कृत्रिम वर्गीकरण ही लगता है जो शैव पुराणों हेतु प्रयुक्त है। इस पुराण में भी वासुदेव कृष्ण केन्द्र में हैं एवं पर्याप्त समन्वयात्मक शैव वैष्णव सामग्री है। शैव सम्प्रदाय के लिये विद्वेषात्मक बात नहीं की गयी है। विषयवस्तु की दृष्टि से यह पुराण विविध तथा कोशात्मक है। इसके प्रारम्भ में जय परम्परा का ‘नारायणं नमस्कृत्व …’ श्लोक न हो कर जो है उसमें दस देवी देवताओं को नमन किया गया है– श्री, सरस्वती, गौरी, गणेश, स्कन्द, ईश्वर (शिव), ब्रह्मा, अग्नि, इन्द्र एवं वासुदेव। कथा का आरम्भ नैमिष में हरि से सम्बंधित यजन करते शौनकादि द्वारा तीर्थयात्रा पर पहुँचे सूत से इस पृच्छा से होता है कि हमें वह ‘सार का भी सार’ बताओ न, जिसके जानने मात्र से ही सर्वज्ञता की प्राप्ति हो जाती है!– सारात्सारं वदस्व न: येन विज्ञानमात्रेण सर्व्वज्ञत्वं प्रजायते।
उत्तर में सूत कहते हैं कि सारात्सार तो भगवान विष्णु हैं जो सृष्टि के रचयिता हैं। ‘वह मैं ही हूँ’, यह जान लेने पर सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है। विशिष्ट पौराणिक शैली में ही सूत बदरिकाश्रम में शुक, पैल आदि के साथ व्यास के पास पहुँचने का प्रकरण बताते हैं जिसमें व्यास सारभूत ब्रह्म के बारे में वसिष्ठ से अपने द्वारा पूछे गये प्रश्न एवं वसिष्ठ का उत्तर बताना आरम्भ करते हैं।
वसिष्ठ अग्नि द्वारा बताया गया सुनाते हैं। अत: मूलत: अग्नि द्वारा प्रोक्त होने के कारण यह पुराण अग्निपुराण या आग्नेय कहलाता है जो भुक्ति एवं मुक्ति दोनों का दायक है।
यथाग्निर्मां पुरा प्राह मुनिभिर्दैवतैः सह …. अग्निनोक्तं पुराणं यदाग्नेयं ब्रह्मसम्मितम्।
शौनक—सूत—व्यास—वसिष्ठ—अग्नि, इस क्रम से ये इस पुराण के सम्पादन चरण हैं। इस पुराण में विष्णु को कालाग्नि कहा गया है जो रुद्र रूप (धारण कर सृष्टि का अंत करते) हैं। विष्णु का सर्वोपरि होना आरम्भ में ही स्पष्ट कर दिया गया है, अग्नि स्वयं को भी विष्णुरूप कालाग्नि बताते हुये पुराण अवयव, अवतार आदि बताते हैं।
विष्णुः कालाग्निरुद्रोऽहं विद्यासारं वदामि ते।
इस पुराण का क्रम विषय प्रस्तुति आदि अत्यन्त सुनियोजित हैं। शैव श्रेणी का माना जाने वाला होने पर भी वासुदेव एवं विष्णु की महत्ता का ही मुख्यत: प्रतिपादन हुआ है।
दूसरे अध्याय से ही अवतार कथा आरम्भ हो जाती है, जिसमें पहला मत्स्य रूप है, वही प्रथम अवतार है— मत्स्यावतारं वक्ष्येऽहं वसिष्ठ शृणु वै हरेः।
मत्स्य की सींग में नाव बाँध कर अर्णव अन्तराल से बचे मनु मत्स्य से मत्स्य पुराण सुनते हैं। यहाँ यह बताया गया है कि हयग्रीव नामक दानव वेदों को हर ले गया था जिसका वध कर केशव ने वेदों का उद्धार किया एवं वाराह कल्प में हरि ने कूर्म रूप धारण किया।
शुश्राव मत्स्यात्पापघ्नं संस्तुवन् स्तुतिभिश्च तं। ब्रह्मवेदप्रहर्तारं हयग्रीवञ्च दानवं॥
अवधीत्, वेदमत्स्याद्यान् पालयामास केशवः। प्राप्ते कल्पेऽथ वाराहे कूर्मरूपोऽभवद्धरिः॥
यह जानना रोचक होगा कि मत्स्य पुराण के वर्तमान उपलब्ध पाठ में हरि का हयग्रीव रूप है ही नहीं तथा अन्य स्रोतों में विष्णु का एक अवतार भी हयग्रीव नाम से जाना जाता है जिसने ब्रह्मा को वेद प्रदान किये।
स्पष्टत: या तो मत्स्य पुराण के अब उपलब्ध पाठ से हयग्रीव प्रसंग हटा दिया गया या यह प्रसंग किसी समान्तर मत का सूचक है या मत्स्य पुराण में वास्तव में यह प्रसंग था ही नहीं।
यहाँ ध्यान देने योग्य है कि अग्नि पुराण में वर्तमान में उपलब्ध दशावतार अपने विकसित रूप में है तथा खजुराहो से ले कर श्रीरङ्गम तक के शिल्प में, वैष्णव से ले कर शाक्त मत तक में हयग्रीव अवतार की बहुत प्रतिष्ठा है। हयग्रीव के ये दो परस्पर विरोधी रूप दशावतार अवधारणा के विकास में बहुत महत्वपूर्ण हैं।
तीसरा अध्याय कूर्म अवतार को समर्पित है। सागर मंथन के समय अनाधार मन्दर पर्वत के अर्णव में बैठते जाने को थामने हेतु विष्णु कूर्म रूप धारण करते हैं, मत्स्यपुराण की भाँति पहले से ही विद्यमान नहीं हैं। मन्थन से निकले अमृत को बाँटने हेतु विष्णु मोहक स्त्री रूप धारण करते हैं।
बाँटते समय राहु प्रकरण के पश्चात स्त्री रूप का विष्णु त्याग कर देते हैं किन्तु अनुरोध पर पुन: धारण कर रुद्र को दिखाते हैं। काम मोहित शम्भु गौरी का त्याग कर स्त्री रूपी विष्णु के पीछे नग्न उन्मत्त हो कर भागते हैं तथा विष्णु को केश से पकड़ लेते हैं। विष्णु पुन: छुड़ा कर भागते हैं। उनका पीछा करते शम्भु का वीर्य स्खलित हो जहाँ जहाँ गिरता है, वहाँ वहाँ लिङ्ग एवं कनक क्षेत्र हो जाते हैं— स्खलितं तस्य वीर्यं कौ यत्र यत्र हरस्य हि। तत्र तत्राभवत्क्षेत्रं लिङ्गानां कनकस्य च, एक अन्य पाठ महातीर्थ उत्तम क्षेत्र होने का भी मिलता है। हर को विष्णु की माया का पता चलता है जिससे वह (रुद्र रूप त्याग कर) हर स्वरूप में आ जाते हैं। विष्णु उनसे कहते हैं कि आप ने मेरे माया रूप को जीत लिया, आप के सिवा इस पृथ्वी पर कोई अन्य पुरुष नहीं है जो उसे जीत सके— न जेतुमेनां शक्तो मे त्वदृतेऽन्यः पुमान् भुवि। इस प्रकरण से दो बातों का आभास होता है, पहला कि सम्पूर्ण मंथन प्रकरण कोई बहुत ही जटिल एवं संश्लिष्ट कूट है, दूसरा यह कि समन्वय के प्रयास में हर के कामग्रस्त गौरीत्यागी रूप को विष्णु के कथन द्वारा सन्तुलित किया गया है। इस प्रकरण में शङ्कर हेतु प्रयुक्त तीन नाम हर, रुद्र एवं शम्भु ध्यान देने योग्य हैं कि कहीं इनके कोई विशेष अर्थ तो नहीं व्यञ्जित हैं!
चौथा अध्याय वराह यज्ञरूप के नाम से है किन्तु इसमें वराह अवतार के पश्चात नरसिंह, वामन एवं परशुराम रूपों के भी वर्णन हैं। यहाँ पहली बार श्लोक में उद्धत क्षत्रियों का भार धरा से हटाने हेतु परशुराम अवतार नाम प्राप्त होता है—
वक्ष्ये परशुरामस्य चावतारं शृणु द्विज। उद्धतान् क्षत्रियान् मत्वा भूभारहरणाय सः॥
अवतीर्णो हरिः शान्त्यै देवविप्रादिपालकः। जमदग्ने रेणुकायां भार्गवः शस्त्रपारगः॥
दत्तात्रेय की कृपा से कार्तवीर्य अर्जुन द्वारा धरा का शासन बताया गया है— दत्तात्रेयप्रसादेन कार्त्तवीर्यो नृपस्त्वभृत्।
किन्तु दत्तात्रेय के विष्णु अवतार या अंश होने का उल्लेख नहीं है। आगे परशुराम के पिता जमदग्नि का कामधेनु का स्वामी होना, राजा का सत्कार करना, कार्तवीर्य अर्जुन द्वारा धेनु छीन लेना, परशुराम द्वारा उसका सिर काट कर धेनु को लौटा लाना, परशुराम की अनुपस्थिति में अर्जुन के पुत्रों द्वारा पिता का प्रतिशोध लेते हुये जमदग्नि का वध कर डालना, अमर्ष में पड़ कर भार्गव राम अर्थात परशुराम द्वारा इक्कीस बात पृथ्वी से क्षत्रियों का नाश करना एवं कुरुक्षेत्र के पाँच कुण्ड बना कर पिता का तर्पण करना बताया गया है।
रामे वनं गते वैरादथ रामः समागतः।
पितरं निहतं दृष्ट्वा पितृनाशाभिमर्षितः॥
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं निःक्षत्रामकरोद्विभुः।
कुरुक्षेत्रे पञ्च कुण्डान् कृत्वा सन्तर्प्य वै पितॄन्॥
मत्स्यपुराण में यह प्रकरण था ही नहीं। उसमें अर्जुन जङ्गल जलाने पर ऋषि शाप के कारण भार्गव राम द्वारा मारा जाता है।
अन्य पुराणों से तुलना करने, दत्तात्रेय की स्थिति पर ध्यान देने, पहली बार परशुराम संज्ञा का प्रयोग राम जामदग्न्य के स्थान पर होने तथा कथा का वर्तमान रूप में उपलब्ध रूप पूर्णत: विकसित होने; इन सब को समेकित रूप से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि यह अंश दशावतार एवं परशुराम कथा के पूर्णत: स्थापित हो जाने के समय की है। इसमें केवल कुण्डों में भरे रक्त से पितरों का तर्पण उल्लिखित नहीं है जो कि इसे किञ्चित ही पहले का सिद्ध करता है। उल्लेखनीय है कि इसके विकसित होने तक कुरुक्षेत्र में सरस्वती नहीं बची है, मानव निर्मित कुण्ड विशेष ध्यान देने योग्य हैं। यह इस कथा के काल के प्राचीनतम सम्भव समय का सङ्केतक है जो कि स्पष्टत: महाभारत के बहुत पश्चात की है जब कि सरस्वती का अवशेष तक नहीं बचा था। इस प्रकार परशुराम कथा के स्थापित होने के एक बहुत ही महत्वपूर्ण पड़ाव का सङ्केत अग्निपुराण देता है। कथाकारों में वसिष्ठ की उपस्थिति परोक्ष रूप से इस प्रकरण के वसिष्ठ—विश्वामित्र—नंदिनी धेनु विवाद से प्रभावित होने का एक क्षीण सङ्केत देती है।
वाल्मीकि एवं नारद को श्रोता वक्ता बना कर अग्नि के मुख से पाँचवें अध्याय से विष्णु के दाशरथि राम रूप का वर्णन आरभ होता है जिसमें रावण आदि के वध हेतु स्वयं हरि अपने चार भाग कर राजा दशरथ के चार पुत्रों के रूप में जन्म लेते हैं— रावणादेर्बधार्थाय चतुर्द्धाभूत् स्वयं हरिः। विवाहोपरान्त लौटते हुये राम द्वारा जामदग्न्य पर विजय उल्लिखित है— रामोऽगात्सवशिष्ठाद्यैर्जामदग्न्यं विजित्य च। ग्यारहवें अध्याय तक रामायण वर्णन नाम से सम्पूर्ण रामायण संक्षिप्त रूप में कही गयी है। प्रत्येक अध्याय की अन्त सूचना में रामायण के सम्बंधित काण्ड का उल्लेख है। इस प्रकार यह वर्णन रामायण का अनुसरण करता है। श्रीराम द्वारा अश्वमेध के माध्यम से अपने ही आत्मरूप वासुदेव का यजन बताया जाना— वासुदेवं स्वमात्मानमश्वमेधैरथायजत्, महत्वपूर्ण है क्यों कि इससे स्पष्ट होता है कि यहाँ पर यह कथा कृष्ण वासुदेव के अवतार मात्र नहीं, सर्वोपरि साक्षात नारायण हरि या परब्रह्म रूप में स्थापित हो जाने के पश्चात सङ्कलित की गयी है अर्थात यह अंश मध्यकाल का है।
उत्तरकाण्ड से सम्बंधित सामग्री को एक पूरा, ग्यारहवाँ अध्याय समर्पित होने से स्पष्ट हो जाता है कि यह अंश विविध क्षेपक सहित रामायण के वर्तमान उपलब्ध रूप प्राप्त कर लेने का पश्चगामी है। इससे भी अग्निपुराण के इस अंश का रचनाकाल सङ्केतित होता है कि चाहे जो हो, यह उत्तरकाण्ड के पश्चात ही रचा गया है। राम भार्गव एवं राम दाशरथि, दोनों से सम्बंधित प्रकरण इस भाग का अपेक्षतया नवीन होना सिद्ध करते हैं।
बारहवें अध्याय में कृष्ण कथा ‘हरिवंश’ नाम से आरम्भ होती है— हरिवंशम्प्रवक्ष्यामि। पृथ्वी को भार मुक्त करने हेतु वसुदेव के माध्यम से देवकी के गर्भ से— भुवो भारावतारार्थं देवक्यां वसुदेवतः, हरि ने जन्म लिया।
श्रावण (अमान्त) मास की अष्टमी को अर्द्धरात्रि में कृष्ण ने जन्म लिया। विष्णु का दिव्य रूप आयोजन यहाँ अपनी पूर्णता में उपस्थित है:
हिरण्यकशिपोः पुत्राः षड्गर्भा योगनिद्रया॥
विष्णुप्रयुक्तया नीता देवकीजठरं पुरा। अभूच्च सप्तमो गर्भो देवक्या जठराद्बलः॥
सङ्क्रामितोऽभूद्रोहिण्यां रौहिणेयस्ततो हरिः। कृष्णाष्टम्याञ्च नभसि अर्द्धरात्रे चतुर्भुजः॥
देवक्या वसुदेवेन स्तुतो बालो द्विबाहुकः।
संकर्षण कथा भी है एवं वसुदेव द्वारा कृष्ण को यशोदा के यहाँ छोड़ उनकी पुत्री का लाया जाना भी— वसुदेवः कंसभयाद्यशोदाशयने ऽनयत्॥ यशोदाबालिकां गृह्य देवकीशयने ऽनयत्।
कृष्ण को देवों का सर्वस्व बताते हुये धरा का भार हरने के लिये जन्मा बताया गया है– जातो…सर्वस्वभूतो देवानां भूभारहरणाय सः। कंस के हाथों मारे जाने से बची कन्या का देवी रूप पूर्णत: उपस्थित है, पुराणकार उनकी नाम महिमा बताना नहीं भूलता–
इत्युक्त्वा सा च शुम्भादीन् हत्वेन्द्रेण च संस्तुता।
आर्या दुर्गा वेदगर्भा अम्बिका भद्रकाल्यपि॥
भद्रा क्षेम्या क्षेमकरी नैकबाहुर्न्नमामि ताम्।
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नाम सर्वान् कामानवाप्नुयात्॥
सम्पूर्ण जगत के पालक गोपाल बन कर रहे— सर्वस्य जगतः पालौ गोपालौ तौ बभूवतुः। बाल कृष्ण के समस्त वीर कर्म उल्लखित हैं। कृष्ण शक्रोत्सव (इन्द्र का उत्सव) का परित्याग कर गोत्रयज्ञ करते हैं— शक्रोत्सवं परित्यज्य कारितो गोत्रयज्ञकः। पर्वत धारण कर शक्र की अतिवृष्टि का निवारण करते हैं जो कि किसी ऊँचे सुरक्षित स्थान, गुहा आदि में समस्त जन एवं पशुओं को ले जा कर बचाने का अलङ्कारिक लेखन है— पर्वतं धारयित्वा च शक्राद्वृष्टिर्न्निवारिता। यहाँ एक रोचक श्लोक पंक्ति है— नमस्कृतो महेन्द्रेण गोविन्दोऽथार्जुनोर्पितः, जिसके दो अर्थ किये गये हैं। एक के अनुसार महेन्द्र ने गोविन्द की स्तुति कर उन्हें मयूर (अर्जुन) पङ्ख अर्पित किया, दूसरे के अनुसार महेन्द्र ने कृष्ण को ‘गोविन्द’ उपाधि दी तथा अपने पुत्र अर्जुन को उन्हें अर्पित किया। कृष्ण के अवतारी रूप को देखते हुये दोनों अर्थ उपयुक्त प्रतीत होते हैं। शताब्दियों में पुराण वाक्यों ने किस प्रकार विविध निरूपणों के माध्यम से एकाधिक अर्थ ले लिया, यह लघु अंश एक उदाहरण है।
तदुपरान्त कृष्ण ने इन्द्रोत्सव कर उन्हें सन्तुष्ट किया— इन्द्रोत्सवस्तु तुष्टेन भूयः कृष्णेन कारितः। कंस प्रेषित अक्रूर के साथ मथुरा जाते समय अनुरक्त गोपियों का भी उल्लेख है— रथस्थो मथुराञ्चागात् कंसोक्ताक्रूरसंस्तुतः॥ गोपीभिरनुरक्ताभिः क्रीडिताभिर्न्निरीक्षितः।
कृष्ण ने अपहृत देव, यक्ष एवं गन्धर्व कन्याओं को भौम के नरक से छुड़ा उनका उद्धार किया— अ भौमं तु नरकं हत्वा तेनानीताश्च कन्यकाः॥ देवगन्धर्वयक्षाणां ता उवाच जनार्द्दनः।
शङ्कर के साथ बाणासुर युद्ध प्रसङ्ग में तार्क्ष्य गरुड़ एवं अन्य द्वारा शङ्कर के पक्ष के नंदी, विनायक, स्कन्द एवं अन्य का पराभव कर दिया जाता है– नन्दिविनायकस्कन्दमुखास्तार्क्षादिभिर्जिताः। वैष्णव शैव समन्वय के प्रति समर्पित पुराणकार आगे कहते हैं— आवयोर्न्नास्ति भेदो वै भेदी नरकमाप्नुयात्, श्रीकृष्ण ने शङ्कर जी ने कहा कि हममें कोई भेद नहीं है, जो भेद मानते करते हैं, वे नरकगामी होते हैं।
कृष्ण—रुक्मिणी सुत प्रद्युम्न से अनिरुद्ध एवं अनिरुद्ध से वज्र की उत्पत्ति हुई जिसने मार्कण्डेय से सर्व शिक्षा प्राप्त की— अनिरुद्धात्मजो वज्रो मार्क्कण्डेयात्तु सर्ववित्।
हरिवंश कथा के अन्त में बलभद्र द्वारा यमुना नदी के संकर्षण, द्विविद संहार एवं कौरवों के उन्माद नाश का उल्लेख किया गया है।
उसके पश्चात संक्षिप्त महाभारत कथा दी गयी है जिसमें कृष्ण माहात्म्य बताते हुये पाण्डवों को निमित्त बना कर विष्णु द्वारा धरा का भार हरण बताया गया है:
भारतं सम्प्रवक्ष्यामि कृष्णमाहात्म्यलक्षणम्। भूभारमहरद्विष्णुर्न्निमित्तीकृत्य पाण्डवान्॥
जिस प्रकार रामायण का अनुसरण किया गया था, उसी प्रकार कथा में आगे महाभारत का अनुसरण करते हुये संक्षिप्त रूप दिया गया है। श्रीकृष्ण की दिव्यता कौरव सभा के विश्वरूप में यथावत है— विश्वरूपन्दर्शयित्वा अधृष्यं विदुरार्च्चितः। अर्जुन मोह प्रकरण में दिव्य या विश्वरूप नहीं है:
यौधिष्ठिरी दौर्योधनी कुरुक्षेत्रं ययौ चमूः।
भीष्मद्रोणादिकान् दृष्ट्वा नायुध्यत गुरूनिति॥
पार्थं ह्युवाच भगवान्नशोच्या भीष्ममुख्यकाः।
शरीराणि विनाशीनि न शरीरी विनश्यति॥
अयमात्मा परं ब्रह्म अहं ब्रह्मस्मि विद्धि तम्।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो योगी राजधर्म्मं प्रपालय॥
कृष्णोक्तोथार्जुनोऽयुध्यद्रथस्थो वाद्यशब्दवान्।
इसमें द्रोण का अन्त धृष्टद्युम्न के शर से होना बताया गया है, न कि महाभारत की भाँति खङ्ग से:
हतोश्वत्थामा चेत्युक्ते द्रोणः शस्त्राणि चात्यजत्। धृष्टद्युम्नशराक्रान्तः पतितः स महीतले॥
दुर्योधन रण में लड़ते हुये भीम के हाथों मारा जाता है। रात में सोते समय पाण्डव पुत्रों की अश्वत्थामा द्वारा जघन्य हत्या के पश्चात अर्जुन सींक के अस्त्र से उसे पराजित कर उसके सिर की मणि निकाल द्रौपदी को दे देते हैं—
पुत्रहीनां द्रौपदीं तां रुदन्तीमर्जुनस्ततः। शिरोमणिं तु जग्राह ऐषिकास्त्रेण तस्य च॥
उत्तरा के गर्भ में पल रहे परीक्षित को अश्वत्थामा के अस्त्र के दाह से बचाने में श्रीकृष्ण का दैवी रूप यथावत है:
अश्वत्थामास्त्रनिर्द्दग्धं जीवयामास वै हरिः। उत्तरायास्ततो गर्भं स परीक्षिदभून्नृपः॥
महाभारत में जीवित बच गये ये जन हैं:
कृतवर्म्मा कृपो द्रौणिस्त्रयो मुक्तास्ततो रणात्। पाण्डवाः सात्यकिः कृष्णः सप्त मुक्ता न चापरे॥
चौदहवें अध्याय का अंत युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन से यादवों का विनाश सुन परीक्षित को राजा बना भाइयों के साथ स्वर्ग प्राप्ति कर जाने से होता है:
श्रुत्वार्जुनान्मौषलेयं यादवानाञ्च सङ्क्षयम्।
राज्ये परीक्षितं स्थाप्य सानुजः स्वर्गमाप्तवान्॥
पंद्रहवें अध्याय में यदुवंश के नाश एवं पाण्डव स्वर्गारोहण को विस्तार से बताया गया है जो कि स्पष्टत: परवर्ती योग है। इसमें विष्णु के श्रीकृष्ण रूप के उद्देश्य को रेखाङ्कित किया गया है जो कि दुहराव है:
एवं विष्णुर्भुवो भारमहरद्दानवादिकम्॥ धर्म्मायाधर्मनाशाय निमित्तीकृत्य पाण्डवान्।
श्रीहरि के देह त्याग के पश्चात उनकी पत्नियों (विष्णु भार्या संज्ञा प्रयुक्त) को ले कर लौटते अर्जुन का गदाधारी ग्वालों द्वारा पराभव उल्लिखित है, साथ ही उस घटना का कारण अष्टावक्र का शाप बताया गया है जो कि पुरातन काल में अप्सराओं द्वारा अष्टावक्र से हरि को पति रूप में पाने के वरदान एवं पुन: उनकी विकृत देह पर हास्य करने के कारण शाप की कथा का सङ्केत है:
स विप्रशापव्याजेन मुषलेनाहरत् कुलम्॥
यादवानां भारकरं वज्रं राज्येभ्यषेचयत्। देवादेशात् प्रभासे स देहं त्यक्त्वा स्वयं हरिः॥
…
स्त्रियोष्टावक्रशापेन भार्य्या विष्णोश्च याः स्थिताः॥
पुनस्तच्छापतो नीता गोपालैर्लगुडायुधैः। अर्जुनं हि तिरस्कृत्य पार्थः शोकञ्चकार ह॥
सोलहवें अध्याय में बुद्ध एवं कल्कि अवतार कथायें हैं। मात्र 13—14 श्लोकों में दोनों अवतार वर्णित हैं जो निम्न हैं:
अग्निरुवाच।
वक्ष्ये बुद्धावतारञ्च पठतः शृण्वतोर्थदम्। पुरा देवासुरे युद्धे दैत्यैर्द्देवाः पराजिताः॥
रक्ष रक्षेति शरणं वदन्तो जग्मुरीश्वरम्। मायमोहस्वरुपोसौ शुद्धोदनसुतोऽभवत्॥
मोहयामास दैत्यांस्तांस्त्याजिता वेदधर्मकम्। ते च बौद्धा बभूवुर्हि तेभ्योन्ये वेदवर्जिताः॥
आर्हतः सोऽभवत् पश्चादार्हतानकरोत् परान्। एवं पाषण्डिनो जाता वेदधर्म्मादिवर्जिताः॥
नरकार्हं कर्म चक्रुर्ग्रहीष्यन्त्यधमादपि। सर्वे कलियुगान्ते तु भविष्यन्ति च सङ्कराः॥
दस्यवः शीलहीनाश्च वेदो वाजसनेयकः। दश पञ्च च शाखा वै प्रमाणेन भविष्यति॥
धर्म्मकञ्चुकसंवीता अधर्मरुचयस्तथा। मानुषान् भक्षयिष्यन्ति म्लेच्छाः पार्थिवरूपिणः॥
कल्की विष्णुयशःपुत्रो याज्ञवल्क्यपुरोहितः। उत्सादयिष्यति म्लेच्छान् गृहीतास्त्रः कृतायुधः॥
स्थापयिष्यति मर्यादां चातुर्वर्ण्ये यथोचिताम्। आश्रमेषु च सर्वेषु प्रजाः सद्धर्मवर्त्मनि॥
कल्किरूपं परित्यज्य हरिः स्वर्गं गमिष्यति। ततः कृतयुगन्नाम पुरावत् सम्भविष्यति॥
वर्णाश्रमाश्च धर्मेषु स्वेषु स्थास्यन्ति सत्तम। एवं सर्वेषु कल्पेषु सर्वमन्वन्तरेषु च॥
अवतारा असङ्ख्याता अतीतानागतादयः। विष्णोर्द्दशावताराख्यान् यः पठेत् शृणुयान्नरः॥
सोवाप्तकामो विमलः सकुलः स्वर्गमाप्नुयात्। धर्म्माधर्म्मव्यवस्थानमेवं वै कुरुते हरिः।
अवतीर्णञ्च स गतः सर्गादेः कारणं हरिः॥
मत्स्यपुराण आधारित लेख में हम देख चुके हैं कि किस प्रकार शाक्य सिद्धार्थ गौतम बुद्ध की अवतार रूप में स्वीकार्यता को ले कर दुविधा की स्थिति रही जिसका कि एक उपाय यह निकाला गया कि बौद्ध परम्परा भी अनेक बुद्धों की बातें करती है तथा अवतारी बुद्ध इस बुद्ध से पहले हुये। इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया जाता है कि उस कथित बुद्ध की आराधना क्यों नहीं प्रचलित है जब कि वे सबसे नये अवतार हैं, कृष्ण से भी अनुवर्ती? अनेक बुद्ध होने या महान विभूतियों के अनेक जन्म गिनाने की रूढ़ि भारत में सभी प्रमुख मतों में रही जिसका कि कोई विशेष ऐतिहासिक महत्व नहीं है। वास्तविकता दुविधा वाली ही है।
अग्नि पुराण में हम देखते आ रहे हैं कि दशावतार सङ्कलपना आज के पूर्ण विकसित रूप से किञ्चित ही पहले की है। यह अंश भी उसी तारतम्य में तो है ही, आगे के विकास का भी सङ्केतक है जिससे गौतम बुद्ध एवं पौराणिक बुद्ध का ऐक्य सिद्ध होने लगता है।
युद्ध में दैत्यों से देव पराजित हो विष्णु के पास जाते हैं जो माया मोह रूप में शुद्धोदन के पुत्र हो जन्म लेते हैं। उनके मोह माया में पड़ कर दैत्य वेदधर्म का त्याग कर देते हैं एवं वही बौद्ध होते हैं जिनसे अन्य वेदमार्ग विरोधी होते हैं। विष्णु ही आगे आर्हत रूप धारण कर लेते हैं जिनसे अन्य आर्हत, पाखण्डी, वेदमार्ग विरोधी होते हैं। इसके आगे की कथा विशिष्ट पौराणिक कलेवर में भविष्यत काल में कही गयी है कि कलियुग के अंत में सब सङ्कर, दस्यु, शीलहीन हो जायेंगे इत्यादि।
बौद्ध, आर्हत एवं वेदविवर्जित शब्द स्पष्ट कर देते हैं कि बौद्ध एवं जैन मत ही सङ्केतित हैं। बुद्ध एवं जिन परम्परा पुरुष का स्वीकार तो है किन्तु विकृत रूप में। अवतार मान कर भी बुद्ध के अनुयायियों का विकृत निरूपण चातुर्य सहित भी है।
एक महत्वपूर्ण बात वेदों में वाजसनेयक एवं शाखाओं में मात्र पंद्रह के प्रमाण रह जाने की है। वाजसनेयी संहिता शुक्ल यजुर्वेद की है जिसकी आज केवल दो शाखायें बची हैं। मत्स्य पुराण एवं हरिवंश में भी जनमेजय से सम्बन्धित एक प्रकरण आता है जिसमें वह यज्ञ हेतु वाजसनेय पद्धति को अपनाने के कारण वैशम्पायन (कृष्ण यजुर्वेदी) द्वारा शापित होते हैं। ब्राह्मण एवं क्षत्रियों में इस विवाद के कारण दल बन गये। शाप पश्चात भी जनमेजय ने महावाजसनेयक यज्ञ का आयोजन किया जिसमें हुये विवाद के कारण शापित हो अन्तत: उन्होंने राज्य त्याग संन्यास ले लिया। वैशम्पायन का शाप यह था कि जब तक तुम रहोगे तब तक ही यह पद्धति रहेगी जो कि असत्य सिद्ध हुआ। वाजसनेयी संहिता आज भी है तथा उत्तर भारत में शाखा अनुसार देखें तो सर्वाधिक वाजसनेयी ही मिलेंगे।
अग्निपुराण का यह अंश वैशम्पायन समर्थकों द्वारा सम्पादित प्रतीत होता है जिसमें कि विरोधी वेदमार्गी वाजसनेयकों को बौद्धों की भाँति ही पतन चिह्नों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह अंश दर्शाता है कि जब वेदमार्गियों के साथ पुराणकार इतने ‘उदार’ रहे तो वेदविवर्जितों के वर्णन में कितने रहे होंगे ! वाजसनेयी संहिता के प्रसार को परोक्षत: कलिकाल का चिह्न मानना इस पुराण की निजी नवीन स्थापना है।
विष्णुयश पुत्र कल्कि के रूप में कलियुग के अन्त में हरि म्लेच्छों का संहार कर आश्रम, वर्ण एवं वेद मर्यादा स्थापित करेंगे। अन्त में भूत एवं भविष्य के असंख्य अवतारों की बात कर दृष्टि को पसार दिया गया है तथा विष्णुदशावतार आख्यान के श्रवण की फलश्रुति भी दी गई है जो कि इस अंश के दशावतार सङ्कल्पना के प्रौढ़ हो स्थापित हो जाने के पश्चात की रचना होने का प्रमाण भी है।
सृष्टिविषयक वर्णन अन्य पुराणों की भाँति ही है जिसमें विष्णु की प्रधानता दर्शाई गयी है—
अग्निरुवाच्च।
जगत्सर्गादिकां क्रीडां विष्णोर्वक्ष्येधुना शृणु। सर्गादिकृत् स सर्गादिः सृष्ट्यादिः सगुणोगुणः॥
ब्रह्माव्यक्तं सदाग्रे ऽभूत् न खं रात्रिदिनादिकं। प्रकृतिं पुरुषं विष्णुः प्रविश्याक्षोभयत्ततः॥
पच्चीसवें अध्याय में चतुर्व्यूह निरूपण में वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न, सङ्कर्षण के साथ नारायण, ब्रह्मा, विष्णु, नरसिंह एवं वराह को मिला कर नौ मंत्रराज बताये गये हैं। यह दशावतार के विकास पूर्व की स्थिति हो सकती है। उल्लेखनीय है कि कभी नरसिंह एवं वराह की आराधना बहुव्यापी थी जिसके अवशेष आज भी मिलते हैं। एक प्रश्न सहज ही उठता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि दशावतार रूप विविध कालखण्डों में सर्वाधिक पूजित विष्णु रूपों को स्मृति स्थिर करने का एक सावधान उपक्रम है?
एकतीसवें अध्याय के अपामार्जन विधान में वराह, नृसिंह, वामन, त्रिविक्रम, राम, वैकुण्ठ एवं नर के साथ साथ हयग्रीव भी हैं। श्रीकृष्ण वासुदेव अपने पूर्ण विकसित रूप में हैं ही।
बयालिसवें अध्याय में हयग्रीव प्रासाद लक्षण बताते हैं। गर्भगृह में ऊपर आठ कोणों पर आठ अवतार प्रतिमाओं की स्थापना करने का निर्देश है:
पूर्वे वराहं दक्षे च नृसिंहं श्रीधरं जले। उत्तरे तु हयग्रीवनाग्नेय्यां जामदग्न्यकं॥
नैॠत्यां रामकं वायौ वामनं वासुदेवकं। ईशे प्रासादरचना देया वस्वर्ककादिभिः।
इसमें एक नया नाम श्रीधर है जो कि दक्षिण भारत में प्रचलित है। शिल्प सम्बंधित अंशों का योग इस पुराण में दक्षिण में हुआ प्रतीत होता है जिसमें कि वैष्णव मतावलम्बियों की प्रधानता रही होगी। निर्माता को स्वयं को विष्णु भाव से, शिल्पी को विश्वकर्मा भाव से एवं तक्षण शस्त्रों को भी विष्णु भाव से मानना एवं देखना चाहिये— आत्मानं चिन्तयेद्विष्णुं शिल्पिनं विश्वकर्म्मकं, शस्त्रं विष्ण्वात्मकं …।
शालग्राम मूर्ति प्रकारों में वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण, परमेष्टि, विष्णु, नृसिंह, वराह, कूर्म, हयग्रीव, वैकुण्ठ, मत्स्य, श्रीधर, वामन, त्रिविक्रम, अनन्त, दामोदर, सुदर्शन, लक्ष्मीनारायण, अच्युत, जनार्दन, पुरुषोत्तम, नवव्यूह, दशावतार एवं द्वादशात्मा बताये गये हैं। इन सब पर वैष्णव तंत्र का प्रभाव लगता है। विष्णु की चौबिस मूर्तियों में दशावतार के केवल वासुदेव कृष्ण, वामन एवं नृसिंह हैं तथा वासुदेव को आदि बताया गया है:
आदिमूर्त्तिर्वासुदेवस्तस्मात् सङ्कर्षणोभवत्। सङ्कर्षणाच्च प्रद्युम्नः प्रद्युम्नादनिरुद्धकः॥
यादवों की चतुर्व्यूह सात्वत परम्परा से यह क्षेत्रीय विस्तार है जिसका दशावतार से सम्बंध नहीं है। बारह श्लोकों के प्रथम अक्षर मिलाने से ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय‘ मन्त्र प्राप्त हो जाता है।
उनचासवें अध्याय में विविध अवतार मूर्तियों के लक्षण बताये गये हैं जिनमें पहले दशावतार एवं उसके पश्चात वासुदेव सहित नौ रूप हैं। इस खण्ड से दशावतार के समान्तर अन्य विष्णु उपासना पद्धतियों का होना पूर्णत: सिद्ध हो जाता है — मत्स्यादिलक्षणवर्णनम्।
भगवानुवाच।
दशावतारं मत्स्यादिलक्षणं प्रवदामि ते। मत्स्याकारस्तु मत्स्यः स्यात् कूर्म्मः कूर्म्माकृलिर्भवेत्॥
नराङ्गो वाथ कर्त्तव्यो भूवराहो गदादिभृत्। दक्षिणे वामके शङ्खं लक्ष्मीर्वा पद्ममेव वा॥
श्रीर्वामकूर्प्परस्था तु क्ष्मानन्तौ चरणानुगौ। वराहस्थापनाद्राज्यं भवाब्धितरणं भवेत्॥
नरसिंहो विवृत्तास्यो वामोरुक्षतदानवः । तद्वक्षो दारयन्माली स्फुरच्चक्रगदाधरः॥
छत्री दण्डी वामनः स्यादथवा स्याच्चतुर्भुजः। रामश्चापेषुहस्तः स्यात् कड्गी परशुनान्वितः॥
रामश्चापी शरी खड्गी शङ्खी वा द्विभुजः स्मृतः। गदालाङ्गलधारी च रामो वाथ चतुर्भुजः॥
वामोर्द्ध्वे लाङ्गलं दद्यादधः शङ्खं सुशोभनं। मुषलं दक्षिणोर्द्ध्वे तु चक्रञ्चाधः सुशोभनं॥
शान्तात्मा लम्बकर्णश्च गौराङ्गश्चाम्बरावृतः। ऊर्द्ध्वपद्मस्थितो बुद्धो वरदाभयदायकः॥
धनुस्तूणान्वितः कल्की म्लेच्छोत्सादकरो द्विजः। अथवाश्वस्थितः खड्गी शङ्खचक्रशरान्वितः॥
लक्षणं वासुदेवादिनवकस्य वदामि ते। दक्षिणोर्द्ध्वे गदा वामे वामोर्द्ध्वे चक्रमुत्तमं॥
ब्रह्मेशौ पार्श्वगौ नित्यं वासुदेवोस्ति पूर्ववत्। शङ्खी स वरदो वाथ द्विभुजो वा चतुर्भुजः॥
लाङ्गली मुषली रामो गदापद्मधरः स्मृतः। प्रद्युम्नो दक्षिणे वज्रं शङ्खं वामे धनुः करे॥
गदानाभ्यावृतः ग्रीत्या प्रद्युम्नो वा धनुःशरी। चतुर्भुजोनिरुद्धः स्यात्तथा नारायणो विभुः॥
चतुर्मुखश्चतुर्ब्बाहुर्व्वृहज्जठरमण्डलः। लम्बकूर्च्चो जटायुक्तो व्रह्मा हंसाग्रवाहनः॥
दक्षिणे चाक्षसूत्रञ्च स्रुवो वामे तु कुण्डिका। आज्यस्थाली सरस्वती सावित्री वामदक्षिणे॥
विष्णुरष्टभुजस्तार्क्षे करे खड्गस्तु दक्षिणे। गदाशरश्च वरदो वामे कार्मुकखेटके॥
चक्रशङ्खौ चतुर्बाहुर्न्नरसिंहश्चतुर्भुजः। शङ्खचक्रधरो वापि विदारितमहासुरः॥
चतुर्बाहुर्वराहस्तु शेषः पाणितले धृतः। धारयन् बाहुना पृथ्वीं वामेन कमलाधरः॥
पादलग्ना धरा कार्य्या पदा लक्ष्मीर्व्यवस्थिता। त्रैलोक्यमोहनस्तार्क्ष्ये अष्टबाहुस्तु दक्षिणे॥
चक्रं खड्गं च मुषलं अङ्कुशं वामके करे। शङ्खशार्ङ्गगदापाशान् पद्मवीणासमन्विते॥
लक्ष्मीः सरस्वती कार्य्ये विश्वरूपोऽथदक्षिणे। मुद्गरं च तथा पाशं शक्तिशूलं शरं करे॥
वामे शङ्खञ्च शार्ङ्गञ्च गदां पाशं च तोमरं। लाङ्गलं परशुं दण्डं छुरिकां चर्म्मक्षेपणं॥
विंशद्बाहुश्चतुर्व्वक्त्रो दक्षिणस्थोथ वामके। त्रिनेत्रे वामपार्श्वे न शयितो जलशाय्यपि॥
श्रिया धृतैकचरणो विमलाद्याभिरीडितः। नाभिपद्मचतुर्व्वक्त्रो हरिशङ्करको हरिः॥
शूलर्ष्टिधारी दक्षे च गदाचक्रधरो पदे। रुद्रकेशवलक्ष्माङ्गो गौरी लक्ष्मीसमन्वितः॥
शङ्खचक्रगदावेदपाणिश्चाश्वशिरा हरिः। वामपादो धृतः शेषे दक्षिणः कूर्म्मपृष्ठगः॥
दत्तात्रेयो द्विबाहुः स्याद्वामोत्सङ्गे श्रिया सह। विश्वक्सेनश्चक्रगदी हली शङ्खी हरेर्गणः॥
उल्लेखनीय है कि इस सूची में बुद्ध तो हैं किन्तु कृष्ण के स्थान पर (बल)राम हैं तथा परशुराम के स्थान पर केवल राम शब्द प्रयुक्त हुआ है। तीन ‘राम’ नामों के अभिजान में किसी भी प्रकार का सङ्कट नहीं विचारा गया है क्यों कि यह दशावतार स्थापना के उस प्रौढ़ काल का है जब सब सुनिश्चित हो गया था एवं साम्प्रदायिक मान्यता भेद से बलराम तथा कृष्ण में से किसी एक को रखा जा सकता था।
नौ रूपों की दूसरी सूची में पहली के बलराम, वराह, नृसिंह एवं त्रैलोक्यमोहन वामन उपस्थित हैं। अश्वशिर (हयग्रीव) एवं दत्तात्रेय, दो अन्य नाम हैं जो अन्य पुराणों की दशावतार सूचियों में उपस्थित रहे हैं। उल्लेखनीय है कि दूसरी सूची में अन्य रूप भी हैं एवं नौ नाम चुनना तब तक सम्भव नहीं जब तक कि विविध अवतार धाराओं से परिचय न हो। यह तथ्य भी इस बात की पुष्टि करता है कि इस अंश तक अनेक वैष्णव पद्धतियाँ सुस्थापित हो चुकी थीं एवं उनमें प्रचलित अवतार रूपों को लेकर कोई भीतरी द्वैध नहीं था। उभयनिष्ठ नामों एवं हयग्रीव तथा दत्तात्रेय अवतारों का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि वे प्राचीनतम हैं अर्थात किसी समय एक ही सोते से कई धारायें फूटीं तथा स्वतन्त्र विकसित हुईं जिनमें पुरातन स्मृति सुरक्षित रही। वैष्णव तन्त्र एवं नारायणीय पाञ्चरात्र का प्रभाव भी है जो कि एक बहुत ही प्राचीन मत है। हरिहर एवं रुद्रकेशव रूप इस कारण से ध्यातव्य हैं कि शैव एवं वैष्णव मतों में समन्वयात्मक दृष्टि के मूल में तन्त्र मार्ग रहा होगा।
दो सौ तिहत्तरवें अध्याय सूर्यवंश वर्णन में दशरथ के चारो पुत्रों को नारायण अंश बताया गया है जिनमें राम ज्येष्ठ थे–
तथदशरथोजातस्तस्यपुत्रचतुष्टयम्। नारायणात्मकाः सर्वेरामस्तस्याग्रजोऽभवत्॥
दो सौ चौहत्तरवें अध्याय में कार्तवीर्य अर्जुन के तप से प्रसन्न हो कर दत्तात्रेय द्वारा उन्हें सात द्वीपों की मही, सजर भुजायें एवं रण में अजेयता का वर देना उल्लिखित है किन्तु यह भी कि अधर्म में रत होने पर विष्णु के हाथों से मृत्यु निश्चित है— अधर्म्मे वर्त्तमानस्य विष्णुहस्तान्मृतिर्ध्रुवा। यह भार्गव राम द्वारा अर्जुन के वध से सम्बंधित प्रकरण को इङ्गित करता है। यद्यपि यह बहुत ही संक्षिप्त उल्लेख है किन्तु अर्जुन द्वारा ऋषि जमदग्नि का वध एक बहुत महत्वपूर्ण घटना थी जिसके बारे में यहाँ भी मौन है। राम जामदग्न्य प्रतिशोधी पुत्र न हो कर, धर्म रक्षक के रूप में उल्लिखित हैं, अन्य पुराणों में तो उनका प्रतिशोध बर्बरता की सीमा को पार गया है।
दो सौ पचहत्तरवें अध्याय में बारह (देवासुर) सङ्ग्राम वर्ण्य विषय हैं। इस अध्याय में श्रीकृष्ण स्पष्टत: अवतार हैं— धर्म्मसंरक्षणार्थाय ह्यधर्म्महरणाय च। जाओ मनुष्यों के लिये बाधक थे, उनके नाश एवं कर्म व्यवस्था को स्थापित करने हेतु हरि ने मनुष्य योनि में जन्म लिया।
मनुष्ये बाधका ये तु तन्नाशाय बभूव सः। कर्त्तुं कर्मव्यवस्थानं मनुष्यो जायते हरिः॥
दायभाग हेतु बारह देवासुर सङ्ग्राम हुये जिनमें प्रथम में विष्णु ने नरसिंह एवं दूसरे में वामन रूप से भाग लिया। फेन रूप में इन्द्र के वज्र पर सवार हो वृत्र का वध एक बहुत ही प्राचीन रूपक है जो यहाँ उल्लिखित है।
देवासुराणां सङ्ग्रामा दायार्थं द्वादशाभवन्। प्रथमो नारसिंहस्तु द्वितीयो वामनो रणः॥
सङ्ग्रामस्त्वथ वाराहश्चतुर्थो ऽमृतमन्थनः। तारकामयसङ्ग्रामः षष्ठो ह्याजीवको रणः॥
त्रैपुरश्चान्धकबधो नवमो वृत्रघातकः। जितो हालाहलश्चाथ घोरः कोलाहलो रणः॥
हिरण्यकशिपोश्चोरो विदार्य्य च नखैः पुरा। नारसिंहो देवपालः प्रह्नादं कृतवान् नृपम्॥
देवासुरे वामनश्च छलित्वा बलिमूर्ज्जितम्। महेन्द्राय ददौ राज्यं काश्यपोऽदितिसम्भवः॥
वराहस्तु हिरण्याक्षं हत्वा देवानपालयत्। उज्जहार भुवं मग्नां देवदेवैरभिष्टुतः॥
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा तु वासुकिम्। सुरासुरैश्च मथितं देवेभ्यश्चामृतं ददौ॥
तारकामयसङ्ग्रामे तदा देवाश्च पालिताः। निवार्य्येन्द्रं गुरून् देवान् दानवान्सोमवंशकृतम्॥
विश्वामित्रवशिष्ठात्रिकवयश्च रणे सुरान्। अपालयन्ते निर्वार्य्य रागद्वेषादिदानवान्॥
पृथ्वीरथे ब्रह्मयन्तुरीशस्य शरणो हरिः। ददाह त्रिपुरं देवपालको दैत्यमर्दनः॥
गौरीं जिहीर्षुणा रुद्रमन्धकेनार्दितं हरिः। अनुरक्तश्च रेवत्यां चक्रेचान्धासुरार्दनम्॥
अपां फेनमयो भूत्वा देवासुररणे हरन्। वृत्रं देवहरं विष्णुर्देवधर्म्मानपालयत्॥
परशुराम संज्ञा यहाँ दूसरी बार प्रयुक्त हुई है जिसमें शाल्वादि दानवों एवं दुष्ट क्षत्रियों का नाश उनके द्वारा बताया गया है किन्तु न तो जमदग्नि वध प्रकरण है, न अर्जुन वध का:
शाल्वादीन् दानवान् जित्वा हरिः परशुरामकः। अपालयत् सुरादींश्च दुष्टक्षत्रं निहत्य च॥
मधु हन्ता विष्णु ने महेश्वर द्वारा हालाहल विष का निराकरण करा देवों का भय दूर किया:
हालाहलं विषं दैत्यं निराकृत्य महेश्वरात्। भयं निर्णाशयामास देवानां मधुसूदनः॥
कोलाहल नामक दैत्य को जीत कर उन्हों ने धर्मपालन द्वारा समस्त सुरों की रक्षा की:
देवासुरे रणे यश्च दैत्यः कोलाहलो जितः। पालिताश्च सुराः सर्व्वे विष्णुना धर्म्मपालनात्॥
अधर्मियों के नाश एवं धर्ममार्गियों के संरक्षण का व्यापक विष्णु भाव इस अंश में अभिव्यक्त हुआ है। राजा के विष्णु रूप से यह पुराण आगे बढ़ता है एवं विविध अवतारों की संख्याओं का मानों उपसंहार प्रस्तुत करता है:
राजानो राजपुत्राश्च मुनयो देवता हरिः। यदुक्तं यच्च नैवोक्तमवतारा हरेरिमे॥
राजा, राजपूत, मुनि एवं देवता; हरि के रूप हैं। जिनका नाम बताया एवं जिनका नहीं बताया, वे समस्त हरि के अवतार हैं।
विष्णु के अवतारों को किसी संख्या सीमा में न बाँध कर विराट रूप देना इस पुराण की विशेषता है।
विष्णु के पचपन नामों द्वारा समस्त भारत का भूगोल हरि के विविध रूपों द्वारा अभिव्याप्त कर दिया गया है जो कि इस पुराण की बहुत ही प्रौढ़ एवं परिपक्व सर्जना का द्योतक है, साथ ही शैव मत के साथ समन्वय की धारा भी प्रवाहमान है – प्रत्येक प्रत्येक वटवृक्ष कुबेर, प्रत्येक चतुष्पथ शिव, प्रत्येक पर्वत राम एवं सर्वत्र मधुसूदन। यह एक बहुत ही सशक्त पुराण स्थापना है जिसने वर्तमान हिन्दू मनीषा को गढ़ने में महत् योगदान किया:
जपन् वै पञ्चपञ्चाशद्विष्णुनामानि यो नरः। मन्त्रजप्यादिफलभाक् तीर्थेष्वर्चादि चाक्षयम्॥
पुष्करे पुण्डरीकाक्षं गयायाञ्च गदाधरम्। राघवञ्चित्रकूटे तु प्रभासे दैत्यसूदनम्॥
जयं जयन्त्यां तद्वच्च जयन्तं हस्तिनापुरे। वाराहं वर्द्धमाने च काश्मीरे चक्रपाणिनम्॥
जनार्द्दनञ्च कुब्जाम्रे मथुरायाञ्च केशवम्। कुब्जाम्रके हृषीकेशं गङ्गाद्वारे जटाधरम्॥
शालग्रामे महायोगं हरिं गोबर्द्धनाचले। पिण्डारके चतुर्व्वाहुं शङ्खोद्धारे च शङ्खिनम्॥
वामनञ्च कुरुक्षेत्रे यमुनायां त्रिविक्रमम्। विश्वेश्वरं तथा शोणे कपिलं पूर्व्वसागरे॥
विष्णुं महोदधौ विद्याद्गङ्गासागरसङ्गमे। वनमालञ्च किष्किन्ध्यां देवं रैवतकं विदुः॥
काशीतटे महायोगं विरजायां रिपुञ्जयम्। विशाखयूपे ह्यजितन्नेपाले लोकभावनम्॥
द्वारकायां विद्धि कृष्णं मन्दरे मधुसूदनम्। लोकाकुले रिपुहरं शालग्रामे हरिं स्मरेत्॥
पुरुषं पूरुषवटे विमले च जगत्प्रभुं। अनन्तं सैन्धवारण्ये दण्डके शार्ङ्गधारिणम्॥
उत्पलावर्त्तके शौरीं नर्म्मदायां श्रियः पतिं। दामोदरं रैवतके नन्दायां जलशायिनं॥
गोपीश्वरञ्च सिन्ध्वव्धौ माहेन्द्रे चाच्युतं विटुः। सहाद्रौ देवदेवेशं वैकुण्ठं मागधे वने॥
सर्व्वपापहरं विन्ध्ये औड्रे तु पुरुषोत्तमम्। आत्मानं हृदये विद्धि जपतां भुक्तिमुक्तिदम्॥
वटे वटे वैश्रवणं चत्वरे चत्वरे शिवम्। पर्व्वते पर्व्वते रामं सर्व्वत्र मधुसूदनं॥
नरं भूमौ तथा व्योम्नि वशिष्ठे गरुड़ध्वजम्। वासुदेवञ्च सर्व्वत्र संस्मरन् भुक्तिमुक्तिभाक्॥
नामान्येतानि विष्णीश्च जप्त्वा सर्वमवाप्नुयात्। क्षेत्रेष्वेतेषु यत् श्राद्धं दानं जप्यञ्च तर्पणम्॥
तत्सर्व्वं कोटिगुणितं मृतो ब्रह्ममयो भवेत्। यः पठेत् शृणुयाद्वापि निर्म्मलः स्वर्गमाप्नुयात्॥
(चित्र आभार गीताप्रेस)