वैदिक साहित्य
चेतना के स्तर अनुसार वेदों के मंत्र अपने कई अर्थ खोलते हैं। कतिपय विद्वानों की मान्यता है कि किसी श्रुति के छ: तक अर्थ भी किये जा सकते हैं – सोम चन्द्र भी है, वनस्पति भी है, सहस्रार से झरता प्रवाह भी। वेदों के कुछ मंत्र अतीव साहित्यिकता लिये हुये हैं। इस शृंखला में हम कुछ मंत्रों के भावानुवाद प्रस्तुत करेंगे।
शृंगार
उत्तुदस्त्वोत् तुदतु मा धृथा शयने श्वे, इषुः,
कामस्य या भीमा तया विध्यामि त्वा हृदि।।
आधीपर्णा काम शल्यमिषुम् सं कल्प कुल्मलां,
तां सुंसवतां कृत्वा कामो विध्यतु त्वा हृदि ।।
या प्लीहानं शोषयति कामस्येषुः सुखन्नता,
प्राचीन पक्षा व्योषा तथा विध्यामि त्वा हृदि।।
शुचा विद्वा व्योषया शुष्कास्यामि सर्प मा,
मदुर्निमन्युः केवली प्रियवादिन्नुव्रताः ।।
(अथर्ववेद, ३/२५/१,२,३,४)
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भावानुवाद
उठ बैठ प्रिये! सोती मत रह! उठ जाग, तेरा प्रेमी आया !!
तेरे उर को बेधने हेतु, मैं काम – बाण लेकर आया !!
हैं नोक कामना के इसके, संकल्पों के हैं कुल्मल-पर।
इस काम – बाण की तीक्ष्ण धार से बींधूं मैं तेरा अंतर।।
दिल जले, कलेजा सूख जाय, ऐसा यह बाण पुराना है।
फिर भी घायल होने को मन तरसे, यह सबने माना है।।
तूँ अपना अंतर बिंधने दे! हे प्रियभाषिणि! हे हे शुचिता!
मेरा मन रख ले आज प्रिये! उठ! आ! मेरी बाहों में आ!!
अनुवाद: श्री त्रिलोचन नाथ तिवारी
आनन्द दायक है.