जम्मू-कश्मीर के विधान को व्यवस्थित एवं कालानुक्रमिक रूप से समझने हेतु हमें वाद-विवाद से किञ्चित हटकर समस्त निम्न प्रलेखों एवं उनसे सम्बंधित राजनैतिक घटनाक्रम के विषय में जानना अपरिहार्य है :
(१) अमृतसर संधि, १८४६;
(२) संविधान अधिनियम, १९३४;
(३) जम्मू और कश्मीर विलय पत्र/परिग्रहण पत्र (Instrument of Accession of Jammu & Kashmir), १९४७;
(४) भारत का संविधान- अनुच्छेद १, ५-११, ३७०;
संविधान (जम्मू-कश्मीर पर लागू होना) आदेश, १९५०
संविधान (जम्मू-कश्मीर पर लागू होना) आदेश, १९५४
अनुसूची १२, परिशिष्ट १, अनुच्छेद ३५क (35A)
(५) जम्मू-कश्मीर का संविधान;
(६) इंदिरा-शेख संधि, १९७५।
(१) अमृतसर संधि, १८४६
हम ऋषि कश्यप की भूमि (प्राचीन नाम काश्मीर) के वर्तमान विधान के अन्वेषण का प्रारम्भ महाराजा रणजीत सिंह के विशाल सिख साम्राज्य से करेंगे। जी हाँ, १८४६ पर्यन्त, वर्तमान जम्मू-कश्मीर महाराजा रणजीत सिंह द्वारा स्थापित विशाल सिख साम्राज्य के अन्तर्गत आता था। रणजीत सिंह की १८३९ में मृत्यु के पश्चात, उनके वंशजों के मध्य भीषण सत्ता संघर्ष छिड़ गया। जम्मू कश्मीर के डोगरा राजवंश के संस्थापक गुलाब सिंह, महाराजा रणजीत सिंह के प्रमुख सेनापतियों में से थे।
रणजीत सिंह ने गुलाब सिंह को १८२२ में अपने आधिपत्य के अंतर्गत जम्मू का राजा घोषित कर दिया। रणजीत सिंह के वंशजों के सत्ता संघर्ष का लाभ ईस्ट इण्डिया कंपनी ने भली भाँति उठाया और आपसी फूट रहते हुये १८४५-१८४६ के प्रथम आङ्ग्ल-सिख युद्ध में पराजय स्वरूप सिख साम्राज्य को जम्मू कश्मीर का आधिपत्य छोड़ना पड़ा। गुलाब सिंह ने कूटनीति दिखाते हुये न तो सिखों का और न ही आङ्ग्ल पक्ष लिया। गुलाब सिंह को ज्ञेय था कि सिख साम्राज्य के बचने की कोई वास्तविक अवस्था नहीं थी। उनकी आँख राजसिंहासन के पद पर थी। युद्ध से अपने संसाधनों की क्षति देखते हुये अंग्रेजों ने जम्मू-कश्मीर को स्वयं शासित करने के स्थान पर रियासत के तौर पर राजा से अब महाराजा बने गुलाब सिंह को १८ मार्च, १८४६ की अमृतसर संधि के अंतर्गत सौंपा।
संधि के उपबंधों के अनुसार ब्रिटिश सरकार ने प्रतिफल के रूप में गुलाब सिंह से ७५ लाख नानकशाही रूपये लिये। ‘महाराजाधिराज’ होते हुये भी गुलाब सिंह को ब्रिटिश सरकार का प्रभुत्व स्वीकार करना था और इस मान्यता के प्रतीक में सरकार को वार्षिक एक घोड़ा, १२ विशेष प्रजाति के बकरे और तीन जोड़ी पश्मीना शॉल भी भेंट करने थे। एतदनुसार डोगरा राजवंश ने जम्मू-कश्मीर रियासत पर ‘राज’ किया (गुलाब सिंह १८४६-१८५६, रणबीर सिंह १८५६-१८८५ , प्रताप सिंह १८८५-१९२५, हरि सिंह १९२५-१९६१)।
ध्यातव्य है कि जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति, स्थायी निवासी नियम इत्यादि के बीज डोगरा राजवंश द्वारा ही बोये गये। रियासत हो कर डोगराओं ने अंग्रेज़ों का प्रभुत्व स्वीकार किया परन्तु वे कदापि नहीं चाहते थे कि शेष भारत के अन्य पहाड़ी क्षेत्रों शिमला, मसूरी, इत्यादि की भाँति उनके यहाँ भी अंग्रेजों का जमावड़ा हो। अन्य रियासतों में रेज़िडेंट नाम से ब्रिटिश अधिकारी तैनात किया जाता था। प्रताप सिंह के शासनकाल पर्यन्त जम्मू-कश्मीर में यह अधिकारी भी डोगराओं ने नहीं आने दिया। अतः जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति ब्रिटिश काल से किन्तु आज से बहुत ही भिन्न परिस्थितियों में प्रारम्भ हुई थी।
(२) संविधान अधिनियम, १९३४
समग्र भारत में संवैधानिक सुधार व स्वशासन की बढ़ती माँगों के चलते, महाराजा हरि सिंह ने रियासत में पहली बार विनियमन सं. १, १९३४ (जो कि कालान्तर में संविधान अधिनियम, १९३४ नाम से जाना गया) द्वारा विधान मंडल व मंत्री परिषद का व्यवस्थापन किया, यद्यपि इस विनियमन में स्पष्ट कर दिया कि तब भी महाराजाधिराज ही रियासत के वास्तविक शासक थे; विधायी, कार्यकारी एवं न्यायिक शक्तियाँ उनमें ही निहित थीं।
विधान मंडल में नामित और निर्वाचित, दोनों प्रकार के सदस्य थे। मंत्री परिषद के शीर्ष पर प्रधानमंत्री थे, परन्तु यह परिषद की सेवा कोई नियत कार्यकाल की न होकर, महाराजा के अभिराम पर निर्भर थी और केवल लोक प्रशासन, राजस्व और नगरपालिका जैसे विषयों हेतु सीमित थीं। राजवंश का प्रबंधन, राज सेना, विदेश सम्बन्ध जैसे विषय महाराजा ने अपने पास ही रखे।
(३) जम्मू और कश्मीर विलयन पत्र/परिग्रहण पत्र (Instrument of Accession of Jammu & Kashmir), १९४७
जब ब्रिटिश राज का अस्त हुआ तब भारत की समस्त रियासतों के पास तीन विकल्प थे (१) भारत से विलय; (२) पाकिस्तान से विलय; या (३) स्वायत्तशासन। महाराजा हरि सिंह (पूर्ण उपाधि- श्रीमान इन्द्र महेन्द्र राजराजेश्वर महाराजाधिराज श्री हरिसिंहजी, जम्मू-कश्मीर नरेश तथा तिब्ब्तादि देशाधिपति) ने १५ अगस्त १९४७ की स्वतंत्रता व बँटवारे के उथल पुथल में कुछ समय पर्यन्त कोई निश्चित निर्णय नहीं लिया था, यद्यपि स्वाभाविक ढंग से वे अपना राजसिंहासन छोड़ने को तत्पर नहीं थे। मुसलमान बहुल क्षेत्र के हिन्दू महाराजाधिराज होने से स्थिति जटिल तो थी ही।
परिस्थितियाँ भंगुर होती गईं। पाकिस्तान द्वारा भेजे गये पख्तून कबाइलियों (जिनमें छद्म वेश में पाकिस्तानी सेना भी सम्मिलित थी) और कश्मीर के पश्चिमी छोर के विद्रोहियों ने आतंक प्रसार प्रारम्भ कर दिया। जब हरि सिंह को स्पष्ट हो गया कि उनकी राजसेना पाकिस्तान प्रायोजित सङ्कट को रोकने में असमर्थ होगी, उन्होंनें भारत से सैन्य सहायता की याचना की। भारत ने सैन्य सहायता प्रदान करने की यह पूर्वनिबन्ध रखा कि हरि सिंह भारत अधिराज्य (Dominion of India) से विलय करें (विलय पत्र द्वारा किसी भी रियासत का भारत से विलय का प्रावधान अनुभाग ६, भारत सरकार अधिनियम, १९३५ में दे रखा था। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, १९४७ के अंतर्गत भारत स्वतन्त्र अधिराज्य बना, गणराज्य नहीं। १९५० में संविधान अपनाने पर ही भारत गणराज्य की स्थापना हुई)। अंततः २६ अक्टूबर, १९४७ को हरि सिंह ने विलय पत्र द्वारा जम्मू-कश्मीर का भारत से विलय किया।
ध्यातव्य है कि संविधान के अधिनियमित होने पर्यन्त १९४७-१९५० के काल में भारत अधिराज्य भारत सरकार अधिनियम, १९३५ के प्रावधानों से ही शासित था। यह जान कर आश्चर्य होगा कि ‘भारत के संविधान’ में भी लगभग २५० अनुच्छेद सीधे के सीधे, आवश्यक रूपांतरण के साथ, भारत सरकार अधिनियम, १९३५ से ही उतार लिये गये हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत सरकार अधिनियम, १९३५ व भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, १९४७, ब्रिटिश संसद द्वारा प्रारूपित व पारित हैं।
(शेष, आगामी भागों में।)
संदर्भ
१) कॉन्स्टिटूशनल लॉ ऑफ इंडिया, एच. एम. सीरवई;
२) कॉन्स्टिटूशनल लॉ ऑफ इंडिया, एम. पी. जैन;
३) हमारा संविधान-भारत का संविधान और संवैधानिक विधि, सुभाष काश्यप;
४) प्रशानिक शब्दावली, वैजानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार;
५) http://jklaw.nic.in/, विधि, न्याय, व संसदीय कार्य विभाग, जम्मू-कश्मीर सरकार;
६) हिस्टरी एंड कल्चर ऑफ़ द इंडियन पीपल, खण्ड १० व ११, आर. सी. मजुमदार;
७) कश्मीर-द स्टॉर्म सेण्टर ऑफ द वर्ल्ड, बलराज मधोक।