भैया जी…
हाँ, यही कह कर सम्बोधित करता था मैं उन्हें पर वे एक मित्र, एक सखा, एक गुरु, पथ-प्रदर्शक, संरक्षक, पितृ-तुल्य, भ्रातृ-तुल्य और जो भी आप कहना चाहें, वे सब कुछ थे और सही अर्थों में इन सब से बढ़कर थे। घर के “बूढ़-पुरनिया” से लगाय “समौरिया” मित्र तक, उनके साथ रहने अथवा उनसे बात करने से इनकी कमी नहीं खलती थी।
क्या कहें!!! और कहाँ से आरम्भ करें?
बाऊ कथा से? जिसने आपसे एक जुड़ाव बना दिया अथवा मनु-ऊर्मि के पत्राचारों से? जिसने आपके प्रति अतुलनीय सम्मान भर दिया। आपकी इन दोनों कृतियों को पढ़ने के बाद आपसे बात करने का प्रयास न करना मेरे लिए “ब्रह्म-हत्या” से भी बड़ा पाप होता भैया जी…
और एक बार जो वार्तालाप का क्रम हमने आरम्भ किया तो मिलना तो बस एक “औपचारिकता” मात्र ही रह जाना था, एक-दूसरे को “जानने” के लिये…
मनु-ऊर्मि के बारे में बात करते हुये एक बार मैंने आपसे कहा था — “स्मृतियाँ” मेरे लिए बहुत ही व्यक्तिगत “विषय-वस्तु” हैं। पता नहीं, आपने “मनु-ऊर्मि” को जिया है या ये आपकी कल्पना है, पर यदि आपके स्थान पर मैं होता तो स्यात् नहीं लिख पाता…
आपकी उन्मुक्त हँसी सुनने को मिली थी उत्तर में…
स्मृतियाँ मेरे लिये आज भी व्यक्तिगत “विषय-वस्तु” हैं।
पर हाँ, एक निरुद्देश्य भटकने वाले यायावर को आपने एक उद्देश्य दिया। जिन विषयों के बारे में मैंने केवल सुना भर था, आपने “उत्प्रेरक” का कार्य कर मुझे उन विषयों में गहराई में जाने के लिए प्रेरित किया। ब्लॉग पर या फेसबुक पर आपके दिये “गृह कार्य” करने के बाद एक अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति होती थी। कोणार्क पर आपके ब्लॉग को पढ़ने के बाद दो-दो बार कोणार्क गया। आपके साथ यात्रा करने का स्वप्न, स्वप्न ही रह गया!!! कोणार्क, एरण, अजन्ता-एलोरा, खजुराहो, पूरा “ईस्ट-कोस्ट” और “वेस्टर्न घाट्स”… २०१४ से ही योजना बन रही थी न!!!
आपसे बहुत कुछ सीखा है भैया जी। “कृतज्ञता”, इस एक शब्द पर हमने स्यात् डेढ़-दो घण्टे विमर्श किया था… “स्वाध्याय”, आप इसके जीवन्त उदाहरण और प्रतिमूर्ति थे…
“विश्वास”… पता नहीं मैं आपके विश्वास के लायक था या नहीं पर आप में विश्वास का औदार्य बहुत था… यही तो कारण था कि, क्षणिक ही सही, मैं माँ से भी मिल पाया, बिटिया से भी मिल पाया और भउजी से भी मिल पाया।
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ।
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ॥
आपके निर्देशन में बने सङ्गठनों से जुड़े रह कर आपके कार्यों को आगे बढ़ाने में “गिलहरी भर का ” मेरा योगदान सदैव रहेगा भैया जी। “मघा” और “सनातन युवा”, आपके मानस-पुत्र, आपकी कसौटियों पर खरा उतरने का प्रयास करते रहेंगे भैयाजी।
आपकी कमी पल पल खलती है, विशेषतः जब किसी शब्द का अर्थ जानना होता है अथवा किसी विषय के किसी आयाम पर शोध का “आउटलाइन” बनाना होता है। मैंने आपसे कहा था कि मैं “प्रज्ञापराधी” हूँ। और अपराध करने के बाद भी “क्षमाप्राप्ति” की न केवल आशा वरन् अधिकार भी रखता हूँ। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास भी है कि आपने अपने इस प्रज्ञापराधी शिष्य/पुत्र/भाई को इसके जाने-अनजाने में किये अपराधों के लिये क्षमा कर दिया होगा।
हृदय यही तो कह रहा! कुछ स्वप्न स्वप्न ही रह जाते हैं!
हं, और वही स्वप्न जिजीविषा भी बढ़ाते हैं तथा भविष्य की रुपरेखा भी निर्धारित करते हैं वीरक जी।
हृदय यही तो कह रहा!
……. और मैं वर्षों से जिनके दर्शन की अभिलाषा लिए प्रतीक्षा करता रहा, उन महाभाग से मिलना (दर्शन) भी हुए तो कहाँ…..??
जहाँ कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती…..हे विधाता …!तू इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है
शक्ति बाबू, क्या कहा जाये!!!
यह नही होना था पर,
हानि लाभ जीवन मरण जस अपजस विधि हाथ…