Mahāmṛtyuñjaya Mantra महामृत्युञ्जय मंत्र
१. मूल मन्त्र
[ऋषि-वसिष्ठ मैत्रावरुणि, छन्द अनुष्टुप्, देवता-रुद्र (मृत्यु विमोचनी ऋक्)]
त्र्य॑म्बकं यजामहे सु॒गन्धिं॑ पुष्टि॒वर्ध॑नम् । उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नान्मृ॒त्योर्मु॑क्षीय॒ मामृता॑त् ॥
(त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्॥)
(ऋक्, ७/५९/१२, वाज. ३/६०, तैत्तिरीय सं, १/८/६/२, मैत्रायणी सं, १/१०/४, २०, काण्व सं, ९/७, ३६१४, शतपथ ब्राह्मण, २/६/२/१२, १४, तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/६/१०/५)
तीन अम्बक वाले (सूर्य, चन्द्र, अग्नि नेत्र वाले, या जिसकी अम्बिका स्त्री हैं) की पूजा करते हैं, जो सुगन्ध या दिव्य गन्ध युक्त है तथा पुष्टि साधनों की वृद्धि करता है। जैसे ककड़ी का फल पकने पर स्वयं टूट जाता है, उसी प्रकार मृत्यु द्वारा शरीर से मुक्त हो जायेंगे, पर अमृत से हमारा सम्बन्ध नहीं छूटता।
शरीर से आत्मा निकल कर परमात्मा से मिलती है, उसी प्रकार कन्या विवाह के पश्चात पिता के घर से निकल कर पति के घर जाती है। परमात्मा को ही पति कहा जाता है। कन्या विवाह सम्बन्धित मन्त्र वाजसनेयि संहिता मन्त्र के अगले भाग में है।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम्। उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीयमामुतः (वाज, ३/६०-भाग २)
(कुमारियों के अर्थ में) पति की प्राप्ति करानेवाला, सुगन्धयुक्त, त्रिनेत्र की हम पूजा करती हैं। ककड़ी का फल जैसे अपने डण्ठल से छूट जाता है, उसी प्रकार हम कुमारियां माता, पिता, भाई आदि मातृगृह के बन्धुजनों से, उस कुल से, उस घर से दूर जायेंगी। किन्तु त्र्यम्बक के प्रसाद से हम पति से दूर न जांय, अर्थात् पति गोत्र में ही बनी रहें।
२. इस अर्थ के निर्गुण गीत
यजुर्वेद के इन दोनों मन्त्रों के समान अर्थ वाले हजारों निर्गुण गीत हैं, जिनमें मनुष्य को पत्नी, ब्रह्म को पति कहा गया है तथा शरीर से आत्मा निकलने को कन्या के ससुराल जाने जैसा कहा है। माया के बन्धन को ननद कहा गया है। इसे संस्कृत में ननान्दृ कहते हैं, अर्थात् जो प्रसन्न नहीं हो। पति अपनी बहन के अतिरिक्त पत्नी से भी प्रेम करने लगता है जिससे ननद का अधिकार कुछ न्यून हो जाता है। इस भाव का एक प्रसिद्ध निर्गुण गीत साहिर लुधियानवी ने लिखा तथा मन्ना डे ने गाया था।
लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे,
चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
हो गई मैली मोरी चुनरिया
कोरे बदन सी कोरी चुनरिया
जाके बाबुल से नज़रें मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
भूल गई सब बचन बिदा के
खो गई मैं ससुराल में आके
जाके बाबुल से नज़रे मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
कोरी चुनरिया आत्मा मोरी
मैल है माया जाल
वो दुनिया मोरे बाबुल का घर
ये दुनिया ससुराल
जाके बाबुल से नज़रे मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
कबीर से आरम्भ कर महेन्द्र मिश्र तक के इस अर्थ के बहुत से भोजपुरी गीत हैं।
इसी आशय का महेन्द्र मिश्र का प्रसिद्ध गीत है-
खेलइत रहलीं हम सुपुली मउनियाँ
ए ननदिया मोरी है, आई गइलें डोलिया कहाँर।
बाबा मोरा रहितें रामा, भइया मोरा रहितें
ए ननदिया मोरी हे, फेरि दीहतें डोलिया कहाँर।
काँच-काँच बाँसवा के डोलिया बनवलें,
ए नदिया मोरी है लागी गइलें चारि गो कहाँर।
नाहीं मोरा लूर ढंग एको न रहनवाँ
न ननदिया मोरी लेई के चलेलें ससुरार।
कहत महेन्दर मोरा लागे नाही मनवाँ
ए ननदिया मोरी हे छूटि गइलें बाबा के दुआर।
३. मन्त्र महोदधि अनुसार (मन्त्र – सुधाकर मालवीय जी की टीका अनुसार)
लघु मृत्युञ्जय मन्त्र (१५/१०९)
ॐ जूंसः।
विनियोग – अस्य श्री मृत्युञ्जय मन्त्रस्य कहोळ ऋषिः दैवी गायत्री छन्दः मृत्युञ्जय् देवता जूं बीजं सः शक्तिः आत्मनोः अभीष्ट सिद्ध्यर्थे विनियोगः।
षडङ्ग न्यास – सां हृदयाय नमः, सीं शिरसे स्वाहा, सूं शिखायै वषट्, सैं कवचाय हुम्, सौं नेत्रत्रयाय वौषट्, सः अस्त्राय फट्।
ध्यान –
चन्द्रार्काग्निविलोचनं स्मितमुखं पद्मद्वयान्तः स्थितं,
मुद्रापाशमृगाक्षसूत्रविलसत् पाणिं हिमांशु प्रभम्।
किरीटेन्दुगलत्सुधाप्लुततनुं हारादि भूषोञ्चलं,
कान्त्या विश्वविमोहनं पशुपतिं मृत्युञ्जयं भावयेत्॥
जिसके सूर्य, चन्द्र, अग्नि रूप ३ नेत्र हैं, स्मित मुख हैं, जो २ पद्मों (आज्ञा चक्र) पर स्थित हैं, जिनके हाथों में मुद्रा, पाश, मृग, अक्ष माला ( अ से ह तक ५० अक्षर) है, चन्द्र जैसी शरीर कान्ति वाले, किरीट के चन्द्र मण्डल से चूते अमृत कणों से शरीर आप्लावित है, हार आदि भूषणों से उज्ज्वल है, ऐसे महामृत्युञ्जय पशुपति का ध्यान करना चाहिए जो अपनी कान्ति से विश्व को मोहित कर रहे हैं।
सञ्जीवनी विद्या, महामृत्युञ्जय मन्त्र (तरंग १६/१-१०४ श्लोकों) में मन्त्र, न्यास, यन्त्र आदि सहित विस्तार से पूजन विधि दी गयी है। तथापि पूजा या साधना केवल गुरु के निर्देश से ही करनी चाहिए।
ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय माम्मृतात् भूर्भुवः स्वरों जूं सः हौं ॐ॥
अस्य श्री महामृत्युञ्जय मन्त्रस्य वामदेव, कहोळ, वसिष्ठा ऋषयः पङ्क्ति:-गायत्री-अनुष्टुप्-छन्दांसि सदाशिव महामृत्युञ्जयरुद्रो देवता ह्रीं शक्तिः श्रीं बीजं आत्मनो अभीष्ट सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादि न्यास – वामदेवकहोळवसिष्ठ ऋषिभ्यो नमः शिरसि।
पंक्तिर्गायत्र्यनुष्टुप् छन्दोभ्यः नमः मुखे,
सदाशिवमहामृत्युञ्जय रुद्राख्य देवतायै नमः हृदि,
ह्रीं शक्तये नमः लिङ्गे,
श्री बीजाय नमः पादयोः॥
षडङ्ग न्यास –
१. ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमः।
२. ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये मां जीवय शिरसे स्वाहा।
३. ॐ हौं जूं सः भूर्भुवः स्वः सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ॐ नमो भगवते रुद्राय चन्द्रशिरसे जटिने स्वाहा शिखायै वषट्।
४. ॐ हौं जूं सः भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात् ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरान्तकाय हां हों कवचाय हुम्।
५. ॐ हौं जूं सः भूर्भुवः स्वः मृत्योर्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजुः साम मन्त्राय नेत्रत्रयाय वौषट्।
६. ॐ हौं ॐ जूं सः भूर्भुवः स्वः मामृतात् ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्नित्रयाय ज्वल ज्वल मां रक्ष रक्ष ॐ अघोरास्त्राय फट्।
वर्ण न्यास-आरम्भ में मूल मन्त्र के ९ वर्ण लगा कर त्र्यम्बकादि ३२ अक्षरों के १-१ वर्ण पर विन्दु तथा अन्त में नमः लगा कर पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर पूर्वक मुँह में, अनंतर उरः स्थल, कण्ठ, मुख, नाभि, हृदय पीठ, कुक्षि, लिङ्ग और गुदा में न्यास करना चाहिए। तब दोनों उरुओं के मूल और मध्य में, दोनों जानुओं में, दोनों जानुवृत्त में, स्तनों में, पार्श्वों में, पैरों में, हाथों में, नासिका, रन्ध्रों में तथा शिर- इन ३२ स्थानों में इस प्रकार न्यास करना चाहिए।
शवासन में भी प्रायः ऐसे ही ३२ विन्दुओं पर ध्यान किया जाता है।
इसके पश्चात ११ पदन्यास, ५ मुद्रा, यन्त्र द्वारा पीठ पूजा की विस्तृत विधि दी गयी है।
४. आध्यात्मिक व्याख्या (दतिया पीताम्बरा पीठ के स्वामी जी के अनुसार)
संस्कृत साहित्य में शिव को त्र्यम्बक कहा गया है, जैसे कालिदास के कुमारसम्भव में है, त्रियम्बकं संयमिनं ददर्श।
वेदान्त ग्रन्थों के तुरीय तत्त्व (त्रिविध विभाजन से परे अविभाज्य तत्त्व) को भी शिव कहा गया है। इसके साक्षात् से जीव मृत्यु के क्लेश से सदा के लिये मुक्त हो जाता है। गन्ध गुण पृथ्वी का है। इसमें सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों हैं। दुर्गन्ध से रोग व्याधि आदि बढ़ते हैं, जो मृत्यु के परिवार हैं। त्र्यम्बक के स्मरण से सुगन्ध और पुष्टि बढ़ती है। पृथ्वी तत्त्व के साथ शिव के चिन्तन से यह होता है जिसे योगी जानते हैं। बन्धन रूप रोग से सभी जीव दुःखी हैं। अमृत तत्त्व के परिचय से बन्धन रूप मृत्यु से छुटकारा होता है। इसलिए अमृत से हम पृथक् न हों ऐसी प्रार्थना की गयी है।
उपनिषदों में अमृत शब्द ब्रह्म के लिए प्रयुक्त हुआ है – ब्रह्मसंस्थो अमृतत्वमेति (छान्दोग्य उप. २/२३/१) -ब्रह्म में स्थिति प्राप्त होने पर ही अमृत की प्राप्ति होती है। यही मुण्डकोपनिषद् (३/२/९) में है कि गुहा ग्रन्थि (आज्ञा चक्र या उसके ऊपर त्रिकूट) पार करने पर विमुक्त हो कर अमृत होता है – स यो वै तत्परमं ब्रह्म वेद (विद् = जानना, पाना) ब्रह्मैव भवति न अस्य अब्रह्मवित् कुले भवति। तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहा ग्रन्थिभ्यो विमुक्तो अमृतो भवति।
यही अमृत तत्त्व या कला औषधि, वनस्पति अन्न, दुग्ध आदि सभी पदार्थों में विद्यमान है जिसे ग्रहण करके सभी जीव जीवन धारण कर रहे हैं। शरीर में इस अमृत कला को धारण करने की शक्ति जब मनुष्य में नहीं रहती तब मर जाता है। इस अमृत कला की साधना को शास्त्र में अनेक नामों से बताया गया है- अन्नपूर्णा, श्रीविद्या, श्री पीताम्बरा, अमृतेश्वरी आदि। अनेक असाध्य व्याधियों की निवृत्ति के लिए उक्त त्र्यम्बक मन्त्र का अनुष्ठान मृतसञ्जीवनी त्र्यक्षर मृत्युञ्जय का प्रयोग होता है।
५. आयुर्वेद अर्थ (पीताम्बरा पीठ अनुसार)
त्र्यम्बक का अर्थ काम्पिल्य देश में होनेवाली अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका नाम वाली ३ औषधियों से है।
प्राणाय स्वाहा। अपानाय स्वाहा। व्यानाय स्वाहा।
अम्बेऽअम्बिकेऽम्बालिके न मा नयति कश्चन ।
ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम् ॥
(वाज. यजु, २३/१८)
इन तीनों को आयुर्वेद में अम्बष्ठा या अम्बष्ठिका, माचिका कहा गया है।
अम्बिका तु रसे तिक्ता तथोष्णा कफनाशनी। अर्शोघ्नी श्वयथूत्थान परिपन्थितया स्मृता॥
माचिका तु कषाया च कण्ठ्या वातबलासजित्। पित्तप्रकोपशमनी व्रणशोधनरोपणी॥
अम्बष्ठा सा कषायाम्ला कफकण्ठरुजापहा। वातामयबलासघ्नी रुचिकृद्दीपनी परा॥
(धन्वन्तरि निघण्टु, ३/११६)
अम्बष्ठा धातकी कुसुम समङ्गा कट्वङ्गमधुकबिल्वपेशिका,
सावररोध्र पलाशनन्दीवृक्षाः पद्मकेशराणि चेति॥
गणौ प्रियङ्ग्वम्बष्ठादी एकातीसारनाशनौ।
सन्धानीयौ हितौ पित्ते व्रणानां चापि रोपणौ॥
(सुश्रुत संहिता, सूत्र स्थान, ३८/४६-४७)
इस बलासघ्नी ओषधि के बलास को अथर्व वेद (६/१४) सूक्त में बलास देवता कहा गया है।
इन ३ औषधियों का समूह ही त्र्यम्बक है। इनसे पुष्टि की वृद्धि होती है और विन्दु क्षय से होने वाली दुर्गन्धि निवृत्त होती है। अम्बा धामों की सोमयुक्त औषधि से विभिन्न रोगों के नाश का वर्णन वाज. यजु (१२/७६-९७) में है।
’यजामहे’ पद सेवन करने के अर्थ में है। ये औषधियां अग्नि, सूर्य, चन्द्र-इन तीनों मण्डलों के तत्त्वों से उत्पन्न होती हैं। इनमें सभी औषधियों के गुण रहते हैं। साक्षात् परम्परा सम्बन्ध से ऐहिक, पारलौकिक सभी प्रकार का अमृतत्व इनसे प्राप्त होता है। अग्नि, सूर्य और चन्द्र ही मृत्युञ्जय शिव के त्रिनेत्र हैं।
अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्र सूर्यौ (मुण्डक उप. २/१/४)
कश्मीर के स्वतन्त्र तन्त्र में त्र्यक्षर मृत्युञ्जय मन्त्र को ही त्रिनेत्र बताया गया है। त्र्यक्षर मन्त्र में प्रणव के बाद दोनों बीजों को अमृत बीज नाम से तन्त्राभिधान में बताया गया है। केवल गुरु परम्परा से ही इसका रहस्य ज्ञात होता है तथा साधना हो सकती है।
६. तान्त्रिक अर्थ
मूलाधार भूमि तत्त्व है जो शरीर के अन्नमय कोष का केन्द्र है। भूमि का गुण ही गन्ध है। इसमें शोधन होने से सुगन्धि होती है, जिसके बाद पुष्टि होती है। वहां चेतना का केन्द्र कुण्डलिनी है जो अन्नमय कोष से त्र्यम्बक या आज्ञा चक्र के ऊपर त्रिकूट तक साधना द्वारा जाती है। त्रिकूट केन्द्र के बाह्य अंग हैं २ नेत्र तथा अग्नि रूप मूर्धा नेत्र, जो भौतिक रूप से शरीर का ताप नियन्त्रित करता है। सुषुम्ना मार्ग उर्वारुक (ऊर्वी से ऊपर उठता) की लता जैसा है। एक एक चक्र के भेदन से १-१ बन्धन से मुक्ति होती है। इसे पुरुष सूक्त (२) में कहा है-तत् (वह, ब्रह्म प्रतिमा कुण्डलिनी) अन्नेन अतिरोहति (अन्न से क्रमशः उठता है)।
अन्य प्रकार से देखते हैं कि इड़ा-पिङ्गला-सुषुम्ना ही चन्द्र-सूर्य-अग्नि का समन्वय या शिव के वायु रूप नेत्र हैं। इनमें प्राण का प्रवाह सन्तुलित होने से मनुष्य मृत्यु को जीत लेता है। हं से प्राण बाहर जाता है, सः से भीतर आता है। हंसः या विपरीत क्रम में सोहं (swan) मन्त्र का प्राण प्रवाह के साथ जप को अजपा गायत्री जप कहते हैं। इससे मोक्षद्वार को भेद कर मनुष्य अमृत तत्त्व प्राप्त करता है। केवल योगचूड़ामणि उपनिषद् का उद्धरण दिया जाता है-
चतुर्दलं स्यादाधारं स्वाधिष्ठानं च षड्दलम्॥४॥
नाभौ दशदलं पद्मं हृदये द्वादशारकम्। षोडशारं विषुद्धाख्यं भ्रूमध्ये द्विदलं तथा॥५॥
सहस्र दल संख्यातं ब्रह्मरन्ध्रे महापथि॥६॥
(मूलाधार से आज्ञा तक अणुपथ, सहस्रार से सूर्य तक महापथ है जिस पर शनि तक के ग्रहों के आकर्षण का प्रभाव होता है-वाज. यजु.१५/१५-१९, १७/५८, १८/४०, बृहदारण्यक उप. ४/४/८-९, छान्दोग्य उप. ८/६/१-५, कूर्म पुराण, ४१/२-३३, ब्रह्माण्ड पुराण१/२/२४/६५-७३, मत्स्य पुराण, १२८/८-३३)
योनिस्थानं द्वयोर्मध्ये कामरूपं निगद्यते। कामाख्यं तु गुदस्थाने पङ्कजं तु चतुर्दलम्॥७॥
हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत् पुनः। हंस हंसेत्यमुं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा॥३१॥
षट्शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्येकविंशतिः। एतत् संख्यान्वितं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा॥३२॥
अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्षदा सदा। अस्याः संकल्पमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते॥३३॥
कुण्डलिन्या समुद्भूता गायत्री प्राणधारिणी। प्राणविद्या महाविद्या यस्तां वेत्ति स वेदवित्॥३५॥
कन्दोर्ध्वे कुण्डलीशक्तिरष्टधा कुण्डलाकृतिः। ब्रह्मद्वारमुखं नित्यं मुखेनाच्छाद्य तिष्ठति॥३६॥
(अग्नि या पिण्ड रूप में शिव अष्टमूर्ति हैं, जिनको वसु कहते हैं-यही अष्टधा कुण्डली शक्ति है)
येन द्वारेण गन्तव्यं ब्रह्मद्वारमनामयम्। मुखेनाच्छाद्य तद्द्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी॥३७॥
(अनामय = रोग विहीन, अमीवा amoeba या वायरस नहीं)
प्रबुद्धा वह्नियोगेन मनसा मरुता सह। सूचीवद्गात्रमादाय व्रजत्यूर्ध्वं सुषुम्नया॥३८॥
उद्घाटयेत् कबाटं तु यथा कुञ्चिकया गृहम्। कुण्डलिन्यां तथा योगी मोक्षद्वारं प्रभेदयेत्॥३९॥
पुष्टिवर्धन- कट्वम्ललवणत्यागी क्षीरभोजनमाचरेत्॥४१॥
ब्रह्मचारी मिताहारी योगी योगपरायणः। अब्दादूर्ध्वं भवेत् सिद्धो नात्र कार्य विचारणा॥४२॥
सुस्निग्ध मधुराहारश्चतुर्थांश विवर्जितः। भुञ्जते शिवसंप्रीत्या मिताहारी स उच्यते॥४३॥
महामुद्रा नभोमुद्रा ओड्याणं च जलन्धरम्। मूलबन्धं च यो वेत्ति स योगी मुक्ति भाजनम्॥४५॥
इसके बाद मूलबन्ध और उससे युवा होना, ओड्याण विधि तथा उससे मृत्यु जीतना, विशुद्धि में जालन्धर बन्ध से भूख प्यास रोकना उसके बाद खेचरी सिद्धि से अमृतत्व पाने का विस्तृत वर्णन है। विन्दु चक्र में स्थित होने पर अमृत पान होता है। विन्दु चक्र के ज्वलन से उत्पन्न रंगों का मिलन बगलामुखी का पीताम्बर है।
त्रिकूट के बाद ब्रह्म से साक्षात्कार केवल भगवान् की कृपा से है जो गुरु माध्यम से मिलती है।
न वेद यज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर॥ (गीता, ११/४८)
आचार्यावर प्रणाम !
एक शंका कई दिन से है –
महामृत्युंजय मंत्र मुझे व्यक्तिगत रूप से मोक्ष की ओर ले जाने की प्रार्थना लगती है – उर्वारुकमिव मृत्योर्मुक्षीय !
लोक में देखें तो प्रथा सी है कि जब भी मृत्यु-भय उपस्थित हो, मारकेश दशा में इसका जपानुष्ठान बताया जाता है | तो उर्वारुकमिव तो अलग होना ही है न 🙂 फिर महामृत्युंजय जप से मोक्ष मिल जाए यह संभव है पर मृत्यु तो नहीं टलेगी |
कृपया मार्गदर्शन करें |
धन्यवाद !
ॐ हौं जूँ सः ॐ भूर्भुवःस्वः ॐ त्रयम्बकं…….मामृतात ॐ स्वः भुवः भू: ॐ सः जूँ हौं ॐ
मृत्युंजय मन्त्र का एक प्रकार तो यह भी है न आदरणीय?
मूल मन्त्र तो त्र्यम्बकं यजामहे से ही है। बाकी कई बीज मन्त्र विभिन्न उद्देश्य के लिए जोड़े जाते हैं जिनको सम्पुट कहते हैं।