मयूरभट्ट तथा उसके मयूराष्टक का ललित अनुशीलन – संस्कृत साहित्य का एक विस्मृत कवि तथा उसका उपेक्षित काव्य
[सामान्यतया सम्पादकीय टिप्पणी अन्त में लिखी जाती है किंतु इस रचना हेतु पहले लिखनी होगी। हिंदी में अब ऐसे लेख नहीं लिखे जाते। काव्य एक शिल्पकर्म है और जब गणित का ज्ञाता इसमें रत होता है तो चमत्कार होते हैं। संस्कृत वृत्तों के गणित के साथ साथ, परम्परा एवं सौंदर्य का ज्ञान न हो तो ऐसी रचनायें असम्भव हैं। लेखक गणितज्ञ भी हैं और कवि भी, अनूठा तो होना ही है!
इस रचना को बहुत ही धैर्य के साथ पढ़े जाने की आवश्यकता है। बाण एवं मयूर के बारे में प्रचलित कथाओं के साथ साथ लेखक ने राणा कुम्भा के व्यक्तित्व के एक अल्पज्ञात पक्ष को बताया ही है, खण्डित श्लोकों की पूर्ति के समय lower criticism (निम्नतर आलोचना) एवं higher criticism (उच्चतर आलोचना) पद्धतियों का भी परिचय दिया है। संस्कृत साहित्य से प्रगाढ़ परिचय एवं अद्भुत मेधा के बिना यह सम्भव नहीं। वसन्त की विदाई एवं चहुँओर पसरती सम्भावित महामारी की पृष्ठभूमि में विद्वान लेखक ने आशास्ति को भी स्वर दिया है।
तारुण्यकान्त्युपचितोऽपि सुवर्णहार ताम्बूलपुष्पविधिना समलङ्कृतोऽपि ।
नारीजन: प्रियमुपैति न तावदश्र्यां यावन्न पट्टमयवस्त्रयुगानि धत्ते ॥
स्पर्शवता वर्णान्तरविभागचित्रेण नेत्रसुभगेन ।
यै: सकलमिदं क्षितितलमलङ्कृतं पट्टवस्त्रेण ॥
सुंदरी तरुणियाँ स्वर्णहार, ताम्बूल, पुष्प आदि से अलङ्कृत होते हुये भी बिना हमारे बुने वस्त्रद्वय के प्रेमियों से मिलने अभिसार स्थल पर नहीं जातीं। हमारे वस्त्र स्पर्श में सुखदायी हैं, विविध रंगों व चित्र वाले हैं जो आँखों को सुहाते हैं।
(कौशेय बुनकरों का दशपुर (मंदसोर) अभिलेख, शुक्ल द्वितीया, तपस्य मास, मालवगण संवत् ५३०)
मयूराष्टक को भी इस बुनकर के कौशेय वस्त्र चाहिये थे जिससे यह रचना प्रिय पाठकों से उनके मन-एकान्त में सम्पूर्ण सौन्दर्य के साथ अभिसार कर सके। ]
संस्कृत भाषा विश्व के समस्त भाषाओं से श्रेष्ठ तथा उनकी जननी रही है। साथ ही संस्कृत भाषा में सृजित साहित्य भी विश्व के समग्र साहित्य से कहीं बहुत अधिक प्रौढ़ एवं समृद्ध है, इसमें किसी प्रकार की मतभिन्नता का कोई स्थान नहीं। हमारा संस्कृत साहित्य समग्र विश्व के समस्त सभ्य साहित्य से प्राचीनता, व्यापकता तथा अभिरामता में सर्वश्रेष्ठ है। जब विश्व अपने मन के भाव सङ्केतों में व्यक्त करता था तब हमारे ऋषि रहस्यमय ऋचाओं का उच्चारण तथा साम का गायन करते थे। अध्यात्म की गुत्थियों को सुलझाने वाले उपनिषद् तथा पृथ्वी की उत्पत्ति से ले कर प्रलय तक का इतिहास प्रस्तुत करने वाले पुराणों की भाषा यही देवभाषा संस्कृत रही।
साहित्य शब्द, शब्द एवं अर्थ के मञ्जुल सामञ्जस्य का सूचक है – सहितस्य भावः साहित्यम्। साहित्य का तात्पर्य उन कोमल काव्यों से है जिसमें शब्द एवं अर्थ का अनुरूप सन्निवेश हो। शास्त्र एवं साहित्य में यही भेद है। शास्त्र में शब्दों का प्रयोग अर्थ की प्रतीति हेतु होता है, किन्तु काव्य में शब्द तथा उनके अर्थ संश्लिष्ट होते हैं। हमारी संस्कृत भाषा शास्त्रों की दृष्टि से भी तथा साहित्य की दृष्टि से भी विश्व में अप्रतिहत रही है। संस्कृत भाषा में रचे साहित्य परा एवं अपरा विद्या का मनोरम भाण्डागार हैं और यह भाषा अत्यंत महनीया, विद्वज्जनमाननीया तथा परमसौभाग्यशोभनीया है।
संस्कृत का साहित्य सर्वाङ्गीण है। मानव जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का विस्तृत एवं वैचारिक विश्लेषण संस्कृत साहित्य में उपलब्ध है। अध्यात्म एवं धर्म की तो बात ही क्या, विज्ञान, ज्यौतिष, वैद्यक, स्थापत्य, पशु-पक्षी लक्षण, अर्थशास्त्र, राजनीति, कामशास्त्र, इतिहास, गल्प, जीवन का कोई भी अंश संस्कृत साहित्य से अछूता नहीं है। सत्य तो यह है कि श्रेय तथा प्रेय के प्रणयन, अध्यन, अनुशीलन की जैसी प्रवृत्ति संस्कृत भाषा के विद्वानों की रही वैसी अन्यत्र प्राप्त ही नहीं है और विशिष्टातिविशिष्ट यह है कि साहित्य सृजन की यह धारा ऋग्वेद से अब तक अविच्छिन्न रूप से प्रवहमान है। इस प्रकार प्राचीनता, अविच्छिन्नता, व्यापकता, धार्मिकता तथा सभ्यता की दृष्टि से हमारा संस्कृत साहित्य प्रत्येक भारतीय के गौरव का एक महत्वपूर्ण कारक है। वैदिक ऋषियों, वाल्मीकि तथा व्यास को तो गिनने की आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि वे तो सभी सोपानों से कहीं बहुत ऊपर की कोटि वाले हैं, किन्तु उनसे इतर अन्यों की बात करें तो जिस साहित्य के सर्जकों में कालिदास जैसा कमनीय काव्य-रचयिता हो, भवभूति तथा भास जैसा नाटककार हो, बाण जैसा गद्यकार तथा सम्पूर्ण विश्व को कादम्बरी के रूप में प्रथम उपन्यास प्रदान करने वाला उपन्यासकार हो, जयदेव जैसा मधुर-कोमल-कान्त-पदावली रचने वाला गीतकार हो, श्रीहर्ष जैसा पाण्डित्यपूर्ण रचनाकार हो, भारवि तथा दण्डी हों, गोवर्धन तथा गुणाढ्य हों, माघ तथा मंखक हो, राजशेखर, सुबन्धु तथा हर्षवर्धन हों, हाल, भर्तृहरि, अमरुक, जगन्नाथ आदि जैसे तथा ऐसे ही अन्य अनगिनत मूर्धन्य रचनाकार हों, जिनकी सूची लिखने में ही वर्षों व्यतीत हो जाँय, उस साहित्य का तो मात्र वर्णन करने को भी समुचित शब्द उपलब्ध नहीं हो पाते तो प्रशंसा के शब्द कहाँ से प्राप्त हों?
किन्तु काल की गति अत्यंत विचित्र एवं कठोर है। राजनैतिक एवं सामाजिक चक्रवातों ने एक स्थिति ऐसी उत्पन्न कर दी कि देववाणी की पीयूषधारा काल की कठोरता में सूख गयी। साथ ही जनसामान्य में इस धारणा ने स्थान पा लिया कि संस्कृत मात्र धर्मग्रन्थों तथा शास्त्रों की भाषा है। इस भाषा के चलन-बाह्य होने से इसका कमनीय साहित्य सदियों उपेक्षित रहा। और इसी क्रम में सर्वाधिक उपेक्षित हुआ संस्कृत साहित्य का एक अद्भुत रचनाकार मयूरभट्ट तथा साथ ही उपेक्षित हुईं उसकी रचनायें भी! और इस उपेक्षा का फल यह हुआ कि साहित्य जगत ने मयूरभट्ट तथा उसकी रचनाओं को विस्मृत ही कर दिया।
यह मयूरभट्ट था कौन? वामहस्त-प्रशस्ति के रूप में इसका परिचय मात्र इतना प्राप्त होता है कि यह बाणभट्ट का श्यालक था, हर्षवर्धन की राज्यसभा में था तथा इसकी बाण से कुछ प्रतिद्वन्द्विता थी।
इतिहास जहाँ पर तथ्यों को अङ्कित करने में अपने पृष्ठ मूँद लेता है, वहाँ तथ्यों को सँजोने का कार्य लोक-जिह्वा करती है। किन्तु लोक की संचय-रीति तथ्यात्मक नहीं होती, वह कथात्मक हो जाती है। अतः लोक में प्रचलित मयूरभट्ट के सम्बन्ध में एक कथा है किन्तु उस कथा के पूर्व एक उपकथा भी है।
बाण! बाणभट्ट! हिरण्यबाहु नदी के तट पर स्थित प्रीतिकूट नामक ग्राम में एक ब्राह्मण कुल में उत्पन्न बाण के माता-पिता का देहान्त बाण के किशोरावस्था में ही हो गया था। संयोग से पिता ने बाण के लिये पर्याप्त धन छोड़ा था। धन हो, किशोरावस्था हो, अपरिपक्व बुद्धि हो, तो जो होता है और हो सकता है, वही हुआ। मित्र-मण्डली जुटने लगी, आमोद-प्रमोद में दिवस व्यतीत होने लगे। बाण ने स्वयं अपने समवयस्क मित्रों का परिचय देते हुए कहा है कि उनके मित्रों में एक प्राकृत का कवि था जिसका नाम वे ईशान भट्ट बताते हैं, एक लेखक भी था, एक कोई नाटककार भी था, एक मार्दङ्गिक (मृदङ्ग वादक) था, एक पुस्तकावरक, पुस्तकों पर आवरण चढाने वाला, आज के शब्दों में जिल्दसाज, एक आक्षिक (द्यूतक्रीड़ा में प्रवीण, जुआरी), एक नट, एक सैरन्ध्री, एक नर्तकी, एक मान्त्रिक, एक संगीत का अध्यापक, एक ऐन्द्रजालिक, एक धातुकर्म करने वाला ठठेरा, दो वंशीवादक, एक चिकित्सक का पुत्र, एक सुवर्णकार, एक रत्नाकर, पता नहीं नाम ही रत्नाकर था अथवा वास्तव में वह रत्नादि से समृद्ध भी था, संक्षेप में और भोजपुरिया शैली में कहें तो ‘लुहेंड़ों का बटोर’ था। गाँव में टोका-टाकी होती रही होगी, तो बाण ने पैतृक सम्पत्ति का अधिकाँश भाग साथ लिया और बाण तथा उनकी यह लण्ठमण्डली एक रात ग्राम से पलायन कर गयी। यद्यपि बाण हर्षचरितम्, प्रथम उच्छ्वास के अंतिम प्रकरण में इसे विद्याप्राप्ति हेतु गृहत्याग कहता है, किन्तु वास्तव में था वह चक्राटन अर्थात आवारागर्दी ही।
भ्रातरौ पारशवौ चन्द्रसेनमातृषेणौ, भाषाकदिरीशानः परं मित्त्रम्, प्रणयिनौ रुद्रनारायणौ, विद्वांसो वारबाणवासबाणौ, वर्णकविर्वेणीभारतः प्राकृतकृत्कुलपुत्रो वायुविकारः, बन्दिनादनङ्गबाणसूचीबाणौ, कत्यायनिका चक्रवाकिका, जाङ्गुलिको मयूरकः, कलादस्चामीकरः हैरिकः सिन्धुषेणः, लेखको गोविन्दकः, चित्रकृद्वीरवर्मा, पुस्तकृत्कुमारदत्तः, मार्दङ्गिको जीमूतः, गायनौ स्ॐइलग्रहादित्यौ, सैरन्ध्री कुरङ्गिका, वांशिकौ मधुकरपारावतौ, गान्धर्वोपाध्यायो दर्दुरकः, संवाहिका, केरलिका लासकयुवा ताण्डविकः, आक्षिक आखण्जलः, कितवो भीमकः, शैलालियुवा शिखण्डकः, नर्तकी हरिणिका, पाराशरी सुमतिः, क्षपणको वीरदेवः, कथकोजयसेनः, शैवो वक्रघोणः, मन्त्रसाधकः करालः, असुरविवरव्यसनी लोहिताक्षः, धातुवादविद्विहङ्गमः, दार्दुरिको दामोदरः, ऐन्द्रजालिकश्चकीराक्षः, मस्करी ताम्रचूडकः । स एभिरन्यैश्चानुगम्यमानो बालतया निघ्नतामुपगतो देशान्तरावलोकनकौतुकाक्षिप्तहृदयः सत्स्वपिपितृपितामहोपात्तेषु ब्राह्नणजनोचितेषु विभवेषु सति चाविच्छिन्ने विद्याप्रसङ्गे गृहान्निरगात्। (हर्षचरितम्, प्रथम उच्छ्वास)
यदि आय का स्रोत अवरुद्ध हो तो सञ्चित धन हिमालय जितना भी हो, व्यय होने में समय नहीं लगता। और जो धन के कारण मित्र बने हों, वे तभी तक मित्र रहते हैं जब तक उन पर धन का व्यय किया जाता रहे। तो बाण की यह मण्डली तितर-बितर हो गयी जिसमें सर्वप्रथम छिटका मयूरभट्ट! जाङ्गुलिक मयूरभट्ट, जो सर्प-विद्या का ज्ञाता भी था! किन्तु बाण अब क्या करें? लौट के बुद्धू घर को आये। किन्तु वह नर्तकी अभी भी बाण के साथ थी! और बाण में काव्य-प्रतिभा थी। अपने नाटककार मित्र के साथ उन्होंने नाटक के गुर भी कुछ सीखे ही थे, सो उन्होंने एक नाटक-मण्डली का गठन किया तथा स्थान-स्थान पर नाटकों का मञ्चन कर के अपना तथा मण्डली का उदर-पोषण करने लगे।
मनस्वी तथा योग्य व्यक्तियों की ख्याति प्रसरित होने में समय नहीं लगता किन्तु साथ ही उनसे सम्बंधित प्रवाद भी उसी तीव्रता से प्रसरित होते हैं। बाण तथा उनके नाट्यमण्डली की ख्याति तथा बाण के साथ एक नर्तकी भी रहती है इस सम्बन्ध में प्रवाद दोनों प्रसरित होने लगे और एक दिन बाण की वर्तमान दशा के सम्बन्ध में मयूरभट्ट को भी ज्ञात हुआ। वही मयूरभट्ट, जो बाण के चक्राटन के समय उसका सङ्गी रह चुका था और संयोग से उस समय हर्षवर्धन की राज्यसभा में प्रतिष्ठित हो चुका था। एक तो वह बाण का मित्र रहा था, और दूसरे वह बाण की प्रतिभा से विधिवत परिचित था अतः उसने हर्षवर्धन के चचेरे भाई कृष्णवर्धन से बाण के सम्बन्ध में चर्चा की तथा समझाया कि ऐसे व्यक्ति को राज्यसभा में स्थान मिलना चाहिये। कृष्णवर्धन को भी बाण के सम्बन्ध में कुछ-कुछ ज्ञात था क्योंकि उन्होंने कभी मालवा के शासक से, जो हर्ष का बहुत प्रिय था, हर्ष से की गयी बाण की निन्दा सुनी थी। मयूरभट्ट को आभास हुआ कि राजा को भी अवश्य बाण के सन्दर्भ में कुछ सूचनायें प्राप्त हैं इसी कारण उन्होंने अवश्य ही बाण के सम्बन्ध में कोई पृच्छा की होगी जिसका प्रथम उत्तर ही नकारात्मक मिलने के कारण वह उदासीन हो रहा अतः मयूर ने कृष्णवर्धन से एक प्रयास और करने का आग्रह किया। कृष्णवर्धन की सम्मति पाकर वे बाण से मिले, उन्हें हर्ष की सभा में आमंत्रित किया, तथा यथासंभव सहयोग का वचन भी दिया।
संभवतः बाण का वास्तविक नाम बाण नहीं था! आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में उनका प्रारम्भिक नाम ‘दक्ष भट्ट’ बताया है, किन्तु यह भी ध्यातव्य है कि अपनी इस रचना के प्रारम्भ से पूर्व ही वे ‘मिस कैथराइन’ को केंद्र में रख कर एक ऐसी कहानी प्रस्तुत करते हैं जिससे पाठक यह समझ ले कि उनके द्वारा प्रस्तुत बाणभट्ट की कथा इतिहास नहीं है। उपन्यासकार इतिहास का लेखक होता भी नहीं! वह तो मात्र कुछ संभावनाओं की ओर संकेत मात्र करता है। अतः ‘दक्ष’ नाम बता कर आचार्य ने मात्र यही संकेत किया है कि बाण का वास्तविक नाम बाण नहीं था। वास्तविक नाम क्या था यह ज्ञात नहीं और ज्ञात होने का कोई मार्ग, कोई सूत्र भी नहीं क्योंकि यद्यपि संस्कृत कवियों में बाण ही एक ऐसा कवि है जिसने अपने सम्बन्ध में पर्याप्त सूचनाएं अपनी रचनाओं में दी हैं किन्तु उसने अपना नाम सर्वतः बाण ही लिखा है अतः बाण बाण ही था और रहेगा!
हर्षवर्धन किसी कार्य से अचिरावती के तट पर आया था, वही अचिरावती जो अब राप्ती कही जाती है, और बाणभट्ट का ग्राम था आज के बिहार प्रान्त के औरंगाबाद जिले में। भाग्य ने बाण को पुकारा था, अतः बाण तत्काल हर्ष से मिलने चल पड़े। किन्तु जब बाण हर्ष से मिले तो संभवतः मुहूर्त कुछ उत्तम न था। वहाँ हर्षवर्धन का मित्र मालवा का वह शासक भी था जिसने बाण की कीर्तिकथा अल्प, अपकीर्ति की गाथा अधिक सुनी थी और हर्ष को सुनायी भी थी। उसे यह भी ज्ञात था कि बाण एक नर्तकी के साथ रहता है। उसने बाण को देखते ही कहा,“अयमसौभुजङ्गः!” – यह वही दुष्ट भुजंग है!
भुजंग वक्रोक्ति में चरित्रहीन व्यक्ति को कहते हैं। किन्तु बाण चरित्रहीन नहीं था। कवि तथा कवि-हृदय व्यक्तियों में एक रसिकता तो नैसर्गिक रूप से विद्यमान रहती है, सौन्दर्य के प्रति उनमें एक अबूझ आकर्षण भी होता है, दया, करुणा के भाव भी होते हैं किन्तु योगी, सिंह एवं कवि ये तीनों रमण-तृषा के दास नहीं होते! यही कारण है कि ये तीनों, तीनों में कवि भी, यदि वास्तव में कवि हुआ तो, दायें करवट सोते हैं। इसका क्या रहस्य है वह इस आलेख का विषय नहीं है। योगी तो उस तृषा पर विजय ही पा चुका होता है, सिंह को यह प्रकृति-प्रदत्त है तथा प्रगाढ़ कल्पना वाला कवि अपने कल्पना लोक में ही इतना रमा हुआ होता है कि उसे रमण-तृषा सताती ही नहीं! साथ ही एक नारी के साथ मित्रता का तात्पर्य सदैव वासनात्मक ही हो यह आवश्यक नहीं! और जो व्यक्ति चरित्रहीन न हो वह अपने चरित्र पर आक्षेप सहन नहीं कर सकता। बाण के पास था क्या जो हर्षवर्धन ले लेता? और हर्षवर्धन से कुछ पाने की आशा शेष रह नहीं गयी थी! तो बाण ने गरिमापूर्ण ढंग से इस आक्षेप का प्रबल प्रतिवाद किया तथा अपनी स्थिति स्पष्ट करने के उपरान्त लौट गया।
वह नर्तकी, जो बाण के साथ रहती थी, उसने जब यह वृत्तान्त सुना तो उसे ग्लानि हुई और एक रात्रि बिना कुछ कहे चुपचाप उसने बाण का आश्रय त्याग दिया। और उधर हर्षवर्धन स्वयं भी कवि था। उसने कवि की भावनाओं को समझा। बाण को पुनः आमंत्रण भेजा गया और इस बार बाण को हर्षवर्धन की राज्यसभा में स्थान प्राप्त हो गया।
मयूरभट्ट के माता-पिता भी अब सिधार चुके थे। उनकी एक अविवाहित अनुजा थी। नवनीत-पुत्तलिका सी, विदुषी, गृहकार्यदक्ष, कोमल, किन्तु एकमात्र भ्राता के अतिशय स्नेह से कुछ-कुछ मानिनी सी! और उधर बाण विद्वान् थे, युवा थे, विवाह योग्य आयु के थे, अब तक अविवाहित भी थे, मयूर भट्ट के सजातीय भी थे, उनकी अपकीर्ति का कारण बनने वाली नर्तकी का कोई पता न था और अब तो वे हर्षवर्धन की राज्यसभा के सभापण्डित भी थे! मयूर भट्ट ने अवसर देखा तथा लपक लिया। बाण तो बाण ही थे, न आगे नाथ न पीछे पगहा, तो उन्हें भी कोई आपत्ति नहीं थी, और उनकी ओर से आपत्ति करने वाला भी कोई न था। तो मयूर भट्ट ने अपनी अनुजा का विवाह बाण के साथ कर दिया। यायावर बाणभट्ट अब घरबारी हो चुका था और नाट्यमण्डली छोड़-छाड़ वह हर्षचरित लिखने लगा था।
यह उपकथा थी। कथा आगे है। किन्तु कथा और उपकथा के बीच एक अंतर्कथा भी है। कहते हैं कि बाण की प्रतिभा से मयूर के मन में तथा मयूर की प्रतिभा से बाण के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो गयी। दोनों ने दोनों का विरोध प्रारम्भ कर दिया, प्रतिस्पर्धी रचनायें करने लगे। राज्यसभा में दोनों के पक्ष में लोग बाणभट्ट एवं मयूरभट्ट की प्रशंसा एवं निन्दा करने लगे। बाण के पक्षधर मयूर को बाण की प्रतिभा के समक्ष हेय सिद्ध करते, मयूर के पक्षधर बाण को मयूर के समक्ष हेय बताते। समकालीनों के साथ पश्चवर्तियों द्वारा भी बाण तथा मयूर के काव्य की तुलना होती रही और राजशेखर ने, जो बाण के भी प्रशंसक थे, उन्होंने लिखा –
दर्पं कविभुजङ्गम् गता श्रवणगोचरम्। विषविद्येव मायूरी मायूरी वाङ् निकृन्तति ॥
(मयूर की वाणी सुनते ही भुजंगी कवि/कवियों के दर्प वैसे ही समाप्त हो जाते जैसे मयूर की विषविद्या से सर्पों का विष समाप्त हो जाता था।)
हर्षवर्धन को भी इस परिस्थिति में वक्रोक्ति सहनी पड़ी। नवसाहसांकचरित के लेखक पद्म्गुप्त परिमल ने लिखा –
स चित्रवर्णविच्छित्तिहारिणोरवनीपतिः। श्रीहर्ष इव सङ्घट्टं चक्रे बाणमयूरयो ॥
किन्तु वास्तव में इन सब का कारण क्या था, यह बहुत प्रचलित नहीं हुआ और इतिहास इस सम्बन्ध में लोक-जिह्वा का आश्रित हो कर रह गया।
इस सम्बन्ध में लोक में प्रचलित कथा अत्यन्त रोचक है। कहते हैं कि विवाह हो जाने के पश्चात् प्रथा के अनुरूप मयूरभट्ट अपनी अनुजा को पतिगृह से विदा कराने आये थे। शीत ऋतु थी। बाण ने पत्नी को विदा करने से मना कर दिया। यहाँ तक कोई विशेष बात न थी। रात्रिभोजन के उपरान्त मयूरभट्ट शयन को गये, बाणभट्ट भी अपनी पत्नी के साथ शयनकक्ष में पहुँचे। बाणभट्ट की पत्नी ने अपने भ्राता के समक्ष तो कुछ नहीं कहा किन्तु विदा न करने वाली बात से वे मन ही मन रुष्ट थीं।
विवाह को अभी बहुत दिन हुए नहीं थे। और बाण की श्रीमती जी रूप की धनी थीं, हीरे की कनी थीं, किन्तु संदर्भित प्रकरण के कारण अनमनी थीं अतः बाण क्या तनते, उस दिन वे ही बाण पर तनी थीं।
पर्यङ्क पर वल्लभ द्वारा मानिनी के ऊष्ण कटिबन्धन की अवहेलना हुई तो बाण का माथा ठनका! अब बाण मनुहारों में व्यस्त हो गये किन्तु उधर से कोई प्रेमल संकेत प्राप्त ही न हो! बाण को समझ में ही न आये कि करें तो क्या करें? धीरे धीरे रात्रि अपने अवसान को चली, प्रातःकाल बोलने वाला खग-कुल जाग उठा, किन्तु मानिनी का मानभङ्ग न होना था, न हुआ!
कवियों को जाने क्यों प्रत्येक समस्या का समाधान काव्य में सूझता है। बाण की श्रीमती जी भी विदुषी थीं, काव्य का वातावरण भ्राता के साथ रहते भी उपलब्ध था, और पतिगृह में भी, तो बाण ने सोचा कि कोई सद्यःनिर्मित छन्द सुना दें तो संभवतः प्रिया-परिणीता का कोप शान्त हो जाय! बाण ने अपने काव्य-कौशल का प्रयोग करते हुए एक छन्द रचा –
गतप्राया रात्रिः, कृशतनुशशी शीर्यत इव, प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णत इव ।
प्रणामान्तः कोपस्तदपि न जहासि क्रुधमहो,
[रात्रि व्यतीत होने को आयी, क्षीणगात्र चन्द्रमा भी ढलने ही वाला है, दीपक भी मानो निद्रावश झूम रहा है अर्थात् वह भी बुझने को हुआ। प्रायः मानिनियाँ प्रणाम करने पर अर्थात् स्वयं को पति के समक्ष श्रेष्ठ सिद्ध कर लेने के उपरान्त अपना क्रोध त्याग दिया करती हैं किन्तु तुम्हारा क्रोध तो शान्त ही नहीं हो रहा, . ..]
क्रुधमहो…, क्रुधमहो…, छन्द यहीं अँटक गया। अँटके भी क्यों न? मन तो कहीं और उलझा था बाण का! किन्तु अब बाण की रमण-तृषा तिरोहित हो चुकी थी। मानिनी को मनाने के स्थान पर अब बाण उलझे हुए छन्द को सुलझाने में व्यस्त हो गये किन्तु छन्द अँटका तो बेतुका अँटक गया।
गेय छन्दों के साथ एक युक्ति बहुत प्रभावी है। इनके सस्वर गायन से छन्दों का उलझाव सुलझ जाता है। बाण ने सोचा गा कर ही देख लें कि क्या हो सकता है। तो लगे गाने-
गतप्राया रात्रिः, कृशतनुशशी शीर्यत इव, प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णत इव,
प्रणामान्तः कोपस्तदपि न जहासि क्रुधमहो,
क्रुधमहो, क्रुधमहो, धत् तेरे की!
भोर हो गयी, किन्तु बाण न तो छन्द को ही सुलझा सके, न छन्दयष्टिनी अपनी मानिनी भार्या को ही मना सके। उजाला होने लगा तो अछता – पछता कर शयनकक्ष से बाहर निकले किन्तु छन्द तो कपाल पर चढ़ा बैठा था, अतः गुनगुनाते हुए ही निकले।
संयोग से मयूरभट्ट भी जाग चुके थे। उन्होंने बाण का छन्द सुन लिया।
अब कवियों को एक रोग और होता है। किसी अन्य का कुछ अच्छा लगा हो तो उसमें अपनी ओर से कुछ जोड़ने को उनका मन व्याकुल सा हुआ जाता है। मयूरभट्ट एक सिद्ध कवि थे, अतः यह रोग उनको भी था। उन्होंने प्रकरण तो जाना-समझा नहीं, चतुर्थ चरण प्रस्तुत कर दिया –
स्तनप्रत्यासत्त्या हृदयमपि ते चण्डि कठिनम्॥
[तुम्हारे कुचों, तुम्हारे स्तनों के, कठोर स्तनों के, निकट रहते-रहते तुम्हारा हृदय भी कठोर हो गया है।]
बाण अत्यन्त हर्षित हुए। किन्तु बाण की श्रीमती जी भी रात भर सोई कहाँ थीं? वे तो रात भर अपने पति के द्वारा किये जाते मनुहार का आनन्द लेती रही थीं। तो उन्होंने भी मयूर द्वारा सुझाया चतुर्थ चरण सुन लिया। गर्वित तो मन ही मन वे भी थीं ही – उनका पति उनके लिये छन्द रच रहा था। ऐसा होता कितनों के भाग्य में है कि उसका पति उसके लिये छन्द रचे? तो छन्द का मूल कारण – भाव वे थीं यह उन्हें तो ज्ञात था, किन्तु मयूरभट्ट को क्या ज्ञात था कि बाणभट्ट की इस रचना की नायिका उनकी अपनी ही अनुजा है? कविगण तो अपनी कल्पना में रम्भा, उर्वशी तथा मेनका से भी अधिक सुन्दरी नायिकाओं को गढ़ कर उन पर काव्य रचते रहते हैं। अब बाण की पत्नी ने अपने भाई द्वारा ‘स्तनप्रत्यासत्त्या हृदयमपि ते चण्डि कठिनम् ॥’ सुना तो पहले तो लज्जा से जड़ हो गयीं। उनके मुख में पति द्वारा दी हुई ताम्बूल-वीठिका के चर्वण के फलस्वरूप पीक भरी थी। उस पीक को पूगपात्र में न उगल कर उन्होंने क्रोध में मयूरभट्ट के ऊपर ही थूक दिया और अपने भ्राता को शाप दे बैठीं,“अपनी ही भगिनी के कुचों की कठोरता का वर्णन करते तुझे लाज न आयी? जा! जिस प्रकार पान की पीक के ये धब्बे तेरे वस्त्रों पर पड़े उसे दूषित कर चुके हैं, वैसे ही तेरी काया भी दूषित हो जाय! तुझे इसी क्षण कुष्ठ हो जाय!” बेचारा मयूर! उसे क्या पता था कि पति-पत्नी में रात्रि में क्या चलता रहा है? किन्तु जो होना था वह हो चुका था !
कुष्ठ रोग की निवृत्ति हेतु सूर्य आराधना सदा प्रभावी रही है। मयूर ने सूर्य की आराधना में स्रग्धरा छन्द में सूर्यशतक लिखा। कहते हैं कि इस रचना का छठा छन्द पूर्ण होते – होते मयूरभट्ट का रोग समाप्त हो गया। सूर्यशतक का वह छठा छन्द इस प्रकार है –
शीर्णघ्राणाङ्गिपाणीन्व्रणिभिरपघनैर्घर्घराव्यक्तघोषान्
दीर्घाघ्रातानघौघः पुनरपि घटयत्येक उल्लाघयन् यः।
धर्मांशोस्तस्य वोऽन्तर्द्विगुणघनघृणानिघ्ननिर्विघ्नवृत्तेः
दर्त्तार्घाः सिद्धसंघैर्विदधतु घृणयः शीघ्रमङ्गहोविघातम् ॥
[महान पापों के फलस्वरूप नासा, चरण तथा हाथों में इस कुष्ठ के कारण हुए व्रण को, जिसके कारण ध्वनि भी सुचारु रूप से न निकल कर घर्घर ध्वनि उत्पन्न हो रही है, उन्हें समाप्त कर, पुनः नवीन अंग प्रदान करने में सक्षम सूर्यदेव जो अबाध कृपा तथा अगाध दया करने वाले हैं, तथा जिनकी प्रखर रश्मियों के समक्ष सिद्ध साधकों का समूह अर्घ्य अर्पित करता है, तुम्हारे सम्पूर्ण पापों का सत्वर विनाश करें।]
मयूरभट्ट का यह ग्रन्थ प्रसिद्धि पाने लगा। इसके पारायण से लोग कुष्ठ का उपचार पाने लगे।
कहते हैं कि यह जान कर प्रतिद्वंद्विता में बाणभट्ट ने अपने हाथ पाँव स्वयं कटवा लिये तथा उन्होंने चण्डीशतक की रचना कर डाली और चण्डीशतक के प्रथम छन्द के छठे वर्ण के उच्चारण के साथ ही देवी चण्डिका ने बाण के अंगों को पहले सा कर दिया। बाण के चण्डीशतक का वह प्रथम छन्द यह है –
मा भांक्षीर्विभ्रमं भ्रूरधर विधुरता केयमास्यास्यरागं,
पाणे प्राण्येव नायं कलयसि कलहश्रद्धया किं त्रिशूलम्।
इत्युद्यत्कोपकेतून प्रकृतिमवयवान् प्रापयंत्येव देव्या
न्यस्तो वो मूर्घ्नि मुष्यान्मरुदसुहृदसून् संहरन्नङ्घ्रिरंहः ॥
कोप एक प्राकृतिक विकार है अतः आसुरी है। कोप उत्पन्न होने पर व्यक्ति का सहज भाव नष्ट हो जाता है, अतः बाण की आराध्या चण्डी चण्डीशतक के प्रथम छन्द में ही स्वयं से कहती हैं कि हे भ्रू! अपने (लोक के कल्याण करने वाले अक्षुब्ध) विभ्रम को भङ्ग मत करो! हे अधर! वैकल्य का यह अवसर ही नहीं है। हे मुख! अपना सहज रङ्ग मत त्यागो! अरे हाथ! यह असुर महिष भी एक प्राणी ही तो है? इससे कलह में तुम त्रिशूल क्यों सँभाल रहे हो? इस प्रकार अपने शरीर के जिन अवयवों में कोप के चिह्न प्रकट होने लगे थे उनको प्रकृतस्थ करके, देवी ने मरुद्गणों (देवों) के शत्रु के प्राण हरण करने हेतु अपना जो चरण उस (महिष) के सर पर रख दिया वह चरण आपके पापों का नाश करे।
देखने में तो इस छन्द का अर्थ बहुत ही सामान्य सा है, किन्तु वास्तव में यह छन्द ॐ ह्रीँ क्रोँ मन्त्र का न्यास तथा उद्धार दोनों करता है।
हमारे पास बाण एवं मयूर की प्रतिद्वंद्विता की इन जनश्रुतियों को प्रमाणित करने या झुठलाने, दोनों हेतु कोई साक्ष्य नहीं है। विद्वज्जन इन जनश्रुतियों पर विश्वास करते हैं तथा यत्र-तत्र इसका उल्लेख करते हैं किन्तु मेरी क्षुद्र बुद्धि से ये प्रचलित कहानियाँ बाणभट्ट तथा मयूरभट्ट के सम्बन्ध में किसी ऐसे तथ्य की ओर संकेत करती हैं जिनकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी अपने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ नामक उपन्यास में मयूरभट्ट का कोई उल्लेख नहीं किया और ऐसा सम्भवतः उन्होंने इसी कारण किया क्योंकि उन्हें भी इस जनश्रुति की शब्दशः सत्यता पर सन्देह रहा होगा। वैसे भी परस्पर सम्बन्धी, विद्वान्, हर्षवर्धन की राज्यसभा के दो कवि-रत्नों की परस्पर प्रतिद्वंद्विता का कारण ईर्ष्या अथवा यह सब जो कहा-सुना जाता है, वह रहा होगा यह स्वीकार करने में मन झिझकता है। सभ्यजनों के कलह में परस्पर उपानह-प्रक्षेप नहीं हुआ करता। तो इन कहानियों का प्रच्छन्न पक्ष है क्या?
वह प्रच्छन्न पक्ष है बाणभट्ट तथा मयूरभट्ट की भिन्न-भिन्न तांत्रिक साधनायें एवं उनकी पक्षधरता! मयूरभट्ट प्रबल सूर्य-साधक तथा आदित्य-तन्त्र का ज्ञाता था जबकि किशोरावस्था में बाणभट्ट जिस मान्त्रिक के सम्पर्क में आया था उसने बाणभट्ट को प्रबल शाक्तसाधक बना दिया था। और उस काल-खण्ड में सूर्य-साधना एवं शाक्त-साधना की दो प्रबल तन्त्र-धारायें साधकों को अपनी-अपनी ओर खींच रही थीं। स्वयं हर्षवर्धन का पिता प्रभाकरवर्धन सूर्योपासक था यह ज्ञात एवं ख्यात तथ्य है। बाण साम्ब-सदाशिव का भक्त था, यह उसकी रचनाओं से बारम्बार भासित है। अतः बाणभट्ट तथा मयूरभट्ट की प्रतिद्वंद्विता साहित्यिक क्षेत्र की नहीं तांत्रिक क्षेत्र की थी और दोनों ने अपने तन्त्र-मार्ग का वर्चस्व सिद्ध करने हेतु अपने-अपने इष्ट की अभ्यर्थना में शत-छन्द वाले काव्य लिखे और सम्भव है कि प्रतिद्वंद्विता में ही लिखे, किन्तु उन्होंने इस परस्पर प्रतिद्वंद्विता में संस्कृत साहित्य को दो महत्वपूर्ण भक्ति-परक तथा तन्त्रपरक ग्रन्थ प्रदान कर दिये। मनस्वियों एवं विद्वानों की प्रतिस्पर्धा परस्पर एक–दूसरे के साथ समाज को भी समृद्ध ही करती है, परस्पर अपमानित एवं अवमानित नहीं करती! बाण तथा मयूर ने कहीं भी एक दूसरे को लाञ्छित करता कुछ भी नहीं कहा है।
मयूर के सूर्यशतक तथा बाण के चण्डीशतक की कतिपय टीकाएँ उपलब्ध होती हैं किन्तु वे सभी काव्य-आधारित हैं। मेदपाट, आज का मेवाड़, जिसका शासक स्वयं को कभी शासक न मान कर सदा एकलिङ्ग का भृत्य, एकलिङ्ग का दीवान मान कर ही शासन करता रहा उसी मेदपाट के राणाओं में एक राणा कुम्भकर्ण हुए हैं, जिनकी लोक में ख्याति राणा कुम्भा के नाम से है। एकलिङ्ग के उपासक होने के साथ-साथ राणा कुम्भा शाक्त-तन्त्र के भी उद्भट ज्ञाता थे और तलवार के धनी राणा की कवित्वशक्ति भी प्रखर थी। उन्होंने बाणभट्ट के चण्डीशतक की तन्त्रपरक टीका लिख कर चण्डीशतक का आन्तरिक तांत्रिक रहस्य तो जगत के सम्मुख ला दिया किन्तु दुर्भाग्य से मयूरभट्ट के सूर्यशतक को आदित्य-तन्त्र का कोई ऐसा सिद्ध साधक जिसकी लेखनी भी प्रखर हो, नहीं मिल सका अतः वह अब भी ऐसे किसी साधक की प्रतीक्षा में है। साथ ही ये दोनों ग्रन्थ यद्यपि उपलब्ध हैं, किन्तु सरलता से नहीं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि बाणभट्ट की मात्र यही चण्डीशतक नाम की रचना ही पूर्ण है, जो संभवतः मयूरभट्ट से प्रतिस्पर्धा का ही प्रतिफल है अन्यथा बाण ने अपनी समस्त रचनाओं को अधूरा छोड़ दिया है। बाण अपने मन का एकराट् था तथा वह मन से ही यायावर था। कार्य कोई भी हो, मन किया तो किया, नहीं मन किया तो नहीं किया। बाण को मैं अकारण ही अपना मित्र थोड़े न मानता हूँ! बाण की ‘कादम्बरी’ तो उसकी मृत्यु हो जाने कारण न पूर्ण हो सकी, अन्यथा वह बाण की सर्वाधिक सरस एवं प्रौढ़ रचना है।
आत्मगौरव के वर्तमान का सृजन तथा उसकी रक्षा-सुरक्षा हम कितना कर रहे हैं, या करने का प्रयास ही कितना कर रहे हैं इस सम्बन्ध में टिप्पणी करने का मुझे अधिकार नहीं! इस सम्बन्ध में टिप्पणी यदि करनी होगी तो वह भविष्य करेगा। किन्तु इतना अवश्य कहना है कि अपने अतीत के गौरव के रक्षण-अनुरक्षण में हम भारतीय संवेदनहीनता की पराकाष्ठा तक पहुँचे हुए एवं नितान्त अकर्मण्य रहे हैं। हमारी अपनी संपत्ति, हमारे पूर्वजों की हमारी अपनी थाती, हमारे अपने मनीषियों का गौरव-आलेख हमें विदेशियों के माध्यम से ज्ञात हुआ। जिस देश का अपने पूर्वजों से प्राप्त उत्तराधिकार के प्रति ऐसा व्यवहार है उस देश को एक बार पुनः विश्वगुरु कहलाने की साध है यह विडम्बना नहीं तो और क्या है? अस्तु!
ऐसे सुकवि मयूरभट्ट की एक छोटी सी रचना है ‘मयूराष्टक’। और हमारा दुर्भाग्य है कि यह रचना एक विदेशी के माध्यम से प्रकाश में आयी। उससे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि यह रचना उसे सीली हुई तथा मत्कोटकों द्वारा भुक्त, नष्ट हो रही अवस्था में प्राप्त हुई। मात्र आठ छन्दों की यह रचना, जिसमें प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ छन्द स्रग्धरा छन्द में हैं तथा शेष छन्द शार्दूलविक्रीडित छन्द में, उसे सर्वप्रथम जी पी क्वेकेनबॉस तथा अनन्तर श्री ए वी विलियम्स जैक्सन महोदय ने कोलम्बिया विश्वविद्यालय के मुद्रणालय से प्रकाशित कराया तथा आज जहाँ भी मयूराष्टक की प्रतियाँ हैं, वे उसी प्रकाशन की प्रतिकृति हैं। इस कथन का प्रमाण यह है कि लेखपत्र पर मत्कोटकों द्वारा नष्ट किये गये वर्ण न समझे जाने के कारण क्वेकेनबॉस तथा विलियम्स महोदय ने उन स्थानों पर रिक्तियां छोड़ दी हैं तथा मयूराष्टक की प्रत्येक प्रतिलिपि में, जितनी मुझे प्राप्त हो सकीं, वे रिक्तियाँ यथावत हैं, अन्तर मात्र इतना है कि विलियम्स जैक्सन महोदय ने संस्कृत भाषा के देवनागरी वर्णों को अपने स्वार्थ्यवश ट्रांसलिटरेशन पद्धति में लिखा है और उनके प्रकाशित स्रोत से ग्रहण कर के अन्य प्रतिलिपियाँ उसी ट्रांसलिटरेशन से पुनः देवनागरी में ढाल ली गयी हैं। और इस देवनागरी – ट्रांसलिटरेशन – देवनागरी के उलथे ने कुछ, बहुत अधिक तो नहीं तब भी, कुछ त्रुटियों को भी जन्म दिया है।
श्री जैक्सन विलियम्स महोदय संस्कृत के अध्येता रहे, भारतीय संस्कृत साहित्य के प्रेमी रहे, और मयूरभट्ट की रचनाओं को प्रकाशित कर के उन्होंने हम पर उपकार ही किया किन्तु प्रत्येक भाषा की अपनी एक संस्कृति भी होती है जो परिवेश के साथ गुम्फित होती है। और जैसा कि कहा जा चुका है, शास्त्र तथा काव्य में एक अंतर होता है। शास्त्र शब्दार्थ से समझा जा सकता है, किन्तु काव्य मात्र शब्दार्थ से नहीं समझा जा सकता। किसी भी भाषा के काव्य की कुछ परम्परागत रूढ़ियाँ होती हैं, प्रयुक्त बिम्बों के कुछ विशिष्ट तात्पर्य होते हैं, आलंकारिक भाषा के अभिधा से अतिरिक्त भी कुछ लक्षणा एवं व्यञ्जना परक तात्पर्य होते हैं, और संस्कृत भाषा में तो एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते ही हैं, शब्द-संयोजनों के भी संधियों एवं समासों के परिणामस्वरुप भिन्न परिप्रेक्ष्य में अनेकों अर्थ हो जाते हैं। विलियम्स महोदय इन सबसे नितान्त तो नहीं किन्तु अधिकाँश अनभिज्ञ थे।
अतः उन्होंने लिप्यान्तरण में भी कुछ त्रुटियाँ की हैं, या ऐसा मुझे प्रतीत होता है कि उनसे त्रुटियाँ हुई हैं, और छन्दों का उनके द्वारा प्रस्तुत अर्थ तो नितांत नीरस है, जबकि मयूराष्टक एक शृंगार का अतिरेक स्पर्श करती रचना है। यद्यपि यह मुझ जैसे अकिञ्चन हेतु एक दुस्साहस ही है, फिर भी इस आलेख के माध्यम से मैं मयूरभट्ट की उस लघु रचना का अर्थ प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ।
ॐ नमः श्रीहरिहराभ्याम
एषा का प्रस्तुताङ्गी प्रचलितनयना हंसलीला व्रजन्ती
द्वौ हस्तौ कुङ्कुमार्द्रौ कनकविरचिता ..ू . . . . . . . ।
. . ंूगाङ्गेगता सा बहुकुसुमयुता बद्धवीणा हसन्ती
ताम्बूलम् वामहस्ते मदनवशगता गूह्य शालाम् प्रविष्टा॥१॥
कौन है यह? प्र स्तुतांगी – प्रकर्ष रूप से स्तुत्य अर्थात् प्रशंसनीय अंगों वाली, प्र चलित नयना – अत्यंत चंचल नेत्रों वाली, यह कौन है, जो ऐसे चल रही है जैसे कोई हंस लीलापूर्वक चलता हो? जिसके दोनों हाथ कुङ्कुम से आर्द्र हैं (या जिसकी दोनों कुङ्कुमवर्णी हथेलियाँ स्वेदार्द्र हैं), कनकविरचिता – सोने से बनी . . . . . . . .(लुप्त वर्णों के अर्थ बताना संभव नहीं) . . . ंूगाङ्गेगता – इस शब्द में ंूगाङ्गेगता में ंूगऽङ्गेगता स्पष्ट भासित होता है अतः – अङ्ग से लगा या लगी, वह, बहुकुसुमयुता बद्धवीणा – अनेकों पुष्पों से युक्त, एक बँधी हुई वीणा जैसी, हँसती हुई, ताम्बूलं वामहस्ते – बाएं हाथ में ताम्बूल लिये हुए, मदनवशगता मदन के, कामदेव के वशीभूत हो, गूह्य – गुप्त रूप से, शाला में भवन में, केलिगृह में प्रविष्ट हुई।
यहाँ एक क्षण रुकने को जी चाहता है। आपसे एक प्रश्न पूछने को जी चाहता है। क्या आपको ऐसा नहीं प्रतीत होता कि यह छन्द मात्र कुछ वर्णों के लोप से अपनी अधिकाँश कमनीयता तथा लालित्य खो चुका है? मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है और यह वर्णलोप सालता भी है। क्या इन लुप्त वर्णों की पूर्ति नहीं की जा सकती? अवश्य की जा सकती है किन्तु आज तक किसी भी विद्वान् ने इस सम्बन्ध में विचार तक नहीं किया। क्या कारण रहा होगा?
क्या इस छन्द को मात्र इस कारण इसकी असहाय अवस्था में छोड़ देना चाहिये कि यह मयूरभट्ट का छन्द है तथा इसे यथावत रहने देना चाहिये, भले ही यह भग्नावस्था में ही हो? या संस्कृत के विद्वानों तथा काव्यकारों को यह साहस नहीं हो पाया कि वे मयूरभट्ट के इस छन्द का सौन्दर्य लौटाने हेतु कोई शल्य वा क्रिया करें? क्या इस छन्द के लुप्त वर्णों के स्थान पर यदि कोई उपयुक्त वर्ण स्थापित कर दिया जाय जिससे यह छन्द अपना सौन्दर्य पुनः अर्जित कर सके तो इससे मयूरभट्ट का अपमान हो जायेगा? मेरा विनम्र निवेदन है कि नहीं! जब ईश्वर की रचना में कोई अंग-भंग होता है तो उसकी शल्यक्रिया में संकोच नहीं, कृत्रिम अंगों के स्थापन में कोई दोष नहीं तो इस छन्द को भी पूर्ण करने में कोई दोष नहीं होना चाहिये। सत्य है, कि वह कृत्रिम जोड़ मयूरभट्ट के स्तर का नहीं होगा, किन्तु छन्द की कुरूपता का कुछ तो ह्रास होगा!
समस्या-पूर्ति साहित्य की अत्यन्त पुरानी विधा रही है। किसी एक शब्द या शब्द-युग्म पर भावपूर्ण छन्द रचना, या किसी पङ्क्ति को किसी छन्द में भावपूर्ण ढंग से गुम्फित करना साहित्यिक समाज का अत्यंत पुरातन विनोद-साधन रहा है। स्वयं मयूरभट्ट भी काशी की एक विद्वत्सभा में एक समस्यापूर्ति प्रतियोगिता में विजेता रहे तथा इसी घटना के बाद उनकी प्रसिद्धि इतनी हुई कि वे हर्ष की सभा में स्थान पा सके। सूर्यशतक की ‘भावबोधिनी’ टीका में मधुसूदन ने उस घटना का उल्लेख किया है। कहते हैं कि काशी में एक बार एक समस्यापूर्ति प्रतियोगिता हुई थी जिसमें ‘मुण्डमण्डन’ शब्द को केन्द्र में रख कर एक सारगर्भित रचना करनी थी। इस प्रतियोगिता में मयूर ने प्रथम स्थान प्राप्त किया था। मयूरभट्ट की वह रचना भी दुर्भाग्य से खण्डित अवस्था में ही प्राप्त होती है जो इस प्रकार है –
पुरा किल शरच्चंद्रखण्डमण्डितकपालकपालितारकब्रह्मदानवारितक्षेत्रक्षीणकलेवरो वाराणस्यां अशेषशास्त्रविचारसंग्रामवेदवेदान्तादिविद्यावित्तवेतनग्राहीकृतान्तेवासिभाताजिताशेष ब्रह्माण्डभाण्डोदारा . . . .मुण्डमण्डनविद्वत्गणावैरी रीतित्रयान्विताकविताययाजिता कविराजराजिकाव्यासुजातगर्वस् तपःखर्वीकृताशेषातपोधनो महामहोपाध्यायाः श्रीमन् मयूरभट्टः . . . इत्यादि। बाणभट्ट अपनी रचना कादम्बरी को अपूर्ण छोड़ गये। बाण सा कोई अन्य कवि न था, न है, किन्तु उनके पुत्र भूषणभट्ट ने प्रयास किया तथा उसे पूर्ण किया। तो मयूरभट्ट के इस छन्द के लुप्त वर्णों की पुनर्स्थापना को काव्य की एक समस्यापूर्ति के रूप में क्यों नहीं ग्रहण किया जा सकता? मैं अल्पज्ञ यह प्रयास अवश्य करूँगा, चाहे इसमें सफलता प्राप्त हो अथवा नहीं। और यह मेरा काव्यदर्प नहीं है, मात्र एक विनम्र प्रयास है। जैसा कि भूषणभट्ट ने अपने पिता की रचना को पूर्ण करने के प्रयास में कहा था –
याते दिवं पितरि तद्वचसैव सार्ध, विच्छेदमाप भुवि यस्तु कथाप्रबन्धः।
दुःखं सतां यदसमाप्तिकृतं विलोक्य, प्रारभ्य* एव स मया न कवित्वदर्पात्॥
[पिता के इस संसार से प्रस्थान करते ही उनके अधूरे वचन के ही समान यह आधा कथा-प्रबन्ध (अधूरी कादम्बरी) संसार में बिखर गया। इसके असमाप्ति, इसकी अपूर्णता के कारण सज्जनों के मन में जो दुःख होता है उसे देख कर ही मैंने इसे पूर्ण करने का प्रयास प्रारम्भ किया है, किसी कवित्व-दर्प के कारण नहीं!
*प्रारभ्य के स्थान पर कुछ पाठों में प्रारब्ध भी मिलता है, तदनुसार अर्थ हुआ कि यह मेरा प्रारब्ध है।]
मेरा निवेदन भी ऐसा ही है। इस छन्द की अपूर्णता से खिन्न मैंने इसे पूर्ण करने का प्रयास किया है, किसी कवित्व-दर्प से नहीं! और मयूरभट्ट जैसे कवि के सम्मुख मेरा दर्प है भी किस कोटि का?
मूक हो जग को शास्त्र पढ़ावे, कामिनि से करहीन लपट्टे।
पङ्गु हो और पहाड़ चढ़े, वपु वामन हो, विधु हेतु झपट्टे॥
मयूर के पाँखि को रङ्ग कोऊ दृगहीन गिनावन को जा डट्टे।
नीच निचाई को साखी धरे बरु, ऊँच के का रत्ती भरि घट्टे॥१॥
खण्डित चक्र सो वक्र रहे तउ होय त्रिलोचन सीस के वासी।
मयङ्क पे कोउ कलङ्क कथा जो उछाले तो होय मयङ्क उदासी??
राहु ग्रसे कबहूँ घनघोर घिरे कबहूँ पावस-घनरासी।
चन्द्र गगन में दिखै न दिखै, तिथि पूरनमासी, तो पूरनमासी॥२॥ (स्वरचित)
अतः मुझे विश्वास है कि मेरे प्रयास से न तो मयूरभट्ट की कोई अवमानना होगी, और न ही यह मेरा अहंकार समझा जाएगा।
किन्तु यह इतना सरल नहीं है। प्रथम तो यह छन्द स्रग्धरा छन्द में निबद्ध है अतः वर्ण संयोजन तदनुरूप होना चाहिये, पुनश्च मूल कवि की अभियक्ति अप्रतिहत रहनी चाहिये। किन्तु प्रयास तो करना होगा!
स्रग्धरा छन्द का जैसा नाम ही है – स्रक् धरा, स्रक् का अर्थ माला, धरा का अर्थ धारण करने वाली, यह छन्द वास्तव में वर्णों की एक सुन्दर माला सा है। इस छन्द की परिभाषा देते हुए कहा गया है – म्रभ्नैर्यानां त्रयेण, त्रिमुनियतियुता, स्रग्धरा कीर्तितेयम्। मगण (ऽऽऽ), रगण (ऽ।ऽ), भगण(ऽ।।), नगण(।।।) फिर क्रम से तीन यगण (।ऽऽ ।ऽऽ ।ऽऽ), इस प्रकार कुल इक्कीस वर्णों के चरण वाला जिसमें तीन बार सात – सात वर्णों पर यति होती है, वह स्रग्धरा छन्द है।
जिस द्वितीय चरण में वर्ण लुप्त हैं उनका परीक्षण करें तो
ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ । । । ।। । ऽ ऽ । ऽ ऽ । ऽ ऽ
द्वौ हस्तौ कुङ्कुमार्द्रौ कनकविरचिता ..ू . – – . – – ।
अर्थात् एक गुरु वर्ण जो निश्चित ही ूकार हो, पुनः एक लघु वर्ण, तत्पश्चात दो गुरु वर्ण, पुनः एक लघु वर्ण, तत्पश्चात पुनः दो गुरु वर्ण प्रस्थापित करने पर यह चरण पूर्ण हो सकता है। अतः यदि लुप्त वर्णों के स्थान पर ‘भूषितौ कङ्कणानाम्’ का उपयोग कर लें तो यह चरण पूर्ण हो जाएगा।
ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ । । । ।। । ऽ ऽ। ऽ ऽ । ऽ ऽ
द्वौ हस्तौ कुङ्कुमार्द्रौ कनकविरचिता भूषितौ कङ्कणानाम् ।
जिसके दोनों हाथ कुङ्कुम से आर्द्र तथा कनक-विरचित कङ्कणों से भूषित हैं।
या यदि भूषितौ भूषणानाम् (ऽ।ऽ ऽ।ऽऽ) भी प्रतिस्थापित कर दें तो भी छन्द संतुष्ट होता है – जिसके दोनों हाथ कुङ्कुम से आर्द्र तथा कनक-विरचित आभूषणों से भूषित हैं। किन्तु तृतीय चरण से इन दोनों प्रयासों की संगति कुछ अच्छी नहीं बैठती। तृतीय चरण है –
ऽऽ ऽऽ। ऽ ऽ ।।। । ।। ऽ ऽ। ऽ ऽ । ऽ ऽ
. . ंूगाङ्गेगता सा बहुकुसुमयुता बद्धवीणा हसन्ती,
उत्तुङ्गाङ्गेगता (ऽऽऽ ऽ।ऽ) शब्द तृतीय चरण में प्रयोग किया जा सकता है, और इसके अतिरिक्त कोई अन्य शब्द यहाँ उपयुक्त है ही नहीं, किन्तु तब द्वितीय चरण से संगति नहीं बनती। और द्वितीय चरण की जो पूर्ति हुई है वह काव्य नहीं है, वह मात्र गणित है। आचार्य भामह ने कहा है –
गतोस्तमर्को भातीन्दुः यान्ति वासाय पक्षिणः। इत्येवमादिकं काव्यं वार्तामेताम् प्रचक्षते॥
सूर्य छिप चुका है, चन्द्रमा दिख रहा है, पक्षीगण निवास हेतु (अपने घोसलों को) जा रहे हैं, इत्यादि शब्दार्थ काव्य हैं क्या? यह तो साधारण वार्ता हुई! अतः छन्द की संतुष्टि के पश्चात भी कवि-संतुष्टि नहीं होती। मयूर होते, तो ऐसा न लिखते।
अन्ततः इस छन्द को मैं इस प्रकार पूर्ण करना चाहूँगा –
एषा का प्रस्तुताङ्गी प्रचलितनयना हंसलीला व्रजन्ती
द्वौ हस्तौ कुङ्कुमार्द्रौ कनकविरचिता मूर्ति कण्ठेधरास्रक्।
उत्तुङ्गाङ्गेगता सा बहुकुसुमयुता बद्धवीणा हसन्ती
ताम्बूलम् वामहस्ते मदनवशगता गूह्य शालाम् प्रविष्टा॥१॥
मूर्ति कण्ठेधरास्रक् (ऽ। ऽऽ।ऽऽ) छन्द को भी संतुष्ट करता है, तृतीय चरण से संगति भी है और एक सूक्ष्म चमत्कार भी उपस्थित है, धरास्रक् स्रग्धरा छन्द को भी प्रतिविम्बित करता है। अब इस छन्द का अर्थ इस प्रकार हुआ –
कौन है यह प्रशंसनीय अंगों वाली? अत्यंत चंचल नेत्रों वाली, यह कौन है, जो ऐसे चल रही है जैसे कोई हंस लीलापूर्वक चलता हो? जिसके दोनों हाथ कुङ्कुम से आर्द्र हैं (या जिसकी दोनों कुङ्कुमवर्णी हथेलियाँ स्वेदार्द्र हैं), जो सुवर्णनिर्मित मूर्ति जैसी है तथा जिसके कंठ में बहुकुसुमयुता अनेकों पुष्पों से निर्मित माला है जो उसके उन्नत अङ्ग (उरोजों से) लगी है? वह, एक बंधी हुई वीणा जैसी, हँसती हुई, हाथ में ताम्बूल लिये हुए, कामदेव के वशीभूत हो, गुप्त रूप से, केलिगृह में प्रविष्ट हुई।
एक बात यहाँ खटकती है। या तो नक़ल करते समय लिपिकार को मूल को समझने में कोई त्रुटि हुई है, या संभवतः मयूर ही चूक गये हैं, किन्तु जो भी हो, यदि मैं होता तो बद्धवीणा के स्थान पर बद्धव्रीड़ा शब्द का प्रयोग करता – लज्जा से आबद्ध हँसती हुई, लज्जालु हँसी हँसती हुई। किन्तु वह तो अब जो है सो है, उसमें परिवर्तन अपराध होगा। अस्तु!
एषा का भुक्तमुक्ता प्रचलितनयना स्वेद लग्नाङ्गवस्त्रा
प्रत्यूषे याति बाला मृग इव चकिता सर्वतश्शङ्कयन्ती ।
केनेदम् वक्त्रपद्मम् स्फुरदधररसं षट्पदेनैव पीतं
स्वर्गः केनाद्य भुक्तो हरनयनहतो मन्मथः कस्य तुष्टः ॥२॥
यह कौन बाला है जो भोग के उपरान्त मुक्त किये जाने पर प्रत्यूष काल में (भोर के समय) अपने चञ्चल नेत्रों से चारों ओर एक हरिण की भाँति चकित एवं शङ्कालु दृष्टि से देखती हुई जा रही है जिसके वस्त्र (रतिक्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न) स्वेद के कारण उसके अंगों से चिपके हुए हैं? कौन है यह कमल के समान सुन्दर आनन वाली जिसके स्फुरित अधर से झरते रस को किसी ने वैसे ही चूस लिया है जैसे कोई भ्रमर कमल की पंखुड़ियों से पराग चूस लेता है? इसका स्वर्गिक भोग कर के किसने शिव के नेत्र से हत हुए मन्मथ को, शिव के तृतीय नेत्र की ज्वाला से मृत्यु को प्राप्त हो चुके कामदेव को, संतुष्ट किया होगा? (कतिपय पाठों में इस छन्द में प्रचलितनयना के स्थान पर प्रहसितवदना भी प्राप्त होता है तथा वही उचित भी प्रतीत होता है क्योंकि प्रचलितनयना का प्रयोग प्रथम छन्द में हो चुका है और सिद्ध कवि पुनरुक्ति से बचते हैं।)
एषा का स्तनपीनभारकठिना मध्ये दरिद्रावती
विभ्रान्ता हरिणी विलोलनयना संत्रस्तयूथोद्गता ।
अंतःस्वेदगजेन्द्रगण्डगलिता संलीलया गच्छति
दृष्ट्वा रूपमिदं प्रियाङ्गगहनं वृद्धोऽपि कामायते ॥३॥
जिसके पुष्ट एवं कठोर स्तन अपने भार मध्य स्वेद-द्रवित हो रहे हैं तथा जो अपने झुण्ड से अलग हुई, एक भटकी हुई हरिणी के समान संत्रस्त अपने इतस्ततः भटकते नेत्रों से इधर-उधर देख रही है? हस्ति-यूथप गजेन्द्र के गण्डस्थल से स्रवित मद के समान उसके जघनस्थल मध्य से स्रवित (रति-आतुर) अन्तः-स्वेद को छिपाने हेतु अभिनयपूर्वक चलती जा रही उस प्रिय अंगों वाली के रूप को देख कर तो वृद्ध भी काम मोहित हो जाय!
वामेनावेष्टयन्ति प्रविरलकुसुमम् केशभारम् करेण
प्रभ्रष्टम् चोत्तरीयम् रतिपतितगुणाम मेखलाम् दक्षिणेन,
ताम्बूलं चोद्वहन्ती विकसितवदना मुक्तकेशानरागा
निष्क्रान्ता गुह्यदेशान् मदनवासगता मारुतम् प्रार्थयन्ती॥४॥
वामहस्त से अपने घने केशों को, जिसमें गूँथे हुए पुष्पों में से अब कुछ ही शेष बचे हैं, संभालती (लपेटती या बाँधती) तथा दाहिने हाथ से रतिक्रिया के समय जिसकी डोरी गिर गयी उस कटिमेखला को सँभालती, अपने मुक्त केशों पर तथा उत्फुल्ल काया पर प्रेमपूर्वक ताम्बूल के अंश ढोती (प्रियतम के होठों से चुम्बित होने के फलस्वरुप उसके चर्वित ताम्बूल के अंश जिसके केशों तथा काया पर यत्र-तत्र लगे हैं), देह के गुह्यभाग जो उत्तरीय के स्थानच्युत होने से निष्क्रांत अर्थात् दिखाई देने लग रहे हैं, उन्हें छिपाने हेतु अपना उत्तरीय सँभालती पवन से प्रार्थना करती है कि वह ऐसा न करे अर्थात् उसका उत्तरीय न उड़ाए।
एषा का नवयौवना शशिमुखी कान्तापथी गच्छति
निद्राव्याकुलिता विघूर्णनयना सम्पक्वबिम्बाधरा ।
केशैर्व्याकुलिता नखैर्विदलिता दन्तैश्च खण्डीकृता
केनेदं रतिराक्षसेन रमिता शार्दूलविक्रीडिता॥५॥
यह मार्ग पर जाती हुई नवयौवना, चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख वाली सुन्दरी कौन है जिसके घूर्णित नेत्र निद्रा से व्याकुल हैं, जिसके अधर पके हुए बिम्बाफल के समान रक्तिम हैं, जिसके केश बिखरे हुए हैं, जो नख-क्षतों से दलित तथा दन्त-क्षतों से खण्डित की जा चुकी है? किसने इसके साथ राक्षसी वृत्ति से रतिक्रिया की है या किसी शार्दूल की भाँति, सिंह की भाँति इसके साथ रमण किया है?
एषा का परिपूर्णचन्द्रवदना गौरीमृगा क्षोभिनी
लीलामत्तगजेन्द्रहंसगमना – – . – – . – ।
निःश्वासाधरगन्धशीतलमुखी वाचा मृदूल्लासिनी
स श्लाघ्यः पुरुषस्स जीवति वरो यस्य प्रिया हीदृशी ॥६॥
यह पूर्ण चन्द्रमा के समान गौर वर्ण देह वाली कौन है जो मृग के मन में भी अपनी गति से क्षोभ उत्पन्न कर रही है? लीलामत्त गजेन्द्र अथवा हंस की भाँति गमन करने वाली, [इस छन्द के भी कुछ वर्ण इस स्थान पर लुप्त हैं] उसके अपने ही निःश्वास से उसके अधरों की सुगन्ध उसका मुख शीतल किये है, जिसकी वाणी मृदुल तथा उल्लासपूर्ण है? वह पुरुष श्लाघ्य है, पुण्यवान है, वह बहुत दिनों तक जिये, जिसकी ऐसी श्रेष्ठ प्रियतमा है।
इस छन्द में भी कुछ वर्ण लुप्त हैं। यह शार्दूलविक्रीडित छन्द है जिसकी परिभाषा के अनुसार इसके प्रत्येक चरण में उन्नीस वर्ण होते हैं। सूर्याश्वैर्यपि मः स जौ स ततगा शार्दूलविक्रीडितम्। सूर्य तथा अश्व अर्थात् द्वादश वर्ण के पश्चात् तथा पुनः सात वर्ण के पश्चात् यति होती है तथा इस छन्द का प्रत्येक चरण मगण(ऽऽऽ) सगण(॥ऽ) जगण(।ऽ।) सगण(॥ऽ) तगण (ऽऽ।) तगण (ऽऽ।) तथा अंत में एक गुरु वर्ण (ऽ) से मिल कर बनता है। इस प्रकार यदि इस छन्द के जिस चरण में वर्णलोप है उसे परीक्षित करें तो –
ऽ ऽ ऽ । । ऽ । ऽ॥ । ऽ ऽ ऽ। ऽ ऽ। ऽ
लीलामत्तगजेन्द्रहंसगमना – – . – – . –
स्पष्ट है कि दो गुरु वर्ण, फिर एक लघु वर्ण, फिर दो गुरु वर्ण तथा एक लघु वर्ण तथा अंत में एक गुरु वर्ण का लोप हुआ है। नायिका के नख-शिख वर्णन का अभ्यास करने वाला कोई भी कवि यहाँ थोड़े से प्रयास से समस्या-पूर्ति करने में सक्षम हो सकता है। मैं लुप्त वर्णों के स्थान पर व्यालैव वेणीयया को प्रतिस्थापित करना चाहूँगा और तब वह चरण जिसके वर्ण लुप्त हैं इस प्रकार होगा – लीलामत्तगजेन्द्रहंसगमना व्यालैव वेणीयया – लीलामत्त गजेन्द्र अथवा हंस की भाँति गमन करने वाली, जिसकी वेणी सर्प की भाँति है। अस्तु।
एषा का जघनस्थली सुललिता प्रोन्मत्तकामाधिका
भ्रूभङ्गम् कुटिलम् त्वऽनङ्गधनुषः प्रख्यम् प्रभाचन्द्रवत् ।
राकाचन्द्रकपोलपङ्कजमुखी क्षामोदरी सुन्दरी
वीणीदण्डमिदम् विभाति तुलितम् वेलाद्भुजम् गच्छति ॥७॥
कौन है यह, जिसकी सुललित जघनस्थली कामातिरेक से उन्मत्त हुई जा रही है, जिसकी कुटिल (वक्राकार) भ्रूभंगी कामदेव के धनुष के समान प्रतीत होती है, चन्द्रमा के समान प्रभा से युक्त कमल के समान मुख वाली, जिसके कपोल चन्द्रमा जैसे हैं, तथा पतली कटि वाली इस चली जा रही सुन्दरी की भुजाएँ वीणा के दण्ड के सामान सुचिक्कण एवं पुष्ट लग रही हैं जो ऐसे लहरा रही हैं जैसे सागर की लहरें हों। (वेला का अर्थ सागर की लहर होता है।)।
यहाँ यह कहना अनुचित न होगा कि शब्द वीणीदण्डमिदम् न हो कर वीणादण्डमिदम् होना चाहिये जो लिपिकार की त्रुटि है।
एषा का रतिहावभावविलसच्चन्द्राननम् बिभ्रती
गात्रम् चम्पकदामगौरसदृशं पीनस्तनालम्बिता।
पद्भ्यां संचरति प्रगल्भहरिणी संलीलया स्वेच्छया
किं चैषा गगनाङ्गना भुवितले संपादिता ब्रह्मणा ॥८॥
इति श्री मयूराष्टकम् समाप्तम्।
कौन है यह जिसके चन्द्रानन पर रति सम्बंधित हाव-भाव विलास कर रहा है, जिसका चम्पक-माल जैसा गौर शरीर भारी स्तनों के बोझ से झुका जा रहा है, एक प्रगल्भ हरिणी की भाँति लीलापूर्वक जो स्वेच्छा से चली जा रही है, इस गगनाङ्गना को, इस अप्सरा को, ब्रह्मा ने क्या सोच कर भूतल पर उतारा?
भगवत्पाद श्रीमच्छङ्कराचार्य ने अपने महनीय ग्रन्थ ‘सौन्दर्य लहरी’ में वसन्त को कामदेव का सामन्त कहा है – वसन्तः सामन्तो मलयमरुदायोधनः रथः – वसन्त ही जिसका सामन्त है तथा मलय-पवन ही जिसका युद्धक रथ है। कामदेव का सामन्त यह वसन्त विगत दो वर्षों से बड़ा सकुचाता हुआ आ रहा है, क्योंकि संसृति पर एक रक्तबीजी संत्रास की छाया मंडरा रही है। अतः वसन्त आता रहा है खेतों में, उद्यानों में, उपवनों में, वनों में, किन्तु वह मनों में नहीं आ रहा। मनों में तो वस् अन्त (जीवन के अन्त) की एक आशङ्का समायी है। और खेतों, वाटिकाओं, वनों से भी, वसन्त अब जा रहा है।
सत्य है कि किसी विवशतावश वसन्त की अगवानी ढंग से न हो सकी, किन्तु उसकी विदाई तो उसके गरिमानुरूप होनी ही चाहिए! अतः यह आलेख वसन्त को उसकी विदा के समय दिया जाने वाला एक क्षुद्र उपहार है और साथ ही वसन्त से यह प्रार्थना भी है कि हे वसन्त! अगले वर्ष जब आना, तो खेतों, उद्यानों, उपवनों तथा वनों के साथ मेरे देश के जनों के मनों में भी आना और उनमें हुलास के कुछ नव-किसलय उगाना, प्रेम के कुछ नव-कुसुम खिलाना। हम मनुपुत्र हैं! हमने ऐसे न जाने कितने संत्रास अपनी कठिन छाती पर झेल कर और अपनी जिजीविषा से ठेल कर किनारे किये हैं अतः हम यह आशा करते हैं कि अगले वर्ष जब तुम आओगे, हम सब तुम्हारा भव्य स्वागत कर सकने की स्थिति में होंगे।
इति शम्।
आभार
इन पंक्तियों का लेखक मयूराष्टक के ट्रांसलिटरेटेड संस्करण हेतु श्री जी पी क्वेकेन्बोस की The Mayurashtaka, an unedited Sanskrit Poem by Mayura, Journal of American Oriental Society, 1911, Vol 31, No. 4, 1911 pp 343 – 354 का आभारी है।
अद्भुत दादा❤️
प्रणाम 🙏
अद्भुत कथा!
🙏
संस्कृत ग्रंथ रक्षा में, अंग्रजों की अहमियत को नजरभी न।किया जा।सके है। नवीन तथ्य!
👍👍
शब्द कम पड़ जा रहे हैं… मन के भावों को व्यक्त करने में…ये शब्दों का दोष है या भावों का?
🙏अद्भुत
उत्तम। इस लेख को लिखने हेतु तथा पादपूर्ति करने हेतु आप ही उचित अधिकारी हैं।
धन्यवाद बन्धो! आनन्द आ गया।
वाह दद्दा @त्रिलोचन जी !! क्या उद्घाटित किया है………🥰 रोमाञ्चकारी….. अद्भुत काव्य शिल्प शल्य !!
आपकी कृपा से “क्रुधमहो” वाला पहले पढ़ा था, पर इसे पढ़ कर आनन्द आ गया !!
आपकी छत्र-छाया बनी रहे !!