पद्मपुराण (236,18-21) के वर्गीकरण में नारदपुराण सात्त्विक श्रेणी में रखा गया है, वहीं गरुड़पुराण के वर्गीकरण (1,45-53) में इस पुराण का नाम ही नहीं है। यदि वहाँ शिवपुराण के स्थान पर वायुपुराण मानें, तो नारदपुराण के स्थान पर आदित्यपुराण पड़ता है। मुख्य 18 पुराणों की सूची में आदित्य नाम का पुराण अन्यत्र नहीं है, न ही उसका कुछ उपलब्ध है। सम्भव है कि सौर उपासना से प्रभावित कोई पुराण कभी रहा हो या किसी बृहद पुराण का आदित्य प्रोक्त अंश ही आदित्यपुराण कहलाता रहा हो। उल्लेखनीय है कि शिवपुराण में वायवीय संहिता मिलती है जिसका सम्बन्ध वायुपुराण नाम से होने के अनुमान लगाये जाते हैं।
पद्म पुराण, स्वर्ग खण्ड (62, 2-7) में नारदपुराण को श्रीहरि की नाभि बताया गया है :
एकं पुराण रुप वै तत्र पाद्मं परं महत् । ब्रह्मं मूर्धा हरेरेव हृदयं पद्मसंज्ञकम्॥
वैष्णवं दक्षिणो बाहुः शैव वामो महेशितुः । उरु भागवतं प्रोक्तं नाभिः स्यान्नारदीयकम्॥
मार्कण्डेयं च दक्षांग्रिर्वामो ह्याग्रेयमुच्यते । भविष्यं दक्षिणो जानुर्विष्णोरेव महात्मन: ॥
ब्रह्मवैवर्तसंज्ञं तु वामज्जानुस्नदाहृतः । लैऽगैं तु गुल्फकं दर्क्ष वाराहं वामगुल्फकम् ॥
स्कान्दं पुराण लोमानित्वगस्य वामनं स्मृतम् । कौर्मपृष्ठं समाख्यातं मात्स्यम्मेदः प्रकी्र्तितम् ॥
मज्जा तु गारुडं प्रोक्तं ब्रह्माण्डमस्थि गीयते । एवमेवाभवद्विष्णुः पुराणाव्यवो हरिः ॥
इस पुराण का आरम्भ वृन्दावनवासी कृष्ण को उपेन्द्र अर्थात विष्णु सम्बोधित करते हुये होता है । ब्रह्मा विष्णु महेश को आदि देव का अंश बताते हुये उनकी स्तुति दूसरे श्लोक में की गयी है :
वृन्दे वृन्दावनासीनमिन्दिरानन्दमन्दिरम् । उपेन्द्रं सांद्र कारुण्यं परानन्दं परात्परम् ॥
ब्रह्मविष्णुमहेशाख्या यस्यांशा लोकसाधकाः । तमादिदेवं चिद्रू पं विशुद्धं परमं भजे ॥
नैमिषारण्य में छब्बीस हजार ऊर्ध्वरेता मुनिगण एकत्र हो शौनक से पृथ्वी के पवित्र क्षेत्र एवं तीर्थ, त्रिविध ताप से मुक्ति, विष्णु की अविचल भक्ति एवं त्रिविध कर्मों के फल के बारे में पूछते हैं । शौनक उन्हें सिद्धाश्रम में अपराजित भगवान नारायण का अग्निष्टोम के माध्यम से यजन पूजन करते सूत रोमहर्षण के पास ले जाते हैं। वे व्यास को साक्षात नारायण का स्वरूप बताते हैं जिनसे सूत ने पुराणों का उपदेश प्राप्त किया होता है :
युगे युगेऽल्पकान् धर्मान् निरीक्ष्य मधुसूदनः । वेदव्यासस्वरूपेण वेदभागं करोति हि ॥
वेदव्यासमुनिः साक्षान्नारायण इति द्विजाः । शुश्रुमः सर्वशास्त्रेषु सूतस्तु व्यासशासितः ॥
तेन संशासितः सूतो वेदव्यासेनधीमता । पुराणानि स वेत्त्येव नान्यो लोके ततः परः ॥
इस पुराण में एक अनोखी बात है। अन्यों में जिसके नाम से पुराण होता है, वह उपदेशक होता है यथा – वायुपुराण में वायु, अग्निपुराण में अग्नि, स्कन्दपुराण में स्कन्द इत्यादि किन्तु इसमें नारद श्रोता हैं। सुनाने वाले हैं, उनके 4 भ्राता – सनक, सनंदन, सनत्कुमार एवं सनातन ।
…
कथं सनत्कुमारस्तुनारदायमहात्मने । प्रोक्तवान्सकलान्धर्मान्कथन्तौमिलितावुभौ ॥
…
सनकाद्यामहात्मानोब्रह्मणोमानसाः सुताः । निर्ममानिरहङ्काराः सर्वे ते ह्यूर्ध्वरेतसः ॥
तेषां नामानि वक्ष्यामि सनकश्चसनन्दनः । सनत्कुमारश्च विभुः सनातन इति स्मृतः ॥
वेदव्यास को विष्णु का रूप बताने के पश्चात नारद द्वारा विष्णु की स्तुति में यह पुराण वासुदेव कृष्ण के नाम के साथ कुछ अवतारों के नाम भी दर्शाता है ;
नारायणाच्युतानन्तवासुदेवजनार्दन ।यज्ञेशयज्ञपुरुषकृष्णविष्णोनमोऽस्तुते ॥
पद्माक्ष कमलाकान्त गङ्गाजनक केशव । क्षीरोदशायिन्देवेशदामोदरनमोऽस्तुते ॥
श्रीरामविष्णोनरसिंहवामनप्रद्युम्नसङ्कर्षणवासुदेव ।
अजानिरुद्धामलरुङ्मुरारेत्वं पाहिनस्सर्वभयादजस्रम् ॥
स्पष्टत: यह अंश सात्वत यादव चतुर्व्यूह उपासना पद्धति के स्थापित होने के पश्चात का किन्तु आज की दशावतार सूची के स्थिर हो जाने के पूर्व का सङ्क्रमण काल दर्शाता है।
आगे दूसरे अध्याय में दशावतारों के नाम स्तुति में मिलते हैं जिनमें मत्स्य नहीं है :
दधार मंदरं पृष्ठे निरोदेऽमृतमन्थने । देवतानां हितार्थाय तं कूर्मं शरणं गतः ॥
दंष्ट्रांकुरेणयोऽनन्तस्समुद्धृत्यार्णवाद्धराम् । तस्थाविदंजगत्कृत्स्नं वाराहंतन्नतोऽस्म्यहम् ॥
प्रह्लादं गोपयन्दैत्यं शिलातिकठिनोरसम् । विदार्यहतवान्योहि तं नृसिंहं नतोऽस्म्यहम् ॥
लब्ध्वावैरोचनेर्भूमिं द्वाभ्यां पद्भ्यामतीत्ययः । आब्रह्मभुवनं प्रादात्सुरेभ्यस्तं नतोऽजितम् ॥
हैहयस्यापराधेन ह्येकविंशतिसंख्यया । क्षत्रियान्वयभेत्तायोजामदग्न्यं नतोऽस्मितम् ॥
आविर्भूतश्चतुर्धा यः कपिभिः परिवारितः । हतवान्राक्षसानीकं रामचन्द्रं नतोऽस्म्यहम् ॥
मूर्तिद्वयं समाश्रित्य भूभारमपहृत्य च । संजहार कुलं स्वं यस्तं श्रीकृष्णमहं भजे ॥
भूम्यादिलोकत्रितयं संतृप्तात्मानमात्मनि । पश्यन्ति निर्मलं शुद्धं तमीशानं भजाम्यहम् ॥
युगान्तेपापिनोऽशुद्धान्भित्त्वातीक्ष्णसुधारया । स्थापयामासयोधर्मं कृतादौ तं नमाम्यहम् ॥
एवमादीन्यनेकानियस्यरूपाणिपाण्डवाः । न शक्यं तेन संख्यातुं कोट्यब्दैरपि तं भजे ॥
मत्स्य के अभाव की पूर्ति कृष्ण-बलराम की दो मूर्तियाँ मान कर की गयी है। वामन अजित हैं, परशुराम संज्ञा न हो कर पुरानी जामदग्न्य प्रयुक्त हुई है। सम्पूर्ण नारदपुराण में कहीं भी परशुराम संज्ञा का प्रयोग नहीं हुआ है ।
बुद्ध को ले कर दुविधा की स्थिति तीन पाठ भेदों से स्पष्ट होती है। ‘निर्मलं शुद्धं’, निर्मलं बुद्धं’ एवं केवल ‘निर्मलं’ जिसके कारण छन्द में दो वर्णों की न्यूनता हो जाती है। स्पष्टत: यह विविध वैष्णवी धाराओं में बुद्ध को ले कर मतवैभन्य का सूचक है। कल्कि नाम भी नहीं है, उन्हें कृतादि के धर्मस्थापक के रूप में स्मरण किया गया है।
वैष्णव पुराण होने के कारण इसमें नारायण की सर्वोच्चता है जिनसे कि रुद्र एवं ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। शैव मत के साथ समन्वयात्मक अंश भी मिलते हैं । समन्वयात्मक प्रवृत्ति की परास विविध देवियों तक है :
हे नारद!
ज्ञाता ज्ञेय जब एक हो जायें, ऐसी बुद्धि भावना विद्या कहलाती है। महाविष्णु से माया भिन्न हो तो संसार होता है, एक हो जाये तो क्षय, संहार।
चर अचर जगत विष्णु की शक्ति से ही है। गतिमान हो, गति में न हो, समस्त जगत उससे भिन्न है। अविद्या के कारण ऐसा प्रतीत होता है।
जैसे हरि जगद्व्यापी हैं, वैसे ही उनकी शक्ति भी, उसी भाँति जिस भाँति दहन की शक्ति अङ्गार में स्थित हो स्वयं को व्याप्त करती है।
उसे ही कोई उमा कहते हैं, कोई शक्ति, कोई अन्य लक्ष्मी, भारती, गिरिजा, अम्बिका भी कहते हैं।
श्रेष्ठ ऋषिगण उसे दुर्गा, भद्रकाली, चण्डी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, ऐंद्री, शाम्भवी, ब्राह्मी, विद्या, अविद्या, माया, पराप्रकृति बताते हैं।
विष्णु की परा शेषशक्ति ही जगत की सृष्टि का कारण है। वही व्यक्त अव्यक्त स्वरूप में जगत में व्याप्त भी होती है, अवस्थित भी रहती है।
उनमें से ही एक सृष्टि, पोषण एवं विनाश की कारण है – प्रकृति पुरुष, काल, विधि एवं स्थिति।
ज्ञातृज्ञेयाद्युपाधिस्ते यदा नश्यति नारद
सर्वैकभावना बुद्धिः सा विद्येत्यभिधीयते
एवं माया महाविष्णोभिर्न्ना संसारदायिनी
अभेदबुद्ध्या दृष्टा चेत् संसारक्षयकारिणी
विष्णुशक्तिसमुद्भूतमेतत् सर्वं चराचरम्
यस्माद्भिन्नमिदं सर्वं यच्चेङ्गेद्यच्च नेङ्गति
उपाधिभिर्यथाकाशो भिन्नत्वेन प्रतीयते
अविद्योपाधियोगेन तथेदमखिलं जगत्
यथा हरिर्जगद्व्यापी तस्य शक्तिस्तथा मुने
दाहशक्तिर्यथाङ्गारे स्वाश्रयं व्याप्य तिष्ठति
उमेति केचिदाहुस्तां शक्तिं लक्ष्मीं तथा परे
भारतीत्यपरे चैनां गिरिजेत्यम्बिकेति च
दुर्गेति भद्र कालीति चण्डी माहेश्वरीत्यपि
कौमारी वैष्णवी चेति वाराह्यैन्द्री च शाम्भवी
ब्राह्मीति विद्याविद्येति मायेति च तथा परे
प्रकृतिश्च परा चेति वदन्ति परमर्षयः
शेषशक्तिः परा विष्णोर्जगत्सर्गादिकारिणी
व्यक्ताव्यक्तस्वरूपेण जगद्व्याप्य व्यवस्थिता
प्रकृतिश्च पुमांश्चैव कालश्चेति विधिस्थितिः
सृष्टिस्थितिविनाशानामेकः कारणतां गतः
…
अभेददर्शी देवेशे नारायणशिवात्मके । सर्वं यो ब्रह्मणा नित्यमस्मदादिषु का कथा ॥
भारत में जन्म का महिमा गान इस पुराण की विशेषता है ।
अस्मिञ्जातो नरो यस्तु स्वकर्मक्षपणोद्यतः । नररूपपरिच्छन्नः स हरिर्नात्र संशयः ॥
जो मनुष्य भारत भूमि में जन्म ले कर अपने कर्मबन्धन काट देने को उद्यत रहता है वह नर रूप में हरि ही है, इसमें संशय नहीं ।
भगवान वासुदेव की सर्वोच्चत्ता का गान भारत भूमि अंश में भी है :
वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरं तपः । वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरा गतिः ॥
वासुदेवात्मकं सर्वं जगत्स्थावरजंगमम् । आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं तस्मादन्यन्न विद्यते ॥
मृकण्डु के पुत्र मार्कण्डेय को विष्णु के तेजांश से उत्पन्न बताया गया है – काले दधार सा गर्भं हरितेजांशसंभवम् ।
नारायण रूपी चिरजीवी मार्कण्डेय मुनि को पुराण संहिताओं का निर्माण कर्त्ता बताया गया है :
तपश्चचार परममच्युतप्रीतिकारणम् । आराधितो जगन्नाथो मार्कण्डेयेन धीमता ॥
पुराणसंहितां कर्त्तुं दत्तवान्वरमच्युतः । मार्कण्डेयो मुनिस्तस्मान्नारायण इति स्मृतः ॥
चिरजीवी महाभक्तो देवदेवस्य चक्रिणः । जगत्येकार्णवीभूते स्वप्रभावं जनार्द्दनः ॥
तस्य दर्शयितुं विप्रास्तं न संहृतवान्हरिः । मृकण्डुतनयो धीमान्विष्णुभक्तिसमन्वितः ॥
तस्मिञ्जले महाघोरेस्थितवाञ्छीर्णपत्रवत् । मार्कण्डेयः स्थितस्तावद्यावच्छेते हरिः स्वयम् ॥
आगे पुराण महिमा का गान करते हुये इसके ज्ञाता मुनि को परम गुरु बताया गया है । पुराण सर्ववेदार्थसार हैं :
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञैर्भाषितं प्रवदामि ते । यः पुराणानि वदति धर्मयुक्तानि पण्डितः ॥
संसारपाशविच्छेदकरणानि स उत्तमः । देवपूजार्हकर्माणि देवतापूजने फलम् ॥
ज्ञायते च पुराणेभ्यस्तस्मात्तानीह देवताः । सर्ववेदार्थसाराणि पुराणानीति भूपते ॥
वदन्ति मुनयश्चैव तद्वक्ता परमो गुरुः । यः संसारार्णवं तर्त्तुमुद्योगं कुरुते नरः ॥
शृणुयात्स पुराणानि इति शास्त्रविभागकृत् । प्रोक्तवान्सर्वधर्मांश्च पुराणेषु महीपते ॥
ब्रह्मराक्षस वृत्तान्त में उसके पहले जन्म में मगध के एवं अनन्तर कलिङ्ग का होने से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस पुराण के रचना क्षेत्रों में ये भी रहे होंगे । यदि ऐसा है तो कुरुक्षेत्र, नैमिषादि से बाहर के भाग भी पुराण रचना क्षेत्र में आयेंगे जो कि इस धारा के प्रसार का सूचक होगा – ततो नृपस्तु कालिङ्गं प्रणम्य विधिवन्मुने ।
पहली बार जिस अवतार का इस पुराण में किञ्चित विस्तार से वर्णन हुआ है, वह वामन है । पहले भी दो बार अदिति के गर्भ से जन्म ले चुके विष्णु तीसरी बार वामन रूप में उनके पुत्र होते हैं तथा बलि से तीन पग भूमि माँगते हैं – बलिर्ददौ महाविष्णोर्महीं त्रिपदसंमिताम् ।
पूर्वभाग के ग्यारहवें अध्याय में पहले शूकर मत्स्यादि अवतारों का उल्लेख है – यथा शूकरमत्स्याद्या अवतारास्तव प्रभो तथा अनन्तर कश्यप की स्तुति में अवतार उल्लेख इस प्रकार हैं :
नमोऽस्तु ते ध्वान्तविनाशकाय नमोऽस्तु ते मन्दरधारकाय
नमोऽस्तु ते यज्ञवराहनाम्ने नमो हिरण्याक्षविदारकाय
नमोऽस्तु ते वामनरूपभाजे नमोऽस्तु ते क्षत्त्रकुलान्तकाय
नमोऽस्तुते रावणमर्दनाय नमोऽस्तु ते नन्दसुताग्रजाय
जिसमें कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, राम जामदग्न्य, श्रीराम एवं कृष्ण की स्तुति है । मत्स्य अवतार यहाँ नहीं है एवं कृष्ण तक आ कर सूची समाप्त हो जाती है। यह स्तुति वामन रूप हेतु है जिसमें कि वामन के साथ साथ उसके पश्चात के भावी अवतारों भार्गव राम, श्रीराम एवं कृष्ण की भी स्तुति कर दी गयी है । स्पष्ट हो जाता है कि यह भाग किसी भक्तिमार्गी द्वारा अनन्तर जोड़ा गया है । बुद्ध एवं कल्कि की अनुपस्थिति भी ध्यातव्य है ।
पूर्वभाग, द्वितीय पाद के 62 वें अध्याय में शुक द्वारा की गयी स्तुति में वर्तमान दशावतार शृंखला के समस्त रूप अन्यों के साथ आ गये हैं :
शुक उवाच-
नमस्ते वासुदेवाय सर्वलोकैकसाक्षिणे ५०
जगद्बीजस्वरूपाय पूर्णाय निभृतात्मने
हरये वासुकिस्थाय श्वेतद्वीपनवासिने ५१
हंसाय मत्स्यरूपाय वाराहतनुधारिणे
नृसिंहाय ध्रुवेज्याय साङ्ख्ययोगेश्वराय च ५२
चतुःसनाय कूर्माय पृथवे स्वसुखात्मने
नाभेयाय जगद्धात्रे विधात्रेऽन्तकराय च ५३
भार्गवेन्द्रा य रामाय राघवाय पराय च
कृष्णाय वेदकर्त्रे च बुद्धकल्किस्वरूपिणे ५४
चतुर्व्यूहाय वेद्याय ध्येयाय परमात्मने
नरनारायणाख्याय शिपिविष्टाय विष्णवे ५५
…
अधोक्षजाय धर्माय वामनाय त्रिधातवे
घृतार्चिषे विष्णवे तेऽनन्ताय कपिलाय च ६२
इस पुराण का उत्तर भाग कालान्तर में जोड़ा गया है जो कि पूर्वभाग के अंतिम 125 वें अध्याय में ही इस पुराण की फलश्रुति से स्पष्ट होता है। उत्तर भाग में पुरातन काशी के वैष्णव रूप में होने की उद्भावना है :
आद्यं हि वैष्णवं स्थानं पुराणाः सम्प्रचक्षते
नावैष्णवे स्थले मुक्तिः सर्वस्य तु कदाचन
माधवस्य पुरी चेयं पूर्वमासीद्द्विजोत्तम
मुक्तिदा सर्वजन्तूनां सर्वपापप्रणाशिनी
ब्रह्मा का पाँचवा सिर काट देने के कारण लगी ब्रह्महत्या से शिव को विष्णु की पुरातन नगरी में प्रवेश से छुटकारा मिला एवं उनके हाथ से चिपका ब्रह्मा का कपाल कपालमोचन तीर्थ में छूट गया । शङ्कर ने भिक्षा में विष्णु से आदि केशव नाम से प्रसिद्ध काशी तीर्थ ले लिया जिससे कि वह वहाँ निवास करते हुये सदैव ब्रह्महत्या के त्रास से मुक्त रहें :
इच्छामि वसितुं क्षेत्रे तव चक्रगदाधर
त्वत्क्षेत्रसीमाबाह्यस्था ब्रह्महत्या यदीक्ष्यते ५४
क्षेत्रदानेन कारुण्यं कुरु मे गरुडध्वज
मम निर्गमने ब्रह्महत्या मां पुनरेष्यति ५५
त्वत्क्षेत्रे संस्थितोऽह तु पूजां प्राप्स्ये जगत्त्रये
इत्युक्त्वा ह्यभवत्तूष्णीं देवदेवं वृषध्वजः ५६
तथेति प्रतिपेदे च क्षीरसागरजाप्रियः
ततः प्रभृति विप्रेन्द्र शैवं क्षेत्रं निगद्यते ५७
क्षेत्रं तु केशवस्येदं पुराणं कवयो विदुः
कृपया संपरीतस्य माधवस्य द्विजोत्तम ५८
शङ्कर के प्रति सहानुभूति में विष्णु के नयनों से बहते जल से बिन्दुसर बना जिसमें स्नान से शङ्कर के हाथ से ब्रह्मा का कपाल छूटा, कपालमोचन तीर्थ बना एवं विष्णु काशी में बिन्दुमाधव नाम से विराजमान हुये :
नेत्राभ्यां निर्गतं वारि तेन बिन्दुसरोऽभवत्
माधवस्याज्ञया तत्र सस्नौ देवो वृषध्वजः ५९
स्नातमात्रे हरे तत्तु कपालं पाणितोऽपतत्
कपालमोचनं नाम तत्तीर्थं ख्यातिमागतम् ६०
बिंन्दुमाधवनामासौ दत्वा स्वं धाम शूलिने
भक्तिभावेन शम्भुस्तु निबद्धस्तत्र संस्थितः ६१
विष्णु की स्तुति में शिव उन्हें जो सम्बोधन करते हैं उनमें आज प्रचलित दशावतार शृंखला के नृसिंह, राधिका के ईश कृष्ण, कूर्म, काश्यप वामन, कुकुपतिपावक भार्गव राम, अखिलेज्यास्रपकालासितवस्त्र बुद्ध अर्थात समस्त यज्ञों से रक्तपात दूर करने वाले गैरिक वस्त्र धारी बुद्ध, कल्कि एवं श्रीराम हैं। राधा की उपस्थिति इस अंश की नवीनता को पुष्ट करती है साथ ही यहाँ इस स्तुति में शाक्य बुद्ध एवं पौराणिक बुद्ध के ऐक्य का स्पष्ट सङ्केत मिलता है। मत्स्य अवतार यहाँ भी नहीं है। धरणीभरहरा संज्ञा से वराह को माना जा सकता है। उल्लेखनीय है कि इस स्तुति के छन्द अनुष्टुभ नहीं हैं जो कि नवीनता का परोक्ष प्रमाण है ।
उत्तर पर्व के बत्तीसवें अध्याय में वसिष्ठ के माध्यम से कही गयी मोहिनी एवं सन्ध्यावली कथा में पुन: देवताओं द्वारा विष्णु की स्तुति में दशावतार आते हैं :
हरयेऽद्भुतसिंहाय वामनाय महात्मने
क्रोडरूपाय मत्स्याय प्रलयाब्धिनिवासिने २५
कूर्माय मन्दरधृते भार्गवायाब्धिशायिने
रामायाखिलनाथाय विश्वेशाय च साक्षिणे २६
दत्तात्रेयाय शुद्धाय कपिलायार्तिहारिणे
यज्ञाय धृतधर्माय सनकादिस्वरूपिणे २७
ध्रुवस्य वरदात्रे च पृथवे भूरिकर्मणे
ऋषभाय विशुद्धाय हयशीर्षभृतात्मने २८
हंसायागमरूपायामृतकुम्भविधारिणे
कृष्णाय वासुदेवाय सङ्कर्षणवपुर्धृते २९
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय ब्रह्मणे शङ्कराय च
कुमाराय गणेशाय नन्दिने भृङिगणे नमः ३०
गन्धमादनवासाय नरनारायणाय च
जगन्नाथाय नाथाय नमो रामेश्वराय च ३१
द्वारकावासिने चैव तुलसीवनवासिने
नमः कमलनाभाय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ३२
नमः कमलहस्ताय कमलाक्षाय ते नमः
कमलाप्रतिपालाय केशवाय नमो नमः ३३
नमो भास्कररूपाय शशिरूपधराय च
लोकपालस्वरूपाय प्रजापतिवपुर्धृते ३४
भूतग्रामस्वरूपाय जीवरूपाय तेजसे
जयाय जयिने नेत्रे नियमाय क्रियात्मने ३५
निर्गुणाय निरीहाय नीतिज्ञायाक्रियात्मने
बुद्धाय कल्किरूपाय क्षेत्रज्ञायाक्षराय च ३६
गोविन्दाय जगद्भर्त्रेऽनन्तायाद्याय शार्ङ्गिणे
शङिखने गदिने चैव नमश्चक्रधराय च ३७
खड्गिने शूलिने चैव सर्वशस्त्रास्त्रघातिने
शरण्याय वरेण्याय पराय परमात्मने ३८
हृषीकेशाय विश्वाय विश्वरूपाय ते नमः
कालनाभाय कालाय शशिसूर्य्यदृशे नमः
पूर्णाय परिसेव्याय परात्परतराय च ३९
जगत्कर्त्रे जगद्भर्त्रे जगद्धात्रेनऽतकाय च
मोहिने क्षोभिणे कामरूपिणेऽजाय सूरिणे ४०
भगवंस्तव सम्प्राप्ताः शरणं दैत्यतापिताः
तद्विधत्स्वाखिलाधार यथा हि सुखिनो वयम् ४१
पुत्रमित्रकलत्रादिसंयुता विहरामहे
तच्छ्रुत्वा स्तवनं तेषां वैकुण्ठः प्रीतमानसः ४२
प्रददौ दर्शनं तेषां दैत्यसंन्तापितात्मनाम्
ते दृष्ट्वा देवदेवेशं वैकुण्ठं स्निग्धमानसम् ४३
विरोचनवधायाशु प्रार्थयामासुरादरात्
तच्छ्रुत्वा शक्रमुख्यानां कार्यं कार्यविदां वरः ४४
इस स्तुति में दशावतार से बाहर के विष्णु अंश एवं अवतार भी आ गये हैं, साथ में अन्य देवता भी। विष्णु के जो अन्य अंश या अवतार आये हैं वे हैं – दत्तात्रेय, कपिल, हयशीर्ष, सनकादिक मुनि, पृथु, ऋषभ, हंस, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध ।
यह पारम्परिक चौबीस अवतारों (वे भी पूरे नहीं होते) की अवधारणा के अधिक निकट है।
नारदपुराण की अवतार चर्चा अपेक्षतया नवीन कही जा सकती है जब कि दशावतार की वर्तमान सूची रूढ़ हो चुकी थी एवं बुद्ध अवतार रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे।
…
Sir vishnu dashawtar stuti ke sloka apki website per Jo hai narad puran se bhaut aache hai
Maine narad puran me dhuda per nahi mile apne reference narad puran kaa hi diya hai.
Kripya karke bataye ki ye sloka kaha likhe hai.
Narad puran utthar bhag adhaya 24
प्रणाम अंकित जी,
https://maghaa.com/let-this-continue-even-after-my-demise-श्री-गिरिजेश-राव/