चातक PIED CRESTED CUCKOO के प्रति लगाव भारतीय संस्कृति में गहन विविधता के साथ देखने को मिलता है। साहित्यिक रूपक प्रतिमान हों, वर्षा आगमन की सूचना देने वाले दूत की भूमिका हो या शुभ शकुनी की, चातक प्राचीन काल से ही प्रतिष्ठित है।
वैज्ञानिक नाम: Clamater jacobinus
हिन्दी नाम: चातक, सारंग, कपिञ्जल (संस्कृत)
अंग्रेजी नाम: Jacobin Cuckoo, Pied Cuckoo,
चित्र स्थान और दिनाङ्क: मांझा, सरयू कछार, अयोध्या फैजाबाद उत्तर प्रदेश, १६ जुलाई २०१७
छाया चित्रकार (Photographer): आजाद सिंह
Kingdom: Animalia
Phylum: Chordata
Class: Aves
Order: Cuculiformes
Family: Cuculidae
Genus: Clamater
Species: Jacobinus
Category: Perching birds
Wildlife schedule: IV
लैंगिक द्विरूपता (Sexual dimorphism) : नर और मादा एक रंग रूप के।
जनसंख्या: स्थिर, परन्तु बहुत ही कम दिखाई पड़ने वाला पक्षी।
आकार: लम्बाई १३ इंच
प्रवास स्थिति: प्रवासी
तथ्य: मानसून के आने का अग्रदूत, भारत में ऐसा माना जाता है कि चातक के आने से वर्षा ऋतु के आने का संकेत मिल जाता है। इस प्रजाति का वर्णन भारतीय साहित्य में भी वृहद रूप में मिलता है। महाकवि कालिदास ने अपनी पुस्तक मेघदूतम् में इसका वर्णन नायक द्वारा अपनी प्रेयसी के प्रति विरह को व्यक्त करते समय एक रूपक में प्रयोग किया था। ऐसी कहावत है कि यह पक्षी केवल स्वाति नक्षत्र की वर्षा बूँदों से अपनीं प्यास बुझाता है।
भोजन: कीड़े-मकोड़े, सूंडी, चींटी, गुबरैले, छोटे घोंघे तथा कभी कभी हरी पत्तियाँ भी।
आवास: चातक खुले मैदान, घने जंगल, नम तथा पानी के निकट वाले स्थानों पर रहता है। यह वर्षा आरम्भ होने से पूर्व ही जून माह के लगभग भारत में आ जाता है।
वितरण: चातक भारत के अतिरिक्त अफ्रीका, श्री लंका, म्यांमार के कुछ भागों में पाया जाता है। यह भारत के मैदानी और पहाड़ी क्षेत्रों में सामान रूप से पाया जाता है और हिमालय में ८००० फीट की ऊँचाई तक दिखाई पड़ता है। वर्षा आरम्भ से पहले यह पूर्वी अफ्रीका से यहाँ प्रवास पर आता है।
पहचान: चित्तीदार काला पक्षी जिसका ऊपरी भाग काला और नीचे का श्वेत होता है। यह पेड़ों पर रहने वाला तथा तेज आवाज से दूसरों का ध्यान खींचने वाला पक्षी है।
रंग-रूप: १३ इंच लम्बा तथा नर और मादा एक जैसे। ऊपरी भाग तथा कलगी का रंग काला, जिसमें हरिताभा होती है। उड़न पंखों का रंग गहरा भूरा तथा उन पर सफ़ेद रंग की एक पट्टी जो एक छोर से दुसरे छोर तक पड़ी रहती है। शरीर का निचला भाग सफ़ेद लेकिन कभी-कभी परों की जड़ में काले धब्बे। पूँछ लम्बी तथा सीढ़ीनुमा। परों के सिरों पर सफ़ेद चित्तियाँ और बाहरी परों पर अधिक चित्तियाँ। आंख की पुतली ललछौंह, चोंच काली, टाँगें धूसर नीली तथा टखने का ऊपरी भाग परदार।
प्रजनन: उत्तर भारत में चातक युगल का अभिसार काल जून से अगस्त तक तथा नीलगिरी क्षेत्र में जनवरी से मार्च तक होता है।
अन्य कोयलों की तरह चातक की मादा भी परोपजीवी होती है अर्थात अपने अंडे चर्खियों (बरब्लेर ) एवं फुद्कियों आदि के घोंसलों में रखती है और उनके अंडे गिरा देती है। जब इनके बच्चे निकलते हैं तो वह चरखी के बच्चों को घोंसले के बाहर गिरा देते हैं। अण्डों का आकार लगभग ०.९४ *०.७३ इंच, रंग बैंगनी या हल्का आसमानी नीला और दोनों किनारे चपटे होते हैं जिन पर पर्याप्त चमक होती है।
सम्पादकीय टिप्पणी
ऋग्वेद के दूसरे मण्डल का 46 वाँ सूक्त किसी पक्षी को समर्पित संसार की सबसे पुरानी कविता है। इसमें ऋषि गृत्समद शौनक ने सुमंगली शकुनि पक्षी कपिञ्जल को कपिञ्जलइवेन्द्रः देवता रूपक दे अभिनंदन किया है।
कनि॑क्रदज्ज॒नुषं॑ प्रब्रुवा॒ण इय॑र्ति॒ वाच॑मरि॒तेव॒ नाव॑म्।
सु॒म॒ङ्गल॑श्च शकुने॒ भवा॑सि॒ मा त्वा॒ का चि॑दभि॒भा विश्व्या॑ विदत् ॥
मा त्वा॑ श्ये॒न उद्व॑धी॒न्मा सु॑प॒र्णो मा त्वा॑ विद॒दिषु॑मान्वी॒रो अस्ता॑।
पित्र्या॒मनु॑ प्र॒दिशं॒ कनि॑क्रदत्सुम॒ङ्गलो॑ भद्रवा॒दी व॑दे॒ह ॥
अव॑ क्रन्द दक्षिण॒तो गृ॒हाणां॑ सुम॒ङ्गलो॑ भद्रवा॒दी श॑कुन्ते।
मा न॑: स्ते॒न ई॑शत॒ माघशं॑सो बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीरा॑: ॥
प्र॒द॒क्षि॒णिद॒भि गृ॑णन्ति का॒रवो॒ वयो॒ वद॑न्त ऋतु॒था श॒कुन्त॑यः।
उ॒भे वाचौ॑ वदति साम॒गा इ॑व गाय॒त्रं च॒ त्रैष्टु॑भं॒ चानु॑ राजति ॥
उ॒द्गा॒तेव॑ शकुने॒ साम॑ गायसि ब्रह्मपु॒त्र इ॑व॒ सव॑नेषु शंससि।
वृषे॑व वा॒जी शिशु॑मतीर॒पीत्या॑ स॒र्वतो॑ नः शकुने भ॒द्रमा व॑द वि॒श्वतो॑ नः शकुने॒ पुण्य॒मा व॑द ॥
आ॒वदँ॒स्त्वं श॑कुने भ॒द्रमा व॑द तू॒ष्णीमासी॑नः सुम॒तिं चि॑किद्धि नः।
यदु॒त्पत॒न्वद॑सि कर्क॒रिर्य॑था बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीरा॑: ॥
अपनी पुस्तक Birds in Indian Literature में के. एन. दवे ऋग्वेद से ही एक संदर्भ देते हुये इस पक्षी का संकेत करते हैं जो कि त्रुटियुक्त पाठ है। उन्होंने वृषारवाय को ‘वृषाखाय’ पढ़ते हुये वृषाख की तुक घनाख से बिठाने का प्रयास किया है। शुद्ध पाठ यह है:
वृ॒षा॒र॒वाय॒ वद॑ते॒ यदु॒पाव॑ति चिच्चि॒कः । आ॒घा॒टिभि॑रिव धा॒वय॑न्नरण्या॒निर्म॑हीयते ॥ (ऋग्वेद 10.146.2)
इस पाठ से भी परस्पर उत्तर देते दो पक्षियों वृषारव और चिच्चिक की ओर उनका संकेत महत्त्वपूर्ण है यद्यपि विद्वानों ने इन दो शब्दों के अर्थ टिड्डा और झिंगुर भी लगाये हैं। पूरे अरण्यानी सूक्त का भावानुवाद यहाँ देखा जा सकता है।
दवे ने वाजसनेयी संहिता के 24वें अध्याय में वर्षाहू और कपिञ्जल नामों से इस पक्षी के उल्लेख को बताया है:
उसी पुस्तक में लेखक ने पपीहा और चातक शब्द प्रयोगों में कवियों द्वारा भ्रम की स्थिति उत्पन्न करने का भी उल्लेख किया है। Crest चातक की पहचान है जिसे संस्कृत में शृङ्ग (हिंदी सींग) बताया गया और इस पक्षी का नाम सारङ्ग पड़ा।
श्रीराम के देवी सीता के वियोग में विलाप की गहनता दर्शाने के लिये आदि कवि ने वाल्मीकीय रामायण में सलिल अर्थात जल के लिये सारङ्ग की पुकार का उल्लेख किया है:
एवमादिनरश्रेष्ठो विललाप नृपात्मज:।
विहङ्ग इव सारङ्ग: सलिलं त्रिदशेश्वरात्॥ (4.30)
कालिदास के मेघदूतं के इस अंश में सारङ्ग का प्रयोग दर्शनीय है, वर्षा जल से सम्बंध के लिये अंतिम अर्द्धाली पर ध्यान दें:
नीपं दृष्ट्वा हरितकपिशं केसरैरर्धरूढ़ै:, आविर्भूतप्रथममुकुला: कंदलीश्चानुकच्छम्।
दग्धारण्येष्वधिकसुरभि गंधमाघ्राय चोर्व्या:, सारङ्गास्ते जललवमुच: सूचयिष्यंति मार्गम्॥
देसभाषा साहित्य में भी चातक सर्वप्रिय पक्षी है। तुलसीदास को देखिये:
एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास। एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास॥
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जौं घन बरषै समय सिर जौं भरि जनम उदास । तुलसी या चित चातकहि तऊ तिहारी आस ॥
चातक तुलसी के मतें स्वातिहुँ पिऐ न पानि । प्रेम तृषा बाढ़ति भली घटें घटैगी आनि ॥
रटत रटत रसना लटी तृषा सूखि गे अंग । तुलसी चातक प्रेम को नित नूतन रुचि रंग ॥
चढ़त न चातक चित कबहुँ प्रिय पयोद के दोष । तुलसी प्रेम पयोधि की ताते नाप न जोख ॥
बरषि परुष पाहन पयद पंख करौ टुक टूक । तुलसी परी न चाहिऐ चतुर चातकहि चूक ॥
उपल बरसि गरजत तरजि डारत कुलिस कठोर । चितव कि चातक मेघ तजि कबहुँ दूसरी ओर ॥
पबि पाहन दामिनि गरज झरि झकोर खरि खीझि । रोष न प्रीतम दोष लखि तुलसी रागहि रीझि ॥
मान राखिबो माँगिबो पिय सों नित नव नेहु । तुलसी तीनिउ तब फबैं जौ चातक मत लेहु ॥
तुलसी चातक ही फबै मान राखिबो प्रेम । बक्र बुंद लखि स्वातिहू निदरि निबाहत नेम ॥
तुलसी चातक माँगनो एक एक घन दानि । देत जो भू भाजन भरत लेत जो घूँटक पानि ॥
तीनि लोक तिहुँ काल जस चातक ही के माथ । तुलसी जासु न दीनता सुनी दूसरे नाथ ॥
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किसी उर्दू कवि का चातक के प्रति ऐसा प्रेमभाव आप ने देखा है? देखे हों तो बताइये न!
रोचक जानकारी
उत्तम जानकारी!
ज्ञानवर्धक