सरल संस्कृत के अब तक के चार पुष्पों में हमने पहले में परिचय वाक्य, दूसरे में लिङ्ग आधारित सम्बोधन वाक्य, तीसरे में वर्णमाला एवं चौथे में एक सरल अनुच्छेद देखे।
‘सरल संस्कृत’ का उद्देश्य पारम्परिक या विधिवत मार्गों से सीखना नहीं है, उसके लिये पुस्तकों, संस्थाओं एवं अन्तर्जाल पर पर्याप्त अच्छी सामग्री उपलब्ध है। यह उनके लिये है जो वयस्क हो चुके हैं, संस्कृत से परिचय रखते हैं तथा श्लोक आधारित संस्कृत वाङ्मय का अवगाहन अनुवाद एवं भाष्यों के साथ मूल भाषिक प्रयोग एवं अर्थसौन्दर्य को जानते एवं बखानते हुये करना चाहते हैं। प्रक्रिया आवर्ती पुनरावर्ती होगी। किसी भी प्रकरण की प्राथमिक बातें बता कर हम, आगे आवश्यकता पड़ने पर, उसे पुन: विस्तार से भी बतायेंगे।
इस भाग में आगे बढ़ने से पूर्व वर्णमाला सम्बंधित तीसरा भाग अवश्य देख लें। इस भाग में हम विसर्ग एवं अनुस्वार को देखेंगे। इसका कारण यह है कि सामान्य हिन्दीभाषियों को संस्कृत विसर्ग ( :, ह् सम) एवं अनुस्वार ( ं, म् ) बहुल भाषा लगती है। कहें तो उन्हें संस्कृनिष्ठ हिन्दी एवं संस्कृत का यह सबसे स्पष्ट भेद दिखता है। हमलोग बालपन के हास्य में कहते थे कि हिन्दी लिख कर ऊपर से मसि छिड़क दो तो बूँदें उसे संस्कृत बना देंगी! अब तो भाषिक प्रदूषण के कारण हिन्दी नागरी लिपि में लिखी उर्दू हो गई है। अस्तु।
विसर्ग, अल्पप्राण एवं महाप्राण
संस्कृत भाषा का एक गुण इसका प्राणायाम से सम्बन्धित होना है। प्राण श्वास है। उच्चारण करते समय विसर्ग (:) की ह् समान ध्वनि प्राण अर्थात साँस से जुड़ी है। ह को कण्ठ से बोला जाता है। इसे बल दे कर बोलें तथा बोलते समय मुँह के आगे कर्गद लगायें तो ध्वनि के प्रभाव में कर्गद फड़फड़ायेगा। जिन व्यञ्जनों का उच्चारण इस ध्वनि के बिना हो जाता है, वे अल्पप्राण कहे जाते हैं तथा जिनका इसके साथ होता है, वे महाप्राण।
कवर्ग से पवर्ग तक के प्रत्येक वर्ग का प्रथम एवं तृतीय वर्ण अल्पप्राण होता है। नाक का आश्रय ले उच्चारित समस्त पञ्चमाक्षर ङ, ञ, ण, न एवं म अल्पप्राण होते हैं, स्पष्ट है। समस्त अर्द्धस्वर [य = इ+अ, र = ऋ+अ, ल = लृ+अ, व = उ+अ] अल्पप्राण होते हैं।
कवर्ग से पवर्ग तक के प्रत्येक वर्ग का दूसरा एवं चौथा वर्ण महाप्राण होता है, ऐसे :
ख = क+(:), घ = ग+(:) …. फ = प+(:), भ = ब+(:)।
श, ष एवं स महाप्राण होते हैं एवं ह वर्ण तो महाप्राण होगा ही।
पञ्चमाक्षर, अनुनासिक एवं अनुस्वार :
अनुस्वार से पूर्व अनुनासिक को जानें। जिन ध्वनियों के उच्चारण में नासा अर्थात नाक का आश्रय लिया जाता है, वे अनुनासिक हैं। जिस वर्ग का अनुस्वार होता है, उसके उच्चारण के मूल स्थान के साथ अनुगत नासिक उच्चारण – अनुनासिक। हम जानते हैं कि पाँच व्यञ्जन वर्ग हैं – क, च, ट, त एवं प। प्रत्येक में पाँच वर्ण होते हैं जिनके अन्तिम पाँचवें पञ्चमाक्षर कहलाते हैं, वही अनुनासिक भी होते हैं – ङ, ञ, ण, न एवं म ।
अनुस्वार ( परिचय म् द्वारा) हेतु कहा गया – अनुगत: स्वारान् एवं अनुनासिकात्परोऽनुस्वार:। स्वर की अनुगत अनुनासिक ध्वनि अनुस्वार कहलाती है अर्थात इसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं, यह अपने से पूर्व आने वाले स्वर से मिल कर उसके अनुरूप बोली जाती है। इस कारण ही संस्कृत व्याकरण ग्रंथों में इसे (ं) न लिख कर (अं) लिखा जाता है जहाँ अ समस्त स्वरों का प्रतिनिधित्व करता है।
यदि इसे अपने पहले आने वाले स्वर में अनुनासिक की भाँति जोड़ा जाता है तो इसे स्वर मानते हैं तथा यदि आगे आने वाले व्यञ्जन के अनुसार परिवर्तित कर लिखा जाता है तो इसे व्यञ्जन मानते हैं। उदाहरण के लिये गम्+गा में म् का आगे के व्यञ्जन ग के सवर्गीय पञ्चमाक्षर अनुनासिक ङ् में परिवर्तन होने पर होता है – गङ्गा। हिन्दी के राजभाषा मानकीकरण के समय समस्त पञ्चमाक्षरों को (ं) चिह्न से व्यक्त करने के निर्णय के कारण अब हिन्दीभाषी इस तथ्य से अपरिचित हो चले हैं।
अनुस्वार का एक तीसरा रूप यजुर्वेदीय विधानों में मिलता है जिसमें अनुस्वार को गङ् की भाँति पढ़ते हैं जिसके लिये भिन्न चिह्न प्रयुक्त होता है, । अनुष्ठानों में पुरोहित जी द्वारा मन्त्र पाठ के समय बीच में ‘गं’ जैसी जो विशेष ध्वनि सुनाई देती है, वह इसी प्रातिशाख्य विधान के कारण है। नीचे दर्शाये इस मन्त्र से आप परिचित ही होंगे :
यहाँ यजुर्वेदीय प्रातिशाख्य के अनुसार ‘गणपतिम् हवामहे’ में म् के पश्चात ह आने पर ध्वनि परिवर्तन गङ् () हो जाता है। वैदिक उच्चारण पद्धति का शास्त्र ‘शिक्षा’ वेदाङ्ग कहलाता है। संहिता एवं शाखाभेद से अनेक ‘शिक्षा’यें हैं तथा उपशिक्षायें भी, जिनमें कतिपय उच्चारण भेद भी मिलते हैं।
विसर्ग (:) के पश्चात श, ष, या स आयें तो विसर्ग उनमें ही परिवर्तित हो जाता है यथा नि:+सन्तान = निस्सन्तान।
(तैत्तिरीय उ. शिक्षा वल्ली)
इस यदि आप ध्यान दें तो पायेंगे कि (:) के कण्ठ से आरम्भ से ले कर (ं) के ओठ पर विराम होने तक उच्चारण की यात्रा पूरी हो जाती है अर्थात समस्त ध्वनियाँ इन्हीं दो सीमाओं के मध्य स्थलों से उच्चारित होती हैं – ‘प्राण के बहिर्गमन’ से ले कर उसे ‘भीतर रोक देने’ तक की यह यात्रा प्राणायाम ही तो है!
हास्य :
आजकल सामाजिक मञ्चों पर बातचीत करते जन बहुधा प्रयोग करते हैं Hmm!, हम्म । क्या संयोग है!
अभ्यास :
तृतीय भाग के अनुच्छेद में विसर्ग, अनुनासिक एवं अनुस्वार प्रयोग देखें तथा ध्वनियों पर विशेष ध्यान देते हुये पढ़ें भी ।
अनुपम औ’ अद्वितीय विचार आलेख अविस्मरणीय औ’ अभिनंदनीय है।
संस्कृत समर्थित विशुद्ध हिन्दी के अनुनासिक स्वरोच्चारण मनोमस्तिष्क के लिए लाभदायक है।
नाँद का भी अपना विशिष्ट महत्व है।
देववाणी से अभिप्रेरित देवनागिरी लीपि हमारे लिए प्रेरणादायी प्रकाश स्तंभ है।
सादर धन्यवाद।
उत्कृष्ट आलेख निमित्त।
🙏 🙏 🙏
मंत्रोच्चार में गङ् श्वास लेने के लिए भी एक अंतराल देता है क्योंकि यह गं वहीं आता है जहां आपका श्वास टूटने लगता है ।
बहुत अच्छा लेख
जी निःसंदेह अक्षरशः सच कहा है।
🙏 🙏 🙏