ईशावास्योपनिषद शुक्ल यजुर्वेद का अंतिम, चालीसवाँ अध्याय है।
उप, नि, सद्, इन तीन शब्दों की सन्धि से बने उपनिषद का शाब्दिक अर्थ है निकट बैठना जो गुरुकुल परम्परा का द्योतक भी है और गुरु शिष्य के मध्य ज्ञान की गङ्गा का वाहक भी। उपनिषद् में गुरु और शिष्य के मध्य गहन संवाद है जो अल्प शब्दों में बड़ी बात को हम तक पहुँचाता है। उपनिषदों को वैदिक काल से लेकर आज तक भारतीय विचारधारा के सभी पंथों की रीढ़ कहा जा सकता है क्योंकि इनके विचार प्राय: सभी भारतीय आध्यात्मिक विचारधाराओं के केंद्र में हैं।
सामान्यतः सौ से अधिक माने जाने वाले उपनिषदों में से दस पर आदि शङ्कर ने टीका लिखी है। प्रमुख उपनिषदों में बारह श्लोकों वाला माण्डूक्य उपनिषद सबसे छोटा है, और छांदोग्य उपनिषद सबसे बड़ा। अट्ठारह छन्दों वाला ईशोपनिषद भी कोई विशेष बड़ा तो नहीं है किन्तु शुक्ल यजुर्वेद का अंतिम चालीसवाँ अध्याय होने के कारण इसका विशेष महत्व है।
संरचनात्मक रूप से वेद के चार भाग हैं: संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद्। संहिता वेद का पहला और मूल भाग है जिसमें मुख्यतः उपासना के मंत्र हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में वैदिक कर्मकाण्ड और यज्ञों के विधि-विधान का वर्णन है। आरण्यक में कर्मकाण्ड, रूपक कथाएँ और दार्शनिक व्याख्याएँ हैं, तथा उपनिषद् में वैदिक दर्शन पर सारभूत आध्यात्मिक चर्चा है। चूंकि उपनिषद मूलतः वेदों की संरचना का अंतिम भाग हैं, अत: इन्हें वेदांत और इनकी शिक्षाओं को वैदांतिक शिक्षा भी कह दिया जाता है।
प्रमुख 108 उपनिषद चारों वेदों में निम्न संख्या में विभाजित हैं: ऋग्वेद में 10; शुक्ल यजुर्वेद में 19; कृष्ण यजुर्वेद में 32; सामवेद में 16; तथा अथर्ववेद में 31।
भारत का आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते भी उपनिषद (मुण्डक-उपनिषद) से ही लिया गया है। असतो मा सद्गमय जैसी प्रार्थनाओं का स्रोत भी उपनिषद (बृहदारण्यक) ही है। सनातन धर्म से बौद्ध, जैन, और सिख पंथों तक समान रूप से प्रवाहित होता प्रतीक ॐ उपनिषदों में भी उपस्थित है।
जहाँ सभी उपनिषदों के नामकरण हुए हैं, वहीं ईशोपनिषद का कोई नाम नहीं है। चूंकि इसका आरम्भ ईशावास्यमिदं सर्वम् के साथ हुआ है इसलिये इसे ईशोपनिषद या ईशावास्योपनिषद के नाम से पुकारा जाता है। यदि भारतीय आध्यात्मिक विचारधारा में आपकी रुचि है तो उसे समझने के लिये यह छोटा सा ग्रंथ बहुत उपयुक्त है। आइये इस पर एक दृष्टि डालने का प्रयास करते हैं। अन्य आध्यात्मिक ग्रंथों की भाँति ईशोपनिषद पर भी अनेक विद्वच्चर्चायें हो चुकी हैं। इस आलेख में हम ऐसा कुछ नहीं करने वाले क्योंकि हमारा उद्देश्य केवल अपनी सांस्कृतिक धारा से पुनर्परिचय मात्र है।
जैसा कि पहले कहा गया है, ईशोपनिषद का पहला श्लोक ईशावास्यमिदम् सर्वम् से आरम्भ होता है। आइये इसके पहले दो श्लोकों पर दृष्टिपात करें:
ईशावास्यमिदम् सर्वम् यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥1॥
अर्थात: इस जगत में जो कुछ भी है वह सभी ईश्वराच्छादित है। त्याग की भावना को ध्यान में रखकर, किसी के धन पर गिद्धदृष्टि डाले बिना व्यवहार करो। अर्थात, एक तो ईश्वर सर्वव्यापी है। उसे छूने के लिये किसी विशिष्ट स्थान, पुस्तक, पंथ या जाति की आवश्यकता नहीं क्योंकि दृष्टव्य जगत में या उसके परे कुछ भी ईश्वरविहीन नहीं है। उपनिषद के अनुसार ईश्वर हमसे दूर किसी सातवें असमान या दैवी स्वर्ग में नहीं रहता, न ही उसे ढूँढ़ने के लिए किसी तीर्थ, हिमालय या काबे में जाने की आवश्यकता है।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥2॥
निर्लिप्त कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करो, मानव के लिये यही (सही) मार्ग है। कर्मठता भारतीय संस्कृति की विशेषता है, इंडस और इंडस्ट्रियस में समानता है। कर्म करना अनिवार्य है। गङ्गा और ब्रह्मपुत्र को हिमालय से उतारकर भारतभू की ओर लाने जैसे असम्भव कार्य भी हमारे पूर्वजों ने कर दिखाये हैं। किन्तु कर्म करते हुए भी उससे निर्लिप्त रहना भारतीय संस्कृति की पुकार है। गीता के द्वितीय अध्याय में अर्जुन को युद्ध से भागने से रोकते समय एक स्थान पर युद्ध को केवल एक ही स्थिति में अनिंद्य बताया गया है:
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
अर्थात् सुख-दुख, लाभ-हानि, जय और पराजय को समान मानकर युद्ध करते हुए पाप नहीं लगता। बात की गहराई में जाने पर दिव्यदृष्टि प्राप्त हो सकती है और ऐसा बहुत कुछ दिखने लगेगा जो हमारे मनीषी देखते थे और दिखाना चाहते थे। सत्य है कि वे फ़लसफ़ाकार नहीं, द्रष्टा (विज़नरी) थे और फ़िलॉसॉफ़ी नहीं दर्शन की बात करते थे।
भारतीय परम्परा विश्व की अन्य विचारधाराओं से अनेक प्रकार से भिन्न है। जहाँ अधिकांश अभारतीय विचारधारायें अपने को एक पक्ष मानते हुए, किसी भी भेद को विपक्ष बनाने में रूढ हुई हैं, वहीं भारतीय दर्शन समन्वयवादी और विश्लेषणात्मक है। उसमें तू-तू मैं-मैं नहीं, हम ही हम है। एक ही ईश्वर का अंश होने के कारण हम सभी एक वैश्विक स्वरूप का अंशमात्र हैं। इसलिये किसी को किसी के आगे झुकाने की आवश्यकता नहीं है। ईशोपनिषद के तीन श्लोकों में विद्या और अविद्या का वर्णन भी है।
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाम् रताः ॥9॥
अविद्या के उपासक घने अंधकार में प्रवेश करते हैं जबकि विद्या में रत जन अधिक अंधकार में जाते हैं।
अन्यदेवाहुर्विद्ययाऽन्यदाहुरविद्यया। इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥10॥
धीरों से सुना है कि विद्या और अविद्या के परिणाम अलग-अलग हैं।
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयम् सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥11॥
जो इन दोनों को एक साथ जानता है वह नश्वरता को अविद्या से और अमृत्व को विद्या से पार करता है।
तनिक विचारिये कि इस नश्वर संसार (इहलोक) को पार कराने वाली अविद्या क्या है और उस पार का अमृत्व प्रदान कराने वाली विद्या क्या है!
निर्गुण और सगुण भक्ति के जिस भेद में आज भी संसार को विभाजित किया जा रहा है इसी ग्रंथ के एक अन्य श्लोक में उनकी तुलना सरल शब्दों में सहजता से हुई है :
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याम् रताः ॥12॥
असंभूति या नश्वर तत्वों की उपासना करने वाले तो अंधकार में हैं ही, प्रकृति या निर्गुण की उपासना करने के भ्रम में पड़े लोग तो अत्यधिक अंधकार में है।जब सब कुछ ईश्वर से ही आच्छादित है तो परमेश्वर की उपासना की तुलना में किसी अन्य उपासना को निंदनीय समझना और भी बड़ा अज्ञान है, तामस है।
ईशोपनिषद के अंतिम चार छन्दों का पाठ अंतिम संस्कार में करने की भी परिपाटी है। उन्हीं में से एक, 17 वाँ छन्द याद दिलाता है कि यह शरीर मृत देह बन अग्नि में, प्राण वायु में मिलकर भस्मांत हो जाता है तब कृत कर्म ही ध्यान रहते हैं।
वायुर्निलममृतमथेदम भस्मान्तम शरीरम्।
ॐ क्रतो स्मर कृत स्मर क्रतो स्मर कृत स्मर ॥17॥
सुधी पाठकों के लिये ईशोपनिषद का सम्पूर्ण पाठ निम्न है। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाओं माध्यन्दिन और काण्व में कुछ पाठ भेद मिलते हैं। क्रम भेद भी हैं। माध्यन्दिन में 17 छन्द हैं तो काण्व में 18। इन सबको यथास्थान दर्शाया गया है।
॥ ईशोपनिषत् ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥
॥ अथ ईशोपनिषत् ॥
(काण्व शाखा पाठ)
ॐ ईशा वास्यमिदम् सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥1॥
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम् समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥2॥
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः।
ताम्स्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥3॥
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत्।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥4॥
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥5॥
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥6॥
(माध्यन्दिन शाखा में द्वितीय अर्द्धाली में पाठभेद है: सर्वभूतेषु चात्मानन्ततो न विचिकित्सति।)
यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥7॥
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-
मस्नाविरम् शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भू-
र्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥8॥
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाम् रताः ॥9॥
(माध्यन्दिन शाखा में यह बारहवाँ छन्द है)
अन्यदेवाहुर्विद्ययाऽन्यदाहुरविद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥10॥
(माध्यन्दिन शाखा में यह तेरहवाँ छन्द है)
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयम् सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥11॥
(माध्यन्दिन शाखा में यह चौदहवाँ छन्द है)
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याम् रताः ॥12॥
(माध्यन्दिन शाखा में यह नवाँ छन्द है)
अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात्।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥13॥
(माध्यन्दिन शाखा में यह दसवाँ छन्द है)
सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयम् सह।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्नुते ॥14॥
(माध्यन्दिन शाखा में यह ग्यारहवाँ छन्द है)
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥15॥
(माध्यन्दिन शाखा में यह अंतिम सत्रहवाँ छन्द है द्वितीय अर्द्धाली का पाठभेद ऐसे है: योसावादित्ये पुरुष सोसावहम्। ॐ खम्ब्रह्म)
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य
व्यूह रश्मीन् समूह तेजः।
यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि
योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि ॥16॥
(माध्यन्दिन शाखा में यह छन्द नहीं है)
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतम् शरीरम्।
ॐ क्रतो स्मर कृतम् स्मर क्रतो स्मर कृतम् स्मर ॥17॥
(माध्यन्दिन शाखा में यह पन्द्रहवाँ छन्द है जिसकी दूसरी अर्द्धाली में पाठ भेद है: ॐ क्रतो स्मर। क्लिबे स्मर। कृतं स्मर।)
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्
विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो
भूयिष्ठां ते नमौक्तिं विधेम ॥18॥
(माध्यन्दिन शाखा में यह सोलहवाँ छन्द है।)
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥
सत्य है। सिख केशधारी हिंदू ही हैं। हिंदुत्व उनका धार्मिक स्रोत है। सिख हिंदुत्व के भीतर उत्पन्न परम्परा है। गुरु ग्रंथ साहिब वेदांतिक दर्शन रखता है और जपजी साहिब उपनिषद आधारित है।
~ खुशवंत सिंह, जगपाल सिंह तिवाना के साथ साक्षात्कारबद्ध, साक्षात्कार
सम्पादकीय टिप्पणी: ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 177 वें सूक्त के देवता ‘मायाभेद’ हैं। केवल तीन मंत्रों वाला यह सूक्त अपनी गहनता के लिये जाना जाता है। कतिपय विद्वान ‘माया’ का अर्थ ‘अविद्या’ से भी करते हैं। औपनिषदीय सरि में आगे बढ़ते हुये अगले अङ्क में विद्या और अविद्या पर चर्चा करेंगे। |
आपका बहुत बहुत धन्यवाद मै आपका आभारी रहूंगा 🙏प्रणाम
बहुत सुंदर व सार्थक भाष्य। आपको अनंत साधुवाद !! परमात्मा की परम कृपा आप पर बनी रहे।
सरल शब्दों में महती व्याख्या।
एक स्तुत्य प्रयास।
Hindu dharm ek hi Satya he
भारतीय सनातन धर्म और हमारी अति प्राचीन ज्ञान
जन जन को समजा देने कि आवश्यकता है.
धर्माे रक्षते धर्म रक्षित:
भरतवर्ष भरतखंड कि जय हो!
Thanks A lot
अनुरागजी,
बहुत सुन्दर और सरल शब्दों में ईशावास्य को समझाया है आपको बधाई !
हालांकि 18 छंद मात्र के उपनिषदों पर भी चर्चा अंतहीन है |
धन्यवाद !
अलंकार
भारतीय सनातन धर्म और हमारी अति प्राचीन ज्ञान
जन जन को समजा देने कि आवश्यकता है.
धर्माे रक्षते धर्म रक्षित:
भरतवर्ष भरतखंड कि जय हो!
कालयात्री जी, ये ऑनलाइन पत्रिका और ऐसे मनीषियों को जोड़कर ज्ञानशाखा को अज्ञानियों में चर्चा के लिए आपको कोटि कोटि साधुवाद । वेदों और उपनिषदों के बारे में इससे बेसिक और बढ़िया आलेख अभी तक नहीं पढ़ा । अगर मूर्ख भी एक बार Kओ पढ़ जाय तो आगे पढ़ने की उत्कंठा बन जाए । यही ज्ञान के स्फुरित होने का प्रथम लक्षण है । Curocity