रावण वैसा ही लग रहा था जैसे स्वच्छ स्थान पर ऊड़द का ढेर पड़ा हो, जैसे गङ्गा की धारा में कुञ्जर अर्थात हाथी सोया हो, माष राशिप्रतीकाशम् नि:श्वसन्तम् भुजङ्गवत्। गाङ्गे महति तोयान्ते प्रसुप्तमिव कुञ्जरम्॥
चहुँओर जलते स्वर्णदीपकों से रावण के सर्वाङ्ग वैसे ही प्रकाशित थे जैसे बिजलियों से मेघ! प्रकाशीकृतसर्वाङ्गं मेघं विद्युद्गणैरिव। जब तक राक्षसराज के लिये रावण संज्ञा का प्रयोग था तब तक कवि ने हनुमान के लिये वानरर्षभ, महाकपि संज्ञा प्रयोग किये किंतु उसे कुञ्जर उपमा से युत करते ही वह हनुमान जी के लिये हरि एवं हरियूथप संज्ञाओं का प्रयोग करते हैं – ददर्श हरियूथप:, ददृशे हरि: । हरि शब्द का अर्थ वानर के अतिरिक्त सिंह भी होता है। कवि का शब्द प्रयोग संकेतक भी है कि रावण रूपी हाथी के लिये हनुमान सिंह समान।
कुञ्जर शब्द का प्रयोग श्रेष्ठता दर्शाने के लिये होता रहा है – अश्वकुञ्जर – श्रेष्ठ घोड़ा, गोकुञ्जर – श्रेष्ठ बैल इत्यादि। अमरकोश में श्रेष्ठता हेतु प्रयुक्त शब्दों के लिये कहा गया है –
स्युरुत्तरपदे व्याघ्रपुङ्गवर्षभकुञ्जराः ।
सिंहशार्दूलनागाद्याः पुंसि श्रेष्ठार्थवाचकाः ॥
कुञ्जर के अतिरिक्त इस श्रेणी के अन्य शब्दों में व्याघ्र, सिंह एवं शार्दूल भी हैं। आख्यानों का प्रयोग शिक्षा हेतु भी होता रहा, ऐसे स्थल प्रमाण हैं। शब्द प्रयोग की आख्यानी परम्परा अमरसिंह काल तक भी सुरक्षित थी। हरि शब्द प्रयोग को को ‘सिंहशार्दूल’ से समझा जा सकता है। अस्तु।
रावण वर्णन पूर्व कवि ने स्त्रियों के शयन के साथ चेष्टाओं का भी वर्णन किया किंतु आगे निद्रालस सुषुप्ता सुंदरियों के शब्द चित्र उकेरते हैं – मदव्यायामखिन्नास्ता, मदिरा पान एवं नृत्यादि श्रम से खिन्न अर्थात थकी हुई तनुमध्यमायें जहाँ स्थान मिल गया, वहीं पड़ रही थीं – प्रसुप्ता वरवर्णिनी।
आमोद प्रमोद के समय जो वाद्ययंत्र जाग्रतावस्था में सङ्गीत सङ्गी थे, शयन सौंदर्य के आधार हो गये! वीणा से लिपटी सोती हुई एक ऐसी लग रही थी जैसे महानदी में डूबती कोई कमलिनी किसी जलपोत से जा लिपटी हो! – महानदीप्रकीर्णेव नलिनी पोतमाश्रिता। अपने प्रिय मड्डूक वाद्य को पार्श्व में लिये एक यों सो रही थी ज्यों कोई ममतामयी अपने बालक के साथ हो – प्रसुप्ता भामिनी भाति बालपुत्रेव वत्सला। शुभ स्तनों वाली एक सुंदरी पटहा को अपने आलिङ्गन में कस कर ऐसे सोई थी मानों अपने प्रियतम से उसका बहुत दिनों के पश्चात मिलन हुआ हो – चिरस्य रमणं लब्ध्वा परिष्वज्येव कामिनी। जैसे कोई कामातुरा एकांत में अपने प्रियतम को पकड़ रही हो, एक सुन्दरी अपनी बाँसुरी को वैसे ही लिये सोई हुई थी – निद्रावशमनुप्राप्ता सहकान्तेव भामिनी। मदमाते नयनों वाली एक अपने सुवर्णकांत कोमल, मांसल एवं सुंदर अङ्गों से मृदङ्ग को दबाये सो रही थी –
अन्या कनकसंकाशैर्मृदुपीनैर्मनोरमैः। मृदङ्गं परिपीड्याङ्गैः प्रसुप्ता मत्तलोचना॥
रतिश्रम से क्लांत एक अनिंद्य कृशोदरी सुंदरी अपने कंधे एवं काँख मध्य ढोलक दबाये नींद में थी – पणवेन सहानिन्द्या सुप्ता मदकृतश्रमा। आडम्बर नामक वाद्य को भुजाओं में दबाये एक कमलनयनी मदमत्त पड़ रही थी ज्यों सम्भोग में हो – काचिदाडम्बरं नारी भुजसंभोगपीडितम्।
कलशीमपविद्ध्यान्या प्रसुप्ता भाति भामिनी। वसन्ते पुष्पशबला मालेव परिमार्जिता॥
पाणिभ्यां च कुचौ काचित्सुवर्णकलशोपमौ। उपगूह्याबला सुप्ता निद्राबलपराजिता॥
अन्या कमलपत्राक्षी पूर्णेन्दुसदृशानना। अन्यामालिङ्ग्य सुश्रोणी प्रसुप्ता मदविह्वला॥
आतोद्यानि विचित्राणि परिष्वज्य वरस्त्रियः। निपीड्य च कुचैः सुप्ताः कामिन्यः कामुकानिव॥
जल भरे कलश से ही लिपट कर सो जाने वाली एक भीगी हुई ऐसी लग रही थी जैसे वसंतकाल में पुष्पमाला को कुम्हलाने से बचाने के लिये उस पर जल छिड़काव किया गया हो। नींद-पराजिता एक अपने दोनो हाथों से स्वर्णकलश समान स्तनों को ढके सुप्त थी एवं मदविह्वल एक कमलनयनी चंद्रबदनी कोई एक दूसरी नितम्बिनी का आलिङ्गन किये सुसुप्त थी। अन्य सुंदरी स्त्रियाँ भी विचित्र प्रकार के वाद्य अपने स्तनों से दबाये ऐसे पड़ी हुई थीं मानों कामी पुरुषों से कुच मर्दन करा रही हों!
उद्दाम सुसुप्त सौंदर्य के ऐसे वाद्य आधारी अकुण्ठ वर्णन क्यों? आगे का श्लोक स्पष्ट कर देता है कि किसकी भूमिका है, ऐसी कौन अन्य भी है जो कामसम्पन्ना संंगीत प्रवीणा ऐसी वरस्त्रियों द्वारा रञ्जित है!
तासामेकान्तविन्यस्ते शयानां शयने शुभे। ददर्श रूपसंपन्नामपरां स कपिः स्त्रियम्॥
…
गौरीं कनकवर्णाभामिष्टामन्तःपुरेश्वरीम्। कपिर्मन्दोदरीं तत्र शयानां चारुरूपिणीम्॥
उस विशाल भवन के एक एकांत में, पृथक, सुंदर सेज पर एक अपूर्व रूपसम्पन्ना सोयी दिखी जो अपने सौंदर्य से मानो उस भवन को ही अलङ्कृत कर रही थी। वह कनक गौरवर्णा थी। पति की इष्टा चारुरूपिणी पुरेश्वरी मंदोदरी को कपि ने सोते हुये देखा।
… उच्छृंखल भोग के उपसंहार वर्णन के पश्चात मंदोदरी के एकांतिक सौंदर्य एवं गरिमामय वर्णन का वैपरीत्य अप्रतिम क्षण-सौंदर्य की सृष्टि करता है जैसे किल्लोलमय नदी कूल पर अचानक शांति छा गयी हो! जैसे वे सारे वाद्य स्त्री मुद्राओं के माध्यम से मौन संवाद करते करते सहसा थम गये हों! यह क्षण हनुमान के लिये एक उपलब्धि जैसा ही है। क्यों भला? सीता, सीता …
हरि रूप हनुमान उसे देख कर निज कपि स्वभाव में आ गये! सीता देवी के बारे में ज्ञात था ही, तर्क ने सिर उठाया – अहो! यह रूप यौवन सम्पदा तो सीता सी है – तर्कयामास सीतेति रूपयौवनसंपदा।
सम्भावना ने हर्ष बढ़ाया तथा महत आनंद में भर वे हरियूथप वानर-स्वभाव-वश पूँछ फटकारने एवं चूमने लगे। उत्साह में भर कर खम्भों पर चढ़ने और वहाँ से भूमि पर कूदने लगे कि हो न हो सीता यही हैं!
हर्षेण महता युक्तो ननन्द हरियूथपः
…
आस्ह्पोटयामास चुचुम्ब पुच्छं; ननन्द चिक्रीड जगौ जगाम।
स्तम्भानरोहन्निपपात भूमौ; निदर्शयन्स्वां प्रकृतिं कपीनाम्॥
किंतु परिवेश प्रभाव वश जो क्षणिक चूक हुई थी, वह शीघ्रता से तिरोहित हो गयी। हनुमान ने अपने तर्कजनित विचार को दूर किया एवं पुन: सद्बुद्धि में अवस्थित हो सीता जी के बारे में विचार करते हुये घूमने लगे।
अवधूय च तां बुद्धिं बभूवावस्थितस्तदा। जगाम चापरां चिन्तां सीतां प्रति महाकपिः॥
अब तक राजसी विलास दिखा था जिसमें विगत काम सङ्गीत के साक्षी वाद्य सुंदरियों के शयन हेतु रमण रावण आधार थे, आगे तो साक्षात जगता अलसाता तमस् था! नहीं, सीता देवी ऐसे परिवेश को नहीं अपना सकतीं। वह कोई दूसरी है – अन्येयमिति निश्चित्य पानभूमौ चचार सः।
(क्रमश:)
मारुति गहन चिन्ता में पड़ गये – मेरा यह कर्म अवश्य मेरे धर्म को भ्रष्ट कर देगा। आज तक मैंने पराई स्त्रियों को ऐसी दृष्टि से नहीं देखा था!
जगाम महतीं चिन्तां धर्मसाध्वसशङ्कितः। परदारावरोधस्य प्रसुप्तस्य निरीक्षणम्॥
इदं खलु ममात्यर्थं धर्मलोपं करिष्यति। न हि मे परदाराणां दृष्टिर्विषयवर्तिनी॥