भारतीय तथा अन्य नाम : कलसिरी, गुल्दुम बुलबुल, कालासिर बुलबुल, रक्तासन बुलबुल, कृष्णचूड गोवत्सक, ਲਾਲ ਪੂੰਝੀ ਬੁਲਬੁਲ, હડીયો બુલબુલ, लाल बुडाचा बुलबुल, फेस, कुंचीवाला बुलबुल, पेचडुक, சின்னான், നാട്ടുബുൾബുൾ, जुरेली, ফেচুলুকা, বাংলা বুলবুল
वैज्ञानिक नाम (Zoological Name) : Pycnonotus cafer
Kingdom: Animalia
Phylum: Chordata
Class: Aves
Order: Passeriformes
Family: Pycnonotidae
Genus: Pycnonotus
Species: P. cafer
वर्ग श्रेणी : यष्टिवासी
Category: Perching Bird
जनसङ्ख्या : वृद्धिमान
Population: Increasing
संरक्षण स्थिति (IUCN) : सङ्कट-मुक्त
Conservation Status (IUCN): LC (Least Concern)
वन्य जीव संरक्षण अनुसूची : ४
Wildlife Schedule: IV
नीड़-काल : फरवरी से सितम्बर तक, वर्ष में एकाधिक बार प्रजनन।
Nesting Period: February to September, mating is more than once a year.
आकार : लगभग ८ इंच
Size: 8in
प्रव्रजन स्थिति : अनुवासी
Migratory Status: Resident
दृश्यता : सामान्य (प्राय: दृष्टिगोचर होने वाला)
Visibility: Common
लैङ्गिक द्विरूपता : अनुपस्थित (नर और मादा समान)
Sexual Dimorphism: Not Present (Alike)
भोजन : अन्न के दाने, घास के बीज, कीड़े-मकोड़े, बेर, फूलों के पराग।
Diet: Fruits, Petals of flowers, Nectar, Insects, Small Lizards etc.
अभिज्ञान एवं रङ्ग-रूप : Red-vented Bulbul कलसिरी बुलबुल हमारे देश का बारहमासी पक्षी है जिसे प्राय: हम युगल में, मानव बस्ती के निकट से लेकर खेत-खलिहान और उपवन-वाटिकाओं में देख सकते हैं। सघन वनों में रहना इसे रुचिकर नहीं है। यह लगभग ८ इंच की सुन्दर सी चिड़िया है। इसके कृष्ण सिर पर कृष्ण शिखा होती है, जिसके कारण इसे हिंदी में कलसिरी कहा जाता है। इसकी पूँछ के अंतिम छोर का वर्ण श्वेत और पूँछ के मूल भाग का वर्ण गहन रक्तवर्णी होता है। इसी कारण इसका अंग्रेजी नाम ‘रेड वेंटेड बुलबुल’ पड़ा है। इस प्रकार इसका अभिज्ञान भी अत्यंत सरल है। इसमें नर और मादा एक जैसे होते हैं। इनका सिर और गला कृष्ण वर्ण के, अधोभाग भूरापन लिए हुए मटमैला श्वेत, नेत्रगोलक सघन भूरे तथा पैर और चोंच कृष्ण वर्ण के होते हैं।
निवास : Red-vented Bulbul कलसिरी बुलबुल का निवास सम्पूर्ण भारत है। इसे हमारे घरों के निकट, उपवन-वाटिकाओं, खेतों आदि में कोलाहल करते हुए देखा जा सकता है। इसकी आक्रामक (झगड़ालू) प्रवृत्ति के कारण ही एक समय इसको लोग लड़ने के लिए पालते भी थे।
वितरण : कलसिरी सम्पूर्ण भारत के अतिरिक्त बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार, चीन और अत्यल्प संख्या में पाकिस्तान में भी मिलती हैं। भारत में ये हिमालय पर ४०००-५००० फीट की ऊँचाई से लेकर कन्याकुमारी तक पाई जाती हैं।
प्रजनन काल तथा नीड़ निर्माण : कलसिरी के प्रजनन का समय फरवरी से सितम्बर तक होता है। अनुकूल परिस्थिति हो तो ये अनेक अन्य पक्षियों की भाँति साल में एक से अधिक बार भी प्रजनन कर सकते हैं। नीड़ निर्माण के लिए ये ६-१० फुट की ऊँचाई तक किसी घनी शाखा, झाड़ी, पेड़ का कोटर, नदी-नालों के ऊँचे किनारे के छिद्रों आदि स्थानों पर देखे गए हैं। पेड़ों पर इनका नीड़ कोशा सदृश होता है, जिसे पतली टहनियों, पत्तियों, मकड़ी के जाले और अब तो प्लास्टिक रेशे से भी सुखद और दृढ़ बनाते हैं। समय आने पर मादा २-३ अण्डे देती है, जो मटमैला पाटल वर्ण लिए होते हैं। उन पर रक्तवर्णी चित्तियाँ होती हैं। १४ दिन के पश्चात अण्डों से बच्चे निकलते हैं, जिनका नर और मादा मिलकर पालन-पोषण करते हैं। यदा-कदा इनके नीड़ में चातक पक्षी भी अपने अण्डे दे देता है। अण्डों का आकार लगभग ०.९० *०.६५ इंच होता है।
सम्पादकीय टिप्पणी
आक्रांता अपनी राजकीय भाषा फारसी के काव्य के बुलबुल से इतने प्रभावित थे कि यहाँ उन्होंने इस चिड़िया का नाम ही बुलबुल रख दिया और शनै: शनै: इसका प्रचलित हिंदी नाम कलसिरी प्रयोगबाह्य हो गया। पराई भाषा किस प्रकार अपने देश में ही हमें पराया बना देती है, कलसिरी नाम का लोप एक उदाहरण है। पञ्चतत्त्वप्रकाश में इसे कृष्णचूड कहा गया तथा फारसी नाम को भी बुल्बुल नाम से अपना लिया गया।
चरक इसे अङ्गारचूडक कहते हैं जिसे अङ्गार उत्पन्न करने वाले कोयले के रंग से समझा जाना चाहिये। भारत में इस नाम के अंतर्गत तीन प्रकार की कलसिरी होती हैं जिनमें इसे पेच, फेञ्च, फेञ्चाक आदि नामों से जाना जाता है। मानसोल्लास में ‘पेचकापिच्छसंयुक्तम्’ और ‘पेञ्चाकपुच्छपिच्छै:‘ जैसे प्रयोग मिलते हैं। इसकी पूँछ के निचले रक्तवर्णी पर आभूषणों की सज्जा में भी प्रयुक्त होते थे।