डॉ. अनीता शुक्ल
हिंदी विभाग, महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा
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वर्णाश्रमों में विभाजित भारतीय सामाजिक जीवन में पुत्र का अत्यंत महत्व है। पुत्र वंश को बढ़ाता है, पितृ ऋण से उऋण करता है – ‘पुनाति य: सुचरितै: पितरं स पुत्र:’। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है:
ऋणमस्मिन् संनयत्यमृतत्वं च गच्छति।
पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेज्जीवतो मुखम्॥
यावन्त: पृथिव्यां भोगा यावन्तो जातवेदसि।
शश्वत्पुत्रेण पितरोSन्यायन बहुलं तम:॥
आत्मा हि यज्ञ आत्मन: स इरावत्यतितारिणी।
किं नु मलं किम जिनं किं श्मश्रुणि किं तप:॥
पुत्रं ब्राह्मण इच्छध्वं स वै लोकोSवदावद:।
अन्नं ह प्राण: शरणं ह वासो रूपं हिरण्यं पशवो विवाहा:।
सखा ह जाया कृपणं दुहिता ज्योतिर्ह पुत्र: परमे व्योमन्॥
तैत्तिरीय संहिता में तीन ऋणों के वर्णन में ‘ब्रह्मचारी’ एवं ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द आये हैं – व्यक्ति जब जन्म लेता है तो तीन रूप से ऋणी होता है – ब्रह्मचर्य में ऋषियों के प्रति, यज्ञ में देवों के प्रति तथा संतति में पितरों के प्रति। जिसको पुत्र होता है, जो यज्ञ करता है और जो ब्रह्मचारी रूप में गुरु के पास रहता है, वह इन तीनों ऋणों से उऋण हो जाता है।
इसी संदर्भ में जीवन के सफलतापूर्वक निर्वाह के लिए चार आश्रमों का अपना महत्व है। ये चार आश्रम हैं:
- ब्रह्मचर्य – जन्म से 25 वर्ष तक की आयु
- गृहस्थ – 26 से 50 वर्ष तक की आयु
- वानप्रस्थ – 51 से 75 वर्ष तक की आयु
- संन्यास – 76 से 100 वर्ष तक की आयु
ब्रह्मचर्य इन सभी की नींव है। जन्म से लेकर 25 वर्ष तक की आयु में ही व्यक्ति का बौद्धिक, शारीरिक विकास हो जाता है। हमारे यहाँ अवध में कहा जाता है कि ब्राह्मण बालक को पाँच साल तक जितनी बुद्धि आनी होती है, आ जाती है। आधुनिक विज्ञान तथा मनोविज्ञान भी इस धारणा को पुष्ट करता है। तो प्रश्न यह उठता है कि ब्राह्मण कौन है? वह जिसने ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लिया हो या वह जो ब्राह्मण कुल में जन्म लेता है? उत्तर आप सभी पर छोड़ती हूँ। मेरा सरोकार इससे है कि मनुष्य को ब्राह्मण बनने के लिए क्या करना चाहिये? क्या संस्कृत शास्त्रों में इसका कोई उपाय है?
मनुस्मृति में कहा गया है – ‘जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते।’ व्यक्तित्व के विकास का प्रथम सोपान संस्कार है। संस्कारों की यह प्रक्रिया जन्म के पहले से आरंभ हो जाती है और मृत्युपर्यंत चलती रहती है। इन संस्कारों का शैशवकाल में अधिक महत्व होता है, क्योंकि शैशवकाल में बच्चे के मन में जिन संस्कारों के बीज डाल दिए जाते हैं वे ही पनपकर वृक्ष का रूप धारण करते हैं।1
धर्मशास्त्रों में संस्कारों की संख्या 16 मानी गई है, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं – गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, विष्णु बलि, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चोल, उपनयन, चारवेद व्रत, समावर्तन, विवाह, अंत्येष्टि।
विभिन्न विद्वानों ने अन्य कई संस्कार और भी माने हैं। गौतम ने संस्कारों की संख्या 40 बताई है। इस एक लेख में इन सभी की चर्चा करना संभव नहीं है; अतएव मैं यहाँ उपनयन अथवा यज्ञोपवीत पर केंद्रित रहकर अपनी बात करूँगी।
उपनयन/यज्ञोपवीत संस्कार
“’जनेऊ’ शब्द ‘यज्ञोपवीत’ का तद्भव रूप है। यज्ञोपवीत को ब्रह्मसूत्र भी कहा जाता है। वैदिक काल में उत्तरीय पहनने की प्रथा थी, आज जनेऊ का रूप बहुत परिवर्तित हो गया है। वैदिक काल में उत्तरीय पहनने की तीन विधियाँ मिलती हैं – निवीत, आवीत और उपवीत। उपवीत विधि से उत्तरीय धारण करने का प्रचलन संभवत: देवों में था। यज्ञ करने पर मनुष्य देव कोटि में आ जाता है, अत: वह यज्ञ के अवसर पर उपवीत धारण करता था, जिसे यज्ञोपवीत कहा गया। यज्ञोपवीत का यह श्लोक प्रत्येक द्विज को याद कराया जाता है:
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:॥ 2
संस्कारों में उपनयन दशम संस्कार है। इसे वेदारंभ संस्कार के रूप में भी जाना जाता है। ‘उपनयन’ का अर्थ है पास या सन्निकट ले जाना।
किसके पास ले जाना? आचार्य के पास।
किसलिये?
वेदाध्ययन के लिये।
यह वह संस्कार है जिसके द्वारा ब्रह्मचारी/बालक को वेदाध्ययन के लिए आचार्य के पास ले जाया जाता है।
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लोक और वेद सदा साथ-साथ चले हैं। ‘कुछ लोकरीति कुछ वेदरीति’ के अनुसार इन दोनों में कुछ भिन्नता अवश्य देखने को मिलती है, किंतु प्राय: यह देखने को मिलता है कि लोक वेद का आधार ग्रहण करके ही अपने जीवन के पुरुषार्थों को उपलब्ध करने का प्रयास करता है। भारतीय संस्कृति तथा परंपराएँ श्रुति तथा स्मृति पर आधारित रही हैं। भारतीय समाज सनातन काल से इसी रूप में जीवनयापन करता तथा संस्कारित होता आया है। हाँ, यह अवश्य है कि समय के परिवर्तन के साथ उसमें कुछ बाह्य परिवर्तन हुए हैं, किंतु केंद्रीय तत्व अपनी धुरी पर अटल रहा है।
भारतीय मनीषियों ने वेद वाणी में संस्कारों की जो रीति बताई, लोक ने अपनी बोली-भाषा में भी उन्हें अभिव्यक्ति दी। इस प्रकार के कुछ प्रमाण मुझे अवधी लोकगीतों में प्राप्त हुये हैं, जो आगे हम देखेंगे। यज्ञोपवीत के शास्त्र विहित कुछ केंद्रीय तत्व हैं:
- गृहत्याग
- उपवीत धारण
- ब्रह्मचर्य पालन
- भिक्षाटन
- मुंज का जनेऊ पहनना
- आचार्य के पास जाकर वेद अध्ययन करना
अवधी लोकगीतों में भी इनके साक्ष्य प्राप्त होते हैं। अवधी लोकगीतों का एक भेद ‘संस्कार गीत’ है जिनमें पुंसवन से लेकर अंत्येष्टि संस्कार तक के गीत प्राप्त होते हैं। यज्ञोपवीत के गीत जनेऊ संस्कार सम्पन्न होने के समय गाए जाने वाले गीत हैं। एक गीत जो भिक्षा माँगते समय गाया जाता है:
जौ मैं जनतेंव ए बरुआ हमरे घरे अउबा,
गोंइड़ेन मइरा जोताइ घन मोतिया बोवउतेंव।
कंचन थार भराइ भिखिया लै छोड़तेंव।
प्राचीन समय में ब्रह्मचारी को भिक्षा देना बड़े पुण्य का काम समझा जाता था। ब्रह्मचारी जिससे भिक्षा लेता है, उसका ऋण आजीवन उसकी सेवा करके चुकता करता है। वह समाज से भिक्षा लेता है और ब्रह्मचर्य आश्रम में किए गए वेद अध्ययन का लाभ जीवन भर समाज को देता है। आज ब्रह्मचारी गृहस्थ के पास भिक्षा लेने जाता है तो गृहस्थ सोने के थाल में मोती भरकर उसे भिक्षा देना चाहता है। कल को यही ब्रह्मचारी जब गृहस्थ बनेगा तो आने वाले ब्रह्मचारी को भिक्षा प्रदान करेगा और इस तरह समाज आपसी साझेदारी तथा कर्तव्यनिष्ठा से चलता रहेगा।
एक अन्य गीत जनेऊ संस्कार की उपयुक्तता तथा समाज की शैक्षिक एवं सांस्कृतिक समृद्धि का वर्णन कर रहा है:
लाओ न मैया मोरी सतुआ अउर घिव लडुआ,
मैया जाबय मैं कासी बनारस बेद पढ़ि अउबय।
खाओ न बेटा मोरे सतुआ अउर घिव लडुआ,
बेटा घरहीं मा बाबा बिद्वान घरहीं बेद पढ़िलेव।
बरुआ अपनी माँ से सतुआ और घी-लड्डू माँगते हुए कहता है कि हे माँ, मैं काशी-बनारस वेद पढ़ने जाऊँगा। माँ कहती है कि हे बेटा, तुम सत्तू खा लो और घी-लड्डू भी खा लो, किंतु घर में ही तुम्हारे बाबा विद्वान हैं, तुम घर पर ही वेद पढ़ लो। यहाँ दो बातें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं – पहली यह कि माँ नहीं चाहती कि बेटा घर से बाहर, उससे दूर जाय। दूसरी, जो अधिक महत्वपूर्ण है कि वेद अध्ययन, आवश्यक भी है और घर में बाबा विद्वान हैं, उनसे ही वेद पढ़ लो। अर्थात प्रत्येक घर में वेद अध्ययन का महत्व है और प्रत्येक घर में विद्वान भी हैं। यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान के संचरण का प्रमाण है जो श्रुति और स्मृति परंपरा को बनाए रखे हुये है।
शास्त्रों में मुञ्ज का जनेऊ धारण करने की बात आई है – आयुष्यमयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं/ यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:। निम्नलिखित गीत में बरुआ अपने बाबा से मुञ्ज का जनेऊ देने का आग्रह करता है:
कुँअना जगतिया पे मुजिया कै थनवा, चिरइं कवन रामा मूँजि।
तहवाँ दुलहे रामा लोटनी पसारैं, औ पोटनी पसारैं, लेबे बाबा मूँजे कै जनेउ।
मूँजी कै जनेउआ नाती अंग छोलि लेइहैं, बदन छोलि लेइहैं, देबे नाती पियरा जनेउ।
याज्ञवल्क्य तथा अन्य स्मृतियों में यज्ञोपवीत को ब्रह्मसूत्र कहा गया है। लोक-व्यवहार में बालकों के ब्रह्मसूत्र पहनने अथवा यज्ञोपवीत धारण करने के प्रमाण मिलते हैं, किंतु स्त्रियों के बह्मसूत्र पहनने के प्रमाण नहीं मिलते। ऐसे अवसरों पर स्त्रियों का महत्वपूर्ण स्थान है, इस बात के प्रमाण अवश्य मिलते हैं। भतीजे के जनेऊ में बुआ को सादर बुलाया जाना, भिक्षा माँगने के लिए माँ अथवा मौसी के पास ही बटुक का सर्वप्रथम जाना आदि इस बात के प्रमाण हैं। निम्नलिखित गीत में बुआ का आदर स्पष्ट परिलक्षित होता है:
कान्हे डोरी हाथे लोटा पियरा जनेउ हो।
सोने के खराऊँ बरुआ फुआ घर जायँ हो।
चलउ न ए फुआ हमरे के देसा हो,
तोहरा बबइया फुआ यज्ञ एक ठाने हो।
कैसे के चलउँ बरुआ तोहरे देसा हो,
तर जरै भुभुरी उपर लागै घाम हो,
लौटि के बरुआ अपने बाबा लगे जायँ हो।
तोहरिनि बेटी बाबा दिहीं है जवाब हो,
तर जरै भुभुरी उपर लागै घाम हो,
चारि कहार बेटा लाल ओहार हो,
पालकी के दल अइहैं बेटी हमार हो।
मेरे मन में ये बड़े प्रश्न हैं कि क्या स्त्रियों का उपनयन होता था? क्या वे यज्ञोपवीत धारण करती थीं? इस विषय में कुछ स्मृतियों में निर्देश मिलते हैं। स्मृतिचंद्रिका में उद्धृत हारीतधर्मसूत्र तथा अन्य निबंधों में निम्न बात पाई जाती है – स्त्रियों के दो प्रकार हैं, पहली ब्रह्मवादिनी (ज्ञानिनी) एवं दूसरी सद्योवधू (जो सीधे विवाह कर लेती हैं); इनमें ब्रह्मवादिनी को उपनयन करना, अग्नि सेवा करना, वेदाध्ययन करना, अपने गृह में ही भिक्षाटन करना पड़ता था, किंतु सद्योवधुओं का विवाह के समय केवल उपनयन कर दिया जाता था।
गोभिलगृह्यसूत्र के अनुसार लड़कियों को उपनयन के प्रतीक के रूप में यज्ञोपवीत धारण करना पड़ता था। आश्वलायनगृह्यसूत्र ने समावर्तन के प्रसंग में लिखा है – अपने दोनों हाथों में लेप (उबटन) लगाकर ब्राह्मण अपने मुख को, क्षत्रिय अपनी बाहुओं को, वैश्य अपने पेट को, स्त्री अपने गर्भस्थान को तथा जो दौड़ लगाकर अपनी जीविका चलाते हैं (सरणजीवी) वे अपनी जाँघों को लिप्त करें।
महाभारत के वनपर्व में आया है कि एक ब्राह्मण ने पाण्डवों की माता को अथर्वशीर्ष के मंत्र पढ़ाये थे। हारीत ने व्यवस्था दी है कि रज:स्राव आरम्भ होने के पूर्व ही स्त्रियों का समावर्तन हो जाना चाहिये। अत: स्पष्ट है कि ब्रह्मवादिनी नारियों का उपनयन गर्भाधान के आठवें वर्ष होता था, वे वेदाध्ययन करती थीं और उनका छात्रा-जीवन रजस्वला होने के (युवा हो जाने के) पूर्व समाप्त हो जाता था। यम ने भी लिखा है कि प्राचीन काल में मूँज की मेखला बाँधना (उपनयन) नारियों के लिए भी एक नियम था, उन्हें वेद पढ़ाया जाता था, वे सावित्री (पवित्र गायत्री मंत्र) का उच्चारण करती थीं। मनु को भी यह बात ज्ञात थी। जात कर्म से लेकर उपनयन तक के संस्कारों के विषय में चर्चा करके मनुस्मृति में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि ये कृत्य नारियों के लिए भी ज्यों–के –त्यों किये जाते थे, किंतु बिना मंत्रों के। केवल विवाह संस्कार में स्त्रियों के लिए वैदिक मंत्रों का प्रयोग होता था। स्पष्ट है कि मनुस्मृति के काल में स्त्रियों का उपनयन नहीं होता था, किंतु प्राचीन काल में होता था।
बाणभट्ट की कादम्बरी में महाश्वेता (जो तप कर रही थी) के बारे में ऐसा आया है कि उसका शरीर ब्रह्मसूत्र पहनने के कारण पवित्र हो गया था – ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम्।3
इस प्रकार प्राचीनकाल में स्त्रियाँ यज्ञोपवीत धारण करती थीं यह तो स्पष्ट है, किंतु कब और क्यों बंद हो गया, यह शोध का विषय है। लोक भी इस संबंध में मौन है।
संदर्भ :
- उपाध्याय अनीता, अवधी और भोजपुरी लोकगीतों का सामाजिक स्वरूप, दर्पण प्रकाशन, वल्लभ विद्यानगर, 2005, पृ। 53
- उपाध्याय अनीता, अवधी और भोजपुरी लोकगीतों का सामाजिक स्वरूप, दर्पण प्रकाशन, वल्लभ विद्यानगर, 2005, पृ। 67
- डॉ। पाण्डुरंग वामन काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास – प्रथम भाग, अनुवादक – अर्जुन चौबे काश्यप, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, पृ। 219-220
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जानकारी बहुत नीक लाग। जइसे सामनेन बरुआ होइ रहा है। अउर मेहररुवै गाय रही हैं। बहुत-बहुत बधाई।