विसर्ग, अनुस्वार एवं अनुनासिकों के पश्चात हम संस्कृत भाषा की उस विशेषता पर ध्यान देंगे जो सबको प्रभावित करती है – संधि।
संधि को आप समझौते से समझ सकते हैं जिसमें दो पक्ष एकत्रित होते हैं, कुछ निश्चित मान्यताओं के अनुसार एक दूसरे को स्वीकार कर संयुक्त होते हैं तथा इस प्रक्रिया में दोनों के रूप परिवर्तित हो एक भिन्न रूप में एकीकृत हो जाते हैं। इस परिवर्तन को ‘विकार’ कहते हैं जिसे दोष अर्थ में न ले, एक पारिभाषिक शब्द की भाँति माना जाना चाहिये। यह भी कि दोनों यदि पुन: असम्पृक्त होंगे तो अपने पूर्व रूप को प्राप्त कर लेंगे। इसे संधिविच्छेद कहते हैं।
संस्कृत श्रुतिमधुर भाषा है अर्थात किसी वाक्य में शब्दों का संयोजन किया जाता है जिससे कि सुनने में मधुर प्रभाव हो। इस कारण विराम या अवसान के पूर्व तक एक वाक्य के समस्त शब्द संधियुक्त, एक ही नैरंतर्य में लिखे जाने चाहिये जो कि पारम्परिक चलन भी है। आप ने आज कल उपलब्ध संस्कृत ग्रन्थों में देखा होगा कि वाक्य के शब्द स्वतंत्र दशाये जाते हैं अर्थात प्रत्येक शब्द विच्छेद पश्चात लिखा जाता है। समझने के लिये तो यह ठीक है किंतु श्रुति माधुर्य की दृष्टि से ठीक नहीं है। रामायण के आरम्भ श्लोक के उदाहरण से समझें :
सर्वा पूर्वं इयं येषां आसीत् कृत्स्ना वसुन्धरा । प्रजापतिं उपादाय नृपाणां जयशालिनाम् ॥
इसे इस प्रकार लिखना भाषिक सौंदर्य की दृष्टि से अधिक उपयुक्त होगा।
सर्वापूर्वमियम्येषाम्, आसीत्कृत्स्नावसुन्धरा ।
प्रजापतिमुपादाय, नृपाणाञ्जयशालिनाम् ॥
(श्लोक छंद में आठ आठ वर्णों के चार चरण होते हैं, अत: लिखते समय प्रत्येक चरण में निरंतरता रख विराम दे दिया जाता है, जिससे कि गायन में यति का ध्यान रहे।)
‘संधि’ शब्द स्वयं ही एक संधि है – सम् + धि। पिछले लेख में बताये नियम के अनुसार विकार होने पर इसका उच्चारण ‘सन्धि’ किया जाता है। दो शब्दों के मध्य की संधि में प्रथम शब्द का अंत अक्षर एवं दूसरे शब्द का आरम्भ अक्षर मिल कर विकार का सृजन करते हैं। यथा ऊपर के श्लोक के प्रजापतिमुपादाय में पहले शब्द ‘प्रजापतिम्’ का अंतिम ‘म्’ एवं दूसरे शब्द ‘उपादाय’ का प्रथम अक्षर ‘उ’ मिल कर मु हो जाते हैं – प्रजापति’मु’पादाय।
आगे बढ़ने से पूर्व वर्णमाला सम्बंधित आलेख को दुहरा लें कि स्वर एवं व्यञ्जन, ध्वनियों के दो समूह हैं। स्वर को आप बिना किसी अन्य वर्ण की सहायता के बोलते रह सकते हैं जब कि व्यञ्जन के साथ ऐसा करेंगे तो स्वत: ‘अ’ स्वर अंत में जुड़ जायेगा। व्यञ्जनों के कथित ‘अर्द्ध’ रूप को बिना किसी स्वर की उपस्थिति के दर्शाने हेतु अंत में हल जैसा चिह्न लगा कर दर्शाया जाता है जिसे हलंत कहते हैं, यथा – क्, च्, ट्, त्, प्। इनका ‘अ’ समन्वित रूपों क, च, ट, त, प से भेद ध्यान रखना संधि को समझने एवं जानने हेतु अत्यंत आवश्यक है।
यदि किसी शब्द का ‘अ’ समन्वित ‘पूर्ण व्यञ्जन’ या उसके किसी अन्य स्वर मात्रा के साथ अंत हो रहा है तो अगले शब्द के प्रथम वर्ण के साथ संधि करते समय इस शब्द का अंत वह स्वर होगा जो कि या तो ‘अ’ होगा या ‘मात्रा’ वाला स्वर क्यों कि आश्रय देने वाले स्वर का उच्चारण व्यञ्जन के पश्चात होने से वही शब्द का अंत होगा, उससे पूर्व वाला व्यञ्जन नहीं। इसके विपरीत यदि किसी शब्द का अंत व्यञ्जन के अर्द्ध या हलंत रूप के साथ है तो वह व्यञ्जनान्त होगा।
दुहरा देते हैं कि किसी मात्रायुक्त व्यञ्जन में मात्रा का उच्चारण सदा व्यञ्जन के पश्चात होता है अत: पश्चवर्ती अर्थात संधि में भाग लेने वाले दूसरे शब्द के आरम्भ का व्यञ्जन मात्रा युक्त हो तो भी उसका बिन मात्रा का ‘अर्द्धरूप’ ही संधि में प्रयुक्त होता है क्योंकि वह सबसे आगे रहता है।
इससे यह भी स्पष्ट होता है कि विकार दो क्रमागत ध्वनियों के मिलने से उत्पन्न होता है तथा संधि विचार के समय सदैव उच्चारण पर ध्यान रखना चाहिये।
पहले आने वाले शब्द के अंत एवं उसके पश्चवर्ती शब्द के आरम्भ से संधि का रूप निश्चित होता है। निम्न क्रमचय सञ्चय हो सकते हैं :
पहले शब्द का अंत | पश्चवर्ती शब्द का आरम्भ | विकार का नाम रूप |
स्वर | स्वर | स्वर संधि |
स्वर | व्यञ्जन | X |
व्यञ्जन | स्वर | व्यञ्जन संधि |
व्यञ्जन | व्यञ्जन | व्यञ्जन संधि |
स्वरांत+व्यञ्जनारम्भ की स्थिति में देखें कि कोई विकार नहीं होता है क्यों कि अंत का ‘स्वतंत्ररूप’ स्वर व्यञ्जन को यथारूप रहने हेतु अवलम्बन प्रदान कर देता है। यथा – ऊपर के श्लोक में ‘कृत्स्ना’ एवं ‘वसुन्धरा’ के मिलने का रूप कृत्स्न्[आ~व्]असुन्धरा होने से दोनों शब्दों के मिलने पर भी उनके अंत एवं आरम्भ यथावत रहेंगे – कृत्स्नावसुन्धरा।
(वसु को समझाने हेतु व्असुन्धरा लिखा है, यह विच्छेद नहीं है, वसुन्धरा जिन दो शब्दों की सन्धि है, वे हैं वसुम् एवं धरा)।
हमने पिछले लेख में बताया था कि विसर्ग के ह-सम ध्वनि से आरम्भ हो अंतिम अनुनासिक म पर ओठ मिलने पर सांस की यात्रा पूरी हो जाती है। अक्षरों को अल्पप्राण एवं महाप्राण बना देने वाली ध्वनि के नाम से तीसरे प्रकार की संधि भी बनती है – विसर्ग संधि अर्थात जब पहले शब्द का अंत विसर्ग से हो तथा दूसरे शब्द का आरम्भ स्वर या व्यञ्जन से हो। ये दो क्रमचय जोड़ने पर कुल पाँच प्रकार के सम्भावित विकारसमूह हो जाते हैं जिनके भीतर भी विभाग हैं।
उक्त संधियों को समझने हेतु हम आरम्भ विसर्ग से ही करेंगे। स्वर सब को आधार देते हैं, अत: इससे पूर्व स्वरों के कुछ विकार गुण जान लें जो कि स्वाभाविक ही उच्चारण से आते हैं। इन पर विस्तार से स्वर संधि के पाठ में करेंगे।
जैसा कि वर्णमाला वाले अध्याय में बताया जा चुका है, वस्तुत: मूल स्वर मात्र ५ – अ, इ, उ, ऋ एवं लृ (वैदिक) ही हैं, शेष यौगिक होते हैं। मूल पाँच स्वरों से अन्य यौगिक स्वरों की व्युत्पत्ति ऐसे होती है :
दीर्घीकरण – अ+अ = आ, इ+इ = ई, उ+उ = ऊ, ऋ+ऋ = ॠ, लृ+ऋ = ॡ [अंतिम दो वैदिक]
गुणीकरण – अ+इ = ए, अ+उ = ओ
वृद्धिकरण – अ+ए = ऐ, अ+ओ = औ
नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि पहले व्युत्पत्ति वर्ग में उच्चारण दीर्घ हो जाता है, दूसरे वर्ग में अ का संयोग अन्य दो से होने पर ध्वनि में गुणात्मक परिवर्तन होते हैं तथा तीसरे में दूसरे वर्ग के गुणात्मक परिणामों से अ के आरम्भ में जुड़ने से बढ़ोत्तरी या वृद्धि होती है। किञ्चित ध्यान देने पर ही स्वर समूहों का भेद स्पष्ट हो जाता है।
(१) विसर्ग+स्वर :
(क) विसर्ग के पूर्व ‘अ’ हो तथा आगे के शब्द में भी पहला अक्षर ‘अ’ हो तो संधि के समय विसर्ग (:) का परिवर्तन ‘उ’ में तथा अगले शब्द के ‘अ’ का अवग्रह ‘ऽ’ में परिवर्तन हो जाता है जो कि अन्तत: ऊपर की स्वरचर्या के अनुसार ‘ओऽ’ हो जाता है। यथा :
नम:+अध्वराय
= नम्+अ+[(:)~अ]+ध्वराय
= नम्+[(अ+उ)~ऽ]+ध्वराय
= नम्+[ओ~ऽ]+ध्वराय
= नम्+ओऽ+ध्वराय
= [नम्+ओ]+ऽ+ध्वराय << ध्यान दें कि नम् में म् बिना किसी स्वर का है, इसके पश्चात आने वाले स्वर ‘ओ’ से इसका स्वाभाविक अवलम्बन संयोग हो कर ‘मो’ हो जायेगा। >>
= नमोऽध्वराय
[कभी कभी अवग्रह (ऽ) का लोप भी हो जाता है, अभी उस पर विचार नहीं करेंगे।]
(ख) विसर्ग के पूर्व ‘अ/आ’ हो तथा आगे के शब्द में पहला अक्षर अ के अतिरिक्त कोई भी स्वर हो तो विसर्ग (:) का विलोप हो ‘अ/आ’ हो जाता है। उससे आगे यौगिक स्वर व्युत्पत्ति काम करती है। यथा :
नम:+उग्राय
= नम्+अ+[(:)~उ]+ग्राय
= नम्+[अ~उ]+ग्राय <<‘अ’ एवं ‘उ’ मिल कर यौगिक ‘ओ’ में परिवर्तित हो जायेंगे।>>
= नम्+[ओ]+ग्राय
= [नम्+ओ]+ग्राय
= नमोग्राय
(ग) विसर्ग के पूर्व ‘अ/आ’ के अतिरिक्त कोई भी स्वर इ, ई, उ, ऊ … हो तो अगले शब्द के पहले अक्षर के कोई भी स्वर होने पर विसर्ग (:) का परिवर्तन ‘र्’ में हो जाता है। उससे आगे यौगिक स्वर व्युत्पत्ति काम करती है। यथा :
नि:+आहार
= नि+[(:)+आ]+हार
= नि+[र्+आ]+हार <<‘र्’ एवं मात्रा ‘आ’ मिल कर ‘रा’ में परिवर्तित हो जायेंगे। ध्यान दें कि इससे पूर्व विसर्ग अर्द्धरूप, र् में परिवर्तित हुआ, न कि पूर्ण र में। >>
= नि+रा+हार
= निराहार
इसी प्रकार यदि तै: एवं उक्तम् की संधि हो तो र् एवं उ का संयोग रु में परिवर्तित हो तैरुक्तम् हो जायेगा। ध्यान दें कि व्याकरण गणित की भाँति होता है एवं अर्द्ध एवं पूर्ण के भेद का ध्यान न रखने पर गणित की ही भाँति भारी त्रुटियाँ हो सकती हैं। इसी उदाहरण में यदि र्+उ को कोई र+उ लिखे या समझे तो उस दशा में त्रुटियुक्त व्युत्पत्ति होगी र+उ = (र्+अ)+उ = र्+(अ+उ) = र्+ओ = रो, तै(रो)क्तम् ! रु के स्थान पर रो – अनर्थ!!
(२) विसर्ग+अर्द्धस्वर :
य्,र्, ल् एवं व् अर्द्धस्वर कहे जाते हैं। क्यों कि ये क्रमश: इ, ऋ, लृ एवं उ स्वरों के प्रथम स्वर अ से मिलन से बनते हैं तथा आते हैं अंतस्थ व्यञ्जन की श्रेणी में अर्थात आधा स्वर आधा व्यञ्जन, विचित्र स्थिति। विसर्ग एवं स्वर के मेल में ऊपर ध्यान दें तो आप पायेंगे कि संधि पश्चात ओ, आ एवं र् में परिवर्तन ही दिखते हैं। यहाँ भी परिवर्तन उसी प्रकार होते हैं :
अ(:) पश्चात कोई भी अर्द्धस्वर => संधि पश्चात ओ
आ(:) पश्चात कोई भी अर्द्धस्वर => संधि पश्चात आ
अ एवं आ के अतिरिक्त कोई भी स्वर के साथ(:) के पश्चात कोई भी अर्द्धस्वर => संधि पश्चात र्
[ओ, आ एवं र् का यह त्रिगुट बड़े काम का है, चिह्नित कर लें, आगे भी काम में आयेगा।]
उदाहरण देखते हैं :
राम:+वदति = (राम्+ओ)+वदति = रामोवदति
देवा:+वदन्ति = (देव्+आ)+वदन्ति = देवावदन्ति
मुनि:+वदति = (मुनि+र्)+वदति = मुनिर्वदति
इसी प्रकार अन्य शब्दों से संधियाँ बना कर अभ्यास करें। अगले अङ्क में विसर्ग+व्यञ्जन विकार।
Dhanyavad !!!
देवा:+वदन्ति = (देव्+आ)+यजन्ति = देवावदन्ति Correct kar dijiyega