योग में क्रमशः उन्नति के ६ या ८ स्तर कहे गये हैं। उसी का आन्तरिक रूप तन्त्र में मेरुदण्ड तथा उसके ऊपर मस्तिष्क के षट् चक्रों का भेदन है। इनमें ३ बाधा या ग्रन्थि हैं जिनको पार करना आवश्यक है। इसका वर्णन तन्त्र के अतिरिक्त योग पुस्तकों, उपनिषद तथा भागवत आदि पुराणों में भी है।
१. चण्डी पाठ : ग्रन्थि भेद पर बंगला में सत्यदेव ब्रह्मर्षि ने ३ खण्ड में एक पुस्तक लिखी थी-साधन समर वा देवी माहात्म्य। इसके ३ खण्डों का हिन्दी अनुवाद इण्टरनेट पर उपलब्ध है- https://archive.org/details/SadhanSamarPart3Of3
इसके अनुसार कुल-मार्ग पर ६ चक्र या ३ ग्रन्थियाँ हैं – ब्रह्म ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि तथा रुद्र ग्रन्थि।
२. कुल पथ : कुल तथा वंश, दोनों का अर्थ बाँस है। बाँस में गाँठें होती है, सन्तति क्रम में भी गाँठें होती हैं – पिता, स्वयं, पुत्र आदि का क्रम। ओड़िया में कूला का अर्थ है बाँस का बना सूप। इसी प्रकार मेरुदण्ड के केन्द्रीय सुषुम्ना नाड़ी में ६ चक्र हैं जो बाँस के गाँठ जैसे हैं। ६ चक्रों को भेद कर सिर के ऊपर सातवाँ सहस्रार चक्र है। समाधि के लिये विषयों को मन में, मन को बुद्धि में, बुद्धि को आत्मा तथा आत्मा को परमात्मा में लीन करते हैं।
३. भागवत पुराण : श्रीमद्भागवतपुराण (वैष्णव, १/१५/४१-४२) में वर्णन है कि भगवान के परम धाम जाने के पश्चात युधिष्ठिर ने वाणी की मन में, मन की प्राण में, प्राण की अपान में एवं उत्सर्ग सहित अपान की मृत्यु में तथा मृत्यु की आहुति पञ्चत्व में दी। पुन: पञ्चत्व की त्रित्व में आहुति दे कर आत्मा की आहुति अव्यय ब्रह्म में दी :
वाचं जुहाव मनसि तत् प्राणे इतरे च तं। मृत्यावपानं सोत्सर्गं तंपञ्चत्वेह्यजोहवीत्॥४१॥
त्रित्वे हुत्वाथ पञ्चत्वं तच्चैकत्वेऽजुहोन्मुनिः। सर्वमात्मन्यजुहवीद् ब्रह्मण्यात्मानमव्यये॥४२॥
भागवतपुराण माहात्म्य में कथा है कि धुन्धकारी के प्रेत की मुक्ति का एकमात्र उपाय भागवतपुराण का श्रवण ही था। अतः उसके प्राण को सात गाँठ के बाँस में रखा गया। सप्ताह पारायण में प्रतिदिन एक गाँठ टूटती गयी और अन्तिम गाँठ टूटने पर उसकी मुक्ति हुयी। यहाँ सुषुम्ना पथ ही सात गाँठ का बाँस है जिसमें चेतना का स्थूल से सूक्ष्म तत्त्व तक उत्थान होता है।
४. वैदिक वर्णन : स्थूल से सूक्ष्म तक की उन्नति को अन्न (स्थूल भोग्य तत्त्व) से अतिरोहण कहा गया है –
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति (पुरुष सूक्त, २)
दैनिक पूजा विधि में समर्पण के लिये बाँस बहुत बड़ा होता है। अतः प्रतीक रूप में दूर्वा देते हैं जो हर गाँठ से बढ़ने लगता है। मनुष्य को भी १-१ गाँठ या स्तर पार कर आगे बढ़ना है। यहाँ व्याख्या है कि प्राण तत्त्व धूर्वा है, उसके प्रतीक को परोक्ष में दूर्वा कहते हैं।
काण्डात्काण्डात् प्ररोहन्ति परुषः परुषस्परि। एवा नो दूर्वे प्रतनु सहस्रेण शतेन च। (वाजसनेयी यजुर्वेद १३/२०)
अयं (प्राणः) वाव माधूर्वीदिति यदब्रवीद् अधूर्वीन् मेति तस्माद् धूर्वा, धूर्वा ह वै तां दूर्वेत्याचक्षते परोऽक्षम् (शतपथ ब्राह्मण ७/४/२/१२)
ऋग्वेद में इसे मनोजवित्व के नाम से कहा है। आँख, कान आदि की चेतना को मन में समाहित कर उनको हृदय में लाकर उत्थान करते हुए ब्रह्म में विचरण करते हैं –
अ॒क्ष॒ण्वन्त॒: कर्ण॑वन्त॒: सखा॑यो मनोज॒वेष्वस॑मा बभूवुः। आ॒द॒घ्नास॑ उपक॒क्षास॑ उत्वे ह्र॒दा इ॑व॒ स्नात्वा॑ उत्वेददृश्रे ॥
हृ॒दा त॒ष्टेषु॒ मन॑सो ज॒वेषु॒ यद्ब्रा॑ह्म॒णाः सं॒यज॑न्ते॒ सखा॑यः । अत्राह॑ त्वं॒ वि ज॑हुर्वे॒द्याभि॒रोह॑ब्रह्माणो॒ वि च॑रन्त्यु त्वे ॥ (ऋग्वेद १०/७१/७-८)
५. लाक्षणिक कथा : गजेन्द्र मोक्ष में यही कहानी है। भगवान की भक्ति होने पर पूर्व जन्म का संस्कार भी संकट में उद्धार कर देता है। गज अहंकार या स्थूल चेतना है। उसको महामोह रूपी ग्राह पकड़ लेता है तो मुक्ति के लिये बुद्धि की सभी क्रियाओं को मन और हृदय में आधान कर परम मन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का जाप करते हैं –
श्री शुक उवाच
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि। जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥१॥
गजेन्द्र उवाच-ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्। पुरुषायादि बीजाय परेशायाभि धीमहि ॥२॥ (भागवत पुराण ८/३)
६ सृष्टि क्रम में चक्र भेदन : मेरुदण्ड के चक्र नीचे से क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म तत्त्वों के प्रतीक हैं। नीचे से चेतना का उत्थान ही कुण्डलिनी तत्त्व का मूलाधार से आज्ञा चक्र तक उत्थान है जिसके पश्चात सातवें चक्र सहस्रार में वह परमशिव के साथ विहार करती है –
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहम्, स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि।
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्त्वा कुलपथम्, सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसि (विहरसे)॥
(सौन्दर्य–लहरी, ९)
यहाँ सृष्टि क्रम में चक्रों के नाम हैं, नीचे से मणिपूर के पश्चात स्वाधिष्ठान है। साधना या संहार क्रम में पहले स्वाधिष्ठान आता है। माहेश्वर सूत्र में बीज मन्त्रों का सृष्टि क्रम है – हय वरट्। लण्। ह-विशुद्धि, य-अनाहत, व-स्वाधिष्ठान, र-मणिपूर, ल-मूलाधार।
७. ग्रन्थि स्थान : मूलाधार और स्वाधिष्ठान में पृथिवी और जल की ब्रह्म ग्रन्थि है। मणिपूर के ऊपर अग्नि और सूर्यमण्डलों में विष्णु ग्रन्थि है। आज्ञाचक्र के नीचे वायु और आकाश में रुद्र ग्रन्थि है।
प्रविशेच्चन्द्र तुण्डे तु सुषुम्नावदनान्तरे। वायुना वह्निना सार्धं ब्रह्मग्रन्थिं भिनत्ति सा॥८६॥
विष्णु ग्रन्थिं ततो भित्त्वा रुद्रग्रन्थौ च तिष्ठति। ततस्तु कुम्भकैर्गाढं पूरयित्वा पुनः पुनः॥८७॥ (योगशिखोपनिषद, अध्याय १)
८. ग्रन्थि भेद के लिये बन्ध : तीन ग्रन्थियों के भेदन में सहायक ३ बन्ध हैं – मूल बन्ध (मूलाधार), उड्डीयान बन्ध (मणिपूर) और जालन्धर बन्ध (विशुद्धि)।
प्रथम् मूलबन्धस्तु द्वितीयोड्डीयानाभिधः। जालन्धरस्तृतीयस्तु लक्षणं कथयाम्यहम्॥१०३॥
कुर्यादनन्तरं बस्त्रीं कुण्डलीमाशु बोधयेत्। भिद्यन्ते ग्रन्थयो वंशे तप्तलोह शलाकया॥११३॥ (योगशिखोपनिषद, अध्याय १)
चण्डी पाठ की साधन समर व्याख्या में उसके तीन चरित्रों को तीन ग्रन्थिभेद कहा गया है। विस्तार के लिये वहीं देखें।
९. उपनिषद् विचार : मुण्डकोपनिषद् के तीन मुण्डक भी तीन ग्रन्थिभेद हैं –
(१/१/८)-तपसा चीयते ब्रह्म ततो ऽन्नमभिजायते। अन्नात् प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम्॥
(२/२/८)-भिद्यते हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे॥
(३/२/९)-स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित् कुले भवति। तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहा-ग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति॥
१०. योग सूत्र : पातञ्जल योग सूत्र का क्रम -धारणा द्वारा चित्त के साथ चक्र या विषय का संयोग। उसकी निरन्तरता ध्यान है। स्वयं को भूल कर केवल अर्थ का चिन्तन समाधि है। तीनों का एकत्व संयम है। संयम जय होने पर प्रज्ञा का प्रकाश होता है। उसके अनन्तर संयम को विभिन्न भूमियों पर प्रयोग कर सकते हैं।
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। (योगसूत्र ३/१), तत्र प्रत्यैकतानता ध्यानम्। (योगसूत्र ३/२)
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः। (योगसूत्र ३/३), त्रयमेकत्र संयमः। (योगसूत्र ३/४)
तज्जयात् प्रज्ञालोकः। (योगसूत्र ३/५), तस्य भूमिषु विनियोगः। (योगसूत्र ३/६)
ग्रहण (विषयों में लिप्त होना, ग्राह) पर संयम से इन्द्रिय जय तथा बिना इन्द्रिय के करण भाव (निमित्त मात्र) या मूल प्रकृति (प्रधान) जय और मनोजवित्व होता है –
ग्रहण स्वरूपास्मितान्वयार्थवत्व संयमादिन्द्रिय जयः। (योगसूत्र ३/४७)
ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च। (योगसूत्र ३/४८)