१. सुपर्ण गरुड़ के नाम :
गरुत्मान् गरुडस्तार्क्ष्यो वैनतेयः खगेश्वरः। नागान्तको विष्णुरथः सुपर्णः पन्नगाशनः॥
(अमरकोष, १/१/२९)
गरुड़ या सुपर्ण के अनेक रूप वेदों में वर्णित हैं।
२. सृष्टि तत्त्व :
यह परब्रह्म का स्वरूप है जिसे अनेक अन्य नामों से भी कहते हैं –
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥
(ऋक्, १/१६४/४६, अथर्व, ९/१०/२८)
सत्य ३ या ७ प्रकार के हैं, किन्तु परम सत्य या सत्य का भी सत्य एक ही है।
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभ्रतः। वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु मे॥१॥
(अथर्व, शौनक संहिता)
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः। देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम्।
(पुरुष सूक्त, यजुर्वेद ३१/१५)
छन्दांसि वाऽअस्य सप्त धाम प्रियाणि। सप्त योनीरिति चितिरेतदाह।
(शतपथब्राह्मण९/२/३/४४, यजु१७/७९)
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये।
सत्यस्य सत्यं ऋत-सत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपद्ये॥
(वैष्णव भागवत पुराण, १०/२/२६)
परम तत्त्व या सत्य एक ही है, उसे एक सत्य कहते हैं। सृष्टि के लिये उसके बहुत से रूप हो गये। आकाश में फैला हुआ तेज का विकिरण (दृश्य तथा अदृश्य प्रकाश) इन्द्र है। सबको सीमा में बान्धने वाला वरुण है। ज्ञान रूप शिव है, उसका अनुभव रुद्र है। रुद्र के भिन्न स्तरों के कारण गति मरुत् है। उसके कारण पदार्थों का मिश्रण होता है, वह गति या क्रिया मातरिश्वा है। सीमाबद्ध घना पदार्थ या ऊर्जा अग्नि है। पसरा हुआ पदार्थ सोम है। सोम के कुछ क्षेत्रों में घनीभूत होने से पिण्डों की सृष्टि आरम्भ हुयी, उससे आरम्भ होने के कारण अग्रि या अग्नि है। आकाश में ३ धाम (स्तर) बने जिनको स्वयम्भू (पूर्ण विश्व), परमेष्ठी (ब्रह्माण्ड या आकाशगङ्गा), सौर मण्डल कहते हैं। इनका आरम्भ या आदि जिस रूप और क्षेत्र से हुआ उनके आदित्य हैं – स्वयम्भू का अर्यमा, परमेष्ठी का वरुण, सौर मण्डल का मित्र (हमारे निकट होने के कारण मित्र, उसके पश्चात का या वारण किया हुआ वरुण) है। इन ३ धामों में ३-३ स्तर हैं, सन्धियों के २-२ स्तर एक ही हैं, अतः ७ लोक हैं। हर धाम में पूर्ण विस्तार स्वः, केन्द्रीय पिण्ड भूमि तथा बीच का भाग अन्तरिक्ष या भुवः है जिसमें उसके मूल आदित्य जैसा पदार्थ दीखता है :
या ते धामानि परमाणि यावमा या मध्यमा विश्वकर्मन्नुतेमा । (ऋग्वेद १०/८१/४)
तिस्रो मातॄस्त्रीन् पितॄन् बिभ्रदेक ऊर्ध्वतस्थौ नेमवग्लापयन्ति ।
मन्त्रयन्ते दिवो अमुष्य पृष्ठे विश्वमिदं वाचमविश्वमिन्वाम् ॥ (ऋग्वेद १/१६४/१०)
तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।
ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ॥ (ऋग्वेद २/२७/८)
स्वयम्भू के भू-भुवः-स्वः हैं – जनः लोक (ब्रह्माण्ड), तपः लोक (आधुनिक विज्ञान की भाषा में दृश्य जगत् जहां तक का प्रकाश हम तक आ सकता है), सत्य लोक-अनन्त आकाश।
परमेष्ठी के ३ लोक हैं – स्वः (सौर मण्डल), महः (आकाशगंगा की सर्पिल भुजा में जहां सूर्य है उसकी मोटाई के व्यास का गोल), जनः लोक।
सौर मण्डल के ३ लोक हैं – भू (भूमि = पृथ्वी ग्रह, भूमा = इसका गुरुत्व क्षेत्र, भूमि से १०० गुणा बड़ा ग्रह कक्षा का भाग १ लाख योजन का जम्बू द्वीप है), भुवः (सौर वायु का विस्तार-यूरेनस तक), स्वः (जहां तक सूर्य का प्रकाश ब्रह्माण्ड से अधिक है)
इनके आकार का क्रम विष्णु पुराण में है। हर धाम के भू लोक को पृथ्वी कहा गया है तथा उसके आकाश को स्वः कहा है। ३ पृथ्वी को वेद में ३ माता तथा आकाश को ३ पिता कहा है।
रवि चन्द्रमसोर्यावन्मयूखैरवभास्यते । स समुद्र सरिच्छैला पृथिवी तावती स्मृता ॥
यावत्प्रमाणा पृथिवी विस्तार परिमण्डलात् ।
नभस्तावत्प्रमाणं वै व्यास मण्डलतो द्विज ॥ (विष्णु पुराण २/७/३-४)
पृथ्वी सूर्य चन्द्र के प्रकाश से निर्धारित है। दोनों से प्रकाशित भाग पृथ्वी ग्रह है। केवल सूर्य प्रकाश का भाग सौर पृथ्वी है (ब्रह्माण्ड के लिये भू लोक)। सूर्य प्रकाश की अन्तिम सीमा सूर्य रूपी विष्णु का परम पद है जहां तक वह विन्दु मात्र दीखता है। तीनों पृथ्वी के लिये उनका आकाश उतना ही बड़ा है, जितना मनुष्य तुलना में पृथ्वी। पृथ्वी से बड़ी २ भूमि में भी क्षेत्रों के नाम पृथ्वी के द्वीप, समुद्र, पर्वतों नदियों जैसे हैं। सौर मण्डल के ग्रहों के घूमने से पृथ्वी का चारों तरफ १०० कोटि योजन का क्षेत्र चक्राकार पृथ्वी है (नेपचून ग्रह तक)। इसका आधा भाग यूरेनस कक्षा तक प्रकाशित या लोक भाग है, बाहरी अलोक भाग। लोक भाग में ग्रहों की गति से वलयाकार भागों के वही नाम हैं जो पृथ्वी के द्वीपों के हैं। उनके बीच के खाली भाग पृथ्वी के समुद्रों के नाम पर हैं। स्पष्टतः १६ कोटि योजन मोटा वलय वाला पुष्कर द्वीप १००० योजन व्यास की पृथ्वी पर नहीं हो सकता। ब्रह्माण्ड में भी केन्द्रीय घूमता हुआ चक्र आकाशगङ्गा कहलाता है।
३. गरुड़ और ऋषि :
सृष्टि का मूल पदार्थ ऋषि था जिससे पितर और उससे देवदानव हुए। केवल देवों से सृष्टि हुई। जगत् (गतिशील कण) ३ प्रकार के हैं-चर-Lepton, स्थाणु-Baryon, अनुपूर्व-Meson। इनका घना पिण्ड परमाणु की नाभि (कुण्डलिनी) है। इनसे अणु बने जो बालाग्र का १०,००० भाग है। अणुओं से कलिल (Cell) हुए। मनुष्य से आरम्भ कर ये ७ स्तर क्रमशः १-१ लाख भाग छोटे हैं।
ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितॄभ्यो देव दानवाः।
देवेभ्यश्च जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ (मनुस्मृति, ३/२०१)
वालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च ॥
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/९)
षट्चक्र निरूपण, ७-एतस्या मध्यदेशे विलसति परमाऽपूर्वा निर्वाण शक्तिः कोट्यादित्य प्रकाशां त्रिभुवन-जननी कोटिभागैकरूपा । केशाग्रातिगुह्या निरवधि विलसत .. ।९। अत्रास्ते शिशु-सूर्यकला चन्द्रस्य षोडशी शुद्धा नीरज सूक्ष्म-तन्तु शतधा भागैक रूपा परा ।७।
अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम् । विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्व पाशैः ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/१३)
वालाग्र शत साहस्रं तस्य भागस्य भागिनः। तस्य भागस्य भागार्धं तत्क्षये तु निरञ्जनम् ॥ (ध्यानविन्दु उपनिषद् , ४)
इस प्रकार ऋषि का आकार मनुष्य (१.३५ मीटर) का १० घात ३५ भाग छोटा होगा जिसे आजकल प्लांक दूरी कहते हैं।
उससे बड़े अनेक स्तरों के कणों या पिण्डों का निर्माण अनेक प्रकार के ऋषियों के आकर्षण-विकर्षण से हुआ। इन ऋषियों का समन्वय गरुड़ या सुपर्ण है। सुपर्ण में ४ ऋषि केन्द्र में हैं, जो ४ प्रकार के आकर्षण बल हैं-गुरुत्वाकर्षण, विद्युत् चुम्बकीय (आकर्षण और विकर्षण), नाभिकीय आकर्षण, क्षीण नाभिकीय बल (आधुनिक क्वाण्टम मेकेनिक्स के अनुसार)। इस सुपर्ण के २ पक्ष हैं, जो समरूपता (Symmetry) है, अर्थात् मूल रूप और दर्पण में दीखते रूप जैसा। पुच्छ इस निर्माण का परिणति है। सिर निर्माण का स्रोत है-
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्। (गीता १५/१)
अतः मूल ऋषि भी १, २ या ३ हैं, तथा सुपर्ण भी निर्माण स्तर के अनुसार १, २ या ३ हैं।
४. विश्व तत्त्व रूप में ऋषि :
साकञ्जानां सप्तथमाहुरेकजं षडिद्यमा ऋषयो देवजा इति।
तेषामिष्टानि विहितानि धामशः स्थात्रे रेजन्ते विकृतानि रूपशः॥ (ऋक् १/१६४/१५)
७ ऋषि एक साथ रहते हैं, १ मूल ऋषि से ३ युग्म हुये। मूल एक ही प्रकार का था एकर्षि-इससे निर्माण आरम्भ हुआ अतः यह प्राजापत्य है। यह स्रोत (सूर्य) से अन्त (यम) तक की गति है, जिसे पूषा कहा है-
पूषन् एकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूहरश्मीन् समूह (ईशावास्योपनिषद्, १६)।
पूषा में ३ जोड़ों का विभाजन नहीं हुआ है, अतः वह अत्रि है। सौर मण्डल में आकर्षण भृगु है, तेज का विकिरण अङ्गिरा (अंगारा) है। दोनों का सन्तुलन चन्द्र कक्षा के भीतर है जिसे अत्रि (अत्र = यहाँ) कहा गया है जिससे पृथ्वी पर जीवन की सृष्टि होती है। इसी प्रकार माता के गर्भ में रज-वीर्य के संयोग से मनुष्य जन्म होता है। सूर्य के तेज से चन्द्र क्षेत्र में अत्रि होता है अतः उसे सूर्य (नयन) से उत्पन्न कहा है-
अथ नयन समुत्थं ज्योतिरत्रेरिवद्यौः, सुरसरिदिव तेजो वह्नि निष्ठ्यूतमैशम्।
नरपति कुलभूत्यै गर्भमाधत्त राज्ञी, गुरुभिरभिनिविष्टं लोकपालानुभावैः॥ (रघुवंश २/७५)
विश्व के तत्त्व – अर्चिर्षि भृगुः सम्बभूव, अङ्गारेष्वङ्गिराः सम्बभूव। अथ यदङ्गारा अवशान्ताः पुनरुद्दीप्यन्त, तद् बृहस्पतिरभवत्। (ऐतरेय ब्राह्मण ३/३४)
इमामेव गोतम-भरद्वाजौ। अयमेव गोतमः, अयं भारद्वाजः । इमामेव विश्वामित्र-जमदग्नी। अयमेव विश्वामित्रः, अयं जमदग्निः। इमामेव वसिष्ठ-कश्यपौ। अयमेव वसिष्ठः, अयं कश्यपः। वागेवात्रिः। वाचा ह्यन्नमद्यते। अत्तिर्ह वै नामैतद्यत्रिरिति। सर्वस्यात्ता भवति, सर्वमस्यान्नं भवति, य एवं वेद। (शतपथ ब्राह्मण १४/५/२/६, बृहदारण्यक उपनिषद् २/२/४)
३ युग्मों के भिन्न भिन्न रूप –
प्राणो वै वसिष्ठ ऋषिः, यद्वै नु श्रेष्ठस्तेन वसिष्ठः। अथो यद् वस्तृतमो वसति, तेनो एव वसिष्ठः। मनो वै भरद्वाज ऋषिः। अन्नं वाजः। यो वै मनो बिभर्ति, सोऽन्नं वाजं भरति। तस्मान् मनो भरद्वाज ऋषिः। (शतपथ ब्राह्मण ८/१/१/६)
चक्षुर्वै जमदग्नि ऋषिः। यदनेन जगत् पश्यति, अथो मनुते तस्माच्चक्षुर्जमदग्नि ऋषिः। (शतपथ ब्राह्मण ८/१/२/३)
श्रोत्रं वै विश्वामित्र ऋषिः। यदेनेन सर्वतः शृणोति। अथो यदस्मै सर्वतो मित्रं भवति। तस्माच्छ्रोत्रं विश्वामित्र ऋषिः। (शतपथ ब्राह्मण ८/१/२/६)
वाग् वै विश्वकर्मा ऋषिः। वाचा हीदं सर्वं कृतम्। तस्माद् वाग् विश्वकर्म ऋषिः। (शतपथ ब्राह्मण ८/१/२/९)
५. गरुड़ के रूप :
विश्व के ४ मूल बल पक्षी के शरीर कहे गये हैं। इसके २ पक्ष (पंख) साम्य हैं। विषमता पुच्छ है।
त इद्धाः सप्त नाना पुरुषानसृजन्त। स एतान् सप्त पुरुषानेकं पुरुषमकुर्वन्-यदूर्ध्वं नाभेस्तौ द्वौ समौब्जन्, यदवाङ् नाभेस्तौ द्वौ। पक्षः पुरुषः, पक्षः पुरुषः। प्रतिष्ठैक आसीत्। अथ या एतेषां पुरुषाणां श्रीः, यो रस आसीत्-तमूर्ध्व समुदौहन्। तदस्य शिरोऽभवत्। स एवं पुरुषः प्रजापतिरभवत्। स यः सः पुरुषः-प्रजापतिरभवत्, अयमेव सः, योऽयमग्निश्चीयते(कायरूपेण-शरीररूपेण-मूर्त्तिपिण्डरूपेण-भूतपिण्डरूपेण)। स वै सप्तपुरुषो भवति। सप्तपुरुषो ह्ययं, पुरुषः-यच्चत्वार आत्मा, त्रयः पशुपुच्छानि। (शतपथ ब्राह्मण ६/१/१/२-६)
६. एक सुपर्ण :एकः सुपर्णः स समुद्रमाविवेश स इदं भुवनं वि चष्टे ।
तं पाकेन मनसापश्यमन्तितस्तं माता रेळ्हि स उ रेळ्हि मातरम् ॥ (ऋग्वेद १०/११४/४)
आकाश में ३ धामों के ३ समुद्र हैं। प्रथम समुद्र में सब कुछ एक जैसा था, उसे रस कहते हैं। रस का अनुभव होने से आनन्द होता है। हमारे यहाँ भोजन, चलने फिरने का जो नियम है, वही दूसरे स्थान पर भी हो तो सुविधा होती है, नहीं तो कष्ट होता है। उसमें सुपर्ण के ७ ऋषि (रस्सी) रूप बलों के कारण बड़े बड़े मेघ जैसे पिण्ड बने जो धीरे धीरे ब्रह्माण्ड में परिवर्तित हो गये। ये मेघ से जल विन्दुओं की भाँति निकले अतः इनको स्कन्द (निकले) द्रप्स (द्रव कण, drops) कहते हैं।
यद्वै तत्सुकृतं रसो वै सः । रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति। (तैत्तिरीय उपनिषद् २/७)।
एष द्रप्सो वृषभो विश्वरूप (ऋक् ६/४१/३)
उवाच मे वरुणो मेधिराय त्रिः सप्त नामाघ्न्या बिभर्ति।४। तिस्रो द्यावो निहिता भूमीरुपराः षड्विधानाः।५।
अव सिन्धुं वरुणो द्यौरिव स्थाद् द्रप्सो ।६। (ऋक् ७/८७) स्तोको वै द्रप्सः (गोपथ उत्तर, २/१२)
असौ वा आदित्यो द्रप्सः (शतपथ ब्राह्मण, ७/४/१/२०, यजु. १३/१५)
द्रप्सश्चस्कन्द पृथिवीमनुद्याम्
(ऋक्, १०/१७/११, अथर्व, १८/४/२८, वाज. सं. १३/५, तैत्तिरीय सं. ३/१/८/३, ४/२/८/२, मैत्रायणी सं. ६१/१४, २३/१५, ११८/१०, काण्व सं. १३/९, १६/१५, ३५/८)
ब्रह्माण्ड रूपी द्रसों के कारण रस में तरंग जैसा बना वह सरिर या सलिल है। ब्रह्माण्ड में भी फैला हुआ पदार्थ अप् था। उसमें तारा कणों के बनने के कारण तरंग या शब्द हुआ तो वह अम्भ या अम्ब (तारा निर्माण का स्थान या माता) हुआ।
समुद्राय त्वा वाताय स्वाहा, सरिराय त्वा वाताय स्वाहा । (वा॰ यजुर्वेद ३८/७)
अयं वै सरिरो योऽयं वायुः पवत एतस्माद्वै सरिरात् सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि सहेरते (शतपथ ब्राह्मण १४/२/२/३)
वातस्य जूतिं वरुणस्य नाभिमश्वं जज्ञानं सरिरस्य मध्ये। (वा॰ यजुर्वेद १३/४२)
इमं साहस्रं शतधारमुत्सं व्यच्यमानं सरिरस्य मध्ये। (वा॰ यजुर्वेद १३/४९)
सरिरे त्वा सदने सादयामि (वा॰ यजुर्वेद १३/५३)
सरिरं छन्दः। (वा॰ यजुर्वेद १५/४)
विभ्राजमानः सरिरस्य मध्य उप प्र याहि दिव्यानि धाम । (वा॰ यजुर्वेद १५/५२)
आपो वै सरिरम्। (शतपथ ब्राह्मण ७/५/२/१८)
इमे वै लोकाः सरिरम् । (शतपथ ब्राह्मण ७/५/२/३४, ८/६/३/२१)
वाग्वै सरिरम् । (शतपथ ब्राह्मण ७/५/२/५३) वाग्वै सरिरं छन्दः । (शतपथ ब्राह्मण ८/५/२/४)
आपो ह वाऽ इदमग्रे सलिलमेवास। (शतपथ ब्राह्मण ११/१/६/१)
आपो ह वाऽ इदमग्रे सलिलमेवासीत् (तैत्तिरीय ब्राह्मण १/१/३/५)
आपो ह वाऽ इदमग्रे महत्सलिलमेवासीत् (जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण १/५६/१)
वेदिर्वै सलिलम् (शतपथ ब्राह्मण ३/६/२/५)
द्यौर्वाऽअपां सदनं दिवि ह्यापः सन्नाः । (शतपथ ब्राह्मण ७/५/२/५६)
आपो ह वाऽ इदमग्रे सलिलमेवास। ता अकामयन्त कथं तु प्रजायेमहीति । (शतपथ ब्राह्मण ११/१/६/१)
तद्यदब्रवीत् (ब्रह्म) आभिर्वा अहमिदं सर्वमाप्स्यामि यदिदं किंचेति तस्मादापोऽभवंस्तदपामप्त्वमाप्नोति वै स सर्वान् कामान् यान् कामयते । (गोपथ ब्राह्मण पूर्व १/२)
आापो वा अम्बयः । (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद् १२/२)
अयं वै लोकोऽम्भांसि (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/८/१८/१)
सूर्य जैसे तारा का पसरा पदार्थ मर था। उसके घनीभूत होने से सूर्य पिण्ड बना।
एता वाऽ आपः स्वराजो यन्मरीचयः । (शतपथ ब्राह्मण ५/३/४/२१)
यः कपाले रसो लिप्त आसीत्ता मरीचयो ऽभवन् । (शतपथ ब्राह्मण ६/१/२/२)
स इमाँल्लोकनसृजत । अम्भो मरीचीर्मरमापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः । (ऐतरेय उपनिषद् १/१/२)
सूर्य रूपी विष्णु का वाहन गरुड़ पूरे सौर मण्डल तथा उससे बाहर फैला हुआ है।
सुपर्णोऽसि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो गायत्रञ्चक्षुर्बृहद्रथन्तरे पक्षौ।
स्तोम ऽआत्मा छन्दांस्यङ्गानि यजूँषि नाम।
साम ते तनूर्वामदेव्यँयज्ञायज्ञियम्पुच्छन्धिष्ण्याः शफाः। सुपर्णोऽसि गरुत्मान्दिवङ्गच्छ स्व पत॥ (वाज. यजु, १२/४)
आकाश में पृथ्वी मापदण्ड है। इससे बड़े धाम क्रमशः २-२ गुणा बड़े हैं।
अयं वै (पृथिवी-) लोक एवश्छन्दः । (शतपथ ब्राह्मण ८/५/२/३, वा.यजु १५/४)
अयं वै (पृथिवी-) लोको मायं हि लोको मित इव ।
(शतपथ ब्राह्मण ८/३/३/५, वा.यजु १४/१८)
मा छन्दः तत् पृथिवी, अग्निर्देवता.. (मैत्रायणी संहिता २/१४/९३, काठक संहिता ३९/३९)
अस्तभ्नाद् द्यामृषभो अन्तरिक्षममिमीत वरिमाणं पृथिव्याः । (ऋक् ८/४२/१)
यस्य भूमिः प्रमा अन्तरिक्षमुतोदरम् । (अथर्व १०/७/३२)
…द्वात्रिंशतं वै देवरथाह्न्यन्ययं लोकस्तं समन्तं पृथिवी द्विस्तावत्पर्येति तां समन्तं पृथिवीं द्विस्तावत्समुद्रः पर्येति….. (बृहदारण्यक उपनिषद् ३/३/२)
त्रिवृत् (३x३) अहर्गण अर्थात् पृथ्वी के २ घात ६ (३ धाम पृथ्वी के भीतर) सूर्य गरुड़ का सिर है। सूर्य का व्यास पृथ्वी व्यास का प्रायः १०८ गुणा है जो २ घात ७ = १२८ से न्यून है। गायत्र (२ घात २१) यूरेनस तक इसकी आंख है। यह सौर पृथ्वी का प्रकाशित भाग है तथा यहाँ तक सौर वायु जाती है। बृहत् तथा रथन्तर इसके पक्ष हैं। सूर्य रथ का चक्र शनि तक है, जो १००० सूर्य व्यास दूर है। सूर्य रूपी चक्षु का १००० गुणा होने से यह सहस्राक्ष है। शनि तक के ग्रहों का चक्र ज्योतिषीय युग होता है अतः यह चक्र है। इसे गायत्र साम पार कर जाता है, अतः वह रथन्तर साम हुआ (साम = महिमा, प्रभाव क्षेत्र)। बृहत् साम बृहती छन्द (३६ अक्षर) है। यह सौर मण्डल की सीमा है जो सूर्य के बाहर ३० धाम तक तथा पृथ्वी के भीतर ३ धाम है। अर्थात् पृथ्वी त्रिज्या का २ घात ३३ गुणा दूर तक।
त्रिं॒शद्धाम॒ वि रा॑जति॒ वाक् प॑त॒ङ्गाय॑ धीयते । प्रति॒ वस्तो॒रह॒ द्युभिः॑ ॥ (ऋक् १०/१८९/३, साम ६३२, १३७८, अथर्व ६/३१/३, २०/४८/६, वा. यजु ३/८, तैत्तिरीय सं १/५/३/१)
७. पार्थिव सुपर्ण :
पृथ्वी पर सूर्य की गति २ प्रकार की है। वार्षिक गति उत्तरायण (मकर से कर्क रेखा तक) तथा उसके विपरीत दक्षिणायन है। यही सुपर्ण का विस्तार है। मकर रेखा पर सूर्य ३ तारा (तार्क्ष्य, ऋक्ष = तारा, भालू) वाले श्रवण नक्षत्र में रहता है (विक्रमादित्य काल में जब शून्य अयनांश था)।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥ (यजु २५/१९)
यह आकाश के वृत्त (पृथ्वी कक्षा) की ४ दिशा हैं-ज्येष्ठा नक्षत्र का स्वामी इन्द्र, रेवती का पूषा, श्रवण का गोविन्द जो अरिष्ट की नेमि या सीमा (दूर करने वाले) हैं, तथा पुष्य का बृहस्पति।
दक्षिण में सूर्य रहने पर हमारे उत्तरी गोलार्ध में सबसे बड़ी रात्री तथा शीत होता है अतः यह अरिष्टनेमि है। उत्तरी सीमा के कर्क रेखा को केवल नेमि कहते हैं। उत्तर -दक्षिण दिशा में यह सूर्य की धुरी (नेमि) है। पृथ्वी अक्ष का झुकाव २२ से २६ अंश तक घटता बढ़ता है। कर्क रेखा की सीमा या नेमि का स्थान नैमिषारण्य है (कूर्म पुराण, २/४३/७, पद्म १/१, वराह, ११/१०७, वायु, १२५/२७शिव, ७/१/३/५३)। इक्ष्वाकु काल में मिथिला की सीमा पर कर्क रेखा थी अतः वहां के राजा इक्ष्वाकु पुत्र को निमि कहते थे। उनकी निमि (पलक) नहीं गिरती थी। सूर्य चक्षु है, विषुव रेखा पर वह बन्द रहता है, कर्क, मकर रेखा पर पूरी भाँति खुल जाता है। (भागवत पुराण, ९/१३, विष्णु, ४/५ आदि)। आज भी मिथिला में सूर्य के कर्क रेखा पर स्थित होने पर पञ्चाङ्ग आरम्भ होता है।
इस सूर्य गति के भी छन्द हैं। यहाँ गरुड़ संवत्सर रूप है।
अथ ह वाऽ एष महासुपर्ण एव स्यात्संवत्सरः। तस्य यान्पुरस्ताद्विषुवतः षण्मासानुपश्यन्ति सोऽन्यतरः पक्षो ऽथ यान्षड्उपरिष्टात् सः अन्यतरः। आत्मा विषुवान्। (शतपथ ब्राह्मण, १२/२/३/७)
यह वर्गीकरण ब्रह्मा के स्थान पुष्कर (अभी बुखारा) के अनुसार है, जो उज्जैन से १२ अंश पश्चिम है (विष्णु पुराण, २/२८)। वेदाङ्ग ज्योतिष के अनुसार सबसे बड़ा दिन १६ घण्टे का था। सबसे छोटा दिन ८ घण्टे का होगा, उसका आधा। अतः इनको गायत्री (२४ अक्षर) से जगती (४८ अक्षर) तक बांटा गया है।
विषुव के उत्तर तथा दक्षिण में १२, २०, २४ अंश के अक्षांश वृत्तों से ये वीथियां बनती थीं। ३४० उत्तर अक्षांश का दिनमान सूर्य की इन रेखाओं पर स्थिति के अनुसार ८ से १६ घण्टा तक होगा। अतः दक्षिण से इन वृत्तों को गायत्री (६ x ४ अक्षर) से जगती छन्द (१२ x ४ अक्षर) तक का नाम दिया गया। यह नीचे के चित्र से स्पष्ट है।
इसकी चर्चा ऋग्वेद (१/१६४/१-३, १२, १३, १/११५/३, ७/५३/२, १०/१३०/४), अथर्व वेद (८/५/१९-२०), वायु पुराण, अध्याय २, ब्रह्माण्ड पुराण अ. (१/२२), विष्णु पुराण (अ. २/८-१०) आदि में है। इनके आधार पर पं. मधुसूदन ओझा ने आवरणवाद में इसकी व्याख्या की है (श्लोक १२३-१३२)। बाइबिल के इथिओपियन संस्करण में इनोक की पुस्तक के अध्याय ८२ में भी यही वर्णन है।
पृथ्वी पर जीवन का आरम्भ समुद्र से हुआ है। अतः सभी प्राणियों के कोषों में जो जल है उसमें लवणों का अनुपात वही है, जो समुद्र जल में है। यहाँ भी समुद्र जल में गरुड़ के प्रवेश से सृष्टि हुई। वेद के लिये पृथ्वी के ४ उत्पादक क्षेत्र समुद्र हैं-भूमण्डल, जल मण्डल, जीव मण्डल, वायुमण्डल। यह ४ स्तन रूपी गौ है-
पयोधरी भूतचतुः समुद्रां जुगोप गोरूप धरामिवोर्वीम्। (रघुवंश २/३)
अथैष गोसवः स्वाराजो यज्ञः। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १९/१३/१)
इमे वै लोका गौः यद् हि किं अ गच्छति इमान् तत् लोकान् गच्छति। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/२/३४)
इमे लोका गौः। (शतपथ ब्राह्मण, ६/५/२/१७)
धेनुरिव वाऽइयं (पृथिवी) मनुष्येभ्यः सर्वान् कामान् दुहे माता धेनु-र्मातेव वा ऽइयं (पृथिवी) मनुष्यान् बिभर्त्ति। (शतपथ ब्राह्मण, २/२/१/२१)
पृथ्वी पर खेती करना भी इस समुद्र से निर्माण है। भारत के समुद्र तट पर सबसे अधिक खेती आन्ध्र प्रदेश में होती है, अतः वहां के किसानों को रेड्डी कहते हैं, क्योंकि वे भूमि का माता के समान पालन करते हैं- माता रेऴ्हि स उ रेऴ्हि मातरम् ॥ (ऋग्वेद १०/११४/४)
८. दो सुपर्ण :
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति, अनश्नन्नन्यो अभिचाकषीति॥
(मुण्डक उप. ३/१/१, श्वेताश्वतर उप. ४/६, ऋक् १/१६४/२०, अथर्व ९/९/२०)
सुषुम्ना चेतना या ज्ञान का वृक्ष है। उसके मध्य (आज्ञा चक्र) में २ सुपर्ण (हंस, पक्षी) रहते हैं (परिषस्वजाते-पड़ोस में)। उनमें अन्य (एक) पिप्पल (पिब् + फल = जिस फल में आसक्ति हो) को स्वाद सहित खाता है। अन्य (दूसरा) बिना खाये (बिना आसक्ति = अनश्नन्) केवल देखभाल करता है। आकाश में भी सृष्टि निर्माण का क्रम (स्वयम्भू से पृथ्वी तक) स्कम्भ या वृक्ष है। इसके हर स्तर पर ब्रह्म के २ रूप हैं, निर्विशेष निर्लिप्त रहता है, विशिष्ट रूप विविध या विशिष्ट सृष्टि करता है। निर्विशेष में भेद नहीं होने के कारण उसका वर्णन नहीं होता, उपवर्णन हो सकता है।
मनुष्य शरीर में इन हंसों को जीव और आत्मा कहते हैं। आत्मा निर्लिप्त है, जीव कर्म में लगा है। जीव और आत्मा को ही बाइबिल में ईव और आदम कहा गया है।
समुन्मीलत् संवित्-कमल मकरन्दैक रसिकं, भजे हंस-द्वन्द्वं किमपि महतां मानसचरम्।
यदालापादष्टादश गुणित विद्या परिणतिः, तदादत्ते दोषाद् गुणमखिल-मद्भ्यः पय इव॥ (शंकराचार्य, सौन्दर्य लहरी, ३८)
संवित्-कमल को बाइबिल में ज्ञान का वृक्ष कहा है। मस्तिष्क में जो सूचनाओं का संग्रह है, वह अप् = जल है। उसके भीतर से क्रमबद्ध ज्ञान (जो वाक्य में लिखा जा सके) दूध जैसा उपयोगी है। यही मन के हंस द्वारा जल से दूध निकालना है। भौतिक रूप में मान सरोवर का हंस जल में दूध के मिश्रण से दूध नहीं निकाल सकता।
गरुड़ मन्त्र के विशेष प्रयोग द्वारा शरीर का विष दूर किया जा सकता है जिसे गरुड़ोपनिषद् में गारुड़ी विद्या कहा गया है।
९. तीन सुपर्ण :
ये गायत्री मन्त्र के ३ पादों की भाँति हैं। प्रथम पाद में सृष्टि होती है, जो ७ अंगों वाले गरुड़ के विभिन्न स्तरों द्वारा होता है। द्वितीय पाद में युग्म सुपर्णों द्वारा सृष्टि क्रिया चलती है, वह पालनकर्ता विष्णु का वाहन हुआ। तृतीय पाद आकाश की सृष्टि तथा उसकी क्रियाओं का मनुष्य पर प्रभाव है। यह प्रभाव पहले मन पर होता है जिसे वेद में धीयोग कहा गया है। मन से बाकी शरीर नियन्त्रित होता है। यह त्रिसुपर्ण है, जिसका मेधा जनन के लिये प्रयोग होता है। मेधा के ३ स्तर हैं-मन, बुद्धि तथा उसका स्थान चित्त आकाश। इसका विस्तृत वर्णन कठिन है क्योंकि बुद्धि तथा शिक्षण का स्वरूप स्पष्ट नहीं है। वेद में आंख, कान तथा मन का समन्वय ही मनोजवित्व कहा है।
अक्षण्वन्तःकर्णवन्तःसखायो मनोजवेष्व समा बभूवुः।
आदध्नास उपकक्षास उत्वेह्रदा इव स्नात्वा उत्वे ददृशे॥ (ऋग्वेद १०/७१/७)
हृदा तष्टेषु मनसो जवेषु यद्ब्राह्मणाः संयजन्ते सखायः।
अत्राह त्वं विजहुर्वेद्याभिरोह ब्रह्माणो विचरन्तु त्वे॥ (ऋग्वेद १०/७१/८)
इस साधना का क्रम है-व्यवसित (एकाग्र) बुद्धि द्वारा मन को हृदय में आधान कर जप द्वारा अभ्यास होता है। उसके बाद छन्द रूपी गरुड़ पर नारायण उसे मुक्त करते हैं।
श्री शुक उवाच- एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि। जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम्।१।
गजेन्द्र उवाच- ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्। पुरुषायादि बीजाय परेशायाभि धीमहि।२। (वैष्णव भागवत पुराण ८/३)
छन्दोमयेन गरुड़ेन समुह्यमानश्चक्रायुधोभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः (३१)
छन्द रूपी गरुड़ को वयः छन्द या मूर्धा वयः छन्द कहा गया है (वाजसनेयि संहिता, १५/४-५)। छन्द माप है। जगती छन्द विस्तार की माप है। गायत्री पृथ्वी तथा उससे बड़े लोकों की माप है जो क्रमशः २ घात २४ ( १कोटि) गुणा बड़े हैं। घात क्रम में ब्रह्माण्ड की माप जगती छन्द से होती है, अतः उसे जगती कहते है। काल तथा भार की माप भी छन्दों से होती है। समुद्रिय छन्द समुद्र संख्या (१० घात १४) है, समुद्र में जल कणों की संख्या इतनी होती है। या ब्रह्माण्ड रूपी समुद्र पृथ्वी से १० घात १४ गुणा बड़ा है। पृथिवी को कण माना जाय तो ब्रह्माण्ड में उसके जैसे २ घात ८० कण के बराबर भार है। अतः इसे अशीति छन्द कहते हैं। रसायन विज्ञान में एवोगाड्रो संख्या इतनी ही होती है (१० घात २४)। वयः का अर्थ वयन तथा पक्षी दोनों होता है, अतः मूल इकाइयों को मिला कर जो माप की इकाई हैं, उनकी माप वयः छन्द से होनी चाहिये।
वयो (पक्षी) वै सुपर्णः (कौषीतकि ब्राह्मण, १८/४)
त्रिसुपर्ण सूक्त बिना अर्थ उद्धृत किया जाता है-
तैत्तिरीय आरण्यक, प्रपाठक १० (नारायण उपनिषद्), अनुवाक् ३८-
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽङ्गुष्ठं च समाश्रितः। ईशः सर्वस्य जगतः प्रभुः प्रीणातु विश्वभुक्॥
अनुवाक् ३९- मेधा देवी जुषमाणा न आगाद्विश्वाची भद्रा सुमनस्यमाना। त्वया जुष्टा जुषमाणा दुरुक्तान्बृहद्वदेम विदथे सुवीराः इति।
त्वया जुष्टं ऋषिर्भवति त्वया ब्रह्माऽऽगतश्रीरुत त्वया। त्वया जुष्टश्चित्रं विन्दते वसु नो जुषस्व द्रविणेन मेधे, इति।
अनुवाक् ४०- मेधा म इन्द्रो ददातु मेधां देवी सरस्वती। मेधां मे अश्विनावुभौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ, इति।
(महानारायण उपनिषद्, खण्ड १६, ३-५)
ऋग्वेद (१०/११४)-त्रिसुपर्ण सूक्त
चतुष्कपर्दा युवतिः सुपेशा घृतप्रतीका वयुनानि वस्ते। तस्यां सुपर्णा वृषणा नि षेदतुर्यत्र देवा दधिरे भागधेयम्॥३॥
एकः सुपर्णः स समुद्रमा विवेश स इदं भुवनं वि चष्टे। तं पाकेन मनसापश्यमन्तितस्तं माता रेळ्हि स उ रेळ्हि मातरम्॥४॥
सुपर्ण विप्राः कवयो वचोभिरेकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति। छन्दांसि च दधतो अध्वरेषु ग्रहान्त्सोमस्य मिमते द्वादश॥५॥
गरुड़ का प्रभाव क्षेत्र तथा उससे प्राप्त बुद्धि वाक् सुपर्णी है – सुपर्णी (माया) वागेव सुपर्णी। (शतपथ ब्राह्मण, ३/६/२/२)
महर्षि दैवरात् ने वाक् सुधा (पृष्ठ २९०) में सुपर्णी वाक् के ३ खण्ड कहे हैं जो त्रिसुपर्ण का एक अर्थ है-
सौपर्णी परसंज्ञयआ सुरसरित् सा वाक् सुपर्णी त्रिधा, वर्णाभ्यां डयते सुपर्ण इव सा माता सुपर्णाभिधा।
चिज्ज्योतिः सुहिरण्यरूपतनुभृत् सत्त्वात्मसौपर्णिका, पञ्चाशीह षडुत्तराऽतति मनःप्राणात्मचित्कर्षिका॥२६॥
सद्योगात् पततीह चेतनपदा दिव्यः सुपर्णो मतः, तद्योगेन सुचेतनाऽऽन्तरतमा सा वाक् सुपर्णी मता।
प्राज्ञास्ते पुरुषाः समेव् दिविषदो दिव्याः सुपर्णाः श्रुताः, प्रज्ञानात्मक चित्तिरश्मि वपुषो वाचः सुपर्णः श्रिताः॥२७॥
ईशान इमा भुवनानि वीयसे युजान इन्दो हरितः सुपर्णयः।
तास्ते क्षरन्तु मधुमद् घृतपयस्तव व्रते सोम तिष्ठन्तु कृष्टयः॥ (ऋक्, ९/८६/३७)
सोमः सत्त्वरसेन सर्वभुवनान्यात्मन्युपावीयते, स्वाशास्तत्र युजान इन्दुभिरतो वाचः सुपर्णः समाः।
तास्ते सोम घृतं क्षरन्तु मधुमद्दिव्यामृतं सत् पयः, हृद्योगेन तव व्रते सुनियता स्तिष्ठन्तु सर्वाः प्रजाः॥२८॥
याबन्मात्रमुषसो न प्रतीकं सुपर्णो वसते मातरिश्वः।
तावद्दधात्युप यज्ञमायन् होतुस्वरो निषीदन्॥ (ऋक्, १०/८८/१९)
तावन्मात्रमिहौषसः सुविततं तेजः प्रतीकं यथा, यावद् वै मरुतो गुणेन वसते वाचः सुपर्ण्यस्तथा।
तावत्तत्र दधाति यज्ञमुपयन् स ब्राह्मणः संविदा, होतुर्यज्ञकृतः परात् तदवरो यज्ञे निषीदन् त्सदा॥२९॥
१०. जीव सुपर्ण :
यह बहुत बड़े आकार का पक्षी है जो भारत के पश्चिमी भाग में मिलता है। इसे अंग्रेजी में Great Indian Bustard कहते हैं।
पश्चिम भाग में मिलने के कारण गिडवानी की पुस्तक Return of the Aryans में अनुमान किया है कि किरगिज देश ही गरुड़ का स्थान था (किरीगि = पक्षी)। गरुड़ छोटे सांपों को खा सकता है, बड़ों को नहीं। गरुड़ मनुष्यों की एक जाति थी जो सर्पों की शत्रु थी। सर्प जाति से भिन्न नाग जाति थी जो व्यापारियों के रूप में पूरे विश्व में फैले हुए थे। रामायण, किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४० में गरुड़ का भवन इण्डोनेशिया (यव द्वीप सहित ७ मुख्य द्वीप) के पूर्व भाग में कहा है जो पूर्व दिशा में विष्णु का प्रथम पद था (यमन से ९० अंश पूर्व)।
गिरिभिर्ये च गम्यन्ते प्लवनेन प्लवेन च। रत्नवन्तं यवद्वीपं सप्तराज्योपशोभितम्॥२९॥
अभिगम्य महानादं तीर्थेनैव महोदधिम्। ततो रक्तजलं भीमं लोहितं नाम सागरम्॥३८॥
गता द्रक्ष्यथ तां चैव बृहतीं कूटशाल्मलीम्। गृहं च वैनतेयस्य नानारत्नविभूषितम्॥३९॥
महानाद (शुण्डा समुद्र) के पूर्व लोहित सागर है जहां शाल्मली पर्वत पर गरुड़ (वैनतेय) का रत्नों से विभूषित भवन है।
तत्र पूर्वपदं कृत्वा पुरा विष्णुस्त्रिविक्रमे। द्वितीयं शिखरे मेरोश्चकार पुरुषोत्तमः॥५८॥
वाहन के लिये गरुड़ पक्षी का व्यवहार नहीं हो सकता। यह गरुड़ नामक विमान हो सकता है।
केतु चित्र आभार : T. R. Shankar Raman [CC BY-SA 4.0 (https://creativecommons.org/licenses/by-sa/4.0)]