सनातन बोध : प्रसंस्करण, नये एवं अनुकृत सिद्धांत – 1 , 2, 3, 4 , 5 , 6, 7, 8, 9 , 10, 11,12, 13, 14 , 15 से आगे
2013 में ‘साइंस’ पत्रिका में ‘इतिहास अंत भ्रांति’ (The End of history illusion) के नाम से एक बहुचर्चित शोध प्रकाशित हुआ। हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डैन गिल्बर्ट भी इसके लेखकों में से एक थे। इस शोध में एक नई मनोवैज्ञानिक भ्रांति की बात की गयी जिसके अनुसार जब हम अपने अतीत की ओर देखते हैं तो पाते हैं कि जीवन के हर स्तर पर आयु एवं अनुभवों के साथ हमारे व्यक्तित्व का विकास हुआ अर्थात हमारी समझ समय के साथ बढ़ती गयी है। जीवन के अनुभवों से हमने बहुत कुछ सीखा परन्तु हमें यह नहीं लगता है कि जिस तरह अब तक हम सीखते और परिवर्तित होते रहे हैं, भविष्य में भी ऐसा होता रहेगा। जीवन के हर मोड़ पर हमें पिछली घटनाओं की स्मृति से लगता है कि तब हम कैसे भी थे पर अब सीख चुके हैं। अपने वर्तमान को लेकर हमें लगता है कि अब हम बहुत कम परिवर्तित होंगे। भविष्य के लिए निर्णय लेते समय हम यह नहीं सोच पाते कि आगे भी हमें ऐसे ही नहीं बने रहना है। हमें अपनी पिछली त्रुटियों के समय की अपरिपक्वता तो दिखती है पर यह नहीं कि जब हम उन्हें कर रहे थे तब भी तो हम अपने आप को परिपक्व ही समझ रहे थे। हम सदैव इस भ्रांति में जीते हैं कि अब हम परिपक्व हो गए हैं। सब कुछ तो देख ही लिया हमने! – हर आयु वर्ग के व्यक्ति को यही लगता है। कितनी सरल बात है और सुंदर भी। ऐसा क्यों होता है, इसकी बात यह शोध नहीं करता।
व्यतीत होते काल की बातों के संदर्भ में इस सिद्धांत की चर्चा ग्रंथों में बार बार आयी है। 2015 में दिये साक्षात्कार, when do we become the final version of ourselves?, में प्रो. गिल्बर्ट भी इसे समय से जोड़ते हुये कहते हैं कि यह भ्रांति इस बात से जुड़ी हुई लगती है कि हम लोग समय को किस तरह से देखते हैं। ग्रंथो की बात करने से पहले एक विलक्षण बाल कविता को याद कीजिये तो, जो हम सबने ही पढ़ी है। इस कविता से पता चलता है कि यह बात किस प्रकार हमारी संस्कृति और दर्शन में रची बसी है:
सबसे पहले मेरे घर का अंडे जैसा था आकार।
तब मैं यही समझती थी बस इतना सा ही है संसार।…
जैसे जैसे यह कविता आगे बढ़ती है, इस एक छोटी सी कविता में इतिहास अंत भ्रांति से लेकर अनेकांतवाद तक का दर्शन मिलता जाता है।
जब भी काल के बीतने की बात हो तो भला ‘कालो न यातो वयमेव याता:‘ की बात कैसे नहीं होगी?
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥
हमने भोगों को नहीं भोगा बल्कि भोगों ने ही हमें भोग डाला। हमने तपस्या नहीं की बल्कि तापों ने ही हमें तपा डाला। समय नहीं बीता बल्कि हम ही बीत गये। तृष्णा बूढ़ी नहीं हुई बल्कि हम ही बूढ़े हो गये! सर्वव्यापी और अनंत काल भला कहाँ बीत सकता है – बीतते तो हम जाते हैं।
इतिहास भ्रांति अर्थात काल बुद्धि को भ्रमित करता है। इस भ्रांति का महाभारत में कुछ ऐसे वर्णन है:
न कालो दण्डमुद्यम्य शिर: कॄन्तति कस्यचित् ।
कालस्य बलमेतावत् विपरीतार्थदर्शनम् ॥
अर्थात काल बुद्धिभेद करता है और बुद्धिभेद ही काल का बल है जिससे वह मनुष्य को विपरीत मार्ग भी ले जाता है। यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में भी तो काल मोहमयी कढ़ाई में रात-दिन प्राणियों को पकाता है!
युधिष्ठिर: मासर्तुवर्षा परिवर्तनेन सूर्याग्निना रात्रि दिवेन्धनेन ।
अस्मिन् महामोहमये कराले भूतानि कालः पचतीति वार्ता ॥
‘इतिहास अंत भ्रांति’ सिद्धांत को स्थापित करने के लिये शोधकर्ताओं ने 18 से 68 वर्ष की आयु के बीच के 19000 लोगों से आँकड़े एकत्र किये। लगभग सबने यह माना कि बीते वर्षों में वे बहुत बदले परन्तु आगत वर्षों में वे अत्यल्प परिवर्तित होंगे। एक बीस वर्षीय व्यक्ति के आकलन कि वह आने वाले दस वर्षों में कितना परिवर्तित होगा तथा एक तीस वर्षीय व्यक्ति के सिंहावलोकन में कि वह पिछले दस वर्षों में कितना परिवर्तित हुआ; बहुत अधिक अंतर पाया गया। उदाहरणतया हमारी किस तरह के सङ्गीत में पहले रुचि थी और आगत वर्षों में कैसी होगी, किस प्रकार के लोगों से प्रेम था एवं अब कैसा रहेगा इत्यादि। इस सिद्धांत का एक प्रभाव यह है कि हम वर्तमान के निर्णय इस भ्रांति में लेते हैं।
आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की अतिशय रुचि उलझे सम्बंधों एवं त्रुटिपूर्ण निवेशों के विषय में रही है तथा इन दोनों ही विषयों में यह भ्रांति हमें उलझाती है। लम्बी अवधि के लिए निर्णय लेते समय हम यह कभी नहीं सोचते कि हमारी समझ में जो निरंतर परिवर्तन होता जा रहा है उसका हमारे निर्णयों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा। हम मदोन्मत बिना किसी की सुने अपने निर्णय लेते जाते हैं। हमें लगता है कि हमने सब सीख लिया है, हमारी पिछली त्रुटियाँ हमारी गुरु ही तो थीं! तब हम कितने मूर्ख थे! हमें तब आज जितना पता होता तो हमने वह कभी नहीं किया होता जो किया। और यह अहम् भी कि हमने सब तो झेल लिया, अब और क्या होना है? इस बार तो हमने सही निर्णय लिया है, बस अब हम ऐसे ही रहेंगे। ऐसे के लिये ही तो कहा गया है:
यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः।
यदा किञ्चित्किञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो मे व्यपगतः॥
अर्थात जब मुझे कुछ-कुछ ज्ञान हुआ तब मैं उस बात पर मदांध हाथी की तरह गर्व कर अपने को सर्वज्ञ समझने लगा पर जब विद्वानों की सङ्गति मिली तब यथार्थ का ज्ञान हुआ और वह गर्व ज्वर की भाँति उतर गया। तब जाकर अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं!
‘इतिहास अंत भ्रांति’ लिखने वाले मनोवैज्ञानिक जब कहते हैं कि हमें जीवन के हर मोड़ पर लगता है कि हम अपने व्यक्तिगत विकास के चरम बिंदु पर हैं तथा ‘What we never seem to realize is that our future selves will look back and think the very same thing about us. At every age we think we’re having the last laugh, and at every age we’re wrong.’ तो क्या यह वही सनातन बात नहीं है?
(क्रमश:)