Varah Puran वराहपुराण
नारदपुराण से आगे …
आराध्य के रूप में वराह बहुत पुराने हैं जिनके बीज वैदिक संहिताओं के यज्ञवराह आदि रूपों में मिलते हैं। संहिताओं से ही थूथन से पृथ्वी को उठाने वाले वराह के उल्लेख मिलने लगते हैं। धरा को अपने पार्श्वदन्त पर उठा कर उसका उद्धार करने वाले वराह अवतार उसी का विस्तार हैं।
यास्क ने ‘वराह’ के निर्वचन में उसे ‘वराहार:‘ (5.1.4) बता श्रेष्ठ आहार (वर+आहार) करने वाला बताया है – वृहति मूलानि वरं वरं मूलं बृंहति। शकुन्तला में कालिदास ने वराह को मुस्ता अर्थात नागरमोथा की जड़ों का आहार करने वाला बताया है – विस्रब्धं क्रियतां वराहपतिभिर्मुस्ताक्षति:पल्लवे। वनैले वराहों द्वारा भूमि को थूथन या दाँतों से खोद कर श्रेष्ठ जड़ियों एवं कवकों का आहार करते देखा जा सकता है। वराह के विराट रूपक का उत्स वही प्रेक्षण है।
यहाँ एक असम्बद्ध किन्तु महत्वपूर्ण बौद्ध प्रकरण बुद्ध के अन्तिम आहार ‘सूकरमद्दव‘ को उल्लिखित करना उचित होगा जिसे मांस, बाँस का कोपड़ आदि बताते हुये बहुत वितण्डा किया गया है। लोगों ने इस पर ध्यान नहीं दिया है कि अति पौष्ठिक मृदु कवक वराहों के प्रिय आहार हैं तथा उन्हें देख कर मनुष्य ने भी विशिष्ट आहार के रूप में उनका प्रयोग आरम्भ किया होगा। कवक विषैले भी होते हैं। बुद्ध को बहुत श्रद्धा के साथ अर्पित विशिष्ट सूकरमद्दव के साथ यही बात रही होगी जिसे खाने पर उन्हें मरणान्तक अतिसार हो गया था।
वराह आराधना के गुप्त से गहरवाड़ काल तक पूर्णत: स्थापित एवं लोकप्रिय होने के प्रमाण उपलब्ध हैं। ऐरण आदि स्थानों सहित समस्त भारत में पृथ्वी का उद्धार करते वराह का शिल्प बहुलता में आज भी उपलब्ध है।
भविष्यपुराण के अनुसार कभी समस्त पुराणों की श्लोक संख्या बारह हजार प्रत्येक (18×12000) थी। वराहपुराण के साथ बारह की संख्या का विचित्र योग मिलता है – बारह वराह क्षेत्र, बारह द्वादशीव्रत आदि। अब प्राप्त पुराण प्रति में प्राय: ग्यारह हजार श्लोक मिलते हैं जो कि विविध पुराणों में बताई गयी संख्या से अत्यल्प हैं किन्तु बारह हजार का सामीप्य ध्यान देने योग्य है। भविष्य पुराण ही मार्कण्डेय द्वारा रचित वाराहपुराण का उल्लेख करता है जो कि ‘वराहपुराण’ से भिन्न रहा होगा एवं अब अप्राप्य है। इस पुराण के बहुलांश लुप्त माने जा सकते हैं।
स्कन्दपुराण इसे शैव श्रेणी में रखता है, पद्मपुराण इसे सात्विक बताता है एवं गरुड़ पुराण राजस। दशावतार सङ्कल्पना की दृष्टि से यह तब का है जब वह रूढ़ हो चुकी थी अर्थात बुद्ध सहित वर्तमान दशावतारों की सूचियाँ मिलती हैं, ‘दशावतार’ नाम भी मिलता है किन्तु आरम्भ में बुद्ध को ले कर पुराणों में प्राप्त सामान्य दुविधा के दर्शन यहाँ भी होते हैं। आरम्भ में ही विचित्र प्रयोग मिलता है :
नमस्तस्मै वराहाय लीलयोद्धरते महीम् ।
खुरमध्यगतो यस्य मेरु: खणखणायते ॥
खणखण की खनखन बता रही है कि रचयिता देसज ध्वन्यात्मकता से प्रभावित था।
धरती ने कहा,”हे केशव ! कल्प कल्प में अवतीर्ण हो आप मेरा विविध रूपों में उद्धार करते हैं, मैं आप के आदि मूर्ति एवं सर्ग को नहीं जानती ।”
धरती द्वारा विष्णु की स्तुति के कुछ श्लोकों के पश्चात समस्या आ जाती है । यहाँ तीन उपलब्ध पाठों पर ध्यान अपेक्षित है :
1. प्रचलित पाठ :
वेदेषु चैव नष्टेषु मत्स्यो भूत्वा रसातले । प्रविश्य तानथोत्कृष्य ब्रह्मणे दत्तवानसि ॥१.५॥
अन्यत्सुरासुरमिते त्वं समुद्रस्य मन्थने। धृतवानसि कौर्म्येण मन्दरं मधुसूदन ॥१.६॥।। १.७ ।।
पुनर्वराहरूपेण आगच्छन्तीं रसातलम् । उज्जहारैकदंष्ट्रेण भगवन्वै महार्णवात् ॥१.७॥
अन्यद्धिरण्यकशिपुर्वरदानेन दर्पितः। आबाधमानः पृथिवीं स त्वया विनिपातितः ।। १.८ ।।
पुनर्निःक्षत्रिया देव त्वया चापि पुरा कृता । जामदग्न्येन रामेण त्वया भूत्वा सकृत्प्रभो ।। १.९ ।।
पुनश्च रावणो रक्षः क्षपितं क्षात्रतेजसा । बलिस्तु बद्धो भगवंस्त्वया वामनरूपिणा ।। १.१० ।।
(न च जानाम्यहं देव तव किञ्चिद्विचेष्टितम्)
स्पष्ट है कि बुद्ध को अवतार सूची से हटाने के चक्कर में कृष्ण को भी हटा दिया गया है, कल्कि हैं ही नहीं तथा वामन रामावतार के पश्चात आ गये हैं।
2. ऊपर प्रचलित पाठ की कुछ प्रतियों में उपलब्ध अतिरिक्त श्लोक :
नन्दगोष्ठेऽवतीर्य्याऽसौ हत: कंसासुरस्त्वया । साम्प्रतं बुद्धरूपेण तिष्ठसे लोकमोहन: ॥
इस प्रकार कृष्णावतार एवं बुद्ध की पूर्ति कर ली गयी है। कल्कि अब भी नहीं हैं। बुद्ध की ‘लोकमोहन’ संज्ञा अन्य पुराणों में उनके वर्णन से मेल खाती है।
3. इन दो से भिन्न एक अन्य पाठ भी प्रचलित है जिसमें क्रम विपर्यय का सुधार तो कर लिया गया है किन्तु बुद्ध, कृष्ण एवं कल्कि यहाँ से भी लुप्त हैं :
वेदेषु चैव नष्टेषु मत्स्यो भूत्वा रसातलम्। प्रविश्य तानपाकृष्य ब्रह्मणे दत्तवानसि ।। १.६ ।।
अन्यत् सुरासुरमयं त्वं समुद्रस्य मन्थने। धृतवानसि कौर्म्येण मन्दरं मधुसूदन ।। १.७ ।।
पुनर्वाराहरूपेण मां गच्छन्तीं रसातलम् । उज्जहारैकदंष्ट्रेण भगवान् वै महार्णवात्।। १.८ ।।
अन्यद्धिरण्यकशिपुर्वरदानेन दर्पितः। आबाधमानः पृथिवीं स त्वया विनिपातितः ।
बलिस्तु बद्धो भगवंस्त्वया वामनरूपिणा ।। १.९ ।।
पुनर्निःक्षत्रिया देव त्वया चापि पुरा कृता । जामदग्न्येन रामेण त्वया भूत्वाऽसकृत्प्रभो ।। १.१० ।।
पुनश्च रावणो रक्षः क्षपितं क्षात्रतेजसा । न च जानाम्यहं देव तव किञ्चिद्विचेष्टितम् ।। १.११ ।।
ध्यान दें कि नवें श्लोक में चार के स्थान पर छ: पाद हो गये हैं। इसकी तुलना ऊपर के दो पाठों से करने पर स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध को सायास इस सूची से हटाया गया है। कृष्ण को केशव से मान भी लें (जो कि है नहीं क्यों कि धरा वराह रूपी विष्णु से सम्बोधित है) तो भी यह सूची पूर्ण नहीं होती, खण्डित रह जाती है।
चौथे अध्याय में धरा पुन: वराह से पूछती हैं :
धरण्युवाच ।
योऽसौ नारायणो देवः परमात्मा सनातनः । भगवन् सर्वभावेन उताहो नेति शंस मे ।। ४.१ ।।
वराह जो उत्तर देते हैं उसमें कृष्ण, बुद्ध, कल्कि क्रम से समस्त दशावतार उपस्थित है :
श्रीवराह उवाच ।
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः । रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्की च ते दश ।। ४.२ ।।
इत्येताः कथितास्तस्य मूर्त्तयो भूतधारिणि । दर्शनं प्राप्तुमिच्छूनां सोपानानीव शोभते ।। ४.३ ।।
पचपनवें अध्याय में अगस्त्य शुभ नामक व्रत का विधान बताते हैं जिसमें आगे चल कर राजा द्वारा विष्णु स्तुति में दशावतार नाम आये हैं । स्तुति में श्लोक छन्द नहीं है एवं दस छंदों में आज मान्य दसो अवतार आ जाते हैं :
अगस्त्य उवाच ।
श्रृणु राजन् महाभाग व्रतानामुत्तमं व्रतम् । येन संप्राप्यते विष्णुः शुभेनैव न संशयः ।। ५५.१ ।।
…
राजोवाच ।
क्षराक्षरं क्षीरसमुद्रशायिनं , क्षितीधरं मूर्तिमतां परं पदम् ।
अतीन्द्रियं विश्वभुजां पुरः कृतं, निराकृतं स्तौमि जनार्दनं प्रभुम् ।। ५५.३१ ।।
त्वमादिदेवः परमार्थरूपी, विभुः पुराणः पुरुषोत्तमश्च ।
अतीन्द्रियो वेदविदां प्रधानः, प्रपाहि मां शङ्खगदास्त्रपाणे ।। ५५.३२ ।।
कृतं त्वया देव सुरासुराणां, संकीर्त्यतेऽसौ च अनन्तमूर्ते ।
सृष्ट्यर्थमेतत् तव देव विष्णो, न चेष्टितं कूटगतस्य तत्स्यात् ।। ५५.३३ ।।
तथैव कूर्मत्वमृगत्वमुच्चै: , त्वया कृतं रूपमनेकरूप ।
सर्वज्ञभावादसकृच्च जन्म, संकीर्त्त्यते तेऽच्युत नैतदस्ति ।। ५५.३४ ।।
नृसिंह नमो वामन जमदग्निनाम, दशास्यगोत्रान्तक वासुदेव ।
नमोऽस्तु ते बुद्ध कल्किन् खगेश, शम्भो नमस्ते विबुधारिनाशन ।। ५५.३५ ।।
नमोऽस्तु नारायण पद्मनाभ, नमो नमस्ते पुरुषोत्तमाय ।
नमः समस्तामरसङ्घपूज्य, नमोऽस्तु ते सर्वविदां प्रधान ।। ५५.३६ ।।
नमः करालास्य नृसिंहमूर्त्ते, नमो विशालाद्रिसमान कूर्म ।
नमः समुद्रप्रतिमान मत्स्य, नमामि त्वां क्रोडरूपिननन्त ।। ५५.३७ ।।
सृष्ट्यर्थमेतत् तव देव चेष्टितं, न मुख्यपक्षे तव मूर्त्तिता विभो ।
अजानता ध्यानमिदं प्रकाशितं, नैभिर्विना लक्ष्यसे त्वं पुराण ।। ५५.३८ ।।
आद्यो मखस्त्वं स्वयमेव विष्णो, मखाङ्गभूतोऽसि हविस्त्वमेव ।
पशुर्भवान् ऋत्विगिज्यं त्वमेव, त्वां देवसङ्घा मुनयो यजन्ति ।। ५५.३९ ।।
यदेतस्मिन् जगध्रुवं चलाचलं, सुरादिकालानलसंस्थमुत्तमम् ।
न त्वं विभक्तोऽसि जनार्दनेश, प्रयच्छ सिद्धिं हृदयेप्सितां मे ।। ५५.४० ।।
विष्णु को शम्भो सम्बोधन ध्यातव्य है, साथ ही विष्णु के पहले के अवतारों को मृगरूप कहा जाना भी। मृगहन्ता व्याध के रूप में रुद्र स्थापित हैं। यह खण्ड शैव वैष्णव समन्वय से सम्बन्धित हो सकता है।
एक सौ तेरहवें अध्याय में विचित्र स्थिति आती है। सूत के माध्यम से जो पृच्छा एवं स्तुति पहले अध्याय में कहलाई गई है, उसे सनत्कुमार के माध्यम से किञ्चित परिवर्तनों के साथ दुहराया गया है, खणखण प्रयोग भी। दुहराव को हटाने पर भी निम्न अंश दशावतार की स्वतन्त्र पुष्टि करता है :
अक्षरश्च क्षरश्चासि त्वं दिशो विदिशो भवान् । मत्स्यः कूर्म्मो वराहश्च नरसिंहोऽसि वामनः ।।
रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्की महात्मवान् ।।
दो सौ ग्यारहवें अध्याय में ऋषिपुत्र-नारद-यम संवाद में मत्स्य से आरम्भ कर कल्कि तक पूरी सूची है तथा ‘दशावतार’ संज्ञा भी :
मत्स्यं कूर्मं वराहं च नरसिंहं च वामनम् ।।६८।। रामं रामं च कृष्णं च बुद्धं चैव च कल्किनम् ।।
एवं दशावतारांश्च पूजयेद्भक्तिसंयुतः ।। ६९ ।।
अन्य पुराणों की ही भाँति इन अंशों में भी ‘परशुराम’ संज्ञा नहीं है, जामदग्न्य या केवल राम नाम से ही भार्गव राम के अवतार को बताया गया है, दाशरथि राम के साथ भी रामो रामश्च या रामं रामं ही प्रयुक्त हुये हैं। इस प्रकार यह पुराण भी पुष्ट करता है कि ‘परशुराम’ संज्ञा परवर्ती प्रचलन है।
अन्त में इस पुराण का एक अंश जो पुराणों की समाज को जोड़े रहने की भूमिका को बहुत ही स्पष्ट रूप से दर्शाता है। भारत सहस्राब्दियों से स्वयं से जूझता रहा है। प्राचीन भारत में जाने कैसी कैसी परिस्थितियाँ आती रहीं, निषेध, आदेश आदि के द्वारा भारत उनसे लड़ता, जीतता आगे बढ़ता रहा। समय के वे हस्ताक्षर वाचिक परम्परा में रह गये जिनका साक्ष्य दे आज समस्त परम्परा को ही गालियाँ दी जाती हैं, बुरा बताया जाता है। ऐसा करने वाला एक वर्ग तो स्वार्थी धूर्तों का है, उनसे कुछ नहीं कहना किंतु जो दूसरा वर्ग है – अनपढ़, विकृत शिक्षा पद्धति का उत्पाद, जो कि काल को भौंड़े तीन वर्गों में बाँट कर देखता सुनता है, नारे उछालने का अभ्यस्त है, उससे कहा जा सकता है।
वेदाध्ययन जिस अनुशासन की माँग करता है, वह अत्यंत दुष्कर है, आप पूर्णत: उसी को समर्पित हुये बिना अर्थात अपने समस्त कार्य व्यापारों को उसके अनुसार समायोजित किये बिना शास्त्रानुसार नहीं कर सकते। इस कारण ही कर्मठ शूद्रों को वेदाध्ययन से बाहर रखा गया, ब्राह्मण सावित्रीच्युत हो, संस्कारहीन ब्रह्मबंधु मात्र हो तो उसे भी किन्तु आख्यानों एवं पुराणों की सूत पोषित क्षात्र परम्परा ने ऐसे वर्गों के लिये विकल्प सदा उपस्थित रखे।
इस पुराण में नारद किसी अन्य से नहीं, साक्षात यम से पूछते हैं कि वेदपवित्र किये जन से ब्राह्मणों ने शूद्रों को बहिष्कृत कर रखा है। ऐसे में उनके लिये जो श्रेयस्कर है, जो हितकर कर्म हैं, बतायें जो उन्हें करना चाहिये।
शूद्रा वेदपवित्रेभ्यो ब्राह्मणैस्तु बहिष्कृताः । यथैव सर्वसमता तव भूतेषु मानद ।।
तथैव तेषामपि हि श्रेयो वाच्यं महामते । यथा कर्म हितं वाक्यं शूद्राणामपि कथ्यताम् ।।
यम उत्तर देते हैं :
यम उवाच ।।
अहं ते कथयिष्यामि चातुर्वर्ण्यस्य नित्यशः । यद्धितं धर्मयुक्तं च नित्यं भवति सुव्रत ।।
केवलं श्रुतिसंयोगाच्छ्रद्धया नियमेन च । करोति पापनाशार्थमिदं वक्ष्यामि तच्छृणु ।।
मैं आप को वे सुनाऊँगा जो चारो वर्णों हेतु हितकर हैं, धर्मयुक्त हैं, जिनसे समस्त पापों का नाश हो जाता है।
सूची किञ्चित बड़ी है किंतु उसमें सबसे पहले आती है -गाय। गोसेवा से समस्त पापों का मोचन हो जाता है।
गावः पवित्रा मङ्गल्या देवानामपि देवताः । यस्ताः शुश्रूषते भक्त्या स पापेभ्यः प्रमुच्यते ।।
शब्द प्रयोग देखें कि पृच्छा के आरम्भ में जिस पवित्रता की बात कर बहिष्कार बताया गया है, वही पवित्रता सर्वमङ्गल्या, देवों की भी देवता गाय में समाहित हो जाती है।