Vyanjan Sandhi व्यञ्जन सन्धि को तीन भागों में सीखेंगे। पिछले अङ्क में हमने देखा कि किस प्रकार माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बना कर लाघव के साथ नियमों को सूत्र रूप में बताया जा सकता है। स्वरों की तुलना में व्यञ्जनों की संख्या अधिक होने एवं उच्चारण हेतु उनकी स्पर्श व प्रयत्न निर्भरता के कारण व्यञ्जन सन्धियों के प्रकार भी विविध एवं संख्या में अधिक होंगे। पाणिनीय सूत्र यहीं प्रभावी सिद्ध होते हैं। हल् प्रत्याहार में समस्त व्यञ्जन आ जाते हैं, अत: Vyanjan Sandhi व्यञ्जन सन्धि हल् संधि भी कही जाती है।
नीचे अष्टाध्यायी से वे सूत्र संग्रहीत हैं जिनके आधार पर कुल अट्ठारह सूत्र समूहों में संधियों के विविध प्रकारों को वर्गीकृत किया जा सकता है। इन सूत्र-समूहों में एक से ले कर तीन तक सूत्र हैं। इनमें भी दस ‘त्व’ श्रेणी के हैं -त्वम्। जश्-त्वम् नाम से दो सूत्र समूह हैं, जिन्हें एक साथ कर के देखने पर कुल नौ ‘त्व’ श्रेणी के होंगे। हिन्दी में -ता व -त्व प्रत्यय यथा जड़’ता’ व जड़’त्व’, संस्कृत की ही देन हैं।
संस्कृत में प्रत्ययों के अतिरिक्त मूल भी होते हैं। किसी भी शब्द का विच्छेद करते हुये उसके मूल तक पहुँचा जा सकता है। मूल क्रिया आधारित हों अर्थात उनमें किसी कुछ करने का बोध हो तो वे धातु कहलाते हैं यथा युज् जो जोड़ने के अर्थ में है जिससे योक्त, युक्त, योक्ता जैसे शब्द बने हैं। प्रत्ययों व क्रिया आधारित धातुओं के अतिरिक्त जो संज्ञा मूल होते हैं, उन्हें प्रातिपदिक कहते हैं। देखें तो गृह प्रातिपदिक है जिसमें विविध प्रत्यय लगा कर गृहस्थ, गृही, गृहणी आदि शब्द बने हैं। अत: प्रातिपदिक वह है जो प्रत्यय धारण की क्षमता रखता है। प्रातिपदिक के साथ प्रत्यय जुड़ने से पद बनते हैं, संस्कृत का गृहम् (गृह का स्वतंत्र प्रयोग संस्कृत वाक्य में नहीं), गृहस्थ आदि पद हैं।
Vyanjan Sandhi व्यञ्जन सन्धि से सम्बन्धित समस्त सूत्र अष्टाध्यायी के आठवें अध्याय के द्वितीय से चतुर्थ पादों से हैं तथा इनकी कुल संख्या मात्र २४ है। समूह नामों के आगे लोहित वर्णी अंतरराष्ट्रीय अङ्कों में पाणिनीय सूत्रों के सन्दर्भ हैं, सूत्र नील वर्ण में हैं, उनके आगे लघु कोष्ठकों में उनके पदच्छेद दिये हुये हैं तथा अंत के बड़े कोष्ठकों में वे सङ्केत जो या तो स्पष्टता हेतु हैं या अष्टाध्यायी के पीछे के सूत्रों से आ रहे हैं। उदाहरण हेतु समूह १३ का अंश १४ को स्पष्ट करने हेतु प्रयुक्त है तो समूह १५ का अंश समूह १६ को। इनमें भी विशेष व्यवस्था है जिसकी चर्चा यहाँ आवश्यक नहीं है। आरम्भ करते हैं :
१. नलोप:
सूत्र – नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य । [पदस्य]
बहुधा न् से अंत होने वाले पुल्लिङ्ग व नपुंसकलिङ् वाले प्रातिपदिकों एवं पदों से न् का लोप हो जाता है। उदाहरण –
ब्रह्मन्+विद्या = ब्रह्मविद्या, सामन्+वेद = सामवेद।
योगिन् से योगिन्स् पद तथा उससे आगे योगीन् एवं अंत में योगी होना भी इसी सूत्र से होता है जिसे आगे, दूसरे संदर्भ में विश्लेषित करेंगे।
२. कु-त्वम्
सूत्र – चो: कु: [झलि पदस्य अन्ते च]
व्याकरण में वर्णमाला के वर्ग विशेष के समस्त अक्षरों को दर्शाने हेतु आद्याक्षर को उ की मात्रा के साथ प्रयोग करते हैं। यथा ‘कु’ का अर्थ होगा – क्, ख्, ग्, घ्, ङ् एवं ‘चु’ का अर्थ होगा – च्, छ्, ज्, झ्, ञ् सम्मिलित।
इस सन्धि के सूत्र को ‘झलि पदस्य अन्ते च’ के साथ पढ़ना होगा। शिव सूत्रों से बने ‘झल्‘ प्रत्याहार में होंगे – झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स ह अर्थात अर्द्धस्वरों य,र,ल,व एवं अनुनासिकों ङ,ञ,ण,न,म के अतिरिक्त सभी व्यञ्जन ।
अर्थात ‘चु’ वर्ग का कोई व्यञ्जन पद के अंत में हो या उसके पश्चात ‘झल्’ समूह में से कोई आये तो सन्धि पश्चात चु अपने समसमस्थानी कु में परिवर्तित हो जाता है, च्>क्, छ्>ख्, ज्>ग्, झ्>घ् ।
उदाहरण – मुच् धातु में त का योग। त झल् है अत: च् का परिवर्तन क् में हो जायेगा।
मुच्+त > मुक्+त > मुक्त
३. ष-त्वम्
सूत्र – व्रश्च.भ्रस्ज.सृज.मृज.यज.राज.भ्राज.च्छ.शां षः । [झलि पदस्य अन्ते च]
इस में पहले सात धातुयें बतायी गयी हैं तथा छ् या श् से अंत होने वाले पद भी। इसमें भी ‘झलि पदस्य अन्ते च’ लगेगा।
अर्थात पद के अंत में यदि ये आयें या इनके पश्चात ‘झल्’ प्रत्याहार के अक्षर आयें तो इनका अंतिम वर्ण संधि पश्चात ‘ष्’ में परिवर्तित हो जाता है।
उदाहरण – दृश् धातु से दृष् एवं दृष्टि इसी सूत्रानुसार बनते हैं।
४. ध-त्वम्
सूत्र है – झष: तथो: ध: अध: । झष् प्रत्याहार के वर्ण हैं – झ भ घ ढ ध। जिन दो पदों की सन्धि हो उनमें यदि दूसरे पद के आरम्भ में तथो:, त या थ, हों तथा उनके पूर्व पहले पद के अन्त में झष् में से कोई हों तो त या थ का परिवर्तन ध में हो जाता है।
उदाहरण –
(शुध् + त) संधि में दूसरे एकवर्णी पद के आरम्भ में त है तथा पहले पद के अंत में ध् है जो कि झष् में आता है, अत: इस सूत्र अनुसार सन्धि होने पर होगा, (शुध् + ध)। बहुधा एक सूत्र से परिवर्तन करने पर जो स्थिति बनती है, उसके अनन्तर अन्य सूत्र लगने लगते हैं। यहाँ भी ऐसा ही है, संधि पश्चात जो स्थिति बनी है, उसमें इसके पश्चात पाँचवें खण्ड में दिया गया सूत्र लगेगा अत: शब्द का रूप अधूरा रह जायेगा। देखते हैं कि पूरा करने वाला अगला सूत्र कौन सा है?
५. जश्-त्वम्
‘जश्’ प्रत्याहार में ये वर्ण हैं – ज ब ग ड द। इस संधि के दो प्रकार हैं :
(क) पहला सूत्र है – झलाम् जश् झशि। झल् के पश्चात झश् आये तो झल् का जश् में परिवर्तन हो जाता है। झश् प्रत्याहार में ये वर्ण हैं – झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द। ये दस अपने अपने वर्ग के तीसरे एवं चौथे स्पर्श वर्ण हैं – (ग,घ), (ज,झ), (ड,ढ), (द,ध), (ब,भ)। सभी घोष व्यञ्जन हैं, क्रमश: अल्पप्राण व महाप्राण। जश् इनमें से ही पाँच अल्पप्राण वर्णों को ले कर बनता है। अत: यह सूत्र दी हुई स्थिति में यह अनुनासिक एवं अर्द्धस्वरों के अतिरिक्त समस्त २५ व्यञ्जनों के आगे झश् आने पर उन्हें सवर्गी ५ अल्पप्राण घोष व्यञ्जनों ‘जश्’ में परिवर्तित करता है।
खण्ड चार के उदाहरण से आगे बढ़ें तो (शुध्+ध)) में पहले पद का ध् झल् है तथा दूसरे पद का ध झश् है अत: पहले पद के अंत वाला ध् निकटवर्ती जश् द में परिवर्तित हो जायेगा।
शुध्+ध > शुद्+ध = शुद्ध
देख सकते हैं कि एक शब्द ‘शुद्ध’ के ‘निर्माण’ की प्रक्रिया कितनी सूक्ष्म एवं आनन्ददायक है। इसमें किसी भी प्रकार की त्रुटि यथा श् को ष् लिख देने पर प्रत्याहार ही परिवर्तित हो झष् एवं झश् में भ्रम उत्पन्न कर देगा जिसके आगे गड़बड़ ही गड़बड़। इस कारण ही संस्कृत ही नहीं, किसी भी भाषा को लिखते समय वर्तनी की शुद्धता का ध्यान रखना चाहिये।
(ख) सूत्र बहुत सरल है – झलाम् जश: अन्ते। पद के अंत में ‘झल्’ हो तो निकटवर्ती ‘जश्’ में परिवर्तित हो जाता है।
ध्यान दें कि जश् प्रत्याहार के समस्त पाँच वर्ण झल् में भी आते हैं, अत: गणितीय भाषा में जश् प्रत्याहार झल् का उप-समुच्चय है। ‘जश्’ के समस्त वर्ण अपने अपने वर्ग के तीसरे हैं अर्थात घोष अल्पप्राण व्यञ्जन हैं (देखें इस लेखमाला का यह पुष्प)। निष्कर्ष यह है कि यह संधि उल्लिखित पदान्त व्यञ्जनों को घोष अल्पप्राण में परिवर्तित कर देती है।
उदाहरण स्वरूप जगत् पद को देखें, अंत का त् झल् में आता है। इसकी सन्धि भ्याम् से करनी है। जश् प्रत्याहार में इसका सबसे निकटस्थ वर्ण होगा वर्णक्रम में त, थ के पश्चात द अत: त् का द् में परिवर्तन हो जायेगा।
जगत्+भ्याम् = जगद्भ्याम्।
६. रु-त्वम्
पहले रु को जानते हैं। अष्टाध्यायी के सूत्र ८.२.६६ ससजुषो रुः, के अनुसार – स् एवं सजुष् में ष् का पद के अंत में रु(रुँ) में परिवर्तन हो जाता है। रु वस्तुत: र् (र्ँ) हेतु प्रयुक्त हुआ है किन्तु यह प्राथमिक र् से भिन्न है जिसके संधि नियम उससे भिन्न होते हैं। अभी उस पर चर्चा विषय को जटिल बनायेगी। अभी यहाँ यह मान कर चलें कि रु-त्वम् से श्,ष्,स् की बात है।
सूत्र है – नश्छव्यप्रशान् (न: छवि अप्रशान्)। [पदस्य अम् परे रु:]
इस सूत्र में छव् एवं अम् प्रत्याहार प्रयुक्त हुये हैं, जो इस प्रकार हैं :
छव् – छ ठ थ च ट त
अम् – अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र ल ञ म ङ ण न
देखें तो छव् प्रत्याहार (आरम्भ एवं अंत के स्पर्श व्यञ्जन वर्गों क एवं प को छोड़ कर) च वर्ग, ट वर्ग एवं त वर्ग के आरम्भिक दो वर्ण समाहित किये है – च,छ; ट,ठ; त,थ। ये सभी अघोष व्यञ्जन हैं।
अम् प्रत्याहार में समस्त स्वर, अर्द्धस्वर, सभी अनुनासिक पञ्चमाक्षर एवं ऊष्म व्यञ्जन ह समाहित हैं।
सूत्र के अनुसार यदि पदान्त के न् के पश्चात छव् आये एवं उसके परे अम् हो तो –
न् का परिवर्तन ऊष्म श्, ष् या स् में हो जाता है। इन तीनों में से किसमें न् का परिवर्तित होगा, यह इस पर निर्भर है कि न् के पश्चात छव् का कौन सा वर्ण है, उस वर्ण के सङ्गत अघोष ऊष्म वर्ण में न् का परिवर्तन होता है।
वर्णमाला को पुन: देखें, हरित घेरों से स्पष्ट हो जाता है – (च्,छ्) > श्; (ट्,ठ्) > ष्; (त्,थ्) > स्।
⦁ न् के पूर्व का स्वर अनुस्वार (ं) या अनुनासिक (ँ) हो जाता है।
उदाहरण हेतु भगवद्गीता में आयी दो सन्धियों को देखें – गतासूंश्च एवं प्रज्ञावादांश्च।
गतासून् + च = गतासू+न्+च = गतासूँ+श्+च = गतासूंश्च
प्रज्ञावादान् + च = प्रज्ञावादा+न्+च = प्रज्ञावादाँ+श्+च = प्रज्ञावादांश्च
इसी प्रकार गुरून् एवं तथा की संधि होगी –
गुरू+न्+तथा = गुरूँ+स्+तथा = गुरूंस्तथा
अप्रशान् अर्थात प्रशान् शब्द पर यह नियम नहीं लगता।
७. अनुस्वार:
⦁ सूत्र – मोऽनुस्वारः (म: अनुस्वार:)। [हलि पदस्य]
यह बहुत सरल है। हल् में समस्त व्यञ्जन आ जाते हैं अर्थात किसी भी पद के अन्त का न् संधि पश्चात अनुस्वार में परिवर्तित हो जायेगा यदि उसके पश्चात कोई भी व्यञ्जन आया हो।
उदाहरण – तम्+रामम्+नमामि > तं रामं नमामि।
⦁ सूत्र – नश्चापदान्तस्य झलि (न: च अपदान्तस्य झलि)। [म: अनुस्वार:]
यह सूत्र बात आगे बढ़ाता है जिसमें –
i. न् के साथ म् को भी ले लिया गया है तथा
ii. जब उनसे अगला वर्ण हल् के उपसमुच्चय प्रत्याहार झल् का कोई वर्ण हो ।
iii. यह भी कि न् या म् को पदान्त में न हो कर पद के भीतर होना है – अपदान्त होना है। अर्थात सन्धि परिवर्तन भी पद के भीतर ही होगा, न कि अन्त में।
भीतरी न् या म् अनुस्वार में परिवर्तित हो जायेंगे। यह संधि कुछ विभक्ति रूपों में, क्रिया रूपों में मिलती है। उदाहरण हेतु विद्वस् एवं पुंस् के ये रूप देखें –
विद्वान्स्+औ = विद्वांसौ, पुमान्स्+अ: = पुमांस:
ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त में आया है – संवो मनांसि, मनांसि का विकास ऐसे है –
मनान्स्+इ = मनांसि।
(Vyanjan Sandhi व्यञ्जन सन्धि का शेष अगले अङ्क में)
आभार व सन्दर्भ :
1. Ashtadhyayi of Panini, Sris Chandra Vasu, Benares, 1898 CE,
2. Enjoyable Sanskrit Grammar Series, Volume 2 Phonetics & Sandhi, Ed. Medha Michika, Arsha Avinash Foundation, Coimbatore, 2016 CE,
3. Sanskrit Introduction, Heiko Kretschmer, BoD Books on Demand, 2015 CE,
4. The Sanskrit Language: An Introductory Grammar and Reader, Vol. I, W H Maurer, RoutledgeCurzon, Taylor & Francis Group, London & New York, 2004 CE,
5. SL Abhyankar, भारतीयविद्वत्परिषत्, Google Group, 2018 CE
अभ्यास :
इस लेख में संधि के नियमों के विपरीत वर्तनियों का अभिज्ञान करें। वर्णमाला एवं पिछले अङ्क की प्रत्याहार तालिकाओं को साथ रख संधियों का अभ्यास करें।
सर व्यंजन संधि का अगला अंक प्रकाशित नही किया क्या आपने।कृपया सर अगला अंक प्रकाशित करे।धन्यवाद
प्रणाम संजय जी,
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