अद्भुत निष्कर्ष निकालने की त्वरा ठीक नहीं।
मनुष्य एक विचारवान प्राणी है। वह अपने विचारों को अभिव्यक्त भी कर सकता है और उन्हें कार्यरूप में परिणत भी। बुद्धि, विवेक का प्रयोग हमारे लिये जितना सामान्य है, उतना ही सामान्य है दुविधा में पड़ना। अधिकांश लोग कभी न कभी किसी न किसी संशय में पड़ चुके हैं। विशेषकर, आज के समय में परस्पर विरोधी जानकारियों और जानकारी के नाम पर स्वार्थी विज्ञापन, फ़ेक न्यूज़, व्यर्थ बकवास, अफ़वाहों आदि की प्रचुरता के कारण संशय और दुविधा हमारे दैनंदिन जीवन का सामान्य अंग बनते जा रहे हैं।
मैं हर रोज़ एक न एक ऐसी अफवाह को सच की तरह दोहराया जाते देखता हूँ जिसका खुलासा बहुत पहले ही हो चुका होता है। मज़ाक में मैं यह भी कहता हूँ कि हर अफ़वाह की एक्सपायरी डेट तय होना चाहिये ताकि सौ साल पहले मर चुकी अफ़वाहों के भूत फिर-फिर कब्र से उठकर तमाशा करने न आ जायें।
दुविधा बुरी बात नहीं है। शंकालु होना उतना बुरा नहीं जितना कि गलत को सही समझना। इस दुविधा से कैसे बचा जाये? हम यह कैसे जानें कि सच क्या है और झूठ क्या है? सच की पहचान न केवल हमारा आत्मविश्वास बढ़ाएगी, यह हमें एक अच्छा नागरिक भी बनाएगी। इस आलेख में दिये सुझावों की सहायता से यदि आप अपने आस-पास मंडराती अफ़वाहों को पहचानकर उनका दाह-संस्कार कर सकें और सामने स्पष्ट पड़े तथ्यों के आधार पर निकाले गये असत्य या अधकचरे अद्भुत निष्कर्षों को पहचानकर सत्य की ओर बढ़ें तो मैं इस आलेख को सफल मानूंगा।
हम सब विवेक, संगति, आत्मचिंतन, आत्मावलोकन, आदि के महत्व को समझते हैं, सत्य का साथ देना चाहते हैं, लेकिन लोग अक्सर अपने को इधर जाऊँ या उधर जाऊँ की दुविधा में पाते हैं। कई बार लोग अचानक यह समझ जाते हैं कि वर्षों से वे जिस मार्ग पर चल रहे थे वह या उनके निर्णय ग़लत थे। कई बार आपको ऐसा भी लगता है कि आपकी बात सही होते हुए भी कुछ मित्र उसे ग़लत साबित करने पर तुले हैं। न तो आप उन्हें समझा पाते हैं और न ही उनकी बात आपको समझ आती है। ऐसा क्यों होता है? आइये, कुछ उदाहरणों के सहारे देखें कि अनिश्चय, दुविधा या गलत निर्णय के इस संकट का सामना कैसे किया जाये।
सही निष्कर्ष तक पहुँचने के लिये सत्य की पहचान आवश्यक है। और सत्य की पहचान के लिये तथ्यों की परख आवश्यक है। एक सरल सा उदाहरण है। किसी की पोटली में झाँके बिना आप नहीं जान सकते कि उसमें क्या है। हाँ, पोटली के पत्थर हाथ में लेकर आप यह बता सकते हैं कि वह कोई बहुमूल्य रत्न है या मामूली पत्थर। यह भी जभी होगा जब आप उसे स्पष्ट देख सकते हों और आपको रत्नों के गुण-धर्म-लक्षणों की पहचान भी हो। अज्ञान होने पर आप किसी रत्न के सौंदर्य से प्रभावित तो हो सकते हैं लेकिन उसकी पहचान, वर्गीकरण, या मूल्यांकन नहीं कर सकते। इसलिये सही निष्कर्ष के लिये विषय का ज्ञान एक आवश्यक तत्व है।
अज्ञान
असत्य निष्कर्ष का सबसे बड़ा कारण विषय का अज्ञान है। हमारा संसार हमारे अज्ञान जितना ही सीमित है। कई बार विशिष्ट विषयों पर भी ऊल-जलूल सलाहें आती दिखती हैं, लेकिन धार्मिक विषयों आदि पर तो जिसका भी जी करता है, कुछ भी बोलना-लिखना शुरू कर देता है।
जिन्होंने कभी दुःशासन, दुर्योधन शब्दों के अर्थ जानने की तकलीफ़ भी नहीं वे नाम के आधार पर उन्हें जबरन खल दर्शाये जाने की बात करते हैं। जिन्हें न शूर्पणखा का वास्तविक नाम पता है न उसके पति के बारे में कोई जानकारी, न जानकारी का कोई स्रोत, वे भी एक प्राचीन घटना के अपने अज्ञान के आधार पर आधुनिक जगत के लिये अद्भुत निष्कर्ष निकालते बैठते हैं तो किसी व्यंग्य-रचना के पढ़ने जैसी अनुभूति होती है। रामायण में आये शब्द तथागत को सदियों बाद जन्मे सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के लिये भी प्रयुक्त होने भर से रामायण को बौद्धोत्तर बताने जैसे अद्भुत निष्कर्षों से हम रोज़ दो-चार होते हैं।
एक योगाचार्य बाबा को एक पुराने भाषण में कहते पाया था कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में कैंसर असाध्य है जबकि उनके पास कैंसर का इलाज है। बाबा ने आधुनिक चिकित्सा विज्ञान नहीं पढ़ा है। उसे पढ़ने के लिये अपेक्षित न्यूनतम योग्यता भी शायद उनके पास नहीं है। उन्हें कैंसर के वैविध्य और जटिलता के बारे में कुछ नहीं पता, न यह मालूम है कि अनेक प्रकार के कैंसर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान द्वारा प्रतिदिन सफलता से ठीक किये जाते हैं। इसलिये इस विषय में उनका निष्कर्ष कोई मायने नहीं रखता। और यदि औषध विज्ञान के अपने अज्ञान के कारण हम उनके इस कथन को सत्य मानेंगे तो हमारा निष्कर्ष भी गलत ही होगा। मतलब यह कि अपने अज्ञान के साथ-साथ हमारी संगति और विश्वस्तों का अज्ञान भी हमें गलत दिशा में भेज सकता है। या तो हमें विषय का ज्ञान हो या फिर हमारे विश्वस्त विषय के वास्तविक जानकार हों।
लता मंगेशकर की भरी मांग देखकर, या किसी अविवाहिता को श्रीमती सम्बोधित किये जाने जैसी स्थिति से आश्चर्यचकित हो जाना भारतीय परम्पराओं के प्रति हमारी अनभिज्ञता ही दर्शाता है। एक राष्ट्र के रूप में हम भारतीय एक विशाल, वैविध्यपूर्ण और प्राचीन परम्परा के वाहक हैं। अपनी जाति, परम्परा, भाषा, क्षेत्र, समुदाय या काल से परे कुछ भी देखते ही उसे ग़लत साबित करने पर तुल जाना सही नहीं है।
दुर्गापूजा के लिये मूर्ति बनाने के लिये पहली मिट्टी पतिता के द्वार से लेने जैसी अफ़वाहें हों या भारत भर के ब्राह्मणों द्वारा बौद्धमत के विरोध/अनुसरण के लिये रातोंरात शाकाहारी बन जाने जैसे चुटकुले, इनके पीछे कभी अज्ञान, कभी दुर्भावना और कभी दोनों ही होते हैं।
विश्लेषण
सही निष्कर्ष निकालने के लिये तथ्यों का विश्लेषण लाभप्रद होता है। आँख मूंदकर हर बात पर विश्वास करना आपको धोखा दे सकता है। एक विदेशी कथा में योद्धाकाल के पिता-पुत्र देशाटन में रात को जब एक उजाड़ भवन में पहुँचते हैं तो सोने से पहले पिता को पूरे क्षेत्र की जाँच करते देख पुत्र कहता है, “आप बहुत शक्की हैं।” पिता का उत्तर है, “हाँ बेटा, इसीलिये आज तक ज़िंदा हूँ।“ बुद्धिमान लोग हर किसी के बोले-लिखे हर कथन को ब्रह्मवाक्य नहीं मानते। प्रामाणिकता महत्वपूर्ण है। जो भी नई बात सामने आये उसे एक बार कड़ी नज़र से अवश्य परखिये। प्रस्तुतकर्ता के चरित्र, परिवेश और मंतव्य को भी पहचानिये। एक छोटी सी जाँच दृष्टिकोण बदल सकती है।
भारत में कितने ही लोग कुलनाम हटाने की वकालत करते दिखते हैं। वे इसे जातिभेद, बल्कि जातीय घृणा मिटाने का अचूक उपाय बताते है। सतही तौर पर देखने से कई बार उनका सुझाव सही लग भी सकता है। परंतु तनिक सा विश्लेषण इस बयान में छिपी अज्ञान की कई परतों को हटाकर सच्चाई सामने ले आता है। पहली बात तो यह कि सभी भारतीय कुलनाम जातिसूचक नहीं हैं। राव क्षत्रिय भी हैं, यादव भी और ब्राह्मण भी। आंध्र प्रदेश में तो राव का जाति से कोई सम्बंध नहीं होता। इसी प्रकार चौधरी कुलनाम अनुसूचित जातियों, जाटों, ब्राह्मणों और कायस्थों में आराम से मिल जाता है। ईनामदार से कनौजिया तक, गावस्कर से बरेलवी तक और श्रॉफ़/टेलर से कापड़िया/बाटलीवाला तक, कुलनाम का जाति से कोई सम्बंध नहीं है। शर्मा कुलनाम भी यदि दिल्ली और हरियाणा में बढ़ई, हिमाचल में लोहार तथा अन्य क्षेत्रों में किसी अब्राह्मण समुदाय के लोग लगाएँ तो कोई कानूनी बाधा नहीं है। दूसरी बात यह कि जाति-व्यवस्था कुलनाम से नहीं, आरक्षण जैसी प्रक्रियाओं से सरकारी प्रमाणपत्र जारी करके दृढ की जा रही है। अब तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात, मान लीजिये कि बयानदाता की बात मानकर कोई तानाशाही सरकार लोगों का कुलनाम रखने का अधिकार प्रतिबंधित कर देती है, और अब लोगों के नाम सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, या कबीर दास होने के बजाय केवल स्टालिन, नेदुष्चेळियन, जिनलियान, हफ़ीज़, मुजीब, रबींद्रो और अनुपम हुआ करेंगे तो नेदुष्चेळियन रबींद्रो पर तमिल हटाकर हिंदी थोपने का स्टालिन जिनलियान पर तानाशाही मिटाकर लोकतंत्र लाने, और हफ़ीज़ मुजीब पर शरीयत घटाकर बंगालियत लाने का आरोप नहीं लगायेगा, इस बात का भरोसा कैसे होगा? समस्या अगर द्वेष और भेदभाव की है तो उसे द्वेष और भेदभाव मिटाकर ही कम किया जा सकता है, लोगों के नाम, घर या रोज़गार छीनकर नहीं। निष्कर्ष यह निकला कि कुलनाम हटाने भर से जातिभेद या जातीय घृणा कम नहीं की जा सकती है।
एक मित्र को अपनी चाय में शक्कर की जगह शहद डालते देखकर जब किसी ने कहा कि आयुर्वेद के अनुसार दूध और शहद मिलकर ज़हर बन जाते हैं तो मित्र सोच में पड़ गये। लेकिन जैसे ही उन्हें याद आया कि घर में बनने वाले पारम्परिक पंचामृत में यह दोनों ही मिलाये जाते हैं, उनका भ्रम मिट गया। इसी प्रकार दूर के इतिहासकारों द्वारा फैलाये आर्य-द्रविड़ तकरार के देशव्यापी भ्रम में हम ये भूल जाते हैं कि देश में नाग, यक्ष, राक्षस, देव, दानव जैसे समूह तो थे परंतु आर्य नामक कोई जाति कभी नहीं थी। हिटलरी दिमागों की उपज ‘आर्यन रेस’ की परिकल्पना कब हमारे भीतर पैठा दी गई पता ही न चला। गुजरात के उत्तरभारतीय ब्राह्मण अपने को पंचद्रविड़ समूह में मानते हैं, जबकि दक्षिण-भारतीय पालघाट के गौड़-सारस्वत ब्राह्मण पंचगौड़ में, यह तथ्य उत्तर-दक्षिण और आर्य-द्रविड़ की तकरार की परिकल्पना के विरुद्ध है। तथ्य यह है कि सभ्य, सुसंस्कृत, प्रतिष्ठित व्यक्ति और समुदाय परम्परा से आर्य कहलाते थे और तटीय क्षेत्र के आर्य द्रविड़ कहलाते रहे हैं। परम्परा से ही द्रविड़ों को भी आर्य, आर्यश्रेष्ठ आदि सम्बोधनों से पुकारा जाता रहा है। आर्य-द्रविड़ की दीवार का कोई पारम्परिक या शास्त्रीय आधार नहीं है, यह बिल्कुल बनावटी है।
इसी प्रकार शाकाहारियों के आत्मविश्वास को डिगाने के उद्देश्य से प्रसंस्कृत भोज्य पदार्थों की ई-संख्या (E number) के बारे में अनेक भ्रम फैलाये जाते रहे हैं। अज्ञान और भोलेपन के कारण कुछ लोग इन अफ़वाहों पर आँख मूंदकर विश्वास करते हैं और अनजाने ही अवसाद और अपराध-बोध का शिकार होते हैं। हल्दी, मिर्च या मकई के सत्व को सुअर की वसा बताने वाले कुप्रचार से बचिये।
किसी भी नई या अनूठी जानकारी के सामने आने पर अच्छी तरह पड़ताल अवश्य कीजिये। हर बात हर कोई नहीं जाँच सकता इसलिये मेरा ज़ोर विश्वसनीय स्रोतों की पहचान पर रहता है। हमें स्वयं भी ज्ञानी और निष्पक्ष होने का प्रयास करना चाहिये लेकिन कम से कम हमारे साथी और दिग्दर्शक, अनुभवी, ज्ञानी और निष्पक्ष अवश्य होने चाहिये।
पूर्वाग्रह
पारिवेशिक बाधायें और पूर्वाग्रह हमें अंधकार की ओर धकेलते हैं। जहाँ तक सम्भव हो उनसे बचिये। देश-विदेश के प्रवास ने मुझे एक समग्र दृष्टि दी है। अब इस पकी उम्र में भी कई बार एक नये देश की यात्रा एक नया दृष्टिकोण प्रदान करती है। समग्र दृष्टि, देशाटन, नई भाषा या संस्कृति से परिचय, अर्जित कौशल और विशेषज्ञता आदि हमें पूर्वाग्रहों से ऊपर उठाने में सहायक सिद्ध होते हैं।
याद रखिये कि सत्य किसी भाषा का दास नहीं होता। संस्कृत, लैटिन, अरबी या अंग्रेज़ी में लिखने भर से असत्य सत्य नहीं हो जाता। झूठ किसी भी भाषा में कहा जाये, किसी भी लिपि में लिखा जाये, झूठ ही रहता है। इसलिये भाषा से प्रभावित होना छोड़ दीजिये।
कूपमण्डूकत्व जितना सुखदायक है, उतना ही दृष्टिबाधक भी। पाकिस्तान में आतंकियों द्वारा स्कूली बच्चों की क्रूर हत्या के बाद पाकिस्तानी टीवी और पाकिस्तानी अंतर्जालीय समूहों में होने वाली बहस में जब इस दानवी कृत्य की स्पष्ट निंदा करने के बजाय लोगों को इस बात पर बहस करते देखा कि कुरान की रोशनी में किस आयु से बड़े बच्चे की हत्या जायज़ है तो उनकी कूप-मण्डूकता के खतरे एकदम स्पष्ट हो गये।
एक प्रसिद्ध अंग्रेज़ी पत्रकार और सम्पादक के किसी साक्षात्कार में पढ़ा कि दिल्ली निवास के दौरान वे शाम को किसी भी प्रशंसक से मिलने को तैयार रहते थे, शर्त इतनी ही थी कि वह उनके साथ शराब पीने को तैयार हो। निश्चित है कि उनकी ऐसी संकरी शर्त, सुरापान न करने वाले कितने ही लोगों से उनकी सम्भावित भेंट में बाधा बनी होगी। अपने को इस प्रकार संकीर्ण करना आपकी विशेषज्ञ-संगति को और उसके द्वारा आपकी निर्णय क्षमता को सीमित कर सकता है। ऐसी संकीर्ण सीमाओं से बाहर निकलिये।
हमारे एक उर्दू-अतिवादी परिचित प्यास की जगह तिश्नगी शब्द का प्रयोग इसलिये करते थे क्योंकि उनके हिसाब से वह पिपासा जैसे संस्कृत शब्द की विकृति न होकर शुद्ध उर्दू का शब्द था। तृष्णा से तिश्नगी की यात्रा से उनका परिचय कराना आँखें खोलने वाला सिद्ध हुआ। उन्हें समझ में आ गया कि भाषायें एक दूसरे से स्वतंत्र द्वीप न होकर एक वैश्विक समुदाय हैं जिन्होंने एक दूसरे को हमारे अनुमान से कहीं अधिक प्रभावित किया है। सो, अपने कुएँ से बाहर आइये, दुनिया देखिये और समझिये।
स्वार्थ
सत्य का मार्ग परमार्थ का मार्ग है। स्वार्थ का मार्ग अंधकारमय है। आइये एक छोटा सा प्रयोग करते हैं। मैं आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ जिसका उत्तर हाँ या न, दोनों में से कुछ भी हो सकता है। लेकिन आपके बोलने से पहले ही आपका जवाब सही-सही बताया जा सकता है।
प्रश्न: क्या शिक्षा और आजीविका में जातिगत आरक्षण अच्छा है?
इस प्रश्न का उत्तर हाँ में देने वाले अधिकांश लोग ऐसे समुदाय से होते हैं जिन्हें आरक्षण का लाभ मिल रहा है या मिलना शीघ्र सम्भावित है। शेष सभी व्यक्ति इसका उत्तर न में ही देंगे। अपवाद भी हैं, लेकिन बहुत कम।
यदि आप सही निष्कर्ष पर पहुँचना चाहते हैं तो स्वार्थ और ममत्व से हटकर सोचिये। मैं और मेरा का भाव आपकी निर्णय क्षमता को प्रभावित करता है। मैं से बाहर निकलकर विराट को देखे बिना समाज पर आरक्षण के प्रभाव के बारे में सच कह पाना कठिन है।
पेड़ गिरा तो आवाज़ हुई, आप वहाँ होते या नहीं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। मेरा मैं हटाकर, तथ्यों, और विषयों को साक्षीभाव से देखने की आदत डालिये। गीता के उपदेश में एक प्रमुख बात अपने सम्बंधियों के प्रति अर्जुन के ममत्व को हटाकर निर्मम (मेरा के भाव से रहित) होकर सही और गलत को पहचानने की है।
अनंता वै वेदा
ज्ञान अनंत है आप सब कुछ नहीं जान सकते। विषय के विशेषज्ञों की, प्रयोगशाला की, या उचित उपकरणों की सहायता लेनी पड़ेगी। यह ध्यान रहे कि विशेषज्ञता वास्तविक हो। थोड़े अभ्यास से आप विशेषज्ञता और बतोलेबाज़ी का अंतर पहचान सकते हैं। कुछ नेताओं या व्यवसाइयों को ईमानदार बताने के पीछे उनके अकेले या अविवाहित होने का तर्क अक्सर दिया जाता है, आइये इसे दो-तीन कोणों से परखकर सत्य का पता लगायें।
- पहले, अपने आसपास के सभी अविवाहित नेताओं को देखिये-परखिये, क्या जयललिता, मायावती आदि जैसे अविवाहित नेता अपनी ईमानदारी के लिये प्रसिद्ध है?
- इसी प्रकार, अपने चारों ओर देखिये – क्या सभी अविवाहित व्यक्ति ईमानदार और विवाहित लोग भ्रष्ट है?
- क्या विवाह ऐसी प्रक्रिया है जो रातोंरात हर सत्यनिष्ठ को भ्रष्ट कर देती है?
- आपकी वंशरेखा में सैकड़ों पीढ़ियों पीछे तक आपके सभी पूर्वज विवाहित थे, क्या वे सब भ्रष्टाचारी थे?
अब तक स्पष्ट हो चुका होगा कि ईमानदारी का वैवाहिक स्थिति से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता। ऐसा सम्बन्ध जोड़ना न केवल हल्की बात है, बल्कि विवाहितों का अवाँछित अपमान भी है।
छिपे हुए को खोलिये
हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं। तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये॥
ईशोपनिषद, 15
कई बार बात बहुत स्पष्ट होती है परंतु हम उसे समझने की स्थिति में नहीं होते हैं। वर्तमान ज्ञान-विज्ञान या शिक्षा पद्धति को मानवता-विरोधी समझना, अंधविश्वासों को पारम्परिक ज्ञान मानना आदि जैसी अनेक बातें इसीलिये हैं कि हम ज्ञान को अनावृत करने की स्थिति में नहीं हैं। शिक्षा, देशाटन, सत्संगति, संयम, अभ्यास आदि से अज्ञान की ओट को हटाया जा सकता है। इस विषय पर बात करने के लिये मेरे पास अनेक उदाहरण हैं लेकिन लगभग सभी लम्बे और समय लेने वाले हैं। वैसे भी इस आलेख को पूरा पढ़ने और समझने से पहले उन पर चर्चा बोझिल होगी, सो उन्हें किसी अन्य समय के लिये स्थगित करते हैं।
स्पष्ट को मत नकारिये
कई बातें शीशे की तरह साफ़ होते हुए भी दृष्टि से ओझल हो जाती हैं क्योंकि हमारे सामने उनके बारे में 100 झूठ बोले गये होते हैं और हमें उनकी वास्तविकता से परिचय नहीं होता। मैंने कई लोगों को कहते सुना कि कश्मीरी पण्डितों के यहाँ श्राद्धभोज में माँस खिलाना अनिवार्यता है। ऐसी बात कहने वालों में कोई भी न पंडित था न कश्मीरी। कालांतर में जितने भी कश्मीरी पण्डितों से परिचय हुआ, उन सबने एकमत से यही बताया कि सात्विक भोजन की धारणा कश्मीरी पण्डितों में भी भारतीय परम्परा से कतई भी अलग नहीं है। बेशक, बहुत से कश्मीरी पंडित मांसाहारी हैं, परंतु उनके बारे में फैलाये गये श्राद्धभोज में माँस खिलाने की अनिवार्यता जैसे भ्रम निराधार हैं।
इसी प्रकार चीनी-जापानियों की अग्रेज़ी-वितृष्णा के बारे में इंटरनैट पर हिंदी में कितनी ही कहानियाँ घूमती रहती हैं – सब की सब असत्य। चीनियों को अमेरिका में निकट से, थोक में देखा है। वह राष्ट्र पश्चिम और पश्चिमी सभ्यता का दीवाना है और वे लोग पश्चिमी दिखने के लिये किसी भी हद तक जाते हैं। लगभग हर चीनी का एक अंग्रेज़ी नाम भी होता है। उदाहरणार्थ, अमेरिका में हमारे परिचित ली-पिंग, जैक के नाम से और फ़ेंग-ली, क्रिस्टीना के नाम से जानी जाती है। जापान तो मैं कई बार होकर आया हूँ। वे अंग्रेज़ी भाषा और संस्कृति के प्रति लालसा रखते हुए भी हमारे किसी देहाती क्षेत्र की तरह उचित संसाधनों के अभाव में स्वयं को उससे दूर पाते हैं। मतलब यह कि भारत की अपेक्षा वहाँ अंग्रेज़ी का हाल बुरा अवश्य है लेकिन उस स्थिति का कारण उनका अंग्रेज़ी-द्रोह नहीं है।
बात चल ही रही है तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु की कुमंत्रणा (Conspiracy Theory) के बारे में भी बात कर ही लें। भारत से लेकर जापान तक नेताजी के समूह के किसी भी व्यक्ति को 18 अगस्त को उनके देहावसान के बारे में कोई शंका नहीं है। तथ्यों की जाँच को भेजे गए सरकारी मिशन इसे असत्य साबित नहीं कर सके। उनके साथ रहे जापानी सैनिक हर वर्ष तोक्यो के रेनकोजी मंदिर में भीगी आँखों से उनकी पुण्यतिथि मनाने इकट्ठे होते हैं। जर्मनी निवासी उनकी अपनी बेटी अनिता फ़ैफ़ उनकी मृत्यु के बारे में निःशंक हैं। फिर भी यदि किसी को कोई शंका है तो रेनकोजी मंदिर में रखे उनके अवशेषों की डीएनए जाँच आसानी से कराई जा सकती है। मैंने एक अमेरिकी फ़ॉरेंसिक विशेषज्ञ से जब इस विषय पर चर्चा की तो उसका कहना था कि जाँच से सच सामने आ जायेगा लेकिन स्पष्ट तथ्यों को अब न मानने वाले असंतोषी शायद तब भी नहीं मानेंगे? वे यही कहेंगे कि जाँच की रिपोर्ट बदल दी गई है, या फिर डीएनए के नमूने ही बदल दिये गये हैं, आदि।
कुल मिलाकर मेरा अनुरोध यही है कि अपनी सही-गलत धारणा को सत्य पर थोपने से बचिये। स्पष्ट को मत नकारिये, सत्य निष्कर्ष निकालकर, अद्भुत निष्कर्ष से बचिये। मूल्यवान शंका और कुमंत्रणा (Conspiracy Theory) के बीच के अंतर को पहचानना भी महत्वपूर्ण है।
प्रतिपक्ष भी देखिये
हर बात का एक प्रतिपक्ष भी हो सकता है। चीन गए एक भारतीय वहाँ की व्यवस्था से बहुत प्रभावित हुए, चौड़ी सड़कें, नियमपालक चालक, साफ़ सुथरे वाहन आदि। चालक के अंग्रेज़ी न जानने से उन्हें बड़ी असुविधा हुई। चीन यात्रा का उनका निष्कर्ष था, यदि चीनी अंग्रेज़ी सीख लेते तो वे भारत को हर क्षेत्र में पछाड़ चुके होते। इस दृष्टांत का प्रतिपक्ष यह है कि यदि भारतीय अनुशासित और व्यवस्थित हो जाते तो चीन क्या चीज़ है भारतीयों के मुकाबले में संसार का कोई राष्ट्र नहीं टिकता।
जोशांदा बनाम होशांदा
भावुकता आपकी निर्णय क्षमता को प्रभावित कर सकती है। भावनात्मक परिपक्वता (emotional intelligence) सही निष्कर्ष निकालने में सहायक होती है। यदि कोई विषय या व्यक्ति आपकी भावनाएँ आहत करता है तो उससे सम्बंधित आपके निष्कर्ष पक्षपाती हो सकते हैं। जोश त्यागकर होश अपनाना सही निष्कर्ष क्षमता की ओर एक और कदम बढ़ाने जैसा है। शांतचित्त होकर समस्या के सभी पक्षों पर निरपेक्षता से विचार कीजिये और सही हल को लक्ष्य कीजिये।
अतिवाद बनाम संतुलन
किसी भी विषय का अतिवाद बुरा होता है। संतुलन सत्य के निकट होने की सम्भावना अधिक होती है। सामान्यीकरण भी अतिवाद जितना ही बुरा है। यदि आप कहते हैं कि हिंदी संसार की सर्वश्रेष्ठ भाषा है तो यह अतिवाद है लेकिन अगर आप यह कहते हैं कि अंग्रेज़ी वर्तने वाले सब देशद्रोही हैं तो यह सामान्यीकरण भी है।
अतिवाद और सामान्यीकरण, ये दोनों ही हमारी न्याय-क्षमता को प्रभावित करते हैं। सामान्यीकरण के पीछे आपके अनुभव आदि जैसे कई वाजिब कारण हो भी सकते हैं, लेकिन फिर भी सत्य देखने के लिये उससे ऊपर उठना ही पड़ेगा। जब मेरी पहली नौकरी लगी तो नियुक्तिपत्र में कार्यालय खुलने के समय से पहले पहुँचने को कहा गया था। पत्रलेखक ने यह नहीं लिखा कि कार्यालय खुलता कितने बजे है और खुलने के समय से कितना पहले तक पहुँचना स्वीकार्य है। दिल्ली की पश्चिमी सीमा से कई बसें बदलते हुए जब सुबह लगभग 9 बजे मैं नोएडा के घटनास्थल पर पहुँचा तो पाया कि कार्यालय के बाहर कामकाज के समय सम्बंधी सूचनापट्ट भी नहीं लगा था। इमारत के बाहर बैठे सिक्योरिटी गार्ड से विनम्रता से कार्यालय खुलने का समय पूछा, तो पहले तो उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देखकर शायद हैसियत मापी, फिर ठेठ दादरी अंदाज़ में चिल्लाया, “इंडिया में कोई बैंक 10 बजे से पहले नहीं खुलता।” तथ्य है कि 5 किलोमीटर आगे दिल्ली के कितने ही बैंक तब साढ़े आठ बजे खुलते थे। गार्ड का यह भ्रम कि वह सारे देश के बैंकों के खुलने का समय जानता है, सामान्यीकरण का एक सामान्य उदाहरण है। अशिक्षित समाज में सामान्यीकरण आसानी से पैठ बना लेता है। कई धारणायें सामान्यीकरण न होकर सत्य भी होती हैं, इसलिये सामान्यीकरण और सत्य निष्कर्ष का अंतर समझना अच्छी बात है। जापानी नागरिक सामान्यतः विनम्र होते हैं, यह कथन सामान्यीकरण जैसा लगते हुए भी सत्य है। इसी प्रकार भारत में किसी अन्य देश से अधिक बारूदी विस्फोट होते हैं, अमेरिका में राइफ़ल खरीदना सुलभ है, आदि कथन सत्य हैं, सामान्यीकरण नहीं।
सत्य में लय है, स्थायित्व है
सत्य विविध है, विराट है, इसमें स्थायित्व होता है। झूठ को जमाने के लिये बलप्रयोग अवश्यम्भावी है जबकि सत्य ऋतुओं की तरह प्राकृतिक रूप से फिर-फिर नैसर्गिक रूप से वापस आता है। संस्कृत में एक शब्द है ऋतम्। सत्यमेव जयते नानृतम् में उसी ऋत के पुनरागमन की बात है, वही चिरसत्य है। परस्पर विरोधी विचारधाराओं की तुलना करते समय ऋतम् की धारणा हमारी सहायता कर सकती है। उदाहरण के लिये जब तक अंतिम मानव जीवित है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का महत्व बना रहेगा। भारत में लोकतंत्र भले ही देर में आया हो परंतु भारतीय साहित्य और इतिहास में वंशानुगत राजा से इतर गणराज्य भी रहे हैं और पंचायतें भी। लोकतंत्र के आम बनने से पहले राजशाही भी शताब्दियों तक टिकी है। इन दोनों के बीच समय-समय पर विभिन्न प्रकार की तानाशाहियाँ भी आती रही हैं – सैनिक, मज़हबी, व्यक्ति-प्रधान और कम्युनिस्ट तानाशाहियाँ। लेकिन तानाशाही सदा अल्पायु ही रही। तानाशाहियों में अब तक का सबसे संगठित, संस्थागत और क्रूर रूप साम्यवादी तानाशाहियों का रहा है। लेकिन वे भी रहीं अल्पायु ही – जिस दिन सत्ता का बारूद खत्म हुआ उसी दिन जनता ने तानाशाहों पुतले उखाड़ दिये। पहले हज़ारों साल की राजशाही और फिर शताब्दियों लम्बे लोकतंत्रों की तुलना में सम्पूर्ण कम्युनिस्ट ब्लॉक देशों में लाखों नरहत्याएँ करने के बावजूद किसी कम्युनिस्ट सरकार के एक शताब्दी टिकने का उदाहरण भी नहीं मिलता। क्योंकि मानवता को रोबोट नहीं बनाया जा सकता। तानाशाही को इंसानी आवश्यकता, या लोकतंत्र से अच्छा बताना एक खतरनाक और प्रायोजित अद्भुत निष्कर्ष है।
सदाशयता
असत्य निष्कर्ष के पीछे कई बार बदनीयती भी होती है। स्त्रीलिंग, नपुंसकलिंग जैसे शब्दों के सामान्य प्रयोग के बाद भी शिवलिंग के अर्थ को सीमित करने या अश्लील बताने के कुतर्क हों या शराब को सोमरस बताना, या अहिंसा परमो धर्मः के आगे के वाक्यांश हटाकर उसमें ‘धर्महिंसा तथैव च’ जैसे मनोगतवाद को लपेट देना, ये सब बदनीयती के उदाहरण हैं। इस बदनीयती को पहचानने से भी कथन की पृष्ठभूमि और सत्यता जाँचने में सरलता होती है।
यदि आपको शास्त्र के किसी वाक्य से असहमति है तो अपनी असहमति व्यक्त कीजिये, लेकिन अपनी असहमति के कारण आप शास्त्र को भ्रष्ट न ही करें तो अच्छा हो। अपने को हिंदुओं से एकदम भिन्न बताने में प्रयासरत कुछ तथाकथित सिख संगठनों द्वारा दशम ग्रंथ के विरुद्ध दुष्प्रचार भी इसी श्रेणी में आयेगा।
अंतर्जाल (इंटरनैट) पर बहु-प्रसारित झूठों में से हिटलर के शाकाहारी होने का प्रचार भी एक है जिसका आरम्भ अमेरिका के एक मांस व्यवसायी द्वारा दिये गये विज्ञापन से हुआ था जिसे कुछ भोले अल्पज्ञ सत्य मानकर फैलाने लगे। लेओनार्डो दा विंची, पाइथागोरस, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ आदि जैसे कई प्रसिद्ध यूरोपीय शाकाहारी रहे हैं लेकिन हिटलर कभी भी शाकाहारी नहीं था।
हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती
कुछ लक्षणों के साम्य भर से दो विपरीत बातें समान नहीं हो जाती हैं। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में उत्तर दक्षिण का अंतर होता है। नाम में ‘ध्रुव’ समान होते हुए भी वे विपरीतार्थी हैं।
स्वस्तिक या आर्य शब्द के प्रयोग से हिटलर हिंदू या हिंदुस्तानी नहीं हो जाता है। सच यह है कि वह नृशंस तानाशाह मानवता के प्रति किये स्पष्ट अपराधों के साथ-साथ हमारे सांस्कृतिक प्रतीकों की चोरी और उनके अपमान का अपराधी भी है। अगर आपको जर्मन नहीं आती तो लुफ़्तहाँसा में लुप्त हंस मत खोजिये, क्योंकि फिर यदि लुफ़्तवाफ़: सामने आया तो खंदक में छिपना पड़ेगा।
अद्भुत निष्कर्ष- कुछ त्वरित सूत्र
जब आपके सामने कोई जटिल समस्या रखी जाती है तो उसके सरलीकरण का प्रयास कीजिये। उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़कर देखिये।
यदि आप विषय से अपरिचित हैं तो सटीक संदर्भों की सलाह के साथ-साथ, यदि सम्भव हो तो निर्लिप्त, निष्पक्ष, विश्वस्त, बुद्धिमान विशेषज्ञ से सलाह लीजिये। बीमारी के बारे में चिकित्सक बता सकते हैं, जबकि पुल निर्माण की बात अभियंता या वास्तुविद्। याद रहे कि अमीरात के कुछ मलयाली परिवार देखने भर से कोई व्यक्ति केरल-विशेषज्ञ नहीं हो जाता और न ही जर्मनी में रहने से कोई ऑटो-वाहनों का। न हर भारतीय सन्न्यासी होता है न हर जापानी सूमो।
कई बार समस्या का विस्तार करने से एक नई दृष्टि मिलती है। देखिये कि वह किस दिशा में जाती है। उदाहरण के लिये, राजनीति से भ्रष्टाचार हटाने के लिये एक साहित्यकार ने विचार दिया कि भारत में भी अमेरिका की तरह दो दल की व्यवस्था होनी चाहिये। उससे क्या होगा पूछने पर उन्होंने कहा कि मायावती, लालू प्रसाद, जयललिता, शशिकला, करुणानिधि आदि जैसे जिन नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं, वे अपने-अपने बीसियों दल नहीं बना सकेंगे। मैंने कहा कि यदि आपके सुझाये दो दलों में से एक के नेता लालू और दूसरे की नेता शशिकला हों, तब? उन्हें अपना उत्तर मिल गया था। भ्रष्टाचार मिटाने के लिये भ्रष्टाचार पर ही प्रहार करना पड़ेगा, लोकतंत्र पर नहीं। लेकिन बात इतने पर खत्म नहीं होती। दो दलों की बात अगर दो कदम आगे बढ़कर एक ही दल की रह जाये तो? तो वह लोकतंत्र की पूर्ण समाप्ति और सैनिक, मज़हबी या कम्युनिस्ट तानाशाही का आरम्भ होगा। इसलिये ऐसे सुझावों से सचेत रहिये जिनका अगला कदम आपके अधिकार चुराने की दिशा में जा रहा हो। कामरेड अक्सर इस प्रकार के सुझावों के रूप में चाशनी में लिपटा हुआ ज़हर बिखेरते दिखते हैं। सचेत रहिये क्योंकि अक्सर लोग अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता मक्कारी से छिपाये रहते हैं। लोकतंत्र में हज़ार कमियाँ सही, उसका इलाज कम्युनिस्ट या सैनिक तानाशाही में नहीं हो सकता। मानवता कभी भी अर्जित स्वतंत्रता को खोकर प्रकाश से अंधकार की ओर नहीं जाना चाहती है। अक्षम लोकतंत्र का एक ही विकल्प हो सकता है, वह है सक्षम लोकतंत्र।
ठगे जाने से बचिये। किसी से भी आसानी से प्रभावित होने की आदत त्याग दीजिये क्योंकि इससे भी आपकी निर्णय क्षमता तो प्रभावित होती ही है, आपके द्वारा जोश में झाड़ पर चढ़ाये गये गलत व्यक्तियों के कारण वास्तविक प्रतिभा पीछे छूटती है। जब तक आप अपनी गलती समझेंगे, तब तक समाज को बड़ी हानि हो चुकी होगी। स्वतंत्र निर्णय लीजिये लेकिन अज्ञान से बचते हुए विषय के निरपेक्ष विशेषज्ञों की बात अवश्य सुनिये।
समस्या के क्षेत्र का विस्तार करके देखिये। प्रस्तुत हल निहित स्वार्थ का हितैषी न होकर बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की ओर बढ़ना चाहिये। अल्पावधि लाभ के लिये या कभी-कभी आसन्न संकट की स्थिति में हम किसी निष्कर्ष या निर्णय के दूरगामी परिणाम देखने से वंचित रह जाते हैं। ऐसे में निर्णय की प्रभाव क्षमता और मानवता पर उसके परिणाम की समझ हमारी सहायता कर सकती है।
~तमसो मा ज्योतिर्गमय~
उत्तम लेख। हिंदी मे ऐसे अच्छे, सामयिक विषय पर और इतनी गुणवत्ता वाला लेख पहली बार पढ़ा है।
करारी और जहर बुझे तीर से बिलकुल लक्ष्य ओर चोट । पहली लाइन से आखिरी तक, साधा हुआ निशाना, बिलकुल भी नहीं भटका । साधुवाद !
अवश्य पठनीय अौर सारगर्भित लेख। अद्भुत निष्कर्ष निकालने व फैलाने मे होड लगी है।कभी परंपरा अौर वेदों के नाम पर तो कभी किसी नासा या अमेरिकी युनिवर्सीटी मे किए शोध के नाम पर ज्ञान फैलानेवालों की कमी नही है।निरीक्षण अौर ज्ञान के अाधार पर निष्कर्ष निकालने की बजाय निष्कर्ष पहले मानकर उसको सत्यापित करना चलन हो गया है।इस लेख के लिए धन्यवाद।
बहुत सुंदर और नयी दिशा प्रदान करने वाला लेख