‘अनन्ता वै वेदाः’, वेदों में ४ प्रकार के अनन्तों की चर्चा है :
(१) वेदों के ३ अनन्त
भरद्वाजो ह वै त्रिभिरायुर्भिर्ब्रह्मचर्य्यमुवास । तं ह जीर्णि स्थविरं शयानं इन्द्र उपब्रज्य उवाच । भरद्वाज ! यत्ते चतुर्थमायुर्दद्यां, किमेनेन कुर्य्या इति ? ब्रह्मचर्य्यमेवैनेन चरेयमिति होवाच । तं ह त्रीन् गिरिरूपानविज्ञातानिव दर्शयाञ्चकार । तेषां हैकैकस्मान्मुष्टिमाददे । स होवाच, भरद्वाजेत्यमन्त्र्य । वेदा वा एते । “अनन्ता वै वेदाः” । एतद्वा एतैस्त्रिभिरायुर्भिरन्ववोचथाः । अथ त इतरदनूक्तमेव ।
(तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/१०/११)
यहां वेद और अनन्त दोनों बहुवचन हैं अतः २ से अधिक हैं। अनन्त की परिभाषा आधुनिक बीजगणित और कैलकुलस (कलन) में है कि यह किसी भी बड़ी संख्या से बड़ा है। किसी संख्या से उसी को घटाने से शून्य होता है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म वह है जो किसी भी छोटी संख्या से छोटा हो, अनन्त का अन्य आयाम। कैलकुलस की दोनों परिभाषायें उपनिषद् में हैं-
अणोरणीयान् महतो महीयान्, आत्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्। तमक्रतुः पश्यति वीतशोको, धातुप्रसादान् महिमानमात्मनः॥
(कठोपनिषद् १/२/२०, श्वेताश्वतर उपनिषद् ३/२०)
कैण्टर की सेट थिओरी (१८८०) में अनन्तों की २ श्रेणियों की व्याख्या है–एक वह जो गिना जा सके। १,२,३,….. आदि संख्याओं का क्रम भी अनन्त है। इन संख्याओं से सभी वस्तुओं को एक एक कर मिलाया जा सके तो यह प्रथम प्रकार का अनन्त है। भिन्न संख्यायें भी इससे एक विधि द्वारा गिनी जा सकती हैं। पर कुछ संख्यायें ऐसी हैं जो इससे नहीं गिनी जा सकती हैं, जैसे ० और १ के बीच की सभी संख्या या किसी रेखा खण्ड के बिन्दुओं की संख्या। यह बड़ा अनन्त है जिसको २ के अनन्त घात से सूचित किया जाता है। एक अन्य अनन्त भी हो सकता है, जो २ के दूसरे अनन्त घात के बराबर होगा। ऋग्वेद मूर्त्ति रूप है, वह गिना जा सकता है – प्रथम प्रकार का अनन्त जो १,२,३, …. क्रम के बराबर है। यजुर्वेद का क्रिया या गति रूप अनन्त वही है जो बिन्दु की गति से बने रेखा में होगा, यह दूसरा अनन्त है। साम उसकी महिमा तीसरा अनन्त है।
ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्। सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥
(तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/१२/८/१)
दूसरा अनन्त भी २ प्रकार का है, जो गणित सूत्रों द्वारा व्यक्त हो सके वह परिमेय या प्रमेय, जो उससे व्यक्त नहीं हो सके वह अप्रमेय है । विष्णु सहस्रनाम में अनन्त के लिये ३ शब्द हैं– अनन्त, असंख्येय, अप्रमेय। इसके अनुसार प्रथम संख्येय अनन्त है। असंख्येय अनन्त २ प्रकार का है, प्रमेय और अप्रमेय। उसके बाद परात्पर अनन्त ब्रह्मरूप अथर्व वेद है।
स ब्रह्मविद्या सर्वविद्या प्रतिष्ठा ज्येष्ठाय पुत्राय अथर्वाय प्राह
(मुण्डकोपनिषद् १/१/१)
जैन गणितज्ञ वीरसेन (सम्भवतः हर्ष विक्रम ४५६ ई.पू.के समकालीन) की वीरधवला में इन ३ अनन्तों के मिलन से ९ अनन्तों की चर्चा है।
(२) वर्ण और अक्षर रूप अनन्त गिना जा सकता है, जो गणेश है। उसका अर्थ द्वितीय प्रकार का अनन्त है। उसकी महिमा या भाव तृतीय अनन्त है , जो भाव या रसरूप होने से रसवती = सरस्वती है। वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि। मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणी विनायकौ॥ (रामचरितमानस, मंगलाचरण) वाक् के ४ पदों में अन्तिम वैखरी प्रथम, मध्यमा द्वितीय, तथा पश्यन्ती तृतीय अनन्त है। परा वाणी इससे भी परे है। जो पश्यन्ती और मध्यमा के अर्थ को ठीक ज्यों का त्यों प्रकट कर सकता है, उसी की रचना शाश्वत होती है- स पर्यगात् शुक्रं, अकायं अव्रणं, अस्नाविरं शुद्धं, अपापविद्धं कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः याथा-तथ्यतो अर्थान् व्यदधात्, शाश्वतीभ्यः समाभ्यः (ईशावास्योपनिषद्, ८)। यही रामायण में है- मा निषाद प्रतिष्ठां त्वां अगमः शाश्वती समाः। यत् क्रौञ्चमिथुनाद् एकं अवधीः काम-मोहितम्। वायु-पुराण में रावण को काम-मोहित क्रौञ्च कहा है, उस मिथुन का दूसरा मन्दोदरी काम-मोहित नहीं थी। मा= लक्ष्मी का निषाद = निवास श्रीराम हैं। उनकी प्रतिष्ठा से साहित्य शाश्वत होता है। या उपनिषद् अनुसार मा (मस्तिष्क गुहा) की वाणी को व्यक्त रूप में प्रतिष्ठा करने से शाश्वत होगा। वाक्य के वर्ण विपर्यय से काव्य है, वाक्य तात्कालिक घटना, काव्य शाश्वत है।
(३) सृष्टि के अनन्त
(क) सृष्टि के मूल पुरुष का एक ही भाग विश्व बनाने में प्रयुक्त हुआ, बाकी ३ भाग का प्रयोग नहीं हुआ, अतः वह ज्यायान् (भोजपुरी में जियान = बेकार, अनुपयुक्त) है। ३ भाग जो बच गये, वे शेष (अनन्त) हैं। १ पाद का व्यक्त जगत् पुरुष है, ४ पाद मिलकर पूरुष हैं। या विराट् विश्व (व्यक्त रचनायें) पुरुष, उनका अधिष्ठान या महिमा पूरुष है। ये अप्रमेय और परात्पर अनन्त हैं। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि। एतावान् अस्य महिमा अतो ज्यायांश्च पूरुषः (पुरुष सूक्त ३,४)
(ख) स्वयम्भू मण्डल असंख्येय अनन्त है, ब्रह्माण्डों का समूह संख्येय है। ब्रह्माण्ड का केन्द्र ब्लैक होल = कृष्ण है, इसी के आकर्षण से रज = लोक (ब्रह्माण्ड = जनः लोक) बने हुये हैं-आकृष्णेन रजसा वर्तमानो, निवेशयन् अमृतं मर्त्यं च (ऋग्वेद १/३५/२, वाज यजु ३३/४३, तैत्तिरीय सं. (३/४/११/२) इमे वै लोका रजांसि। (यजुर्वेद ११/६, शतपथ ब्राह्मण ६/३/१/१८) ब्रह्माण्ड केन्द्र से आकर्षित रचना अमृत (विष्णु पुराण २/७ में अकृतक) और सूर्य आकर्षण का क्षेत्र अकृतक या मर्त्य है। बीच में सूर्य है, ब्रह्माण्ड के लिये कण, तथा सौरमण्डल का वामन।
(ग) ब्रह्माण्ड के केन्द्र से निकली सर्पिल भुजा वेद का अहिर्बुध्न्य (इसका समुद्र या विरल पदार्थ बुध्न्य, उसका सर्प अहिः है)। इसमें जहां सूर्य है उस क्षेत्र की मोटाई के बराबर व्यास का गोला महर्लोक है जिसके १००० तारा शेष के १००० सिर हैं, जिनमें १ सिर सूर्य पर कण मात्र पृथ्वी है। यह शेष अनन्त है, जिसका केन्द्र मूल नक्षत्र में हमसे ३०,००० प्रकाश वर्ष दूर है–
अस्य मूलदेशे त्रिंशद्योजन (यहां योजन = प्रकाश वर्ष) सहस्रान्तर आस्ते या वै कला भगवतस्तामसी समाख्यातानन्त इति सात्वतीया द्रष्टृर्दृश्ययोः सङ्कर्षणंं (भागवत पुराण, ५/२५/१)
(घ) पृथ्वी का मानचित्र उत्तरी गोलार्ध में ४ भागों में बनता था जिनको भू–पद्म का ४ पटल कहा है– भारत, पूर्व में भद्राश्व, पश्चिम में केतुमाल तथा विपरीत दिशा में उत्तर कुरु। दक्षिण में भी ४ पटल होंगे। गोल पृथ्वी का समतल मानचित्र बनाने पर ध्रुव की दिशा में मानचित्र का आकार बढ़ता जाता है, जैसे ग्रीनलैण्ड भारत से छोटा है परन्तु १५ गुणा बड़ा दिखता है। उत्तरी ध्रुव जल भाग है (आर्यभट) अतः वहां कोई समस्या नहीं है। पर दक्षिणी ध्रुव पर स्थल है जिसका मानचित्र इस विधि से नहीं बन सकता, वह अनन्त आकार का हो जायेगा, अलग से मानचित्र बनाना पड़ेगा। अतः इसे अनन्त (अण्टार्कटिका) कहते हैं।
सम्पादकीय टिप्पणी :
यह लेख बीज श्रेणी का है जिसमें अनन्त सम्भावनाओं के मूर्तन पर विचार किया गया है।
(चित्र आभार : pixabay.com)