हम जानते हैं कि पृथ्वी की मूल रूप से दो गतियाँ होती हैं, अपने अक्ष पर घूर्णन की और सूर्य की परिक्रमा की, परंतु हम पृथ्वी की दो और गतियों पर लगातार निर्भर हैं, उनमें से एक है – अक्ष पर घूर्णन करते समय साढ़े तेईस अंश के झुकाव के कारण ऊर्ध्व अक्ष की वृत्तीय गति जैसे कि कोई लट्टू तिरछा हो एक स्थान पर घूमे तो उसका शीर्ष बिन्दु वृत्ताकार पथ में घूमता है। पृथ्वी की चौथी गति उस चलायमान सूर्य के साथ है जो पूरे ग्रह परिवार के साथ आकाशगङ्गा के केन्द्र की परिक्रमा में है, जो पृथ्वी के सूर्य के चारों ओर के चक्र को महज दीर्धवृत्त न रहने देकर सर्पिलाकार पथ बना देती है। यानि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूम रही है, पृथ्वी झुकी हुई घूम रही है, पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूम रही है और सूर्य के साथ आकाशगंगा के भी चक्कर लगा रही है। इन चारों गतियों की गणना एक साथ होने पर ही हम काल की सटीक गणना कर सकते हैं।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की जो भी व्याख्या हो, लेकिन इतना तय है कि ब्रह्माण्ड स्थिर नहीं है, उसकी मूल प्रकृति फैलाव की है। ऐसे में हम देखते हैं कि एक खगोलीय घटना जो आज घट चुकी है, एक जीवनकाल या एक सदी में दुबारा उसके घटने की कोई स्थिति नहीं बनती, फिर भी हम कुछ निकट के खगोलीय पिंडों के एक निश्चित क्रम में दुहराव या आवृत्ति को लेकर काल का निर्धारण करते हैं, चाहे वह चंद्रमा द्वारा पृथ्वी की परिक्रमा हो या पृथ्वी द्वारा सूर्य की अथवा सूर्य की निकटस्थ तारों के बीच गति हो।
चंद्रमा जब पृथ्वी के चारों ओर एक चक्कर पूरा करता है तो वह अपना चक्र 27 दिन में पूर्ण करता है। पृथ्वी पर खड़ा प्रेक्षक जब आकाश की ओर देखता है तो उसे सूर्य और चंद्रमा एक निश्चित क्रम में पृथ्वी की परिक्रमा करते या चक्कर लगाते हुए दिखते हैं। प्रेक्षक तय करता है कि सूर्य और चंद्रमा का एक निश्चित कोण चंद्रमा की एक कला बनाता है, जो दृश्यमान है। ऐसे में पूर्ण चंद्रमा दिखाई देने पर उसे पूर्णिमा की संज्ञा दी गई, इसके बाद जैसे जैसे चंद्रमा आगे बढ़ता गया, हमें प्रतिपदा से लेकर चतुर्दशी तक तिथियाँ मिलती गई, अंतिम पंद्रहवें दिन अमावस्या आई यानी चंद्रमा पूरा दिखाई देना बंद हो गया तो पूर्णिमा से अमावस्या तक एक पक्ष या पाख या पखवाड़ा बना और पुन: अमावस्या से पूर्णिमा तक दूसरा पखवाड़ा बना, इस प्रकार तीस दिन की एक अवधि मिल गई जिसे मास या महीना कहा गया। दक्षिण भारत में जहां अमांत अर्थात अमावस्या से अंत होने वाले मास होते हैं, वहीं उत्तर भारत में पूर्णिमांत। गणना का वही चंद्रमा और सूर्य का कोणीय संबंध रहता है। एक पूर्ण गति के 360 अंश को 30 भागों में बाँट कर देखें तो जिस अवधि में चन्द्रमा और सूर्य के बीच का कोणीय अंतर 12 अंश होता है, वह तिथि कहलाती है। चूँकि हमने निकट के इन आकाशीय पिण्डों को लेकर दृश्यमान घटनाओं पर आधारित गणना की है, सो हमें कभी तिथि का क्षय भी मिलता है तो कभी वृद्धि भी।
वर्ष भर सूर्य अपने परिवार के साथ जिस पथ पर आकाश में गतिमान प्रतीत होता है, उसे क्रांतिवृत्त कहते हैं। सौर पञ्चाङ्ग में वर्ष की माप क्रांतिवृत्त में सूर्य के दुबारा किसी संदर्भ बिंदु पर लौटने में लिये गये समय से की जाती है। क्रांतिवृत्त पर इस बिंदु को स्थिर मानते हुए खगोलीय पिंडों के निर्देशांक मापे जाते हैं। इसे सायण पद्धति कहा जाता है। इसमें क्रांतिवृत्त को स्थिर मान लिया गया है। संभवत: ईस्वी सन् 285 में वसंत विषुव को चित्रा के 180 अंश रेखांश पर स्थिर मानकर उसे सायण गति का सन्दर्भ बिन्दु स्थिर कर दिया गया।
परन्तु जैसा कि हम जानते हैं कि पृथ्वी की अपने अक्ष पर झुके हुए जो गति होती है, उसके कारण अयन या कहें चलन स्थिर नहीं रहता। ऐसे में वसंत विषुव भी 50.27 सेकण्ड प्रतिवर्ष की दर से पश्चिम की ओर खिसक रहा है। यदि हम सन्दर्भ बिन्दु को वसंत विषुव के स्थान पर किसी स्थिर तारे से जोड़ दें तो अयन से निरपेक्ष प्रेक्षण निरयन की श्रेणी में आयेगा। (तारे भी गतिमान हैं किंतु दूरी और गति के मान अत्यधिक होने के कारण हमें धरती से स्थिर प्रतीत होते हैं। इसी कारण कुछ अपरिवर्तनीय विशिष्ट तारक समूह जैसे सप्तर्षि, वृश्चिक आदि आकाश में दिखते हैं।) ईस्वी सन् 285 के आस पास सायन और निरयण बिन्दु सम्पाती थे। आज जनवरी 2017 में इन दोनों में 24 अंश 5 मिनट और 35 सेकण्ड का अंतर है।
पुन: स्पष्ट कर दें कि विषुव को स्थिर करने के बाद क्रांतिवृत्त के खगोलीय पिंडों की स्थिति, जो गणना के आधार पर स्थिर की गई है, सायण है और निरयण का अर्थ यह कि वास्तव में हम आज सिर ऊपर उठाकर आकाश में देखें तो खगोलीय पिंडों की वास्तविक स्थिति। सायण हमारी गणनाओं को स्थिर करता है और निरयण वास्तविक स्थिति के निकट लेकर जाता है।
मानसून पर आधारित कृषि प्रधान भारत अपनी गणनाओं में जलवायु को कैसे उपेक्षित कर सकता है? प्रेक्षण से स्पष्ट होता है कि उत्पादन से जुड़ी विभिन्न गतिविधियों के कालखण्ड वर्ष के निश्चित महीनों में ही पड़ते हैं। कृषि उपज, उससे होने वाली समृद्धि और उससे जुड़े पर्व त्यौहारों ने अयनगति को महत्त्वपूर्ण किया ही, खगोलीय घटनायें केवल गणित की अटखेलियों तक सीमित न होकर धर्म और लोक में श्रद्धास्पद हो गयीं। ऐसी ही महत्वपूर्ण घटना है सूर्य का दक्षिण की ओर अधिकतम झुकाव से से पुन: उत्तर की ओर लौटना जिसकी तुलना दोलन गति से कर सकते हैं। यह समय कठिन शीत से छुटकारे का होता है और आगामी अच्छे उत्पादक समय का संकेतक भी।
भारत में अति प्राचीन काल काल से ही वर्ष को दो भागों में बाँटा गया है। वर्ष के वसंत, ग्रीष्म और वर्षा ऋतुओं के रूप में सूर्य उत्तर में रहता है और शरद, हेमंत और शिशिर में दक्षिण में। महाभारत काल तक भी अयनण्डल को बारह भागों में बाँटा तो गया था लेकिन तब राशियों का उद्भव नहीं हुआ था। बारह भागों में ही बाँटने का सम्बन्ध इस तथ्य से था कि वर्ष के लगभग 365 दिन और चन्द्रकलाओं के पूर्ण होने की लगभग 30 दिनों की आवृत्ति को साथ ले कर चलने में 365/30 ~ 12 संख्या प्रेक्षण, गणना और संशोधन में भी बहुत ही सहायक होती।
सूर्य की गति का प्रेक्षण अयनमण्डल पर स्थित 28 (बाद में 27) नक्षत्रों के सापेक्ष होता था। नक्षत्रों को पहले बताये गये स्थिर एकल तारक या तारासमूहों से समझा जा सकता है जिनकी पहचान सरल थी। कालांतर में राशियों का उद्भव होने पर चंद्रमा और सूर्य की 27 नक्षत्रों में बँटी गति को बारह भागों में बाँट दिया गया और प्रत्येक राशि को सवा दो नक्षत्र दे दिये गये। 12 की संख्या 27 से कम होने के कारण सन्दर्भ सरल हो गये। अधिक सूक्ष्म प्रेक्षण और गणना के लिये 27 नक्षत्रों का सन्दर्भ लिया जाता। तारकसमूह राशियों को आकाश में उनकी प्रतीत होने वाली आकृति के आधार पर नाम दे दिये गये। उदाहरण के लिये वृश्चिक राशि में बिच्छू की पूँछ डंक का आकार स्पष्ट दिखता है। एक ‘तुला’ को छोड़ सभी नाम जीवधारियों के हैं। ये नाम हैं – मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन। बारह भागों को भी किसी निश्चित भाग में दिखने वाली राशि का ही नाम दे दिया गया। सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश संक्रांति कहलाया।
ऊपर हमने दोलक की गति से सूर्य की अयन गतियों की तुलना की है। पृथ्वी के धरातल पर उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव से सम दूरी पर रहने वाले बिन्दुओं को जोड़ती आभासी रेखा विषुवत वृत्त कहलाती है। गतिमान पृथ्वी की इस रेखा का तल जब सूर्य के केन्द्र से गुजरता है तो विषुव की स्थिति बनती है। ऐसा वर्ष में दो बार होता है जब कि सूर्य ठीक पूरब में उगता है और ठीक पश्चिम में अस्तगामी होता है। उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध सम-प्रकाशित होते हैं। इन दो बिन्दुओं के लम्बवत वे दो बिन्दु होते हैं जब सूर्य उत्तरी या दक्षिणी झुकाव के महत्तम पर होता है। उत्तर गोलार्द्ध में सूर्य के दक्षिणी झुकाव की स्थिति में दिन छोटे होते जाते हैं।
खगोल के रूप में देखा जाए तो विषुव वे अवसर हैं जब सूर्य मेष और तुला संक्रांतियों से गुजरता है। इसी प्रकार कर्क संक्रांति वह काल है जब सूर्य उत्तर का पथ छोड़कर दक्षिण की ओर गति करता है और मकर संक्रांति वह दौर है जब लंबी सर्दियों का दौर समाप्त होकर सूर्य पुन: उत्तर की ओर जीवनदायी शक्तियों को लेकर आता है। धनु राशि में ‘पीड़ा भोग रहे’ सूर्य के मकर में प्रवेश के साथ ही भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक संक्रांति उत्सव मनाया जाने लगता है। मकर संक्रांति पर उत्तर भारत में लोहड़ी और दक्षिण भारत में पोंगल मनाया जाता है।
चूँकि संसार में हर जगह ग्रेगोरियन (लोकवाणी में अंग्रेजी) कैलेण्डर का ही उपयोग अधिक होने लगा है, हम मकर संक्रांति को भी अंग्रेजी तारीख से देखते हैं। भारत में पञ्जाबी कैलेण्डर भी अंग्रेजी सरीखा ही है। अंग्रेजी दिनांक जहाँ मात्र वर्ष के दिन गिनने का काम करते हैं, वहीं भारतीय पञ्चाङ्ग खगोलीय पिण्डों की गति के परिवर्तन को मौसम में हो रहे परिवर्तन के साथ लेकर चलते हैं। इन दिनों आप देख रहे होंगे कि शीत का प्रकोप जो पहले नववर्ष की पूर्वसंध्या पर सर्वाधिक होता था, वह अब धीरे धीरे नए साल के प्रारम्भिक दिनों की ओर खिसक रहा है। कमोबेश यही परिवर्तन हमारे लोहड़ी त्योहार में भी आ रहा है।
ग्रेगोरियन कैलेण्डर रात बारह बजे से अगले दिन की रात बारह बजे तक दिन गिनता है, ऐसे में हमारी भी मजबूरी है कि हम दिन का चयन ग्रेगोरियन के हिसाब से करें। आखिर यह द्वंद्व त्योहार मनाने में नजर आने लगा है। पंजाबी लोग लोहड़ी उत्सव अब भी 13 जनवरी को ही मनायेंगे, जबकि मकर संक्रांति 14 जनवरी को होगी और उसी दिन दक्षिण भारत में पोंगल उत्सव मनाया जाएगा।
खगोलीय पिण्ड तो ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार चलते नहीं और न उसमें उनके लिये समायोजन की व्यवस्था ही है। कहें तो उन्हें ग्रेगोरियन कैलेण्डर की जानकारी नहीं है, इस कारण सूर्योदय के बाद जब तिथि बदल जाती है, उसके बाद संक्रांति कर रहे हैं! भारतीय पञ्चाङ्ग सूर्योदय के साथ प्रारम्भ हुई घटना को उस दिन में लेते हैं। यदि कोई खगोलीय घटना सूर्योदय के बाद हुई है, जैसे कि तिथि का बदलना जो कि अगले दिन सर्योदय के बाद तक चलेगी, तो उसे अगले दिन में गिना जायेगा। अब की सूर्य 14 जनवरी को सूर्योदय पश्चात 8 बजकर 55 मिनट पर धनु से मकर राशि में प्रवेश करेगा। चूँकि सूर्य का अगले एक महीने तक मकर राशि में रहना मनाना है, इस कारण 14 जनवरी को ही मकर संक्रांति का त्यौहार मना लिया जायेगा, जबकि विधि से इसे अब 15 जनवरी को मनाना चाहिये। कुछ साल पहले तक यही संक्रांति 13 जनवरी को मनाई जाती रही है, जिससे लोहड़ी त्यौहार जुड़ा है।
हम देख सकते हैं कि लोहड़ी 13 जनवरी को चिपकी रह गई, संक्रांति 14 जनवरी के सूर्योदय के बाद हो रही है और कुछ लोग पुरानी विधि मानते हुये 15 जनवरी को संक्रांति उत्सव मनायेंगे। मौसम चक्र में परिवर्तन के साथ हमारा यह वार्षिक सौर त्यौहार भी लगातार आगे खिसक रहा है। सभी को जीवनदायी ऊर्जा देने वाले मकर संक्रांति पर्व की ढेरों शुभकामनायें।
सर्व-प्रथम जिन्हें संस्कृत का ज्ञान नहीं, वही व्यक्ती पृथ्वी धूमती है । कहते फिरते है क्योकी उन्हें आज के विज्ञान ने बताया है वह भी तर्क के द्वारा और मानव उसके कहे-मात्र को विस्वास कर के विज्ञापन करता फिरता है की पृथ्वी धूमती है जबकी संस्कृत में साँप और स्पष्ट रूप में कहा गया है की पृथ्वी नहीं घुमती ।
अगर किसी बंधू को यह बात सही ना लगे तो इस प्रकार समझे पृथ्वी पर तीन प्रकार के दिन-रात होते है प्रथम देवताओं के लिए जो पृथ्वी के नार्थ-साउथ पोल में होता है, दूसरा पितरों के लिए जो नार्थ-वेस्ट के बिच में होता है जिसे आलस्का कहते है और तीसरा पृथ्वी के ईस्ट-वेस्ट में होता है जिसे मनुष्यों के लिए होता है ।
तो आप पृथ्वी को किस प्रकार धुमाकर तीन प्रकार के दिन-रात कर सकते है वही बताने की कृपा करे ?
आर्यभटीय (4.9)
अनुलोम गतिस्नौ स्थस् पश्यति अचलं विलोमगं यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत्सं पश्चिम गानि लङ्कायाम्॥
समृद्ध करती हुई जानकारी,गर्व से भर देती हुई।
यह जानकारी वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित होने के साथ पारंपरिक मानदंडो के साथ है। इसकी यह विशेषता इसे अधिक विश्वसनीय बनाती है। साधुवाद ।