नीलगाय Boselaphus tragocamelus वस्तुत: एक मृग है। इसे निलघोड़, घड़रोज आदि नामों से घोड़े से समानता के आधार पर जाना जाता है। कारण, इसकी भागने की गति और आकार। घोड़ों की भाँति ही ये छलाँग और कुलाँच भी ऊँची भरते हैं।
आज भी उत्तर भारत के गाम गिराम मेंं इसके घड़रोज, घोड़पड़ास(भोजपुरी), बनगदहा (मैथिली), रोजड़ा, रोज(राजस्थान), रोझ (बघेलखण्ड, बुंदेलखण्ड), महे नाम पर्याप्त प्रचलित हैं। इन नामों के ‘रोज’ की संगति संस्कृत ‘रुरू’ से बैठती है। यह जंतु संस्कृत साहित्य में भी वर्णित है। यथा:
रुरून् अपेता अपजयान् दृष्ट्वा शोकं प्रहास्यसि।
(वाल्मीकीय रामायण, 3.73.39/1)
रुरू मनुस्मृति के प्रक्षिप्त अंश में भी है- रौरवेण नव एव तु (3.269)।
इसका एक परवर्ती नाम गोकर्ण, जिसके कान गाय जैसे हों, भी मिलता है। इसके नर नीलाभ होते हैं, आकाश जैसे नहीं, गाढ़ी नीली मसि जैसे।
मुझे पूरी शंका है कि गोकर्ण और नील वर्ण को मिला कर इसे नीलगाय नाम ब्रिटिश लोगों ने दिया। ऐसा १८५७ के पश्चात हिन्दू मुस्लिम फाँक को और चौड़ा करने के लिये किया गया होगा। ब्रिटिश काल से पहले इसका नाम किसी स्रोत में नीलगाय मिले तो बताइये। कतिपय जन इसे जङ्गली गाय भी कहने लगे हैं जोकि ठीक नहीं है। गाय होने की प्राथमिक पहचान है – दूध हेतु पालतू बना पाना या वैसी सम्भावना का होना। घड़रोज में पात्रता होती तो मनुष्य कब का कर चुका होता।
जङ्गली गाय की एक प्रजाति, जिसमें कि ऐसी पात्रता होती थी और जो पालतू बनायी जा सकती थी, अब भारत से लुप्त है किंतु मयान्मार और दक्षिण पूर्व एशिया में मिलती है और पालतू बनायी जा चुकी है। उसे बर्मा बैंटेंग Burma banteng (B. j. birmanicus) के नाम से जाना जाता है।
घड़रोज की शस्य को नष्ट करने की प्रवृत्ति और बढ़ती संख्या किसानों के लिये घातक सिद्ध हुई है। अनेक क्षेत्रों से दलहन और तिलहन की खेती इसके कारण बंद की जा चुकी है। पोषण के लिये शाकाहारी प्रोटीन दालों में मिलता है जिनका उत्पादन अब अल्प होने से मूल्य तो बढ़े ही हैं, लोगों तक पहुँच भी सीमित हुई है।
यही स्थिति सरसो की खेती में भी है। रिफाइण्ड और विभिन्न स्रोतों से प्राप्त मिश्रित तेलों के स्थान पर अब विशेषज्ञ सरसो के तेल के प्रयोग को प्रोत्साहित कर रहे हैं जोकि सामान्य जन को सहज ही उपलब्ध हो जाय यदि सरसो की खेती का क्षेत्रफल बढ़ जाय।
घड़रोज के कारण सरसो की खेती का क्षेत्रफल घटा है और परिणामत: उत्पादन भी। गाय से धार्मिक मान्यता जुड़ी होने के कारण लोग इसे नहीं मारते। लोगों को यह शिक्षित करने की आवश्यकता है कि यह गाय नहीं है। साथ ही घड़रोज की संख्या पर नियंत्रण हेतु इसके वध सम्बन्धित विधिक और नियंत्रक प्रावधानों को सरलीकृत किये जाने की आवश्यकता भी है।
राजस्थान में हमारे क्षेत्र में इसको गाय मानते ही नहीं है हम रोजड़ा कहते हैं रोज यानी पशु नहीं कि गाय
अद्भुत विवरण।
नीलगाय की असलियत और अंग्रेजों की पाशविकता दर्शाने के लिए आपका साधुवाद।