बहुधा ऐसा देखने को मिलता है कि जिन सिद्धान्तों का व्यक्ति गुणगान करते रहते हैं भिन्न परिस्थितोयों में उन्हीं को स्वीकार करने में उन्हें कठिनाई होती है। इस बात का एक सटीक उदाहरण है लोकतान्त्रिक चुनावों के बाद जनमत से चयनित भिन्न मत के जन प्रतिनिधियों को स्वीकार नहीं करना। विगत वर्षों में “मेरा प्रधानमंत्री नहीं”, तथा “मेरा राष्ट्रपति नहीं” जैसे प्रचलन अनेक देशों में देखने को मिले।
व्यक्तित्व के मनोविज्ञान पर हुए अध्ययन इस व्यवहार को समझने में सहायता करते हैं। इसी प्रश्न को इस रूप में देखा जा सकता है कि पराजय के उपरान्त भी उसे स्वीकार ना करने की प्रवृत्ति किन प्रकार के व्यक्तियों में होती है? या किस प्रकार के व्यक्ति अपनी मान्यता से भिन्न परिणामों की वास्तविकता को स्वीकार ना कर एक प्रकार के भ्रम में जीते रहते हैं।
ये उस प्रकार के व्यक्ति होते हैं जो भव्य आत्ममोह (grandiose narcissism) में रहते हैं। इस आत्ममोह की पराकाष्ठा होती है जब व्यक्ति पराजय के उपरान्त भी अपने को विजयी मानता है। संज्ञानात्मक असंगति (cognitive dissonance) के सिद्धान्त से भी इस स्थिति की व्याख्या होती है — अर्थात् व्यक्ति की मिथ्या धारणा और वास्तविकता में भेद होने की स्थिति।
आत्ममोह पर हुए अध्ययनों में पाया गया कि भव्य आत्ममोह से ग्रसित व्यक्ति में अहंकार, आक्रामकता, तथा दूसरों पर प्रभुत्व दिखाने की प्रवृति होती है। जर्नल ऑफ पर्सनालिटी डिसॉर्डर में वर्ष २००५ में छपे एक शोधपत्र के अनुसार ऐसे व्यक्ति स्वयं के आत्म विकास पर भी ध्यान नहीं देते, अपनी दुर्बलताओं को स्वीकार नहीं करते, अपनी पात्रता तथा महत्व को वर्धित कर बताते हैं तथा ऐसे व्यक्तियों की बात पर ध्यान ही नहीं देते जो उन्हें वास्तविकता से परिचित कराए।
रोचक यह भी है कि इनमें से कुछ प्रवृत्तियाँ सुलझे हुए व्यक्ति में गुण के रूप में भी हो सकती हैं जो उन्हें प्रतिस्पर्धात्मक बनाती हैं परन्तु अति हो जाने से विकृत रूप में यही व्यक्ति को अहंकारी बना देते हैं। जिससे उन्हें अपने गुणों, तथा क्षमताओं का ज्ञान नहीं रह जाता और वो मिथ्या भ्रांति में जीने लगते हैं। यही नहीं अपनी धारणा के असत्य होने की स्थिति इन्हें भयकारी प्रतीत होती है क्योंकि स्थिति को यथारूप ना देख ऐसे व्यक्ति इसका एक अर्थ ये भी निकालते हैं कि उनके पास प्रतिस्पर्धा में बने रहने की प्रासंगिकता नहीं रही। वर्ष २०२१ में छपे एक नवीन शोध के अनुसार ऐसे व्यक्ति अपनी दुर्बलता का आत्मावलोकन करने के स्थान पर दूसरों पर दोषारोपण करते हैं तथा दूसरों के दोषों को ढूँढने में लग जाते हैं। कुछ व्यक्तियों का तो नित-प्रतिदिन ही ऐसा करना मुख्य कार्य हो जाता है। संचार क्रांति के माध्यमों में भी यह तो नित्य ही देखने को मिलता है।
संज्ञानात्मक असंगति के सिद्धान्त से भी इस व्यवहार की व्याख्या होती है। मनोविज्ञान में यह सिद्धान्त नया नहीं है। इस सिद्धान्त की उत्पत्ति ही एक ऐसे प्रसंग के अध्ययन से हुई कि किस प्रकार व्यक्ति अपने मन का ना होने की स्थिति में प्रत्यक्ष साक्ष्य की अवहेलना कर वैकल्पिक मनगढ़ंत वर्णनों पर विश्वास करने लगते हैं। ऐसा करने से उन्हें लगता है कि उनकी अब तक की धारणा तथा व्यवहार न्यायोचित प्रतीत होगा। अर्थात् आत्म अवलोकन ना कर भ्रांति में जीना — संज्ञानात्मक असंगति। शनैः शनैः प्रवृति ऐसे हो जाती है कि व्यक्ति उन प्रत्यक्ष सत्य सूचनाओं को भी अस्वीकार कर देते हैं जो उनकी धारणा से भिन्न होते हैं।
अन्य मनोवैज्ञानिक भ्रांतियों की भांति ही यहाँ भी प्रकृति ने मनुष्य में ऐसी प्रवृति सम्भवतः इसलिए निर्मित की जिससे अनिश्चित संसार में भी मनुष्य तनावमुक्त होकर रह सकें। अन्यथा के विषयों से प्रभावित ना होते हुए। पर कालान्तर में इस प्रवृति ने एक विकार का रूप ले लिया। यदि यथार्थ स्वयं के विचारों से मेल ना खाए तो उसे अस्वीकार करने की प्रवृति स्पष्ट रूप से एक मानसिक विकृति ही है जिसमें लिप्त व्यक्ति बहुधा इसे कभी समझ भी नहीं पाता। स्वयं की मानसिक विकृति का संज्ञान ना होना एक प्रमुख कारण है कि इससे ग्रसित व्यक्ति महत्त्वपूर्ण विषयों से इतने पृथक होते जाते हैं कि उनके साथ महत्त्वपूर्ण विषयों पर चर्चा भी अत्यन्त कठिन हो जाती है।
पश्चिमी मनोविज्ञान में आत्म मोह की अवधारणा यूनानी मिथक कथा से आती है जिसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पिछली सदी में ही किया गया। सनातन दर्शन का अवलोकन करें तो इसका विस्तृत रूप और निवारण एक तो योगसूत्र में ही मिलता है। अस्मिता क्लेश के रूप में – दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता।
बुद्धि को ही स्वयं से एकरूप समझ लेना। स्वयं, बुद्धि और अनुभव के लिए प्रयुक्त इन्द्रियों को पृथक-पृथक न देख पाना। योगसूत्र के इस मनोवैज्ञानिक तथ्य विषय पर एक सुन्दर पठनीय आलेख साइकोलोजी टूडे में वर्ष २०१८ में Asmita: An Eastern Perspective on Narcissism Narcissism is as old as the Himalayas शीर्षक से प्रकाशित हुआ
अहंकार इत्यादि विकृतियों तथा मिथ्या भ्रांतियों के परे वस्तु-स्थिति का अवलोकन करने का दर्शन तो सनातन दर्शन के मूल में है ही। संज्ञानात्मक असंगति की विशेषावस्था के लिए तोनित्यानित्यवस्तुविवेक दर्शन ही पर्याप्त है। सचेतन ध्यान (mindfulness) का तो मूल सिद्धान्त ही है – यथार्थ का संज्ञान तथा यथारूप का बिना विरूपण स्वीकृति। पुनः पश्चिमी मनोविज्ञान में इन विकृतियों की पहचान तो है परन्तु समस्या का हल नहीं। सनातन दर्शन में उपयुक्त हल भी मिल जाते हैं।
सनातन दर्शन के यथार्थवाद का अवलोकन करें तो न्याय एवं वैशेषिक दर्शन में प्रमाण का महत्व बड़ी सुन्दरता से वर्णित है। न्याय में तो प्रमाण द्वारा किसी विषय की परीक्षा करना समस्याओं के समाधान का मार्ग ही बताया गया है। जिससे प्रभा अर्थात् यथार्थ अनुभव की उत्पत्ति होती है। जैन दर्शन का स्यादवाद भी यथार्थवाद ही है जो सहिष्णुता एवं विनीतता का मार्ग भी बताता है तथा दूसरों के विचारों को समझने की दृष्टि देता है। ये दर्शन सुन्दर रूप में इन परिस्थितियों को समझने का एक सैद्धान्तिक रूपरेखा ही नहीं प्रदान करते परन्तु भ्रांति रहित समुचित जीवन जीने का मार्ग भी प्रदर्शित करते हैं।