लघु कथा
बुआ का समाचार मिलते ही मैंने फ़ोन मिलाया,“अब उनका स्वास्थ्य कैसा है भाईसाहब?”
“माँ अभी भी वेंटीलेटर पर ही हैं। सोच रहा हूँ कि उन्होंने जीवन भर कितना प्रेम लुटाया है कि सब ओर से फ़ोन आ रहे हैं। चचेरे-ममेरे भाई-बहनें, सभी चिंतित हैं। अब तुम भी इतनी दूर से उनकी कुशल पूछ रहे हो।”
मैं सोचने लगा कि इतनी प्रेममयी बुआ से हमें सदा उपेक्षा ही क्यों मिली? क्या पिता की निर्धनता बुआ के प्रेमभाव पर ग्रहण लगने का कारण थी?
माँ बताती हैं कि विवाहोपरान्त जब वे ससुराल पहुँचीं तो घूँघट हटाते ही बुआ ने कहा,“आय हाय, कैसी अंधेरी रात सी बहू ले आये, बच्चे होंगे तो ठीक उल्टे तवे जैसे।”
यद्यपि आर्थिक रूप से ठीक-ठाक सभी सम्बंधियों के यहाँ उनका आना जाना था, किन्तु मैंने अपनी चेत बुआजी को कभी हमारे घर आते नहीं देखा। मैं ही बचपन में एक बार किसी मंगलकार्य में पिताजी के साथ उनके घर गया था और उनके गौरवर्ण के आभामण्डल और संस्कृत ज्ञान से क्षण भर में ही प्रभावित हो गया था। हम पहुँचे तो वह अपने बेटे को, जिन्हें मैं भाईसाहब कहता था, कुछ खिला रही थीं। पापा को देखकर मुस्कुराईं और भाईसाहब से संस्कृत में बोलने लगीं।
जब घर पहुँच कर मैंने माँ को संस्कृत वाली बात बताई तो उन्हें आश्चर्य हुआ,“जिज्जी को तो संस्कृत से चिढ़ है। कुछ और कहा होगा, तुम्हें सुनने में अवश्य भूल हुई है।
“नहीं माँ, वे कुछ ऐसा मंत्र बोल रही थीं – तभू आ याग हे ताप तप ॐकार …”
माँ ने मुझे उनका कहा धीरे-धीरे दुहराने को कहा। मैंने दो-तीन बार दुहराया तो माँ ने उसे लिखा, ध्यान से देखा, पुन: काटकर ठीक किया। अनेक बार ऐसा करने के पश्चात उन्होंने बुआ के कहे को ठीक से पकड़ लिया और मुझे पढ़ने को कहा। लिखा था – तभू आ याग हैटफ़टाफ़ ओखा।
“हाँ, सम्भवत: यही था।”
“यही था! अब इसे उल्टा पढ़ो तो समझ में आ जायेगा कि बुआ ने कहा क्या था।” माँ सपाट स्वर में कहते हुए रसोई में चली गईं।
उनके लिखे अक्षरों को मैंने उल्टा पढ़ा तो पता चला कि बुआ भाईसाहब से मेरे सामने, मेरे बारे में ही कह रही थीं,“भूत आ गया है, फ़टाफ़ट खाओ।”