भारत के उच्च शिक्षा शोध संस्थानों की प्रतिष्ठा एवं वरीयता अंतर्राष्ट्रीय स्तर की न होने के ढेर सारे कारणों में से प्रमुख एक है – अकादमिक शुचिता का अभाव। निचले स्तर पर छिछ्लापन एवं चौर्य कर्म की प्रचुरता तो है ही, स्तरीय कहे जाने वाले संस्थान भी पीछे नहीं। ‘फ्रॉड’ करने में भी उनका नाम है। वर्षों पहले हिमालय क्षेत्र की वनस्पतियों एवं जीवाश्मों से सम्बंधित एक चर्चित शोध के सम्बंध में लोग वहाँ ले जा कर वनस्पतियों को गहरे धसाने से भी नहीं चूके थे।
अकादमिक शोध पत्रों के प्रकाशन में peer review विशेषज्ञ समीक्षा का बड़ा महत्त्व है। किसी भी पत्र को प्रकाशन से पूर्व सम्बंधित क्षेत्र के विशेषज्ञ गुणवत्ता, नव्यता, मौलिकता (एवं शुचिता भी कि पहले से उपलब्ध को ही अपने नाम न कर लिया हो!) इत्यादि मानकों के आधार पर उसकी समीक्षा करते हैं। उनकी अनुकूल आख्या के पश्चात निर्णय लिया जाता है। अकादमिक प्रतिद्वन्द्विता, समय देने में रुचि एवं वरिष्ठता इत्यादि की जटिलताओं से बचने के लिये बहुधा शोधकर्ताओं को ही समीक्षक चुनने की स्वतंत्रता दे दी जाती है ताकि उनकी सुविधानुसार औपचारिकता पूरी की जा सके परंतु ऐसी स्वतंत्रता देते समय भी शुचिता की पूर्वापेक्षा अनिवार्य होती है।
कुछ दिनों पहले ही एक नये प्रकार की धोखाधड़ी प्रकाश में आयी है जिसके कारण चार अकादमिक पत्रों का प्रकाशन रोक दिया गया। हुआ क्या कि चार शोधपत्रों के लेखकों ने अनुकूल विशेषज्ञ समीक्षा दर्शाने हेतु जाली ई मेल पतों का प्रयोग किया और पकड़े गये। जिन संस्थानों से ये लोग सम्बंधित थे, वे हैं – CSIR – National Institute for Interdisciplinary Science and Technolgy (NIIST) एवं ICAR – Central Tuber Research Institute (CTCRI).
ऐसी घटनायें भारतीय शोध के क्षेत्र में व्याप्त बृहद भ्रष्टाचार, शोषण, गुणवत्ता के अभाव आदि में नये कलुष जोड़ती हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मौलिक एवं सच्चे भारतीय शोधकर्ता इनके कारण उपेक्षित होते हैं, शोषित भी।
इसके साथ ही अकादमिकी से जुड़ा एक सुखद समाचार भी है। Central Institute for Indian Languages (CIIL), मैसूर के तत्वाधान में लुप्त होती भारतीय भाषाओं हेतु भारतवाणी नाम से एक अंतर्जाल आधारित मञ्च प्रकाश में आया है। इस पर 121 भारतीय भाषाओं की सामग्री एवं ऑनलाइन कक्षायें उपलब्ध हैं। अंकीय खोजसक्षम शब्दकोश भी यहाँ उपलब्ध कराये जा रहे हैं। कुछ भाषायें इस प्रकार हैं – अङ्गामी, उड़िया, मो, मुण्डा, खड़िया, कुइ, ओरावन, सौरा।
लुप्तप्राय भारतीय भाषाओं पर सामग्री उपलब्धता से उपेक्षित क्षेत्रों की संस्कृति का परिचय प्रसार तो होगा ही, उनमें मुख्यधारा से जुड़ाव का आत्मविश्वास भी आयेगा। इससे एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण क्षेत्र भी लाभान्वित होगा – वैदिक साहित्य आधारित भारत विद्या का। लुप्त होते शब्दों एवं ऋग्वेद में प्रयुक्त कई प्राचीन शब्दों की संगति भारत की अन्य भाषाओं से होने की बातें विद्वान करते रहे हैं किंतु इस क्षेत्र में कुछ ठोस कार्य न होने से आर्य आक्रमण एवं भारत तोड़क सिद्धांतोंं के प्रवर्तक भाषाओं का आश्रय ले कर मृषा तथा भाषिक एवं जातीय विद्वेष फैलाते रहे हैं। गर्हित उद्देश्य लिये कई विदेशी विद्वानों ने भी इसमें कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है।
ऐसे में यदि ‘भारतवाणी’ मञ्च विस्तारित रूप ले सच्चे एवं वस्तुनिष्ठ शोध का मार्ग प्रशस्त करता है तो यह भारत की एकता के लिये बहुत बड़ी बात होगी।