अर्थ की गति
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये।
जगत: पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ॥
(रघुवंशम् १/१)
महाकवि कालिदास शब्द एवं अर्थ की प्राप्ति के लिए शब्द एवं अर्थ के समान साथ रहने वाले शिव-पार्वती की वंदना करते हैं; क्योंकि उन्हें शब्द एवं अर्थ के सम्बन्ध का अभिज्ञान था। शब्द यदि शिव है, तो अर्थ ही उसकी शक्ति है। निरर्थक शब्द अप्रयुक्त माने जाते हैं, साथ ही अर्थज्ञान से रहित को यास्क ने ठूँठ कहा है।
आगे यास्क कहते हैं कि जैसे बिना ईंधन के अग्नि नहीं जल पाती है, उसी प्रकार अर्थज्ञान के विना शब्दप्रयोग व्यर्थ है –
यद्गृहितमविज्ञातं निगदेनैव शब्द्यते।
अनग्नाविव शुष्कैधो न तज्ज्वलति कर्हिचित्॥
(निरुक्त अध्याय १, पाद ६)
विश्व की किसी भी भाषा में अर्थ की दृष्टि से तीन प्रकार के शब्द होते हैं – एकार्थी, समानार्थी एवं अनेकार्थी। अर्थ स्वयं में अनेकार्थी शब्द है। गत्यर्थक ऋ धातु से निर्मित इस शब्द के अर्थ तात्पर्य, प्रयोजन, उद्देश्य, धन, सम्पत्ति (पुरुषार्थ चतुष्टय— धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) आदि हैं। हम भाषा सम्बन्धित वार्ता कर रहे हैं, अतः तात्पर्य पर ही केंद्रित रहेंगे।
अर्थ-ग्रहण के तत्व
भर्तृहरि ने वाक्यपदीय (२/३१७-१८) में वाक्य-प्रतीति में सहायक तत्व बताते हुए कहा –
संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्य विरोधिता।
अर्थ: प्रकरणं लिङ्गं शब्दास्यान्यस्य- सन्निधि:॥
सामर्थ्यमौचिती देशः कालो व्यक्तिः स्वरादयः।
शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतव:॥
संक्षेप में समझने का प्रयास करते हैं।
- संयोग अर्थात् प्रसिद्ध संबंध। जैसे, सशङ्खचक्रो हरि :। यहाँ शंख व चक्र के संयोग से हरि का अर्थ विष्णु ही होगा, सिंह वा वानर नहीं।
- विप्रयोग अर्थात् प्रसिद्ध सम्बंंध का अभाव। जैसेे, बिना नग की अंगूठी। यहाँ अंगूठी के विप्रयोग के कारण नग का अर्थ पर्वत नहीं लिया जा सकता है।
- साहचर्य अर्थात् साथ रहना। जैसे, राम-लक्ष्मण। यहाँ लक्ष्मण के साहचर्य से राम का अर्थ दाशरथि ही है, जामदग्न्य अथवा वासुदेव नहीं।
- विरोधिता, प्रसिद्ध वैर के कारण भी अर्थ ग्रहण किया जाता है। जैसे, मुष्टिक-नाशक राम। यहाँ मुष्टिक के विरोध के कारण वासुदेव राम अर्थ ग्रहण किया जाएगा।
- अर्थ अर्थात् प्रयोजन। जैसे, ‘मुक्ति के लिए हरिनाम लो’ यहाँ मुक्ति प्रयोजन से हरि का अर्थ विष्णु ही होगा न कि सिंह या वानर।
- प्रकरण अर्थात् वक्ता व श्रोता की बुद्धि में स्थित विषय या प्रसंग। जैसे, राजसभा के दृश्य में ‘जैसी आज्ञा देव!’ सुन कर देव का अर्थ ईश्वर होगा क्या? नहीं, यहाँ तो राजा ही होगा।
- लिङ्ग अर्थात् चिह्न। जैसे, गगन में छाए हैंं घनश्याम। यहाँ गगन में छाए घनश्याम का अर्थ श्रीकृष्ण न हो कर मेघ ही होगा।
- अन्य शब्द की सन्निधि, अनेकार्थी शब्द के साथ एकार्थी शब्द आने पर उसकी निकटता से भी अर्थ ग्रहण किया जाता है। जैसे, जापान में नेताजी का सम्मान हुआ। यहाँ जापान व सम्मान की सन्निधि से नेताजी का अर्थ ‘श्री सुभाषचन्द्र बसु’ ही ग्रहण किया जाएगाा, अन्य नेता नहीं।
- सामर्थ्य अर्थात् कारण। ‘कोकिल मधु से मतवाला है’, इस पंक्ति में कोकिल को मत्त करने की सामर्थ्य अथवा कारण ‘वसन्त’ है; न कि मदिरा अथवा पुष्परस।
- औचिती अथवा औचित्य, इसका तात्पर्य योग्यता है। यथाा, ‘द्विजा: उत्पतन्ति’। उत्पतन्ति= उड़ते हैं। उड़ने की योग्यता पक्षियों की होती है, अत: वही अर्थ ग्रहण किया जाएगा, न कि त्रिवर्ण अथवा दन्त।
- देश अर्थात् स्थान विशेष। जैसे, ‘गण’ का अर्थ ज्योतिष में भिन्न है, तो संगीत में भिन्न। छ्न्दशास्त्र में यगण-मगण आदि है, तो ‘जन-गण-मन’ में समूह सूचक।
- काल, समय की भिन्नता भी अर्थग्रहण में प्रभावी होता है। यथा, चित्रभानु चमक रहा है। चित्रभानु के दो अर्थ होते हैं- सूर्य एवं अग्नि। अत: यह वाक्य दिन में कहा जाए तो सूर्य अर्थ ग्रहण किया जाएगा।
- व्यक्ति, यहाँ व्यक्ति पुल्लिंग, स्त्रीलिंग व नपुंसक लिंग का सूचक है। यथा- मित्र शब्द यदि पुल्लिंग है तो ‘सूर्य’ अर्थ लेंगे एवं नपुंसक लिंग है तो ‘सखा’ अर्थ ग्रहण किया जाएगा।
- स्वर, कण्ठध्वनि अथवा काकू के अंतर से अर्थ भिन्न हो जाएगा। जैसे, ‘अच्छा’ को उच्च, निम्न एवं सामान्य स्वर में बोलने पर अर्थ का अंतर आप स्वयं अनुभव करेंगे।
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दृष्ट्वा गाधिसुतश्श्रीमानिदं वचनमब्रवीत्।
अलं ते घृणया राम पापैषा दुष्टचारिणी॥
(रामायण)
घृणा ऐसा शब्द है जो विपरीत अर्थ रखता है। ऊपर घृणा का प्रयोग करुणा व दया के अर्थ में हुआ है कि हे राम! यह पापिनी दुष्टा तुम्हारी करुणा की पात्र नहीं है, वध करो।
(यही वह प्रेषित्र है जिसने इस लेख की प्रेरणा दी)
यहाँ अर्थ में परिवर्तन दृष्टव्य है। यह परिवर्तन अर्थ विकास कहलाता है। अन्य उदाहरण –
प्राचीन काल में ‘असुर’ शब्द प्राणवान, बलिष्ठ अथवा प्रभावी देवों के लिए प्रयुक्त था। जैसे, सूर्य, वरुण, इन्द्र, रुद्र आदि। अब ऐसा नहीं है। मृग का अर्थ वनवासी चौपाये था। अब केवल हरिण अर्थ है।
यह अर्थ-विकास मुख्यत: ५ प्रकार से होता है।
- अर्थविस्तार – अर्थ का क्षेत्र बढ़ना। जैसे, ‘प्रकृष्टो वीणायाम् इति प्रवीण:’ वीणा वादन में श्रेष्ठ को प्रवीण कहते थे। इसका विस्तार होकर सभी कार्य में निपुण को प्रवीण कहने लगे। तिल के स्नेह को तैल कहते थे, अब मिट्टी का भी तेल होता है।
- अर्थसंकोच – यहाँ अर्थ का क्षेत्र संकुचित हो जाता है। यथा जल में जन्म लेने वाले जलज कहलाते थे किन्तु अब यह केवल कमल के लिए रूढ़ हो गया है। अदिति के पुत्र आदित्य कहे गए, अब केवल सूर्य तक सीमित है।
- अर्थादेश – प्राचीन अर्थ में परिवर्तन होकर जब भिन्न अर्थ देने लगे। जैसे, असुर। दूध दूहने वाली दुहिता, अब पुत्री।
- अर्थोत्कर्ष – निकृष्ट अर्थ छोड़कर उत्कृष्ट अर्थ प्रसिद्ध हो। यथा, ‘साहस’ पहले लूट, डाका, हत्या, परस्त्रीगमन हेतु प्रयुक्त था।
मनुष्यमारणं, चौर्यं,परदाराभिमर्शनम्।
पारुष्यमुभयं चेति साहसं स्याच्चतुर्विधम्॥(बृहस्पतिस्मृति)
वर्तमान में ‘साहसे श्री प्रतिवसति’(मृच्छकटिकम्, अंक ४) जिजीविषा के अर्थ में। इसी प्रकार जीर्ण वस्त्र कर्पट कहलाता था, अब नववस्त्र के लिए प्रयोग किया जाता है।
- अर्थापकर्ष – यह अर्थोत्कर्ष का विलोम है। जैसे, प्रामाणिक अथवा सम्मानित पुरुष ‘अभियुक्त’ कहलाता था। अब सम्भावित अपराधी को कहते हैं।
यह परिवर्तन भौगोलिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व धार्मिक परिवेश में परिवर्तन के कारण होता है। लाक्षणिक अथवा आलंकारिक प्रयोग भी अर्थ में परिवर्तन कर देते हैं। शब्दशक्तियाँ (अभिधा, लक्षणा व व्यञ्जना) भी अर्थ पर प्रभाव डालती हैं।
स्रोत :
शब्दार्थ, वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी कोष से साभार।
शेष, ‘भाषा विज्ञान’ (लेखक – कर्ण सिंह, प्रकाशन वर्ष १९७५ ग्रे.) पर आधारित