कविता, भुवन थापलिया, नेपाल
सूखे खेत
सरण लगे अवरोधक जिनके,
सूने पथरीले व भितऊ टाट के घर।
सड़ते बिजूके काकभगौड़े
सब ओर,
कुछ भी गतिशील नहीं,
सिवाय नाचती रोमशियों के।
दनुआर लोग
जो कभी फूँकते रहते थे प्राण
इन प्रस्थों के ऊपर,
ग्रस लिये गये
अधपके अरबी सपनों
और
नागर गुहा-मुखों द्वारा ।
जहाँ कभी पण्य और पंसार
के थे प्रसार ,
वहाँ बचे केवल अब
भूले स्वप्न
और
मृत पुरनियों के प्रेत।
और कहीं तृण शर्कर की
उन ऊर्मि तरङ्गों में
बसता है मानुष का
शील,
उसका अवसर
व्यग्र इतिहास से विगणन का।